छह दिसंबर, 1992 के सांप्रदायिक दावानल के बाद दो कविताएं लिखी थीं, जो कहीं प्रकाशित नहीं हुईं। आज सत्रह बरस बाद भी मैं वही पीड़ा और आक्रोश महसूस कर रहा हूं, जो उस वक्त इन कविताओं को लिखते समय था। समय कभी कम नहीं करता यादों के जख्म, बल्कि तासीर बढ़ा देता है। सांप्रदायिक हिंसा में इन सत्रह बरसों में मारे गए लोगों के प्रति शोकांजलि के रूप में प्रस्तुत हैं ये कविताएं।
कारसेवक
वादाफरामोश आए हैं
नई मिसालें लाए हैं
बनाने गए थे
ढहाके आए हैं
6 दिसंबर का एक अखबार
घिसी पिटी गजटनुमा सरकारी खबरों और
रात भर की भयावह आशंकाग्रस्त प्रतीक्षा के बाद
सुबह मिला अखबार
देखते ही लगा
इससे तो बेहतर है
वह सरकारी बुलेटिन
जब चौथा खंभा ही करने लगे
हत्यारों की हिमायत
देशभक्तों को सिखाने लगे सबक
करने लगे घृणा का व्यापार
तब ढुलमुल सरकारी खबरें ही देती हैं सुकून
अपराधी-उपद्रवियों को कहा जाए बलिदानी कारसेवक
तो सचमुच ऐसे अखबार को कर देना चाहिए
सिगड़ी के हवाले
एक विरान ढ़ाचे के लिए पिड़ा और आक्रोश किस बात का बन्धु?
ReplyDeleteकभी हजार साल तक जो हिन्दुओं ने जो भोगा उसको महसुस करने की कोशिश की है या हिन्दु इस लायक ही नहीं?
दुनिया रंग रंगीली जो चल जाये वो सबसे आगे
ReplyDeleteजब चौथा खंभा ही करने लगे
ReplyDeleteहत्यारों की हिमायत
देशभक्तों को सिखाने लगे सबक
करने लगे घृणा का व्यापार
sriman ji,
aap ki kavitayein ucch koti ki hai acchi lagi aap ne saty hi likha hai
suman
वादाफरामोश आए हैं
ReplyDeleteनई मिसालें लाए हैं
बनाने गए थे
ढहाके आए हैं
kabhi aisi hi koi kavita TAALEBAANIYON ke liye samarpit kijiye..to koi baat bane...
Afgaanistaan mein na jaane kitni poorani dharohar dhaha di gayi...jara apni kalam us par bhi chalayei to koi baat bane...
apna apna nazariya hai..angrej Sardaar Bhagat Singh ko aaj bhi hatyara aur aatankwaadi maante hain...aap kya maante hain ???
उस ढांचे के ढहने खूब स्यापा करें खून जलाएं
ReplyDeleteमगर २ बूँद आंसूं बोगी में जिन्दा जले इंसानों पर भी तो बहायें ...!!
संजय बंगाणी जी, इस देश में कितने वीरान ढांचे है इसका अपको अंदाज नहीं। आक्रोश और पीड़ा कभी भी सांप्रादायिक मानसिकता नहीं समझ सकती। आप हजार साल महसूस करने की जो बात करते हैं, उसे कभी इस देश के दलितों के नजरिये से देखें, उन्हें तो हिंदुओं ने म्लेच्छों से भी बदतर बना रखा है। उन हिंदुओं की पीड़ा आपको कभी क्यों नहीं सालती। क्या इस देश में हिंदू होने का मतलब सिर्फ सवर्ण होना ही है।
ReplyDelete'अदा' की प्रतिक्रिया पर इतना ही कहना है कि अफगानी तालिबानों पर जो कविता लिखी है वो अभी भी अप्रकाशित है किसी दिन ब्लाग पर भी लगा दूंगा। इसमें एक जगह मैंने लिखा है
ReplyDelete'धर्मांध लोग नष्ट करते जा रहे हैं
मनुष्य की अनमोल विरासत
और कह रहे हैं
हम अपने घर के पत्थर तोड़ रहे हैं'
मेरा मानना है कि सांप्रदायिक व्यक्ति चाहें किसी भी धर्म का हो, वह मनुष्यता का विरोधी होता है और हमारा विरोध इसीलिए होता है, क्योंकि हम मनुष्य विरोधी कोई बात सुनने के लिए बिल्कुल तैयार नहीं हैं। और यह भी पक्की बात है कि हिंदू तालिबानी कहीं से भी मानवीय सौहार्द्र के समर्थक नहीं हैं। इसीलिए उनसे हमारा घोर विरोध है।
एक बात अभी भी समझ नहीं आई कि क्यों बहुत से पढे लिखे समझदार लोग किसी इमारत को ढांचा क्यों कहते हैं। ऐसा लगता है जैसे हाउसिंग बोर्ड बाबार के जमाने में पैदा हो गया था, जिसमें ढांचे भी बनते थे। बाबर की खिलाफत करने वालों को कभी कमर रईस की बाबर पर लिखी किताब भी पढ लेनी चाहिए। लेकिन क्या करें, इन दुष्टों का तो पढने और लिखने से कोई सरोकार ही नहीं है, इनके लिए तो इतिहास का मतलब पी.एन. ओक से ज्यादा कुछ नहीं है।
ReplyDeleteसंप्रेषणीय कविता । हर तरह की कटटरता का विरोध किया जाना चाहिए । चाहे वह किसी भी धर्म की हो ।
ReplyDeleteमेरा ख्याल है... इस देश में रहने वाला हर भारतीय कही न कही पीड़ित ही है ...फिर क्या दलित और क्या सवर्ण ....यह बात पीड़ित और प्रताड़ित के रूप में भी उठाई जा सकती है ...सामाजिक, आर्थिक और राजनितिक मोर्चे पर तथाकथित सवर्ण भी पीड़ित होते ही है ...कोई भी दर्द और उसका एहसास हर इंसान के लिए समान होती है ...दलित और सवर्ण कहलाने भर से उनकी तकलीफें कम ज्यादा नहीं हो सकती ...नहीं हो जाती ....
ReplyDeleteआपके जितना भाषा और साहित्य ज्ञान नहीं है मेरे पास ...मगर यह सवाल तो फिर भी रहेगा ...किसी भी देश में सांप्रदायिक हिंसा ही नहीं किसी भी तरह की हिंसा कभी न्यायोचित नहीं ठहरायी जा सकती ..तो फिर सारी सहानुभूति एक विशेष वर्ग या धर्म से ही क्यों ...प्रगतिशील होने के नाम पर एक विशेष वर्ग को लगातार हाशिये पर तो नहीं रखा जा सकता ...!!
प्रेमचंद जी आपकी कविता अच्छी लगी . लेकिन पहली टिपण्णी में संजय वेगानी द्वारा कही गयी बात बेहद जरुरी ढंग से विचारणीय है .... हमलोग अपने स्वाभिमान के साथ बहुत समझौते करते हैं
ReplyDeleteआपने कविता लिखकर अपना नज़रिया रख दिया है। अब कोई जरूरी नहीं है कि आप सभी टिप्पणियों का जवाब दें! पढने-लिखने की बात करना भी गलत है क्योंकि जो दुष्ट पढ़ते-लिखते हैं वे और ज्यादा दुष्ट हो जाते हैं। समस्या यही है कि मानवीय पीड़ा, जिसका उपचार हो सकता है, का राजनैतिक पीड़ा, जिसका कोई अराजनैतिक उपचार नहीं है, से कोई साम्य नहीं है।
ReplyDeletePreeteesh theek hi kah rahe hain. bhediye har kahin bhar gaye hain. media men bhi inkee bharmaar hai. han, karsevak Ayodhya men kuchh banane kabhi nahin gaye the.
ReplyDeleteप्रेम के दिरया में यह बवाल क्यूँ
ReplyDeleteकबूतरों से पूछते हो सवाल क्यूँ