नाइजीरिया जैसे छोटे से देश को विश्व साहित्य में एकमात्र नोबल पुरस्कार दिलाने का श्रेय महान अश्वेत कवि, नाटककार और उपन्यासकार वोले शोयिंका को जाता है। शोयिंका पहले अश्वेत अफ्रीकी रचनाकार हैं, जिन्हें 1986 में नोबल पुरस्कार मिला। कई बार भारत आ चुके शोयिंका हाल ही में जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में भी आए थे। 13 जुलाई, 1934 को नाइजीरिया की योरूबा जनजाति के एक प्रतिष्ठित परिवार में वोले शोयिंका का जन्म हुआ। इनका परिवार आदिम जनजातीय परंपराओं और मिथकीय ज्ञान को सहेज कर रखने वाला परिवार था। बचपन से ही शोयिंका को अपनी इस पैतृक संपदा को गहराई से जानने-समझने का अवसर मिला, जो आगे चलकर उनके रचनाकर्म का एक विशिष्ट पक्ष बन गया। अश्वेत अफ्रीकी जनजातियों में लोकनाट्य, कला और संगीत की समृद्ध परंपरा रही है, जो भारतीय लोक परंपराओं की भांति लोकजीवन में अभिव्यक्ति का प्रमुख माध्यम है। अभिव्यक्ति की इसी परंपरा ने शोयिंका को विशिष्ट बनाया। यही वजह है कि नाइजीरिया में कालेज में पढ़ाई के दौरान शोयिंका ने भ्रष्टाचार विरोधी और न्यायप्रिय छात्रों का एक संगठन बनाया और जनसंघर्ष की राजनीति में कूद पड़े। 1954 में वे उच्च शिक्षा के लिए इंग्लैंड चले गए। लीड्स विश्वविद्यालय में शिक्षा प्राप्त करते हुए शोयिंका ने यूरोपीय साहित्य का विशद् अध्ययन किया। इसी बीच उन्होंने दो महत्वपूर्ण नाटक लिखे, ‘द स्वैम्प ड्वैलर्स’ और ‘द लायन एण्ड द ज्वैल’। दोनों ही नाटक लंदन में मंचित हुए और खासे मशहूर हुए। इन नाटकों में खुद शोयिंका नाटककार होने के साथ अभिनेता भी रहे।
शोयिंका के जन्म के समय नाइजीरिया एक ब्रिटिश उपनिवेश था। 1960 में वापसी के वक्त आजादी की फिजा में लौटे और अफ्रीकी नाटकों के अध्ययन में जुट गए। नौजवानों के लिए उन्होंने एक नाट्य संस्था का भी गठन किया और रंगमंच के अलावा, रेडियो, टेलीविजन के लिए भी लिखने लगे। वतन की आजादी को लेकर लिखा गया उनका नाटक ‘ए डांस आफ द फोरेस्ट’ बहुत मकबूल हुआ। 1962 में वे इफे विश्वविद्यालय में अंग्रेजी के व्याख्याता नियुक्त हुए और 1965 में लागोस विश्वविद्यालय में वरिष्ठ व्याख्याता के रूप में अध्यापन करने लगे। इसी वर्ष एक नाइजीरियाई प्रांत के चुनावों में सरकार की धांधली को लेकर शोयिंका एक रेडियो स्टेशन पर बंदूक लेकर पहुंचे और विजयी नेता के भाषण की जगह अपनी तीखी प्रतिक्रिया प्रसारित की, जिसकी वजह से सरकार ने उस रेडियो स्टेशन को जब्त कर लिया। उन्हें गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया और दो साल बाद रिहा किया गया। 1967 में गृहयुद्ध के दौरान शोयिंका को तानाशाह सरकार ने फिर से एकांत कारावास में डाल दिया, जहां से उन्हें 1969 में रिहाई मिली। जेल में शोयिंका ने टिश्यू पेपर पर कविताएं लिखीं। अपने जेल अनुभव उन्होंने ‘द मैन डाइड- प्रिजन नोट्स आफ वोले शोयिंका’ पुस्तक में प्रकाशित किए। वे सिर्फ नाइजीरियाई तानाशाही का ही नहीं, दुनिया की तमाम तानाशाह सरकारों का विरोध करते रहे हैं। इसी कारण उन पर समय-समय पर हमले भी होते रहे हैं। जनरल सानी अबाचा ने तो शोयिंका के लिए मौत का फरमान ही जारी कर दिया था। शोयिंका को मोटर साइकिल पर चोरी छिपे देश छोड़के भागना पड़ा। वे अमेरिका और कई देशों में गए और विश्व के नेताओं से मिलकर अपने देश को तानाशाही से मुक्ति दिलाने के लिए विमर्श करते रहे। उनके प्रयासों से ही नाइजीरिया में नागरिक प्रशासन की स्थापना हो सकी। वापसी में जनता ने उनका नायकों की तरह स्वागत किया।
उनकी रचनाओं में 1965 में प्रकाशित उपन्यास ‘द इंटरप्रेटर्स’ अत्यंत महत्वपूर्ण माना जाता है। इस उपन्यास में शोयिंका ने नाइजीरिया के दो शहरों इबाडान और लागोस के क्लबों में मिलने वाले बुद्धिजीवियों का वृतांत लिखा है, जो लगातार इस बात पर अपने-अपने ढंग से विचार करते हैं कि नाइजीरियाई वास्तविकता क्या है? इस जटिल उपन्यास को विश्वसाहित्य में जेम्स जायस और विलियम फाकनर के सृजन के समकक्ष माना जाता है। शोयिंका के नाटकों में अफ्रीकी लोक कला रूपों की प्रचुरता के साथ पश्चिमी व यूरोपीय आधुनिकता का गजब का संगम मिलता है। उनकी कविताओं में आदिम अफ्रीकी लोकविश्वास और मनुष्य के अंतर्संबंधों का बेहद खूबसूरत वर्णन मिलता है। उन्होंने पाश्चात्य साहित्य के अध्ययन से जो दृष्टि प्राप्त की, उसके माध्यम से उन्होंने अपनी योरूब जनजाति के देवताओं को नए रूप में देखते हुए विलक्षण कविताएं लिखीं। दुनिया भर में चल रहे जनसंघर्षों के प्रबल प्रवक्ता वोले शोयिंका ने नेल्सन मंडेला से लेकर आम आदमी तक के लिए सैंकडों कविताएं लिखी हैं, जिसने दुनिया भर के संघर्षरत लोग प्रेरित होते हैं और उनकी रचनाओं के माध्यम से अपने सतत संघर्षों को धार देते हैं। शोयिंका की कविताओं का एक पूरा संग्रह हिंदी के वरिष्ठ कवि वीरेंद्र कुमार बरनवाल ने करीब दो दशक पूर्व किया था, जिसे ज्ञानपीठ ने 'विश्व भारती' शृंखला में प्रकाशित किया था।
हिंदी में उनकी कविताओं का काफी अनुवाद हुआ है। वरिष्ठ कवि वीरेंद्र कुमार बरनवाल ने तो एक पूरा संग्रह ही शोयिंका की कविताओं का अनुवाद कर दिया, जिसे भारतीय ज्ञानपीठ ने ‘विष्व भारती’ शृंखला में दो दषक पहले प्रकाषित किया था। वोले शोयिंका आज भी निरंतर लिख रहे हैं, लेकिन संयोग से उनकी गद्य रचनाएं हिंदी में कम ही प्रकाषित हुई हैं।
यह आलेख संपादित रूप में राजस्थान पत्रिका के रविवारीय संस्करण में 14 मार्च, 2010 को प्रकाशित हुआ।
वोले शोयिंका का परिचय देने के लिए आभार ....
ReplyDeleteकवि की कम से कम एक कविता पढने का हक तो ब्लॉग पाठकों का भी बनता है .. !!
vani ji ki baat se sehmat.
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