Tuesday, 17 February 2009
विदेशी स्वर में ‘जय भीम!’
भारतीय धर्म, संस्कृति, परंपरा, इतिहास और महापुरूषों का जीवन दुनिया भर के लिए आकर्षण का केंद्र रहे हैं। भारत में रूचि रखने वाले विद्वान लेखक-बुद्धिजीवियों की एक समृद्ध परंपरा भी रही है। लेकिन इनके पीछे प्रायः कोई महान विभूति रही है, जिसके कारण विदेशी लोग दीवाने होकर भारतमय हो गये । ऐसे ही एक भारत प्रेमी हैं ब्रिटिश नागरिक टैरी पिलचिक। हम जानते ही हैं कि बौद्ध धर्म के प्रभाव में मुल्क के मुल्क महात्मा बुद्ध के अनुयायी हो गये। हालांकि भारत में बौद्ध मतावलंबियों की संख्या शताब्दियों में घटते-घटते 1950 के आसपास महज पचास हजार रह गई थी। अक्टूबर, 1956 में संविधान निर्माता डा. भीमराव अंबेडकर ने जब मुंबई में एक साथ लाखों लोगों के साथ हिंदू धर्म त्यागकर बौद्ध धर्म अपनाया तो लगा कि जैसे बौद्ध धर्म की घर वापसी हो रही है। डा. अंबेडकर के इस निर्णय से भारत में बौद्ध मतावलंबियों की संख्या में जबर्दस्त इजाफा हुआ और देखते ही देखते भारत में बौद्धों की जनसंख्या साठ लाख से भी ज्यादा हो गई।
टैरी पिलचिक उस अद्भुत ऐतिहासिक घटना के गवाह थे, जब सदियों से हिंदू धर्म की नारकीय जाति व्यवस्था से पीड़ित दलित-शोषित जन एक समतावादी धर्म को अंगीकार करने जा रहे थे। बाबा साहेब अंबेडकर ने जिस भारतीय संविधान की रचना की थी, वह, शताब्दियों पुरानी व्यवस्था का कुचक्र धर्मांतरण की आजादी से लाखों लोगों को मुक्त करने जा रहा था। टैरी पिलचिक इस घटना से दस वर्ष पूर्व ही ईसाई से बौद्ध हो चुके थे। अब उनका नाम भी बदल चुका था और वे धम्माचारी नागबोधि के रूप में बौद्ध धर्म की षिक्षाओं का प्रचार-प्रसार करने में लगे थे। इस प्रक्रिया में उन्होंने दो बार भारत की यात्रा की, जिसका जीवंत दस्तावेज है ‘जय भीम! डिस्पेचेज फ्राम ए पीसफुल रिवोल्यूशन’। बीस साल पहले छपी यह किताब दुनिया भर के उन बौद्ध मतावलंबियों के बीच खासी चर्चित रही है, जो भारत में ही नहीं विदेशों में भी बौद्ध धर्म को वंचितों, शोषितों और पीडितों की एक अंतिम शरण स्थली के रूप में मानते हैं।
इस पुस्तक की खास बात यह है कि इसमें भारत के उन शहरी और ग्रामीण इलाकों की दुर्गम यात्राओं के अनुभवों का जिक्र है, जहां डा. अंबेडकर की प्रेरणा से बौद्ध बने दलित रहते हैं। उनके मुश्किल हालात और बाबा साहेब के प्रति उनकी अगाध श्रद्धा ऐसी है कि उसमें बौद्ध धर्म से अधिक एक नया धर्म दिखाई देता है, जिसका मुख्य उद्घोष ‘नमो बुद्धाय’ के समानांतर ‘जय भीम!’ हो गया है। यहां लोग महात्मा बुद्ध और बाबा साहेब के बीच कोई फर्क नहीं करते, उनके लिए दोनों एक हैं, जिन्होंने उनके जीवन को बेहतरी की ओर ले जाने का मार्ग दिखाया है। टैरी यानी नागबोधि इन निर्धन-वंचित बौद्ध मतावलंबियों के बीच दस वर्ष तक रहकर देखते हैं कि किस प्रकार बौद्ध धर्म और बाबा साहेब की शिक्षाएं एक शांतिपूर्ण ढंग से क्रांतिकारी परिवर्तन को अंजाम दे रही हैं।
यह किताब बाबा साहेब अंबेडकर के उन स्वप्नों को भी दिखाती है, जो भारतीय संविधान ने देश के दलित-गरीब-अल्पसंख्यक समुदायों के उत्थान के लिए दिखाए हैं और लोकतंत्र के माध्यम से आज देश उन्हें पूरा करने को कृतसंकल्प है। बौद्ध धर्म, दलित और बाबा साहेब के कार्यों में रूचि रखने वाले लोगों के लिए एक अनिवार्य और पठनीय पुस्तक है धम्माचारी नागबोधि उर्फ टैरी पिलचिक की यह किताब ‘जय भीम!’।
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aapne bahut achchhi jaankari di ...kitaab padhunga jald hi
ReplyDeleteबहुत जानकारी पूर्ण लेख है।आभार।
ReplyDeleteवाह कितना नई जानकारी परक !
ReplyDeleteprem bhai, yeh bahut acha hai, bodh aur bhim ko lekar up main jo chal raha hai use janna hai to mere blog kukurmutta ke liye click karen http://khurrat.blogspot.com
ReplyDeleteaur apna mob no. is nob par sms karen mera mob kho gaya hain.
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