Sunday 15 February, 2009

कमलेश्वर की आंखों से देखो पाकिस्तान



नवंबर में मुंबई पर हुए आतंकी हमलों के बाद भारत-पाक संबंध एक अजीब तनाव और रस्साकशी के दौर से गुजर रहे हैं। इस माहौल में जब सब तरफ पाकिस्तान को लेकर गुस्सा है, एक लेखक-कलाकार समुदाय ही ऐसा है, जो मुश्किल हालात में भी अपना धैर्य नहीं खोता और ऐसे वक्त में हमें हिंदी के महान लेखक कमलेश्वर की किताब ‘आंखों देखा पाकिस्तान’ की याद आती है। यह किताब कमलेश्वर की पाकिस्तान यात्राओं के संस्मरणों और पाकिस्तान को लेकर लिखे गये विभिन्न पत्रकारी आलेखों का एक शानदार संकलन है, जिसके भीतर से गुजरते हुए एक अलग तरह का भावनात्मक और सांझी सांस्कृतिक विरासत के वारिस होने का अहसास होता है। इस किताब को पढ़ना एक प्रकार से अपने अड़ोस-पड़ोस को नितांत नये ढंग से देखना भी है। और इस देखने की प्रक्रिया में आप पायेंगे कि हम भारतीय हों या पाकिस्तानी, अंततः हम सदियों पुरानी एक दक्षिण एशियाई कौम हैं, जिसकी एक जैसी आबो-हवा है, जहां के मौसम एक हैं, जहां सागर, पहाड़ या जमीन से हमारी सरहदें मिलती हैं और एक होने का अहसास जगाती है।
दरअसल कमलेश्वर की इस किताब से पाकिस्तान को लेकर आम भारतीय में गहरे बैठी वो सारी गलतफहमियां दूर हो जाती हैं, जिसमें पाकिस्तान देश और पाकिस्तानी जनता को पूरी तरह एक मुस्लिम कट्टरपंथी और बंद समाज के तौर पर देखा जाता है। मशहूर लेखक अहमद नदीम कासमी से हुई एक मुलाकात में कमलेश्वर को पाकिस्तानी अवाम की आवाज सुनाई पड़ती है, जब कासमी साहब उनसे कहते हैं, ‘मजहब जो कर सकता था, उसने कर दिखाया, अब मजहबी पहचान से ज्यादा इंसानी पहचान की जरूरत है, जो अदब हमेशा से पैदा करता रहा है।... हमारे यहां तो बस छावनी कल्चर बची है और फौजी ब्यूराक्रेसी। यह अंग्रेजों की देन है। पाकिस्तानी फौज चार बार पाकिस्तान को जीत चुकी है... पर वो बुल्लेशाह, वारिसशाह और नानक के खानदानों को नहीं जीत पाई है... अपने सियासी हिंदू हुक्मरानों से कहिएगा कि वे यह गलती न करें। वे तुलसीदास, मीराबाई, रसखान और अमीर खुसरो के खानदान को नहीं जीत पायेंगे।’
ये बसंत के दिन हैं और पूरे दक्षिण एशिया में इसके अलग-अलग रंग और त्यौहार हैं, लेकिन पाकिस्तानी पंजाब में इसकी अलग ही छटा है। वहां इन दिनों पतंगें उड़ाई जाती हैं, जिसे लेकर कई सालों से कट्टरपंथी हंगामा मचाते रहे हैं लेकिन आम जनता उनकी परवाह किये बिना बसंत का त्यौहार मनाती है और तमाम फतवों के बावजूद लाहौर-मुल्तान में अवाम की इच्छाओं की प्रतीक पतंगें आसमानों में परवाज करती रहती हैं। बकौल कमलेश्वर, ‘आज के पाकिस्तान में बसंतोत्सव एक प्रगतिशील विचार का ही नहीं बल्कि आम जनता के विद्रोह और कट्टरपंथ के प्रतिकार का भी उत्सव बन गया है।... पंजाब का किसान इस्लामी तिथियों और तारीखों के कैलेण्डर के हिसाब से नहीं चलता, वह आज भी भारतीय मौसमों के आधार पर चलता है। पाकिस्तानी किसान आज भी मौसमों को चैत, बैसाख, जेठ, अषाढ़ आदि नामों से जानता और याद करता है।’
इस पुस्तक में पाकिस्तान के यात्रा संस्मरणों के अलावा एक खण्ड में भारत-पाक के बीच फैली कट्टरपंथियों की जमात को लेकर कुछ आलेख हैं, जो हर वक्त माहौल बिगाड़ने का खेल खेलते रहते हैं और कभी संबंधों को सामान्य नहीं होने देना चाहते। किताब में उन हिंदुस्तानी-पाकिस्तानी कैदियों के पत्र भी हैं, जो भारतीय और पाकिस्तानी जेलों में बंद रहे और कमलेश्वर को रिहाई की उम्मीद में खत लिखते रहे। कमलेश्वर ने उन कैदियों की आवाज सुनी और उनकी रिहाई के लिए काफी प्रयास भी किये। किताब के इस खंड से पता चलता है कि सरहद के दोनों तरफ किस प्रकार अफसर शाही हावी है, जो बेगुनाह लोगों को अमानवीयता की हद तक जाकर एक आजाद जिंदगी जीने में बाधक बनती है। भारत-पाक संबंधों को एक वृहद सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य में जानने के लिए एक बार पाकिस्तान को कमलेश्वर की आंखों से जरूर देखना चाहिए।

(यह आलेख १ फरवरी, २००९ को प्रकाशित हुआ।)

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