Monday, 23 February 2009

मेरे दादा पिकासो: मेरीना पिकासो

पाब्लो पिकासो की पोती मरीना पिकासो की किताब 'पिकासो माय ग्रैंड फादर' मुझे कुछ दिन पहले एक किताब मेले में यूँ ही मिल गयी। किताब को पढने के बाद ज़बरदस्त रोमांच का अनुभव हुआ। मुझे लगा इसका अनुवाद किया जाना चाहिए। आनंद भाव से जो अनुवाद किया तो खुदी को बहुत अच्छा लगा। यह पोस्ट अपने अनुभव साझा करने की एक छोटी-सी ख़बर है। मेरे पास इसके कोई कोपी राइट नहीं हैं, लेकिन मैं इसे प्रकाशित कर रहा हूँ।
मैं जानती हूँ कि पिकासो से बचकर मैं कहीं नहीं भाग सकती। मुझे इसमें कभी कामयाबी नहीं मिली। जब सब कुछ दुनिया के सामने आ चुका है, पिकासो मेरा पीछा नहीं छोड़ रहा।
दोपहर का एक बजा है। मैं जिनेवा में हूँ, हमेशा की तरह बहते यातायात में मैं ‘गुस्ताव अडोर’ की ड्राइविंग सीट पर बैठी गाड़ी चला रही हूँ। मैं अपने बच्चों, गेल और फ्लोर को स्कूल लेकर जा रही हूँ। मेरे दांयी तरफ लेक जिनेवा और इसका मशहूर गीजर जेट डियू है। झील, कार और गीजर... अचानक मुझे भयानक दर्द के साथ तीव्र आघात लगता है। मेरी अंगुलियों में भयानक जकड़न हो रही है। मुझे छाती में बहुत तेज जलन के साथ दौरा पड़ता है। मेरा दिल तेजी से धड़क रहा है। मेरा दम घुट रहा है। मैं मरने वाली हूँ। मेरे पास सिर्फ इतना ही समय बचा है कि मैं अपने बच्चों को यह कह सकूँ कि वे स्टीयरिंग व्हील पर मेरा सिर गिरने तक चुपचाप बैठे रहें। मुझे लकवा मार गया है। क्या मैं पागल हो गई हूँ?
मैं सड़क के बीचोंबीच कार रोक देती हूँ। आगे पीछे और साथ चलने वाली कारों के हार्न चीखते हैं और सब मुझे आगे बढ़ने के लिए कहते हैं। मेरे लिए कोई नहीं रुकता, सब चलते जाते हैं। दर्द और भय के आधे घण्टे बाद मैं किसी तरह वापस कार स्टार्ट करती हूँ। सड़क के मुहाने पर कार खड़ी कर पास के गैसोलीन पंप पर खुद को लगभग घसीटते हुए ले जाती हूँ। मुझे किसी को मदद के लिए बुलाना चाहिए। मैं अभी मरना नहीं चाहती। मेरे पीछे मेरे बच्चों का क्या होगा?
‘तुम्हें गहन जांच से गुजरना होगा।’ मेरा चिकित्सक कहता है। इस बिंदु पर मेरे पास खोने के लिए कुछ भी नहीं है। और मैं जांच के लिए तैयार हो जाती हूँ-जांच जो चौदह बरस तक चलने वाली है।
मैंने चौदह साल के ये दिन बेकाबू आंसुओं, रूदन और विस्मृति में बिताये हैं। जब मैं अपने पिछले दिनों को याद करती हूँ तो सिहरन होने लगती है। वो सब चीजे याद आती हैं जिनकी वजह से मेरी जिंदगी बर्बाद हुई। पहले चुपचाप और फिर किसी हथौड़े की तरह अतीत मुझ पर टूट पड़ता है। सब कुछ साफ होने लगता है कि किन चीजों ने एक छोटी बच्ची, किशोरी और युवती को बुरी तरह जिंदा ही चबा डाला। एक बदकिस्मत जिंदगी को ठीकठाक करने के लिए मुझे चैदह बरस विपत्तियों से गुजरना पड़ा।
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परम-चरम को पाने की पिकासो की प्यास के पीछे ताकत हासिल करने की जबर्दस्त इच्छा थी। उनका अदभुत काम इंसानों की बलि मांगता था। उन्होंने उस हरेक shakhs को दूर भगा दिया जो उनके नजदीक गया, वे उसे हताष करते और निगल जाते। मेरे परिवार में से कोई भी सदस्य उस अदभुत महान प्रतिभावान कलाकार के पाष से नहीं बच सका। पिकासो को अपनी हर कलाकृति पर हस्ताक्षर करने के लिए लहू चाहिए था, मेरे पिता का, मेरे भाई का, मेरी मां का, मेरी दादी का और मेरा यानी हम सबका लहू। उन्हें उन सबका खून चाहिए था, जो उन्हें प्यार करते थे। लोग यह सोचते थे कि वे एक इंसान को प्यार करते हैं, जबकि सच्चाई यह है कि वे पिकासो को प्यार करते थे।
मेरे पिता पिकासो की तानाषाही के बंधन में पैदा हुए और इसी से पलायन करते, बचते, निराष होते, बर्बाद होते, अपनी हस्ती को खोते हुए एक दिन मर गये।
मेरा भाई पाब्लितो, मेरे दादा की परपीड़ा और अन्याय का खिलौना, चैबीस बरस की आयु में ब्लीच की प्राणघातक मात्रा पीकर खुदकुषी कर बैठा। मैंने उसे अपने ही खून में लिथड़ा हुआ पाया। उसकी आंतें जल गई थीं, उसका पेट फट गया था, उसका दिल अजीब तरीके से धड़क रहा था। मैंने एंटीबीस के ला फोन्टोन अस्पताल में उसका हाथ आखिरी बार थामा था, जहां वह धीरे धीरे मौत की नींद सो रहा था। इस भयानक कृत्य से वह उन दुखों और खतरों को खत्म करना चाहता था, जो उसके और मेरे रास्ते में आने वाले थे। क्योंकि हम पिकासो के नवजात वारिस थे, जिन पर नकली उम्मीदों का सांप कुण्डली मारे बैठा था।
मेरी दादी ओल्गा का जीवन भी अपमान, कलंक और पलायन के एक अंतहीन सिलसिले के बाद लकवाग्रस्त होकर गुजरा। मेरे दादा एक बार भी उन्हें देखने नहीं आये, जब वो पूरी तरह बिस्तर से ही चिपक गई थीं और बेहद कष्ट से गुजर रही थी। जबकि दादी ने उनके लिए सब कुछ छोड़ दिया था, अपना देष, अपना कैरियर, अपने सपने और अपना स्वाभिमान छोड़कर वो उनके साथ चली आई थीं।
जहां तक मेरी मां की बात है, उसे भी किसी बिल्ले यानी बैज की तरह पिकासो नाम मिला था, एक ऐसा बिल्ला जिसने उसे मानसिक संभ्रम की उच्चतम अवस्था यानी पैरानोइया की मरीज बना दिया था। मां के लिए मेरे पिता से शादी करने का मतलब था पिकासो नाम से षादी करना। भीषण उन्माद के क्षणों में मां यह स्वीकार करने को ही तैयार नहीं होती थी कि दादाजी उन्हें एक वांछित सम्मानपूर्ण जीवन देने के लिए कहीं से भी उत्सुक और तत्पर हैं। कमजोर, खोई खोई और असंतुलित मानस की मां को उस मामूली साप्ताहिक भत्ते से ही हमारा घर चलाना पडता था, जो दादाजी उन्हें अपने बेटे और पोते पोती को अपने नियंत्रण में रखने और गरीबी के मुहाने पर जीने के लिए देते थे।
मैं उम्मीद करती हूँ कि एक दिन मैं इस अतीत के बिना भी जिंदा रह सकूंगी।
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नवंबर, 1956। यह गुरुवार का दिन है और मेरे पिता मेरा हाथ थामे आगे चल रहे हैं। वे चुपचाप हमारे सामने खड़े दरवाजे उस दरवाजे तक चलकर जाते हैं, जो ला कैलीफोर्नी को सुरक्षा देता है, यानी हमारे दादाजी का कैन्स स्थित घर। मेरा भाई पाब्लितो हमारे पीछे चल रहा है, उसने अपने हाथ पीछे बांध रखे हैं। मैं अभी छह साल की हुई हूँ और पाब्लितो सात बरस का है।
मेरे पिता धातु के बने दरवाजे पर घण्टी बजाते हैं। मैं डरी हुई हूँ, हम जब भी यहां आते हैं, मेरे साथ ऐसा ही होता है। हमें पदचाप सुनाई देती है, फिर दरवाजे में चाबी धुमाने की आवाज आती है। ला कैलीफोर्नी का बुजुर्ग इतालवी केयरटेकर अधखुले दरवाजे से नमूदार होता है। वो हमारी तरफ देखकर पिताजी से पूछता है, ‘पाॅल साहब, क्या आपने मुलाकात के लिए समय ले रखा है?’
‘हां’, पिता हकलाते हुए जवाब देते हैं। वे मेरे हाथ से अपना हाथ छूट जाने देते हैं, जिससे मुझे यह नहीं पता चलता कि उनकी हथेली में कितना पसीना है।
‘ठीक है,’ कहते हुए वो जोड़ता है, ‘मैं देखता हूँ कि क्या मालिक मिलना चाहते हैं या नहीं।’
दरवाजा फिर से बंद हो जाता है। बारिष हो रही है। यूक्लेप्टिस के दरख्तों की उस कतार से आती गंध हवा में तैर रही है, जहां हमें मालिक के आदेषों की प्रतीक्षा में खड़ा कर दिया गया है। पिछले षनिवार या गुजरे हुए गुरुवारों की तरह हम इंतजार में खड़े हैं।
दूर एक कुत्ता भौंक रहा है। यह जरूर से लुम्प ही होगा, दादाजी का डैषहुण्ड कुत्ता। वो मुझे और पाब्लितो को पसंद करता है। वो हमें उसे पुचकारने देता है। हम अंतहीन प्रतीक्षा करते हैं। पाब्लितो कुछ तो आराम के लिए और कुछ अपना अकेलापन कम करने के लिए मुझसे और चिपक जाता है। पिताजी अपनी सिगरेट खत्म कर चुके हैं। वे उसे फेंक कर दूसरी सिगरेट जलाते हैं। उनकी अंगुलियों पर निकोटीन के गहरे निषान पड़ गये हैं।
‘तुम लोगों को कार में बैठकर इंतजार करना चाहिए,’ पिताजी धीरे से इस तरह फुसफुसाते हैं, जैसे उन्हें किसी के द्वारा सुन लिए जाने का डर लग रहा हो।
‘नहीं,’ हम दोनों एक साथ कहते हैं, ‘ हम आपके साथ ही रहेंगे।’
हमारे सिरों पर बर्फबारी के कारण चादर सी जम गई है। हमें अपराधबोघ महसूस होता है।
एक बार फिर दरवाजे में चाबी लगने और दरवाजा खुलने की आवाज आती है। बूढ़ा इतालवी प्रकट होता है। उसकी नजरें झुकी हुई हैं। निराष स्वर में वह वही पाठ दोहराता है, जो उसे दोहराने के लिए याद कराया गया है।
‘मालिक आज आपसे नहीं मिल सकते। मैडम जैकेलीन ने आपसे यह बताने के लिए कहा है कि मालिक इस वक्त काम कर रहे हैं।’
द्वारपाल को भी बेवकूफ नहीं बनाया जा सकता। वो षर्मिंदा है।
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कितने गुरुवारों को हमने ला कैलीफोर्नी के किले की तरह सुरक्षित दरवाजे पर ये वाक्य सुने हैं-कि मालिक काम कर रहे हैं-कि मालिक सा रहे हैं-या मालिक इस वक्त घर पर नहीं हैं। कभी कभार जैकेलीन रोक, यानी भविष्य उर्फ समर्पित मैडम पिकासो यह भी कहती है, ‘सूरज अपनी षांति भंग नहीं करना चाहता।’
जब वो दादाजी को ‘सूरज’ नहीं कहती तो ‘महाषय’ या ‘महान मालिक’ कहती है। हम उसके सामने अपनी निराषा और अपमानबोध और पीड़ा कभी नहीं प्रदर्षित करते।
जिस दिन हमारे लिए दरवाजे खुले रहते हैं, हम पिता के पीछे पीछे बजरी वाले रास्ते से अहाता पार करते हुए घर के मुख्य प्रवेष द्वार तक जाते हैं। मैं माला जपने की तरह हर कदम को गिनती हूँ। गिनती में मेरे कदमों की संख्या पूरी साठ आती है, झिझक और अपराधबोध के साठ कदम।
सूर्यदेव के महल में-अलीबाबा की खजाने वाली गुफा में-हर तरफ अव्यवस्था का सम्राज्य है। वहां ईजल्स पर और फर्ष पर पेंटिंग्स के ढेर लगे हुए हैं। चारों ओर मूर्तिषिल्प बिखरे पड़े हैं। टोकरों में बेतरतीबी से अफ्रीकी मुखौटे, कार्डबोर्ड पैकिंग के बक्से, पराने अखबार, काम में नहीं आये कैनवस के चैखटे, टिन के कैन, सिरेमिक टाइल, आरामकुर्सी के पाये, संगीत वाद्य, साइकिल के हत्थे, धातु की चादरों के टुकड़े और ना जाने कई तरह के सामान भरे पड़े हैं। दीवार पर सांडों की लड़ाई के पोस्टर, चित्रों का जखीरा, जैकेलीन का पोर्टेªट और सांडों के सिर टंगे हुए हैं।
इन सब के बीच पैर घसीटकर हम पहुंचते हैं, हमें यहीं उनका इंतजार करना है। हमें महसूस होता है कि हम यहां अवांछित हैं। मेरे पिता खुद को सामान्य करने के लिए व्हिस्की का एक गिलास बनाते हैं और एक ही सांस में गटक जाते हैं। शायद इसी से उनको ताकत मिलती है और साहस भी। पाब्लितो एक कुर्सी पर बैठ जाता है और उस सैनिक का नेतृत्व करने के खेल का बहाना बनाता है, जिसे उसने अभी अपनी जेब से बाहर निकाला है।
‘बिल्कुल भी षोर नहीं करना और किसी चीज को हाथ मत लगाना!’ कमरे में दाखिल होकर जैकलीन चीखती है। ‘सूर्यदेव किसी भी क्षण सीढियों से उतरकर नीचे आ सकते हैं।’
एसमेराल्डा, हमारे दादा की बकरी भी चुपचाप हमारा अनुसरण करती है। वैसे वो अपनी मर्जी से कुछ भी कर सकती है-पूरे घर में उछलकूद कर सकती है, फर्नीचर से अपने सींगों की ताकत जांच सकती है, फर्ष पर बिखरी पड़ी पिकासो की पेंटिंग्स और कैनवस के ढेर पर मींगणियां कर सकती है। एसमेराल्डा अपने घर पर है और हम यहां घुसपैठिये हैं।
हमें ठहाकों और चीखों की गूंज सुनाई देती है। दादाजी नाटकीय अंदाज में गर्जना के साथ किसी नायक की तरह प्रकट होते हैं।
मैं कहती हूँ, ‘दादाजी’, लेकिन हमें इस तरह उन्हें पुकारने की इजाजत नहीं है, ऐसा करने की मनाही है यहां। हमसे अपेक्षा की जाती है कि हम सब लोगों की तरह उन्हें पाब्लो कहकर पुकारें। सीमाएं तोड़ने की जगह यह ‘पाब्लो’ हमें अपरिचय की हद में बांध देता है, इससे हमारे और एक देवता सरीखे अगम्य महान व्यक्ति के बीच एक दूसरी दीवार खड़ी हो जाती है।
‘हैलो, पाब्लो,’ मेरे पिता दादाजी के पास पहुंचकर कहते हैं। ‘क्या आप ठीक तरह से सोये?’
मेरे पिता को भी उन्हें ‘पाब्लो’ ही कहने की इजाजत है।
पाब्लितो और मैं दौडकर दादाजी के पास पहुंचते हैं और उनको अपनी बांहों में घेर लेते हैं। हम बच्चे हैं। हमें दादाजी की जरूरत है।
दादाजी हमारे सिर पर हाथ से थपकियां देते हैं, जैसे कोई घोड़े की गर्दन थपकाता है।
‘तो मेरीना, नया क्या चल रहा है? क्या तुम एक अच्छी लड़की हो? और तुम पाब्लितो, तुम्हारी पढ़ाई कैसी चल रही है।’
ऐसे खाली और खोखले सवाल जिनका जवाब देने की कोई जरुरत नहीं है। हमें पालतू बनाने का एक तरीका, जो उनके मन को आम तौर पर अच्छा लगता है।
दादाजी हमें उस कमरे में ले जाते हैं, जहां वे चित्र बना रहे होते हैं। कोई भी कमरा, जिसे उन्होंने अपने स्टूडियो के लिए चुन लिया है। एक सप्ताह या महीना, किसी नये कमरे का उद्घाटन करने तक वे अपने निष्चित कमरे में ही काम करते हैं। दादाजी अपनी मर्जी, प्रेरणा या मौज के वष अपना स्टूडियो चुनते हैं। यहां हमें किसी चीज की मनाही नहीं है। हमें ब्रष छूने की इजाजत है, उनकी नोटबुक में चित्र बनाने की इजाजत है और अपने चेहरों पर रंग लगाने की भी खुली छूट है। इससे उनको मजा आता है।
‘मैं तुम्हें एक मजेदार चीज बनाकर दिखाता हूँ।’, हंसते हुए दादाजी कहते हैं।
वे अपनी नोटबुक में से एक पन्ना फाड़ते हैं, बहुत तेज गति से इसे कई बार मोड़ते हैं और जादुई ढंग से उनके बलषाली हाथों से एक छोटा सा कुत्ता, कोई फूल या चूजा बनकर सामने आ जाता है।
‘क्या यह तुम्हें पसंद है?’ वे अपनी भर्राई आवाज में पूछते हैं।
पाब्लितो कुछ नहीं कहता जबकि मैं हकलाते हुए कहती हूँ, ‘यह तो बहुत सुंदर है।’
हम इसे अपने साथ घर ले जाना चाहते हैं, लेकिन हमें इसकी इजाजत नहीं है। आखिर यह पिकासो का काम है, उनकी एक नायाब कलाकृति है।
कागज की बनी ये आकृतियां, कार्डबोर्ड या माचिस के डिब्बों से बनी चीजें, ऐसे तमाम भ्रम जो दादाजी ने किसी जादूगर की तरह बनाये, वो सब उस महत्वाकांक्षा का ही एक रूप था, जिसके तहत वे हमें, मुझे अब महसूस होता है, दैत्याकार लगते थे, वे हमें यह जताना चाहते थे और हमारे भीतर तक यह बात भर देना चाहते थे कि वे सर्वषक्तिमान हैं और हम कुछ भी नहीं हैं। उन्हें सिर्फ इतना करना होता था कि वे कोई कागज अपने नाखूनों से फाड़ें, कैंची से कार्डबोर्ड का कोई टुकड़ा काटें या किसी मोड़ पर रंग फेला दें। इसके बाद जो कुछ भी सामने आता, उससे एक हिंसक और काफिर किस्म की तस्वीर उभरती जिससे हमारा जीवन बर्बाद हो जाता।
लेकिन मैं इस बात से भी पूरी तरह संतुष्ट हूँ कि पिकासो को अकेलापन बहुत सताता था और वो वापस बचपन के दिनों में लौटना चाहते थे। हमारे नहीं, बल्कि अपने बचपन में जाना चाहते थे। वे दक्षिणी स्पेन में मालगा में लौटना चाहते थे, जहां वे पेंसिल के एक स्ट्रोक से अपनी चचेरी बहनों मारिया और कोंचा को काल्पनिक प्राणियों के चित्र बनाकर चकित कर दिया करते थे। दर्षक के रूप में मारिया और कोंचा की तरह मैं और पाब्लितो भी पिकासो के लिए एक किस्म के ‘आॅडियंस मैटेरियल’ ही थे, जिन्हें वे अपनी मनमर्जी से बुद्धू बना सकते थे या अपना जादू दिखाकर चकित कर सकते थे। उन्होंने अपने बेटे पाउलो के साथ भी यही बर्ताव किया। पाउलो सीरिज की उनकी पेंटिंग्स-पाउलो आॅन हिज डंकी, पाउलो होल्डिंग ए लैम्ब, पाउलो विद ए स्लाइस आॅव ब्रेड, पाउलो ड्रेस्ड एज ए टोरेरो, पाउलो ड्रेस्ड एज ए हार्लेक्वीन आदि में यह सब देखा जा सकता है। यह उस वक्त की बात है जब मेरे पिता उनकी नजरों में मेरे अयोग्य पिता सिद्ध हुए।
हम जब भी ला कैलीफोर्नी जाते पिता हमेषा हमारे साथ ही रहते, उनकी हिम्मत नहीं होती कि वे जरा भी उन विषेष क्षणों में कोई व्यवधान पैदा करें, जो हम दादाजी के साथ गुजार रहे होते। पिताजी अपनी आंखों में बीमारी के लक्षण लिए, चिंतित मुद्रा में स्टूडियो से रसोई के बीच चक्कर पर चक्कर लगाते रहते। वो खुद के लिए व्हिस्की का एक और गिलास बनाते या रसोई से वाइन का गिलास लेकर चले आते। वो बहुत ज्यादा पी रहे हैं। थोड़ी ही देर में उन्हें दादाजी का समना करना होगा और उनसे हमारे और मां के लिए पैसे मांगने होंगे। पैसे, जो पिताजी के पिकासो पर बकाया हैं। वो शब्द मेरे कानों में गूंजते हैं-‘काम करने के बदले में पैसे।’ वो पिकासो के शाॅफर हैं, जिसे हर सप्ताह पैसा दिया जाना है, एक ऐसा मजदूर-श्रमिक जो सब काम करता है, लेकिन जिसकी अपनी कोई जिंदगी नहीं है, एक ऐसी कठपुतली जिसकी डोर हिलाते हुए पिकासो को आनंद आता है, उनके इषारों पर नाचने वाला लड़का।
‘कहो, पाउलो, तुम्हारे बच्चे तो बिल्कुल भी मजाक नहीं करते। इन्हें खेलने-कूदने की थोड़ी ढील देनी चाहिए।’
हमें अपनी बारी का इंतजार करना चाहिए, बेहतर यही है कि हम सब चीजों को ठीक से हो जाने दें। मेरे पिता और मां की बेहतरी के लिए यही ठीक है कि हम पिकासो के साथ खेलें और उनका मनोरंजन करें।
पिकासो एक कुर्सी पर पड़े एक हैट को उठाते हैं और खूंटी पर टंगे कोट की जेब से टोपी निकालकर दोनों को अपने कंधों पर रखकर किसी टूटी हुई पुतली की तरह उछलने कूदने लग जाते हैं। अनवरत और पूरी ताकत लगाकर वे चीखते जाते है और तालियां बजाते रहते हैं।
‘चलो आओ, आ जाओ’, उनकी आंखों में चमक बढ़ जाती है, ‘आओ जैसा मैं करता हूँ, वैसा ही करो और खुषी में झूम जाओ।’
हम ताली बजाकर उनके विदूषक रूप की प्रषंसा करते हैं। मेरे पिता भी शामिल हो जाते हैं। वे अपने पिता के मुंह के एक कोने में दबी सिगरेट को हटाना चाहते हैं, जिसके धुंए से उनकी आंखों से पानी बहने लगा है।
‘अण्दा, पाब्लो! अण्दा, अण्दा!’ स्पेनिष यानी पिकासो की भाषा में पिकासो की जयजयकार। सर्वषक्तिमान पिता और पुत्र के बचपन के दिनों के बीच का बचा हुआ एक मात्र जुड़ाव।
उत्साह से भरे दादाजी लकड़ी की एक चम्मच और मेज पर से एक तौलिया उठाते हैं, उनकी तलवार और ढाल। आंखों में एक चमकदार और बर्बर दृष्टि व्याप गई है। वे हमारे सामने हमारे पिता और मेरे द्वारा निरंतर ‘ओले’ की लय पर लगातार कई चीजें एक साथ पेष करते जाते हैं-मेनोलेटिनाज, चिक्वेलिनाज, वेरोनिकाज और मेरीपोसाज।
पाब्लितो चुपचाप बैठा कहीं दूर देख रहा है। उसके चेहरे पर मौत जैसा पीलापन छाया हुआ है। मेरी तरह वह भी एक सामान्य परिवार से जुड़ना चाहता है, जिसमें एक जिम्मेदार पिता हो, मृदुभाषी मां हो, प्यार करने वाले एक दादाजी हों। पाब्लितो और मेरी किस्मत में यह सब नहीं लिखा है।
आप खुद की कोई पहचान कैसे बना सकते हैं और कैसे शांति के साथ बैठ सकते हैं, जब आपके दादाजी आपके लिए उपलब्ध पूरे का पूरा स्पेस घेर लेते हैं और आपके पिता उनके सामने सिर्फ दण्डवत होकर बिछे पड़े रहते हैं। और आपकी मां ‘सदी की मुलाकात’ के बाद आप पर सवालों की बौछार कर देती है, जिस मुलाकात के लिए किसी ने उसे बुलाने की जरूरत नहीं समझी।
पूरब से आती हवा बादलों के पीछे भाग रही है और कातर सूरज का प्रकाष कमरे में दिव्य रोषनी पैदा कर रहा है। मेरे पिता कीे अभी भी दादाजी के सामने पैसे का सवाल पेष करने की हिम्मत नहीं हो रही है। उन्हें क्यों परेषान किया जाये? वे आज बहुत ही अच्छे मूड में हैं।
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सन् 1961, दादाजी ने नोत्र-देम-दी-वाई की वादियों में एक फार्महाउस खरीदा। दादाजी ला केलिफोर्नी से दूर जाना चाहते थे, क्योंकि रीयल एस्टेट व्यापारियों ने वहां आवासीय फ्लैट्स की एक पूरी कालोनी बनाकर माहौल का सारा मजा किरकिरा कर दिया था। इन फ्लैट्स के कारण समुद्र और प्राकृतिक दृष्यावली का नजारा ही गुम हो गया था।
नोत्र-देम-दी-वाई एक अद्भुत रूप से सुरक्षित किला था, जिसके चारों तरफ बिजली का करंट दौड़ती रेलिंग और कांटेदार तारबंदी की गई थी। आगंतुकों के बारे में प्रवेष द्वार पर ही एक इंटरकाॅम के माध्यम से पूरी जानकारी ले ली जाती थी और आक्रमण के लिए पूर्ण प्रषिक्षित अफगानी षिकारी कुत्ते रात-दिन पूरे परिसर में घूमते रहते थे। वहां हमारा आना-जाना लगभग अधिकारिक किस्म के मुलाकाती साक्षात्कार-भेंटवार्ताओं जैसा हुआ करता था, जिसमें वहां की कठोर गार्जियन जैकेलीन का समय को लेकर पूरा दखल रहता था, वो इस बात का बहुत खयाल रखती थी कि हम दादाजी का ज्यादा समय नहीं खराब करें।
क्या पिकासो यह जानते थे कि जैकेलीन ने उनके और हमारे बीच कोई दीवार खड़ी कर रखी थी? मुझे डर है कि वे यह जानते थे। खुद दादाजी के पास ही जैकेलीन को ऐसी ताकत देने का अधिकार था, जिसमें वह नेपध्य में रहती थी।
फ्रेंकोइस गिलोट की 1964 में प्रकाषित पुस्तक ‘लाइफ विद पिकासो’ से बुरी तरह आहत और नाराज दादाजी ने उसके बाद क्लाउड व पालोमा ही नहीं उनकी बेटी माया और मेरी थेरेस वाल्टर सेे अनेकानेक कारणों से कभी नहीं मिले। केवल मेरे पिता को ही उस दुर्ग में दाखिल होने की इजाजत थी, और पिताजी चाहते थे कि मैं और भाई पाब्लितो भी दादाजी से मिल सकें, ताकि वे यह जता सकें कि वे हमारा बहुत खयाल रखते हैं। पता नहीं, पिताजी ने कभी क्यों नहीं हमें दादाजी से एक बार भी अपने बिना अकेले मिलने दिया? हम दादाजी को यह बता सकते थे कि हम सिर्फ पिता के पुछल्ले नहीं हैं। हम उन्हें दिल खोलकर अपनी सब बातें बता सकते थे, अपने बचपन के रहस्य उनके साथ बांट सकते थे और शायद तब दादाजी भी ठीक से समझ पाते कि हम उनसे क्या अपेक्षाएं रखते हैं।
हाय रे बदकिस्मती, दादाजी और हमारे बीच लोहे का जो परदा गिरा हुआ था, वो इतना भारी था और हमारे सवालों, हमारी इच्छाओं और हमारी यातनाओं से हमेषा के लिए बेखबर और बंद था। ला कैलीफोर्नी की रोषनियां कहां गुम हो गईं मेरे मौला? नोत्र-देम-दी-वाई में सब कुछ धुंधला-धुंधला और निराषाजनक था। किसी जनाजे में आये हुए लोगों जैसे साइप्रस के शोकाकुल दरख्त, भयानक रूप से गमजदा जैतून के पेड़, एक अपराजेय किस्म का वातावरण और इंटरकाॅम की किसी भीमकाय दैत्य की तरह गूंजती आवाज, ये सब मिल कर अजीब सी सिहरन पैदा करते थे।
छठे दषक के आखिरी वर्षों में नोत्र-देम-दी-वाई में एक बार फिर जाना हुआ। हमारे पिता ने हम भाई-बहन को कैन्स और वैलाॅरिस के कहीं बीच से अपने साथ लिया था। ‘जल्दी से अंदर आ जाओ,’ अपनी कार की खिड़की के शीषे उतारते हुए उन्होंने कहा, ‘हमें देर हो रही है।’ दादाजी के दिव्य दर्षनों के लिए देरी, जिसके लिए उन्होंने बड़ी कृपा करके अपने बेटे और पोते-पोती को थोड़ा-सा वक्त दिया है। नोत्र-देम-दी-वाई का दरवाजा किसी एकांतवास की तरह बंद था। मेरे पिता घंटी बजाते हैं, पहले दो छोटी घंटी, फिर एक बड़ी घंटी। हमें इंटरकाॅम पर जैकेलीन की आवाज सुनाई पड़ती है, ‘कौन है?’
वे जानती है कि ये हमारे पिताजी हैं और इनके साथ हम भी हैं। सिर्फ पिताजी ही इस तरह अपने आने का संकेत देने के लिए इस दरवाजे पर घंटी बजा सकते हैं। वो हमें हमारे भीतर दाखिल होने से पहले ही यह साफ जता देना चाहती है कि हम इस दुर्ग में अवांछित हैं। वो हमें चिढ़ाना चाहती है। पिकासो सिर्फ और सिर्फ उस अकेली के ही हैं। किसी को भी उस जाल से छेड़छाड़ करने या उसके पार जाने की इजाजत नहीं है, जो उसने अपने मालिक के इर्दगिर्द बुन रखा है।
‘कौन है?’ वह अपना सवाल दोहराती जाती है, उसे जवाब चाहिए। ‘मैं पाउलो हूं।’ बिजली का ताला आक्रमण की मुद्रा में खुलता है। निर्दयी ढंग से हमें दुत्कारने की मुद्रा में तुरंत ही अफगानी षिकारी कुत्ते दांत दिखाते हुए हम पर गुर्राने लगते हैं। हम जिस अंधकार भरे इलाके में दाखिल होने जा रहे हैं वहां के सुरक्षा प्रहरी हैं ये भयानक खूंखार कुत्ते, जो लगातार चैकन्ने रहकर हमारे पीछे-पीछे चले आ रहे हैं।
बिना जल्दी मचाये हम चुपचाप साइप्रस के दरख्तों के साये में चले जा रहे हैं। जैकेलीन घर के दरवाजे पर हमारा इंतजार कर रही है। उसने काले कपड़े पहन रखे हैं। उसकी कमर पर और चर्बी चढ़ गई है और उसका चेहरा उतरा हुआ है। ‘मालिक छोटे ड्राइंग रूम में बैठे हैं। वो अभी बस एक झपकी लेने ही जा रहे थे।’ उसने पिताजी से यह कहा, इसका मतलब ज्यादा देर मत लगाना।
एक आराम कुर्सी पर बैठे दादाजी हमारा स्वागत करते हैं। उनके सामने एक प्याले से भाप निकल रही है और उसी के पास एक फ्लास्क रखा है, जिसमें कोई तरल पदार्थ है, जो जैकेलीन ने उन्हें पीने के लिए दिया है। पिताजी ने हमें रास्ते में बताया था कि दादाजी कुछ समय से बीमार हैं और वे खुद अपने स्वास्थ्य को लेकर चिंतित हैं। सच्चाई यह है और सब जानते हैं कि वे बीमार नहीं हैं और न कभी रहे। उनका डाॅक्टर, जो मातिस (चित्रकार) का भी डाॅक्टर था, कभी-कभार सिर्फ हाजिरी पूरी करने आता है, क्योंकि वो जानता है कि उसके रोगी की पीड़ाएं उसकी बढती उम्र के कारण हैं। हालांकि पिकासो को एक चीज जरूर सांत्वना देती है और वो यह कि उनके आसपास के सारे दोस्त आज की तारीख में मृत्यु का ग्रास बन चुके हैं, लेकिन वो खुद जिंदा बचे हुए हैं।
दादाजी अमर हैं। यह मैं और पाब्लितो ही जानते हैं। वे दुनिया के सबसे ताकतवर इंसान हैं। उनके पास तमाम किस्म की षक्तियां हैं, वो कभी नहीं मर सकते।... हम शर्माते हुए उनके पास जाते हैं। वे हाल ही में पहनना षुरु किये चष्मे के पीछे से झांकती अपनी चमकदार आंखों से हमें देखते हुए बमुष्किल मुस्कुरा पाते हैं। ‘तो स्कूल कैसा चल रहा है?’ दादाजी पाब्लितो से पूछते हैं। और फिर विचार कर पूछते हैं, ‘और तुम्हारी मां कैसी है मेरीना?’ हम सिर्फ सिर हिला पाते हैं, इन सवालों के हमारे पास क्या जवाब होंगे? वे बिना हमारी तरफ देखे हमसे पूछते हैं, ‘ क्या तुम लोग इस बार छुट्टियों में कहीं जा रहे हो?’
‘नहीं।’ दबी आवाज में पाब्लितो कहता है। वे अनिष्चय में कहते हैं, ‘अच्छा, बहुत अच्छे।’ उन्हें हमारी छुट्टियों की या हमारी पढ़ाई की क्या चिंता है? वो तो सिवाय खुद के और किसी चीज में रूचि नहीं लेते।... जैकेलीन एक छाया की तरह कमरे में आती है। वो मेरे पिता के पास आती है और उनके कान में कुछ फुसफुसाती है। पिताजी सिर हिलाते हैं और हमसे मुखातिब होकर कहते हैं, ‘मेरीना, पाब्लितो। अब चलने का वक्त हो गया, अब दादाजी के आराम का वक्त है, तुम लोगों ने उनको बहुत थका दिया है, वो अब आराम चाहते हैं।’ हम भी उनसे थक चुके हैं, क्योंकि उन्होंने हम पर एक सैकण्ड के लिए भी ध्यान नहीं दिया।
दिव्य दर्षनों का समय समाप्त हुआ। हम जैकेलीन के पीछे-पीछे वापस निकलते हैं। वो दरवाजे की सीढियों पर खड़ी होकर हमे यूं हाथ हिलाती है जैसे हमसे नाराजगी का रिष्ता निभा रही हा और फिर तुरंत भीतर चली जाती है। वो भीतर जाते हुए चिल्लाती है, ‘मैं आ रही हूं मालिक मैं आ रही हूं।’ वो अपने मालिक से एक सैकण्ड के लिए भी दूर रहना नहीं सहन कर सकती। दादाजी के बिना वो एक जलबिन मछली की तरह है।
मैं इस बदनसीबी में कुछ नहीं कर सकती। मैं इस किस्म की हिंसा, दूसरों की कमजोरियों और मेंरे साथ पाब्लितो के जीवन पर किसी के नियंत्रण से आजादी चाहती हूं। मुझे इस परिवार से मुक्ति चाहिए। मैं भाई से कहती हूं, ‘पाब्लितो हमें कुछ करना चाहिए।’ भाई कहता है, ‘क्यों? किस लिए? हम कभी अलग नहीं हो सकते। हम पिकासो परिवार के लोग हैं बहना।’ संक्षेप में हमारी नियति है यातना से गुजरना। मैंने तय कर लिया है कि अब मैं और यातना नहीं सहन करूंगी। अब मैं मुक्त होना चाहती हूं और अपनी मंजिल खुद तय करना चाहती हूं।
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मेरे दादाजी ने कभी भी अपने निकटतम लोगों के भविष्य के बारे में सोचना बन्द नहीं किया था। वो सिर्फ एक ही चीज को लेकर ज्यादा सोचते थे, सिर्फ चित्र और चित्रों से मिलने वाली पीड़ा और खुषी। जैसे ही उन्होंने इस पर मास्टरी कर ली, वो किसी भी कला फार्मूले को स्वीकार या अस्वीकार कर देते थे। जैसे ही वेे अपने रंगों भरे ब्रष के माध्यम से रंगों की अंतर्निहित भावनाओं को अभिव्यक्त करने के लिए रंग फेलाते तो इस प्रक्रिया में वे उन लोगों के प्रति भी निर्मम हो उठते जो उन पर ताना कसते या आरोप लगाते।
दादाजी बच्चों को मासूमियत के कारण और स्त्रियों को यौन भावनाओं की वजह से बहुत प्रेम करते थे। वे अपने चित्रों में स्त्रियों के प्रति अपनी चरम भावनाओं को पूरी मुखरता से अभिव्यक्त करते थे। उन्हें स्त्रियां मृत्युदूत लगती थीं। अंधेरे के शहंषाह की तरह वे उन पर रात के अंधेरे में अपने स्टूडियो में काम करते थे। स्त्रियां उनके निषाने पर थीं और वे उनके लिए ग्रीक मिथक चरित्र के विषाल वृषभ के सिर वाले दैत्य थे। उनके लिए सब कुछ इस कला संग्राम में ही निहित था। किसी की कोई वकत नहीं थी, फिर वो चाहे जीवित या मृत दोस्त हों या रिष्तेदार या बच्चे-नाती-पोते। उनकी कला के सामने सबको बलिदान होना ही था।
वो पिकासो थे। एक महान प्रतिभावान कलाकार।
महान प्रतिभा किसी पर दया नहीं दिखाती, क्योंकि उसका गौरव और उसकी महिमा इसी पर निर्भर करती है।
रिवरहैड बुक्स द्वारा प्रकाषित पुस्तक ‘पिकासो माइ ग्राण्डफादर’ से साभार।
परिचय: मेरीना पिकासो
वियतनाम में अनेक दानदाता संस्थाओं की संस्थापक मेरीना पिकासो विषेष रूप से निराश्रित और निर्धन बच्चों की सहायता के लिए काम करती हंै। उनके पांच बच्चे हैं, जिनमें से तीन वियतनामी बच्चे गोद लिए हुए हैं। वे दक्षिणी फ्रांस के उस विला में रहती हैं, जो उन्हें अपने दादा की विरासत में मिला था।

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