जैसलमेर एक ऐसा ऐतिहासिक शहर है, जिसका इतिहास और स्थापत्य सदा से ही रचनाकारों को आकर्षित करता आया है। यहां की रूठी रानी को लेकर मुंशी प्रेमचंद ने अपनी प्रसिद्ध कहानी लिखी। आचार्य चतुरसेन ने ‘राजकुमारी रत्नावली की कहानी’ लिखी तो हरिकृष्ण प्रेमी ने ‘मित्र’ नाटक लिखा। महान फिल्मकार-साहित्यकार सत्यजित राय ने जैसलमेर को केंद्र में रखकर ‘सोनार किला’ उपन्यास लिखा। इसी नगर के बाशिंदे और राजस्थान के अत्यंत महत्वपूर्ण कथाकार ओमप्रकाश भाटिया ने पांच वर्ष के गहन शोध एवं अनुसंधान के बाद सन् 2002 में ‘दीवान सालम सिंह’ उपन्यास लिखा, जो दुर्भाग्य से हिंदी साह्रित्य जगत में लगभग उपेक्षित और अलक्षित ही रहा। इतिहास को गल्प में ढालना बेहद चुनौतीपूर्ण होता है और इसमें सबसे बड़ी चुनौती यह होती है कि लेखक अपने समय के परिप्रेक्ष्य में इतिहास को किस प्रकार देखता है। क्या इतिहास के एक विशेष कालखण्ड से पाठक को आज भी कुछ नया मिलता है? अथवा सिर्फ इतिहास की एक झलक ही देखने को मिलती है? कहना न होगा कि ओमप्रकाश भाटिया का उपन्यास इन सवालों के मुकम्मिल जवाब भी देता है और उनसे टकराते हुए आज के जालियों और झरोखों से इतिहास को एक युगीन दृष्टि से देखता है।
इतिहास में कई अवसरों पर देखा गया है कि राजा से महत्वपूर्ण उसके दरबारी या मंत्री अथवा कोई और सामान्य व्यक्ति भी हो जाते हैं। जैसलमेर के इतिहास में भी दीवान सालमसिंह अपने राजा से कहीं अधिक महत्वपूर्ण चरित्र रहा है। वह राज्य का ऐसा दीवान था, जिसने राजा न होते हुए भी सत्ता का निरंकुश इस्तेमाल किया और अपने हाथ में सत्ता रखने के लिए आजीवन तमाम किस्म के षड़यंत्र रचे। लेकिन सालमसिंह ने ग्यारह बरस की उम्र में देखा था कि उसके पिता दीवान स्वरूप सिंह का दिन दहाड़े जैसलमेर के दरबार में युवराज रायसिंह ने सर कलम कर दिया था। बालक मन पर यह दृश्य इस तरह अंकित हो गया कि इसकी परिणति आगे चलकर हिंसक, विलासी और षड़यंत्रकारी दीवान सालमसिंह में हुई। दीवान सालमसिंह का काल सन् 1773 से 1824 के मध्य रहा और यह काल भारतीय इतिहास में राजाओं की आपसी लड़ाई और सामंतशाही के पतन का आरंभिक काल भी है। इसी काल में भारत के विभिन्न राजा ईस्ट इंडिया कंपनी से समझौते कर अंग्रेजों की गुलामी स्वीकार कर रहे थे। उस समय के राजपूताना में मराठों के आक्रमण हो रहे थे और इन हमलों से बचने का एकमात्र उपाय अंग्रेजों से संधि करना ही रह गया था। ऐसे समय में ही दीवान सालमसिंह जैसे चरित्र राजा से अधिक महत्वपूर्ण हो जाते हैं और सत्ता पर अपनी पकड़ स्थापित कर लेते हैं।
दीवान सालमसिंह को जैसलमेर की परंपरा के अनुसार विरासत में दीवानी मिली और उसने अपने पिता की मृत्यु का प्रतिशोध लेते हुए उसने पहले एक-एक कर पूरे राजपरिवार को खत्म किया और नाम मात्र के राजपरिवार के बहाने जैसलमेर की संपूर्ण राजसत्ता पर अपना दबदबा कायम किया। दीवान सालमसिंह एक ऐसा ऐतिहासिक चरित्र है, जिसमें तत्कालीन राजशाही और सामंती शासन के तमाम दुर्गुणों को एक साथ देखा जा सकता है। उसे सिर्फ अपने पिता की हत्या के प्रतिशोध से ही शांति नहीं मिलती, बल्कि वह तो पूरी सत्ता अपने हाथ में लेकर अपनी मनमर्जी से राज चलाता है। उसे जहां कहीं कोई सुंदर स्त्री, युवती या बालिका भी दिख जाये तो वह हर कीमत पर उसे हासिल करना चाहता है। इसके लिए वह उस परंपरा को भी बदलवा देता है, जिसमें एक माहेश्वरी जाति का दीवान एक से अधिक विवाह नहीं कर सकता। ताकत और पैसे के जोर पर सब कुछ बदला जा सकता है और दीवान सालमसिंह यही करता है। ओम प्रकाश भाटिया के इस उपन्यास से ही हमें पहली बार एक कथा के रूप में यह जानकारी मिलती है कि कैसे जैलमेर का ऐतिहासिक कुलधरा नामक गांव एक ही रात में खाली हो गया था।
दरअसल हुआ यह था कि दीवान सालमसिंह को पालीवाल ब्राह्मणों की एक किशोरी बेहद भा गई थी और वह उससे शादी करने पर आमादा था। पालीवालों ने पचास बरस के दीवान से चौदह बरस की लड़की का विवाह करने से इन्कार कर दिया। इससे क्रुद्ध दीवान ने पूरी पालीवाल बिरादरी पर पांच सौ रूपये प्रति घर 'कर' लगा दिया। पालीवालों को जैसलमेर राज्य की तरफ से पांच सौ बरस से यह छूट मिली हुई थी कि उनसे कभी कर या लगान नहीं लिया जायेगा। दीवान के फैसले से नाराज पालीवालों ने दीवान के आगे घुटने टेकने से मना कर दिया और एक सामूहिक फैसला लिया कि एक वे एक रात में गांव खाली कर देंगे और फिर कभी लौटकर जैसलमेर राज्य की सीमा में नहीं आयेंगे। ऐसे ही एक पालीवाल परिवार का एक वंशज सन् 2005 में मुझे कराची में मिला था, जिसने बताया था कि उनका परिवार कई पीढ़ियों पहले जैसलमेर के किसी गांव से यहां आ गया था और वापस जैसलमेर की तरफ लौटकर न जाने के प्रण के कारण विभाजन के बाद भी वहीं रह गया। ओम प्रकाश भाटिया का उपन्यास निश्चित रूप से इतिहास नहीं, इतिहास का साहित्यिक प्रतिफलन है। लेकिन इसमें ऐतिहासिक तथ्यों, किंवदंतियों और लोक गीतों के साथ लोक कथाओं का भी भरपूर इस्तेमाल किया गया है, जिससे उपन्यास की घटनाओं को एक किस्म की विश्वसनीयता मिलती है और तथ्यों की पुष्टि होती है। आज भी जैसलमेर में खड़ी सालमसिंह की हवेली उसकी चरम विलासिता का जीता जागता प्रमाण प्रस्तुत करती है। आजीवन दूसरों के लिए षड़यंत्र रचने वाले दीवान सालमसिंह का अंत उसी की कामुकता की शिकार सातवीं पत्नी के हाथों जहर दिये जाने से होता है।
Sunday, 15 February 2009
झरोखों से झांकता इतिहास
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Interesting and nice story..
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