Sunday, 3 May 2009

राम की हत्या



हिन्दी और राजस्थानी के महान कथाकार यादवेन्द्र शर्मा ‘चन्द्र’ निर्विवादित रूप से रांगेय राघव के बाद प्रदेश के राष्ट्रीय स्तर पर पहचाने जाने वाले विरल साहित्यमकारों में से थे. उनकी सैंकडों कहानियां पाठकों के दिलोदिमाग में पैठी हुई हैं. 15 अगस्त, 1932 को बीकानेर में जन्मे ‘चन्द्र’ जी का एक माह पहले ही निधन हुआ है. उनकी सवा सौ से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हैं, जिनमें कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक, संस्मरण और बाल साहित्य भी शामिल है. ‘चन्द्र’ जी को दर्जनों सम्माान और पुरस्कारों से नवाजा गया। वे राजस्थासन के संभवतः अकेले मसिजीवी रचनाकार थे, जिन्होंने सिर्फ लेखनी के बल पर ही पूरा जीवन जिया. उनके साहित्य में राजस्थान का लोकजीवन, यहां की सांस्कृकति परंपराएं और कठोर जीवन संघर्ष में मुब्तिला आम आदमी के साथ, खास तौर पर संघर्षशील महिलाएं भी दिखाई देती हैं.


उनके विशद कथा साहित्य में ‘राम की हत्या‘ एक ऐसी कहानी है, जो आज भी बहुत कुछ सोचने को मजबूर करती है और आज के माहौल में बहुत ही प्रासंगिक भी नजर आती है। रामलीला में राम का चरित्र निभाने वाले कलाकार मंगल की हत्या कर दी गई है और लोगों की भीड उसकी लाश को घेरे खडी है। लोग लाश पर भिनभिनाने वाली मक्खियों से बात का सिरा शुरू करते हैं। पास में एक सफेद बालों वाला बुजुर्ग खडा है. एक युवक उससे कहता है कि उस्ताद तुम्हारे राम की हत्या हो गई है. बुजुर्ग के चेहरे पर कोई भाव नहीं आते. रावण की भूमिका निभाने वाला कलाकार भीड को हटाने के लिए सबसे कहता है कि घर जाओ यहां क्यों भीड लगा रखी है. पुलिस आती है और फिर अस्पताल से लेकर श्मशान तक का एक लंबा सिलसिला चलता है. बुजुर्ग उस्ताद को याद आता है कि कल रात कैसे राम ‘सीते सीते’ चिल्लाता हुआ दर्शकों में राम-सीता के प्रेम और विरह की भावनाएं जगा रहा था. उसे बीस बरस पहले की एक घटना याद आ जाती है, जिस वक्त वह खुद राम की भूमिका निभाया करता था.


किसी गांव में उनकी मण्डली जमी हुई थी और एक सेठ ने उन्हें भोजन के लिए अपनी हवेली में बुलवाया था। खाने से पहले ही एक व्यक्ति आकर उसे यानी ‘राम’ को भीतर बुलाकर ले गया। वहां एक कोठरी में एक अनिंद्य सुंदरी उसकी प्रतीक्षा कर रही थी। यह सेठ की विधवा बेटी थी, जो रोज रामलीला में गुप्त नाम से राम को एक रूपये के नोटों की माला पहनाती थी. वह बाल विधवा उस वक्त के राम यानी उस्तोद नर्मदाप्रसाद को सीधे-सीधे प्रणय निवेदन करती है. उस्ताद स्पष्ट रूप से इन्कार कर देता है, क्योंकि उसके लिए गुरू हनुमान महाराज की दी हुई शिक्षा के अनुसार राम का चरित्र निभाने के लिए राम जैसा आचरण भी करना चाहिए. उसे रामलीला की यह नौकरी भी बडी मुश्किलों से गुरू की अथक सेवा के बाद मिली थी, वह नौकरी और चरित्र दोनों को नहीं छोडना चाहता था. युवती उस्ताद को बहुत प्रलोभन देती है, सोने की जंजीर, नौकरी और बहुत कुछ देने का वादा करती है. वह उसे राम होने के कारण उस पर दया करने के लिए भावनात्मक रूप से भी उकसाती है. पहले वह उस्ताद का हाथ पकडती है, फिर वासना के मारे उससे लिपट जाती है, उस्ताद नहीं मानता. वह उस कामासक्त युवती से कहता है कि वह पहले से ही शादीशुदा है और पराई नार को छूना उसके लिए पाप समान है. लडकी गुस्सा हो जाती है और उस्ताद किसी तरह वहां से बाहर निकल आता है. उस दिन उसे सेठ का स्वादिष्ट भोजन भी जहर लगता है.


श्मशान में रामलीला मण्डली के सब लोग चीख पुकार मचा रहे हैं, कामेडियन तक भयानक रूदन कर रहा है, लेकिन उस्ताद गुमसुम-चुपचाप बैठे हैं। उन्हें याद आता है कि उस बाल विधवा युवती के सामने भी अपना धर्म और ईमान नहीं छोडा और राम की मर्यादा को बरकरार रखा। उस्तांद को एक और स्त्री याद आती है जो उसे रोज एक सेर दूध भेजती थी और एक दिन उससे मिलने आई। उसने भी उस्ताद से प्रणय निवेदन किया था, जिसे उस्ताद ने बडी सहजता से अस्वीिकार कर दिया था। वह स्त्री भी युवती की तरह ही गुस्से से भर गई थी। उस्ताद को पता था कि इस राम की हत्या् शूर्पणखा के भाई मेघनाद ने की है। मण्डली के लोग पूछते हैं कि राम का चरित्र निभाने वाले मंगल की मौत का क्या उस्ताभ्द को कोई गम नहीं है? उस्ताद कहते हैं कि मंगल की मौत से ज्यादा गम इस बात का है कि उसे अपनी करनी का दण्डं मिला है। तुम सब लोग अपने कर्तव्य और धर्म की राह से भटक गए हो। उस्ताद बताते हैं कि मंगल ने किस तरह ‘राम’ की मर्यादा पहले ही दिन भंग कर दी थी। वह सीता की बजाय उस युवती के लिए विलाप करता था, जो उसकी तरफ प्यार भरी निगाहों से देखती थी। मंगल ने दिन में उस लडकी के साथ रास रचाना शुरू कर दिया और लडकी ने शूर्पणखा की भूमिका ले ली. उस लडकी की नाक कट गई और उसके भाई को पता चल गया. ‘राम’ बने मंगल ने उस लडकी से उपहार में सोने का नेकलैस भी ले लिया और उस्ताद के पूछने पर साफ इन्का’र भी कर गया. पेशे और चरित्र के प्रति इस किस्म् की बेइमानी का नतीजा यही होना था. ‘


चन्द्र’ जी की यह कहानी आज के घोर अर्थवादी, अनैतिक और निर्लज्ज समय में इसलिए अधिक प्रासंगिक है, क्यों कि आज चारों तरफ देखिए, अनैतिकता का महारास दिखाई देता है। रामलीला जैसे धार्मिक महत्व के आयोजन-प्रयोजन भी कहीं न कहीं पेशे के प्रति बेइमानी और लोगों का इस तरफ से ध्यान हटने के कारण अपना महत्व खोते जा रहे हैं. उस्ताद के रूप में हमें इस कहानी में एक ऐसा आदर्श चरित्र मिलता है जो तमाम मुश्किलों के बीच भी अपनी कला और नैतिकता को बचाने के लिए प्रतिबद्ध है. वासना में डूबी स्त्रियों के माध्यम से ‘चन्द्र ’ जी उन प्रलोभनों की तरफ इशारा करते हैं जो प्रतिबद्ध और ईमानदार लोगों को पथ से विचलित करने के लिए समाज में हर तरफ बिखरे पडे हैं. ‘चन्द्र’ जी इस कहानी में रामायण के पात्रों का प्रयोग करते हुए बहुत गहरा व्यंग्य करते हैं और धार्मिक प्रतीकों के प्रयोग से कहानी को त्रेता से कलियुग तक ले आते हैं. अपने समय को इस प्रकार देखना और व्याख्यायित करना ‘चन्द्र‘ जी की बहुत बडी खूबी थी, जिसके लिए उन्हें सदैव याद किया जाएगा.


कहानी अंश


‘मुझे छोड दीजिए। मैं आपके हाथ जोडता हूं। मैं राम हूं। हनुमान महाराज ने कहा था कि बेटा राम का पार्ट मांग रहे हो, उसे करने के लिए उस जैसी महान आत्मा भी चाहिए। उस जैसी मर्यादा भी चाहिए। जब तक तुममें अपने पेशे प्रति पवित्रता नहीं होगी, तब तक तुम मंच पर वह राम लग ही नहीं सकते, जो जन-जन के घट में बसा हुआ है।’ लेकिन बूली वासना में डूबी थी। वह उससे लिपट गई। वह आवेश में बडबडा रही थी, ‘मेरी पीर को जानो राम। मैं आपको बहुत चाहती हूं।’


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मंगल ‘राम’ की मर्यादा भूल गया... वह दिन के उजाले में विलास के फूल खिलाने लगा। यह राम, जो मयार्दा पुरूषोत्तम कहलाता है, ने मर्यादा के जिस्म पर लगे सलमों-सितारों को तोडना शुरू कर दिया। शूर्पणखा की नाक कट गई। मंगल ने राम की मर्यादा भंग की। वह अपने पेशे प्रति ईमानदार नहीं रहा। जिस पेशे ने उसके पेट की आग बुझाई, यश दिया, मान-सम्माान दिया, उस पेशे के धर्म को भूलकर वह मर्यादाविहीन हो गया।


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जयपुर से प्रकाशित दैनिक नवज्योति अख़बार में शुरू किया गए नए स्तम्भ 'एक कहानी' का आरम्भ आज इस कहानी से हुआ है, जिसमें राजस्थान के हिन्दी-राजस्थानी कथाकारों की एक प्रतिनिधि कहानी का सार संक्षेप और महत्त्व रेखांकित करने का विनम्र प्रयास किया जाएगा।























6 comments:

  1. बहुत सुंदर पोस्ट, बहुत प्रासंगिक।
    क्या इस मूल कहानी को नेट पर नहीं लाया जा सकता?

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  2. mool kahanee ko padne ki echchha balwatee hamaaree bhi hui hai....

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  3. आलेख अतिसुन्दर है. श्री यादवेन्द्र शर्मा 'चन्द्र' को हार्दिक श्रदांजलि. साहित्य समाज का दर्पण होता है एवं सृजनशील साहित्यकार समाज का निर्माता. धन्य है तुलसी जिसने राम चरित मानस में मर्यादा पुरषोतम राम के साथ साथ अन्य पात्रो के चरित्रों के माध्यम से रीतिकालीन युग के श्रंगार एवं वासना में लिप्त समाज को नेतिकता की डोर में ऐसा बाँधा की उनके राम व् सीता के चरित्र पर लांछन लगाने की हिम्मत कोई न कर सका. श्री चन्द्र जी की कहानी में भी पथ भ्रष्ट राम के पात्र निभाने वाले मंगल के मरने का सफ़ेद बालों वाले उस्ताद को कोई अफ़सोस नहीं चूँकि उसने राम की मर्यादा तोडी जिसका उसे दंड मिला. क्या महात्मा गाँधी ने कभी यह कल्पना की होगी की उनके प्रयासों से स्थापित राम राज्य में राज करने वाले कुर्सी बचाने की खातीर सांसदों की खरीद फरोक्त में संसद तक में नोटों की गड्डिया फेंकी जायेगी , कुर्सी बचाने के लिए हर प्रकार के हथकंडे जायज ठहराए जायेगे एवं कुर्सी पाने के लिये सार्वजनिक मंच से सामने वाले विरोधिओं को आपस में एक दुसरे का साला बहनोई कहने में कोई संकोच नहीं करेगा. अपराधिक प्रष्टभूमि वाले बाहुबली अपने धनबल से संसद या विधान सभा को सुशोभित कर मंत्री पद प्राप्त कर जनता को नेतिकता का पाठ पढावें गे. इसमें गलती हम जैसे लोगों की भी है. हम ऐसे लोगों का संगठित रूप से विरोध कर उनका मार्ग नहीं अवरुद्ध करते तब तक तो यह सब होता रहेगा. नयी नयी विचारोतेजक प्रस्तुति के लिये हार्दिक बधाई.

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  4. yaadavender ji ko hardik badhai apka bhi abhar itani sunder kahanee se roobaru karvane ke liye

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  5. प्रेम जी, इस पोस्ट के लिए बधाई।

    समाज को दिशा देने का कार्य बुद्धिजीवियों और राष्ट्र नेताओं का होता है, तुलसी और यादवेन्द्रजी आज के समय में सबसे निरीह हो गये हैं। आज का तथाकथित प्रगतिशील नैतिकता व मर्यादा पर ही प्रश्नचिह्न लगा रहा है, हम जैसे अधकचरे लोग उनके साथ भी खडे होते हैं जो यह कहता है कि सीता रावण से प्रेम करती थी, सीता के लक्ष्मण के साथ अवैध सम्बन्ध थे, और हम ही यादवेन्द्र जी की कहानी का गुणगान भी करते हैं। हम ही उस व्यक्ति के व्याख्यान भी आयोजित करते हैं जो कहता है कि भगतसिंह तो आतंककारी था, हम ही दूसरे के साथ लग कर कहते हैं कि हमको भगतसिंह से प्रेरणा लेनी चाहिये। मेरी चिंता यह है कि आखिर हम क्या हैं? जिस नैतिकता और मर्यादा की चिंता यादवेन्द्र जी अपनी कहानी में करते हैं उसका आदर्शतम व्याख्यान धर्म शास्त्रों में किया गया है, लेकिन आज का प्रगतिशील उन धर्म शास्त्रों की क्या व्याख्या कर रहा यह आप बेहतर जानते हैं।
    मेरी शुभकामनायें हैं कि इस सब के बावजूद आप ऐसी पोस्ट देते रहिये।

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  6. इस अत्यधिक प्रासंगिक पोस्ट के लिए आपका जितना आभार व्यक्त किया जाए कम

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