राजस्थान में उर्दू और हिंदी के जिन रचनाकारों को राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचाना जाता है, उनमें हबीब कैफी का नाम बडे़ आदर के साथ लिया जाता है। कविता] कहानी] उपन्यास और लगभग सभी विधाओं में लिखने वाले हबीब कैफी की रचनाओं में राजस्थान का लोकजीवन, यहां के बाशिंदों का संघर्षपूर्ण जीवन, लोकसंस्कृति और मनुष्य का नैतिक चरित्र बहुत खूबसूरती के साथ उजागर होता है। उनकी अनेक कहानियों का तमिल, तेलुगु, गुजराती, पंजाबी और राजस्थानी में अनुवाद हुआ है। उनकी कई कहानियों का नाट्य रूपांतरण और सफल मंचन भी हो चुका है। रांगेय राघव पुरस्कार से सम्मानित हबीब कैफी की डेढ़ सौ से अधिक प्रकाशित कहानियों में ‘ढाणी में ‘प्रकाश’ का खासा महत्व है। यह कहानी राजस्थान में अकाल के दिनों में निर्धन ग्रामीण समुदाय के कठोर जीवन और उनके नैतिक बल को गहराई से रेखांकित करती है। यह उस मरुप्रदेश की कथा है जहां लोग अभावों के बावजूद ‘अतिथि देवो भव’ की परंपरा को निभाते हैं। मनुष्य के भीतर किस प्रकार संदेह जन्म लेते हैं और वह खुद को समर्थ होते हुए भी किस कदर असुरक्षित और भयभीत महसूस करता है, इसे बहुत ही रचनात्मक कौशल के साथ हबीब कैफी ने प्रस्तुत किया है।
जोधपुर शहर का एक फौजी शकूर छट्टियों में घर आता है। आने के अगले दिन ही यह सोचकर कि चार-पांच घण्टों में या ज्यादा से ज्यादा सांझ ढलने तक वह वापस लौट आएगा, अपने फौजी दोस्त दयाल के गांव बालेसर के लिए बस में बैठकर चल देता है। बालेसर के बस स्टैण्ड पर उतरकर वह आसपास का एक जायजा लेता है। गांव का एक अधेड़ शकूर को सवालिया निगाहों से देखता है तो वह पूछता है कि दयाल का घर कहां है, वह आदमी उससे दयाल के बारे में विस्तार से बताने को कहता है। इस पर शकूर अपना परिचय देते हुए बताता है कि उसे दयालदास फौजी के घर जाना है। वह शख्स कहता है कि बालेसर गांव तो फौजियों का ही गांव है। वह शकूर से दयालदास की वल्दियत और जाति पूछता है। शकूर बताता है दयालदास वल्द हरिदास मेघवाल। वह आदमी बताता है कि मेघवालों के घर गांव से बाहर हैं और वह उसे इशारे से एक दिशा में जाने के लिए कहता है। शकूर उसका शुक्रिया अदा कर उस दिशा में चल देता है।
गांव से बाहर निकल खेतों को पार कर हनुमान मंदिर के पास चबूतरे पर बैठे ग्रामीणों से वह फिर दयाल का घर पूछता है। दयाल के बारे में पहले की तरह विस्तार से पूछताछ के बाद उसे कहा जाता है कि दो रेतीले टीले पार करने के बाद दांये मुड़ने पर किसी से भी पूछ लेना दयाल का घर मिल जाएगा। शकूर उसी दिशा में चल देता है, लेकिन बहुत देर चलने के बावजूद उसे कोई टीला नहीं दिखाई देता। थकान महसूस होने से पहले ही शकूर को एक टीला दिखाई देता है। वह उस टीले के शिखर पर पहुंचता है तो उसे एक और टीला सामने दिखाई देता है। बड़ी मुश्किल से वह दूसरे टीले तक पहुंचता है तो उसे दूर-दूर तक सिर्फ रेत ही रेत दिखाई देती है। वक्त बीत रहा है और उसे लगता है कि अभी शाम हो जाएगी और फिर रात। उसकी जेब में एक बड़ी रकम है जो उसे दयाल के घर पहुंचानी है। हताश होकर शकूर ध्यान से देखता है तो उसे एक झोंपड़ी दिखाई देती है। वह उसी तरफ चल देता है। उसे लगता है कि शायद यही दयाल का घर हो। वहां संभव है पक्की सड़क दूर ना हो, जिससे वह वक्त पर वापस लौट सके। थकान, लुट जाने का खयाल, मार दिये जाने का खौफ और आस की किरण एक झोंपड़ी।
भूखा-प्यासा वह वहां पहुंचता है तो उसकी हालत का अंदाज लगाकर सत्तर वर्षीय बुढ़िया उसके लिए मिट्टी के बर्तन में पीने के लिए पानी देती है। पानी पीने के बाद वह देखता है कि बर्तन के पैंदे में गंदला पानी बचा था। लेकिन फौजी होने की वजह से वह सहज हो गया। उसने डूबते सूरज की रोशनी में देखा दुबली-पतली सत्तर पार की बुढिया का घाघरा और ओढ़नी दोनों ही तार-तार हो चुके थे। एक छरहरे बदन का किशोरवय लड़का चूल्हे में आग जलाने के लिए फूंक मार रहा है। बुढ़िया और लड़के की आंखों में सवाल देखकर शकूर उन्हें बताता है कि उसे अपने फौजी दोस्त दयालदास मेघवाल के घर उसकी अमानत पहुंचाने जाना है। बुढ़िया कहती है कि रात होने वाली है, सुबह चले जाना। शकूर देखता है कि सूरज क्षितिज से जा चुका है और अंधेरा बढ़ रहा है। उसे ठण्ड के मारे कंपकंपी हो रही है। वह इसका अंदाज लगाए बिना एक स्वेटर में रेगिस्तान में चला आया। सिकुड़कर वह झोला-सी चारपाई पर बैठ गया।
बुढ़िया ने लड़के को ज्वार की एक सुर्ख रोटी दी, लड़के ने उसे कसैला धुंआ देती आग में गर्म किया और पुरानी एल्यूमिनियम की प्लेट में रखकर शकूर को पेश की। शकूर ने रोटी लगभग झपटी, लेकिन उसके फौजी ने भूख पर काबू पा बुढ़िया और लड़के का खयाल किया। उसे लगा कि इस घर में भयानक अभाव है। शकूर की खामोशी देख बुढ़िया ने ठण्डी होती जा रही रोटी पर प्याज, थोड़ा-सा नमक और मोटी पिसी लाल मिर्च रख दी। शकूर ने रोटी का एक टुकड़ा तोड़कर बाकी बुढिया को वापस कर दी। बुढिया के इन्कार के बावजूद उसने रोटी वापस नहीं ली। स्वाद में अजीब रोटी को उसका फौजी गले से नीचे उतार ही गया। वही गंदला पानी फिर पीकर उसने देखा रोटी के उस टुकड़े को वे दोनों मिलकर खा रहे हैं।
मैले, चीकट, बदबूदार और फटे कंबल में वह खाट पर झूलता रहा। बुढ़िया एक कोने में गठरी बन दुबकी पड़ी थी और लड़का लीर-लीर रजाई में चूल्हे के पास। ठण्डी हवा में सीटियां बज रही थीं। एकाएक खटका हुआ तो उसे लगा लड़के की नीयत में खोट पैदा हो गया है। भूख और गरीबी कुछ भी करा सकती है। उसे लगा लड़का उसे मारकर यहीं रेत में गाड़ देगा और उसके पास की रकम हथिया लेगा। शकूर को अपने फौजी होने का खयाल आया तो लगा वह इससे निपट लेगा। सावधानी के लिए उसने जागना बेहतर समझा। आसमान में अचानक लड़ाकू जहाज मंडराने लगे थे। रेडियम डायल वाली उसकी घड़ी में ग्यारह बजे थे।
शकूर ने सपना देखा कई खूबसूरत औरतें हंसती, कहकहे लगाती उस पर बर्फ के गोले फेंके जा रही थीं। उसके खींसे में हीरे-जवाहरात थे और ये औरतें उसे अपने हुस्न के जादू में कैद कर लूट लेना चाहती थीं। एक ने कोशिश की तो उसने खुद को बचा लिया। ख्वाब टूटा तो वह सहज हुआ। रात के दो बजे थे। उसने देखा दूर से एक आकृति आ रही थी। चोर, डाकू या प्रेत, वह आकृति आकर चूल्हे के पास लेट गई। यह वही किशोर था।
जैसे-तैसे रात कटी। सुबह वह उठा तो उसे टूटे कप में बिना दूध की गुड़ की चाय पीने को मिली। शकूर ने विदा लेनी चाही तो बुढ़िया ने कहा, खातिर तो आपकी क्या करते। उसने बताया कि लगातार अकाल का यह चौथा साल है जिसमें पहले जानवर, फिर बुढ़िया का पति और बेटे के मां-बाप सब समा गये। शकूर उनकी मेहमाननवाजी के लिए शुक्रिया अदा करता है कि इस एक रात को मैं अपनी जिंदगी में कभी नहीं भूलूंगा। बुढ़िया कहती है, ‘परकास आपको पहले दयालदास के घर और फिर डामर वाली सड़क तक पहुंचा देगा।‘ शकूर एक बार फिर देखता है कि सत्तर पार की बुढ़िया की आंखों में अभी भी उम्मीद रोशनी है। इन हालात में भी वह टूटी नहीं, एक मुकम्मिल हिंदुस्तानी औरत की तरह। अनायास ही उसने हाथ जोड़ दिये तो बुढिया की मुस्कान में आशीर्वाद बरसा, जो उसने दिल से महसूस किया।
रास्ते में उसने लड़के से बातचीत की। पढ़ाई के बारे में लड़के ने बताया कि अकाल से पहले वह पाठशाला जाता था, चौथी कक्षा तक पढ़ा है वह। शकूर ने पूछा कि क्या वह अकाल राहत शिविर में काम पर जाता है, पता चला कि अफसर पहले अपनी जाति वालों को रखते हैं। शुरू में उसे कम उम्र कहकर टरका दिया, बाद में काम पर रखा तो साठ रूपये रोज पर दस्तखत कराते और बीस के हिसाब से देते। शकूर ने उससे पूछा कि उसने विरोध क्यों नहीं किया। लड़का चुप रहा, शकूर को उसके घर की हालत याद आ गई। चलते-चलते अचानक लड़के ने कहा, ‘दयाले का घर आ गया...वो सामने।‘
दयाल के घर शकूर को दयाल के पिता मिले, मां ने घूंघट की ओट से देखा। बच्चे खेलने में मगन थे। उसे लगा कि दयाल की बीवी पति का हालचाल जानने के लिए जरुर आसपास ही होगी। इस घर में ढोर-डांगर और मुर्गे-मुर्गियां भी काफी थे। पिता को उसने दयाल की भेजी रकम और चिट्ठी सौंपकर खुद को हल्का महसूस किया। चाय-नाश्ता हुआ, लेकिन प्रकाश घर के बाहर ही कहीं रुका हुआ था। जब शकूर दयाल के घर से बाहर निकला तो प्रकाश उसके साथ हो लिया।
रास्ते में शकूर ने प्रकाश से दयाल के घर के अंदर ना आने और चाय-नाश्ता नहीं करने का कारण पूछा तो प्रकाश मौन रहा। चलते-चलते जब डामर की पक्की सड़क दिखाई दी तो प्रकाश ने कहा, ‘’यहां से आपको शहर जाने वाली बस मिल जाएगी, मुझे आज्ञा दीजिए।‘
‘तुमने बड़ी तकलीफ की... शकूर ने कहा तो लड़का हाथ जोड़े खड़ा रहा। शकूर ने जेब से कुछ रुपये निकाल कर देने चाहे तो लड़का ‘धन्यवाद कह कर अपनी राह चल दिया।
कहानी अंश
सर्दी में भी शिद्दत की प्यास का अहसास, थकन से चूर, अमानत की शक्ल में जेब में मोटी रकम, लुट जाने का खौफ़, सुनसान में मार दिये जाने का भय और आस की किरण की शक्ल में बुलंदी पर वो झोंपड़ी। रेत में धंसते जूतों के बावजूद शकूर बढ़ रहा था, बढ़ा जा रहा था।
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ठण्डी हो चली लाल ज्वार की मोटी रोटी के टुकड़े को जल्दी से भकोस लेने की गरज से शकूर ने इस दाढ़ तले दबाया तो यकबारगी उसे ठहर जाना पड़ा। अधपिसी ज्वार, घास, किरकिरी, धुंए का कसैलापन और आंच की कमी के कारण कच्चापन। फिर भी एक फौजी और मेहमान के नाते वह रोटी के इस नायाब टुकड़े को नेमत समझ कर थोड़ा-थोड़ा कर गले से नीचे उतार ही गया।
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लेखक-परिचय
जन्म: 10 जुलाई, 1945
कृतियां: छह उपन्यास- अनायक, सफिया, रानी साहिबा, गमना, अंदर बाहर, प्रताड़ित।
दो कहानी संग्रह- बत्तीसवीं तारीख़, पराजित विजेता।
पुरस्कार: उपन्यास‘’अनायक’ पर राजस्थान साहित्य अकादमी का रांगेय राघव पुरस्कार।
उपन्यास -‘’सफिया’ पर राजस्थान उर्दू अकादमी का तौसीफनामा पुरस्कार।
जोधपुर शहर का एक फौजी शकूर छट्टियों में घर आता है। आने के अगले दिन ही यह सोचकर कि चार-पांच घण्टों में या ज्यादा से ज्यादा सांझ ढलने तक वह वापस लौट आएगा, अपने फौजी दोस्त दयाल के गांव बालेसर के लिए बस में बैठकर चल देता है। बालेसर के बस स्टैण्ड पर उतरकर वह आसपास का एक जायजा लेता है। गांव का एक अधेड़ शकूर को सवालिया निगाहों से देखता है तो वह पूछता है कि दयाल का घर कहां है, वह आदमी उससे दयाल के बारे में विस्तार से बताने को कहता है। इस पर शकूर अपना परिचय देते हुए बताता है कि उसे दयालदास फौजी के घर जाना है। वह शख्स कहता है कि बालेसर गांव तो फौजियों का ही गांव है। वह शकूर से दयालदास की वल्दियत और जाति पूछता है। शकूर बताता है दयालदास वल्द हरिदास मेघवाल। वह आदमी बताता है कि मेघवालों के घर गांव से बाहर हैं और वह उसे इशारे से एक दिशा में जाने के लिए कहता है। शकूर उसका शुक्रिया अदा कर उस दिशा में चल देता है।
गांव से बाहर निकल खेतों को पार कर हनुमान मंदिर के पास चबूतरे पर बैठे ग्रामीणों से वह फिर दयाल का घर पूछता है। दयाल के बारे में पहले की तरह विस्तार से पूछताछ के बाद उसे कहा जाता है कि दो रेतीले टीले पार करने के बाद दांये मुड़ने पर किसी से भी पूछ लेना दयाल का घर मिल जाएगा। शकूर उसी दिशा में चल देता है, लेकिन बहुत देर चलने के बावजूद उसे कोई टीला नहीं दिखाई देता। थकान महसूस होने से पहले ही शकूर को एक टीला दिखाई देता है। वह उस टीले के शिखर पर पहुंचता है तो उसे एक और टीला सामने दिखाई देता है। बड़ी मुश्किल से वह दूसरे टीले तक पहुंचता है तो उसे दूर-दूर तक सिर्फ रेत ही रेत दिखाई देती है। वक्त बीत रहा है और उसे लगता है कि अभी शाम हो जाएगी और फिर रात। उसकी जेब में एक बड़ी रकम है जो उसे दयाल के घर पहुंचानी है। हताश होकर शकूर ध्यान से देखता है तो उसे एक झोंपड़ी दिखाई देती है। वह उसी तरफ चल देता है। उसे लगता है कि शायद यही दयाल का घर हो। वहां संभव है पक्की सड़क दूर ना हो, जिससे वह वक्त पर वापस लौट सके। थकान, लुट जाने का खयाल, मार दिये जाने का खौफ और आस की किरण एक झोंपड़ी।
भूखा-प्यासा वह वहां पहुंचता है तो उसकी हालत का अंदाज लगाकर सत्तर वर्षीय बुढ़िया उसके लिए मिट्टी के बर्तन में पीने के लिए पानी देती है। पानी पीने के बाद वह देखता है कि बर्तन के पैंदे में गंदला पानी बचा था। लेकिन फौजी होने की वजह से वह सहज हो गया। उसने डूबते सूरज की रोशनी में देखा दुबली-पतली सत्तर पार की बुढिया का घाघरा और ओढ़नी दोनों ही तार-तार हो चुके थे। एक छरहरे बदन का किशोरवय लड़का चूल्हे में आग जलाने के लिए फूंक मार रहा है। बुढ़िया और लड़के की आंखों में सवाल देखकर शकूर उन्हें बताता है कि उसे अपने फौजी दोस्त दयालदास मेघवाल के घर उसकी अमानत पहुंचाने जाना है। बुढ़िया कहती है कि रात होने वाली है, सुबह चले जाना। शकूर देखता है कि सूरज क्षितिज से जा चुका है और अंधेरा बढ़ रहा है। उसे ठण्ड के मारे कंपकंपी हो रही है। वह इसका अंदाज लगाए बिना एक स्वेटर में रेगिस्तान में चला आया। सिकुड़कर वह झोला-सी चारपाई पर बैठ गया।
बुढ़िया ने लड़के को ज्वार की एक सुर्ख रोटी दी, लड़के ने उसे कसैला धुंआ देती आग में गर्म किया और पुरानी एल्यूमिनियम की प्लेट में रखकर शकूर को पेश की। शकूर ने रोटी लगभग झपटी, लेकिन उसके फौजी ने भूख पर काबू पा बुढ़िया और लड़के का खयाल किया। उसे लगा कि इस घर में भयानक अभाव है। शकूर की खामोशी देख बुढ़िया ने ठण्डी होती जा रही रोटी पर प्याज, थोड़ा-सा नमक और मोटी पिसी लाल मिर्च रख दी। शकूर ने रोटी का एक टुकड़ा तोड़कर बाकी बुढिया को वापस कर दी। बुढिया के इन्कार के बावजूद उसने रोटी वापस नहीं ली। स्वाद में अजीब रोटी को उसका फौजी गले से नीचे उतार ही गया। वही गंदला पानी फिर पीकर उसने देखा रोटी के उस टुकड़े को वे दोनों मिलकर खा रहे हैं।
मैले, चीकट, बदबूदार और फटे कंबल में वह खाट पर झूलता रहा। बुढ़िया एक कोने में गठरी बन दुबकी पड़ी थी और लड़का लीर-लीर रजाई में चूल्हे के पास। ठण्डी हवा में सीटियां बज रही थीं। एकाएक खटका हुआ तो उसे लगा लड़के की नीयत में खोट पैदा हो गया है। भूख और गरीबी कुछ भी करा सकती है। उसे लगा लड़का उसे मारकर यहीं रेत में गाड़ देगा और उसके पास की रकम हथिया लेगा। शकूर को अपने फौजी होने का खयाल आया तो लगा वह इससे निपट लेगा। सावधानी के लिए उसने जागना बेहतर समझा। आसमान में अचानक लड़ाकू जहाज मंडराने लगे थे। रेडियम डायल वाली उसकी घड़ी में ग्यारह बजे थे।
शकूर ने सपना देखा कई खूबसूरत औरतें हंसती, कहकहे लगाती उस पर बर्फ के गोले फेंके जा रही थीं। उसके खींसे में हीरे-जवाहरात थे और ये औरतें उसे अपने हुस्न के जादू में कैद कर लूट लेना चाहती थीं। एक ने कोशिश की तो उसने खुद को बचा लिया। ख्वाब टूटा तो वह सहज हुआ। रात के दो बजे थे। उसने देखा दूर से एक आकृति आ रही थी। चोर, डाकू या प्रेत, वह आकृति आकर चूल्हे के पास लेट गई। यह वही किशोर था।
जैसे-तैसे रात कटी। सुबह वह उठा तो उसे टूटे कप में बिना दूध की गुड़ की चाय पीने को मिली। शकूर ने विदा लेनी चाही तो बुढ़िया ने कहा, खातिर तो आपकी क्या करते। उसने बताया कि लगातार अकाल का यह चौथा साल है जिसमें पहले जानवर, फिर बुढ़िया का पति और बेटे के मां-बाप सब समा गये। शकूर उनकी मेहमाननवाजी के लिए शुक्रिया अदा करता है कि इस एक रात को मैं अपनी जिंदगी में कभी नहीं भूलूंगा। बुढ़िया कहती है, ‘परकास आपको पहले दयालदास के घर और फिर डामर वाली सड़क तक पहुंचा देगा।‘ शकूर एक बार फिर देखता है कि सत्तर पार की बुढ़िया की आंखों में अभी भी उम्मीद रोशनी है। इन हालात में भी वह टूटी नहीं, एक मुकम्मिल हिंदुस्तानी औरत की तरह। अनायास ही उसने हाथ जोड़ दिये तो बुढिया की मुस्कान में आशीर्वाद बरसा, जो उसने दिल से महसूस किया।
रास्ते में उसने लड़के से बातचीत की। पढ़ाई के बारे में लड़के ने बताया कि अकाल से पहले वह पाठशाला जाता था, चौथी कक्षा तक पढ़ा है वह। शकूर ने पूछा कि क्या वह अकाल राहत शिविर में काम पर जाता है, पता चला कि अफसर पहले अपनी जाति वालों को रखते हैं। शुरू में उसे कम उम्र कहकर टरका दिया, बाद में काम पर रखा तो साठ रूपये रोज पर दस्तखत कराते और बीस के हिसाब से देते। शकूर ने उससे पूछा कि उसने विरोध क्यों नहीं किया। लड़का चुप रहा, शकूर को उसके घर की हालत याद आ गई। चलते-चलते अचानक लड़के ने कहा, ‘दयाले का घर आ गया...वो सामने।‘
दयाल के घर शकूर को दयाल के पिता मिले, मां ने घूंघट की ओट से देखा। बच्चे खेलने में मगन थे। उसे लगा कि दयाल की बीवी पति का हालचाल जानने के लिए जरुर आसपास ही होगी। इस घर में ढोर-डांगर और मुर्गे-मुर्गियां भी काफी थे। पिता को उसने दयाल की भेजी रकम और चिट्ठी सौंपकर खुद को हल्का महसूस किया। चाय-नाश्ता हुआ, लेकिन प्रकाश घर के बाहर ही कहीं रुका हुआ था। जब शकूर दयाल के घर से बाहर निकला तो प्रकाश उसके साथ हो लिया।
रास्ते में शकूर ने प्रकाश से दयाल के घर के अंदर ना आने और चाय-नाश्ता नहीं करने का कारण पूछा तो प्रकाश मौन रहा। चलते-चलते जब डामर की पक्की सड़क दिखाई दी तो प्रकाश ने कहा, ‘’यहां से आपको शहर जाने वाली बस मिल जाएगी, मुझे आज्ञा दीजिए।‘
‘तुमने बड़ी तकलीफ की... शकूर ने कहा तो लड़का हाथ जोड़े खड़ा रहा। शकूर ने जेब से कुछ रुपये निकाल कर देने चाहे तो लड़का ‘धन्यवाद कह कर अपनी राह चल दिया।
कहानी अंश
सर्दी में भी शिद्दत की प्यास का अहसास, थकन से चूर, अमानत की शक्ल में जेब में मोटी रकम, लुट जाने का खौफ़, सुनसान में मार दिये जाने का भय और आस की किरण की शक्ल में बुलंदी पर वो झोंपड़ी। रेत में धंसते जूतों के बावजूद शकूर बढ़ रहा था, बढ़ा जा रहा था।
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ठण्डी हो चली लाल ज्वार की मोटी रोटी के टुकड़े को जल्दी से भकोस लेने की गरज से शकूर ने इस दाढ़ तले दबाया तो यकबारगी उसे ठहर जाना पड़ा। अधपिसी ज्वार, घास, किरकिरी, धुंए का कसैलापन और आंच की कमी के कारण कच्चापन। फिर भी एक फौजी और मेहमान के नाते वह रोटी के इस नायाब टुकड़े को नेमत समझ कर थोड़ा-थोड़ा कर गले से नीचे उतार ही गया।
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लेखक-परिचय
जन्म: 10 जुलाई, 1945
कृतियां: छह उपन्यास- अनायक, सफिया, रानी साहिबा, गमना, अंदर बाहर, प्रताड़ित।
दो कहानी संग्रह- बत्तीसवीं तारीख़, पराजित विजेता।
पुरस्कार: उपन्यास‘’अनायक’ पर राजस्थान साहित्य अकादमी का रांगेय राघव पुरस्कार।
उपन्यास -‘’सफिया’ पर राजस्थान उर्दू अकादमी का तौसीफनामा पुरस्कार।
कहानियों के इस तरह के प्रस्तुतिकरण का यह तरीका अनोखा है। इस से कहानी के बारे में पता लगता है और मूल कहानी पढ़ने के लिए प्रोत्साहन भी।
ReplyDeleteसुंदर, अति सुंदर कहानी, और आपका प्रस्तुतीकरण वह भी बहुत खूब।
ReplyDeleteअति सुन्दर !!!! मरुभूमि के अकाल का सजीव चित्रण है इस कहानी में
ReplyDeleteपूरी कहानी पढने का दिल हुआ है.जिज्ञासा हुई है.
ReplyDeletenice storry
ReplyDeletei am Abdul qayyum shasodia.nice story
ReplyDeletekahani puri to kro sir
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