Wednesday, 13 May 2009

जयपुर बम धमाकों की बरसी पर सोचो


एक आंधी में इतने पेड़ उखड़ते देखे हैं मैंने
अब पत्‍ता भी हिलता है तो मेरा दिल कांप उठता है
- ओमप्रकाश ‘नदीम’
13 मई सिर्फ एक दिन नहीं, बल्कि एक ऐसी तारीख है, जिसे याद करना लगातार एक भयानक यातना से गुजरना है। वक्‍त का पहिया आंसुओं को सुखा देता है, लेकिन दिलोदिमाग पर पड़ी खौफ़ और दर्द की ख़राशों को नहीं मिटा सकता, बल्कि वो दिन याद आते ही दर्द की लकीरें कुछ ज्‍यादा लंबी हो जाती हैं। एक बरस पहले कुछ हमलावरों ने तीन सदी पुराने इस अमनपसंद गुलाबी शहर की शांति छीन ली थी, और इस एक बरस में ना जाने कितनी बार उस दिन को फिर से दोहराने की कोशिश भरी अफ़वाहों में यहां के बाशिंदे दहशत के साये में अपने हौसलों के दम पर जिंदादिली के साथ रोजमर्रा के जीवनसंघर्ष में शहर की पहचान को कायम रख सके हैं। लेकिन 13 मई की तारीख आज भी इस शहर के बाशिदों से ही नहीं यहां के कर्णधारों और कानून-व्‍यवस्‍था के अलमबरदारों से सवाल-दर-सवाल कर रही है कि ‘कहां गये वो वायदे वो सुख के ख्‍वाब क्‍या हुए’।
‘हर नई दुर्घटना पिछली दुर्घटनाओं को कार्यसूची से बाहर कर देती है’, क्‍या हम 13 मई की तरह फिर किसी हमले के इंतजार में लापरवाही के साथ आराम से बैठे यह नहीं सोच रहे कि यह मेरा काम नहीं, जो होगा देखा जाएगा, अभी तो कोई दिक्‍कत नहीं। हम ना खुद से सवाल करते हैं और न ही कर्णधारों से और यकीन मानिए हमारी आंखें तब भी नहीं खुलेंगी जब दूसरा हमला होगा। हम फिर एक खास समुदाय और पड़ोसी मुल्‍क पर गुस्‍सा होंगे और किसी ना किसी को उत्‍तरदायी ठहराते हुए अपनी जिम्‍मेदारी से पल्‍ला झाड़ लेंगे और इसके बाद शुरू होगा आतंकवादी के नाम पर बेगुनाह लोगों और निर्दोष अल्‍पसंख्‍यकों को हिरासत में लेने और फिर निर्दोषों की सचाई सामने आने पर बगलें झांकने और नए सिरे से कार्यवाही की शुरूआत का एक अंतहीन सिलसिला। आखिर कब तक यह सब चलता रहेगा। इस एक बरस में हमने आखिर इसके सिवा देखा ही क्‍या है? पुलिस के तमाम दावों और मीडिया इन्‍वेस्टिगेशन के नाम पर बेगुनाह लोगों की जिंदगी बरबाद करने के सिवा हमने क्‍या किया आखिर। उस युवक के बारे में हम क्‍यों नहीं सोचते जिसने डॉक्‍टर बनने का ख्‍वाब ही नहीं देखा, बनने जा रहा था, उसकी जिंदगी बम धमाकों से नहीं हमारी जल्‍दबाजी से और लापरवाही से तबाह हुई, क्‍या वो बमकांड के पीडि़तों में शामिल नहीं है। ऐसे कितने लोग हैं, इसकी हमें ठीक-ठीक जानकारी भी नहीं है। वो तो अच्‍छा हुआ कि पोटा जैसा काला कानून नहीं था, वरना ऐसे निर्दोष जिंदगी भर जेलों में सड़ते रहते।
जिन घरों पर 13 मई के हमलों का कहर टूटा, उनकी हालत इन आंखों से देखी नहीं जाती। बचे हुए लोगों को इलाज के नाम पर क्‍या मिला, मृतकों के परिवारों को हर्जाने के नाम पर क्‍या हासिल हुआ, जिनका काम-धंधा चौपट हुआ वो कहां हैं, क्‍या हमने इन सवालों पर कभी ग़ौर किया है। पीयूसीएल की एक जन-सुनवाई में ऐसे सैंकड़ों सवाल उठाये गये थे, लेकिन यकीन मानिए अखबारों में उसका बेहद संक्षिप्‍त विवरण छपा, क्‍योंकि वो जन-सुनवाई 13 मई को नहीं हुई। मीडिया में अब आतंक की खबर भी जयंती-पुण्‍यतिथि की तरह ही बिकती है। आतंकवाद को इस कदर सांप्रदायिक रंग दे दिया गया है कि बेगुनाह अल्‍पसंख्‍यक की पैरवी करना आतंकवादियों के पक्ष में खड़ा होना माना जाता है। और बहुसंख्‍यक को आतंकवादी साबित होने के बाद भी गौरवान्वित किया जाता है और निर्दोष माना जाता है।
इस एक बरस में हम जरा भी नहीं चेते, आज भी उसी तरह लोग अपने वाहन बेतरतीबी से पार्क करते चले जा रहे हैं, कोई किसी को नहीं टोकता कि अपने वाहन पर सामान छोड़कर क्‍यों जा रहे हो। पुलिस शायद ही कभी किसी के सामान या वाहन की जांच करती है, लोग अपने साइकिल-दुपहियों पर इतना बड़ा माल-असबाब ले जाते हैं कि हैरत होती है। दिल्‍ली के अलावा दूसरे रास्‍तों से आने वाली बसों और दूसरी गाडियों में कौन क्‍या ला रहा है कोई नहीं देख रहा। दाढ़ी और टोपी के सिवा हम किसी पर शक नहीं करते। आज भी लोग उसी तरह अनजान लोगों को मकान किराये पर दे रहे हैं, चंद पैसों के लिए होटल, गेस्‍ट हाउस वाले किसी के पहचान दस्‍तावेज की मौलिकता या वैधता पर सवाल नहीं करते। क्‍या हम तभी जागेंगे जब 13 मई को किसी और तारीख में दोहराया जाएगा। बकौल शायर ओमप्रकाश नदीम -
उस पेड़ से उम्‍मीद फल की कोई क्‍या करे
आपस में जिसके गुंचा-ओ-ग़ुल में तनाव है

2 comments:

  1. आपने घटना को बहुत अच्छी तरह से याद किया है, दुर्धटना के विवरण से नहीं, दिल पर लगे जख्म से।
    पिछले दिनों का जो माहौल था उससे तो लगता है देश में सिर्फ दो ही आतंकवादी घटनाएं हुई हैं, एक तो कांधार काण्ड, दूसरा बंबई काण्ड या बहुत पहले कि एतिहासिक गौरवपूर्ण घटनायें इंदिराजी- राजीवजी की कुर्बानी वाली, एक मध्ययुग की संसद पर हमलेवाली। दोनों ही मुख्य दल उक्त घटनाओं पर अपनी-अपनी पीठ थपथपा रहे हैं और दूसरे को कोस रहे हैं। इतना ही नहीं तमाम मीडिया और आम जनता को भी बस इतने में ही उलझाकर रख दिया गया है, और उससे दाद पाने की उम्मीद की जा रही है। अब रही जाँच के नाम पर की जारही कार्यवाहियों पर आपकी बात की --
    अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक दोनों ही बराबर की राजनीति हैं, एक तरफ हम उम्मीद करते हैं कि प्रशासन ही नहीं प्रत्येक नागरिक एक-दूसरे पर शक करके चले, मेरे हाथ में क्या है आप देखें आप की जेब में क्या रखा है मैं देखूं और जिम्मेदार नागरिक होने का सबूत दूँ, जरा सोचिये इस तरह से कितने बेगुनाहों को कितनी पीड़ा पहुँचायी जा सकती है, समाज का वातावरण कैसा कसैला हो सकता है जिसकी हमारी मुख्य मांग है। दूसरी तरफ हम चिल्लपौं करते हैं कि जांच के नाम पर बेगुनाहों को सताया जाता है, क्या हमारे समाज का मार्गदर्शक वर्ग जांच की ऐसी प्रमाणिक तरकीब बता सकता है जिससे किसी पर शक करने की जरूरत ही नहीं पड़े। और सीधे अपराधी को पकड़ कर दण्ड दिया जा सके, जिस डाक्टर की आप बात कर रहे हैं उसने खुद स्वीकार किया था की आतंककारी उसके साथ ठहरा था लेकिन वह उसे नहीं जानता था, लेकिन जांच दल के पास क्या पारदर्शी आँखे होनी चाहिए जो बिना जाँच - पूछताछ के यह जानले कि वह षडयंत्र में शामिल है या नहीं, वह जिसके साथ घटना के दिन में रह रहा उसके बारे में जानता है या नहीं? मीडिया जरूर इतनी सशक्त संस्था है जो तिल का ताड़ कर छाप सकती है, चाहे जिस का चरित्र पलभर में खराब कर सकती है, यदि किसी व्यक्ति से कोई वैधानिक संस्था किसी तथ्य के आधार पर पूछताछ कर रही है तो बिना परिणाम जाने मीडिया उसका "सबसे पहले" के लिये चरित्र खराब कर सकती है। राजनीति करने वाले ही बहुसंख्यक अल्पसंख्यक का खेल नहीं खेलते, यहाँ ऐसे भी उदाहरण भरे पडे मिलेंगे जिसमें एक भ्रष्ट अफसर को रिश्वत लेते रंगेहाथों पकडे जाने पर गाँव का गाँव एसीडी की टीम से मारपीट कर छुड़ा ले जाता है। जहाँ से भारी मात्रा में गोला-बारूद मिलता है, पुलिस अफसर कार्यवाही के दौरान मारा जाता है, तब भी वह फर्जी मुठभेड़ है, और आंदोलन होता है। उनके पक्ष में राष्ट्रीय राजनेता हैं। यह सही है पुलिस भ्रष्ट है, नाकारा है, सत्ताधारी निष्पक्ष नहीं हैं, तब भी इस प्रकार की राजनीति उचित नहीं हैं। समाज के सोचने- समझने वाले वर्ग को तो इससे दूर रहना चाहिए और समस्या की जड़ को खोजकर उसे मिटाने की राह दिखानी चाहिए। क्या हम आतंकवाद पर एक शोध अध्ययन कर उसके आँकड़ों को पचाने की क्षमता रखते ? पोस्ट के लिए साधुवाद।

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  2. मुझे इस दुर्घटना की इतनी डितेल मे जानकारी नही थी
    क्या करें इस देश की त्रासदी यही है हम विनाश की जढ को नही पेड को काटते हैं वो भी बबूल की जगह आम को आतँकवाद की ज्ढ की पहचान के लिये आपने सही राह दिखाई है बधाई

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