Sunday 31 May, 2009

सूझती दीठ-अन्नाराम सुदामा की कहानी



राजस्थानी भाषा और साहित्य को समृद्ध करने में जिन महान रचनाकारों का योगदान है] उनमें अन्नाराम सुदामा का नाम बड़े आदर के साथ लिया जाता है। 86 वर्षीय सुदामा जी हिंदी और राजस्थानी दोनों भाषाओं में समान रूप से लिखते रहे हैं और अब तक दोनों भाषाओं में उनकी कविता] कहानी] उपन्यास नाटक] बाल साहित्य और यात्रा संस्मरणों की दो दर्जन से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। राजस्थान के ग्रामीण जनजीवन में नित्य होने वाली घटनाओं को वे अत्यंत पारखी नजर से देखते हुए गहरी सामाजिक चेतना से सराबोर रचनाएं लिखते हैं और यही उनके लेखन की विशेषता है। राजस्थान के ग्राम्य जीवन की संवेदना, मानवीय सरोकार और विविध छवियां आप अन्नाराम सुदामा के साहित्य से गुजरे बिना देख ही नहीं सकते। वे राजस्थानी के उन विरल साहित्यकारों में हैं, जिनके यहां अभावों में जीते मनुष्य की चेतना और विपरीत हालात से संघर्ष इतनी शिद्दत के साथ मौजूद होते हैं कि स्वयं पाठक भी एकबारगी लेखक और उसके अद्भुत जीवट वाले पात्रों के साथ खड़ा हो जाता है। अन्नाराम सुदामा के विपुल साहित्य में ‘सूझती दीठ, एक ऐसी कहानी है, जो अकाल से ग्रस्त एक सामान्य निर्धन ग्रामीण स्त्री के संघर्ष के बीच उसकी वैज्ञानिक दृष्टि को ही नहीं उसके नैतिक बल और साहस को बहुत गहराई के साथ रेखांकित करती है। पढ़े-लिखे पात्रों के माध्यम से चेतना जगाना आसान होता है, लेकिन सुदामा तो अपने निरक्षर पात्रों से ही वैज्ञानिक दृष्टिकोण और समता-बंधुत्व की बात अत्यंत सहज रूप से पैदा कर देते हैं। इस एक कहानी से आप उनकी रचनात्मकता का सहज ही अनुमान लगा सकते हैं।
तुलसी को गांव छोड़कर कस्बे में आए तीनेक महीने हुए हैं। लगातार पड़ते अकाल के इस तीसरे साल वह यहां आई है। दो साल तो उसने जैसे-तैसे काट दिये, घर तो वो फिर भी चला लेती लेकिन गाय-बछड़ों का क्या करे। तीन जानवरों के लिए रोज पचास-साठ रुपये का बीस-बाइस किलो चारा कहां से आए। चरागाह से लेकर खेत तक सब सफाचट मैदान हुए पड़े हैं। गांव में जब कोई आस नहीं दिखी तो तुलसी अपनी बूढ़ी सास, पांच साल के लड़के और आठ साल की लड़की वाले परिवार को लेकर इस कस्बे में चली आई।
गांव की एक नाइन के परिचय से उसे एक मोहल्ले में एक सेठ का छह सौ गज का बाड़ा बीस रुपये महीने में किराये पर मिल गया। सेठ ने इस शर्त पर बाड़ा दिया था कि कहने पर एक-दो दिनों में ही खाली करना होगा। तुलसी ने शर्त मान ली और नाइन ने जिम्मेदारी ले ली। बाड़ा क्या था, बाहर एक पक्का अहाता, भीतर एक कमरा और बाकी खुली जगह। इस बाड़े में कभी जलावन की लकड़ियां और चारा होता था, लेकिन सालों से देखभाल के अभाव में पूरा बाड़ा उजाड़ पड़ा था, जिसमें मकड़ी और चमगादड़ों का डेरा था। तुलसी ने बेटे-बेटी के साथ मिलकर इस जगह को रहने लायक बनाया। कमरे के आधे हिस्से में चार बोरी चारा और आधे में रहने का ठीया बनाया। बाहर के अहाते में चौका-चूल्हा जमाया और खुले में गाय और बछड़ा-बछड़ी। रोज दोनों वक्त आठ किलो दूध होता, जिसमें थोड़ा बचाकर बाकी तुलसी बेच देती। दिन में मां-बेटी पापड़ बेल कर पांच छह रुपये कमा लेती। इस तरह घर की गाड़ी चलने लगी।
एकाध बार सेठानी ने तुलसी को घर में बुलाया और दाल-दलिया पिसवाने-बीनने का काम कराया। काम के बाद सेठानी ने उसे मजदूरी के बदले बच्चों के लिए दो कटोरी सब्जी देनी चाही तो तुलसी साफ मना कर गई। तुलसी ने कहा कि घर में प्याज-पोदीने की चटनी और पालक की सब्जी रखी है। सेठानी ने पूछा कि तुलसी ब्राह्मण होकर प्याज खाती है तो जवाब में वह कहती है कि इंसान के लिए तो चोरी, छल-कपट और चुगली जैसे अवगुण भी मना है लेकिन कौन मानता है। इस महंगाई के दौर में गरीब आदमी क्यों सब्जी खाये, प्याज की गांठ सामने हो तो रोटी सहज ही गले से नीचे उतर जाती है। तुलसी के जवाब के आगे सेठानी निरुत्तर हो गई। तुलसी वापस आ गई।
तुलसी के बाड़े के पास एक सरकारी जमीन पर पोकरण की तरफ से आए मजदूरों ने अस्थायी बसेरा बना रखा है। ये भी तुलसी की तरह ही अकाल का भारी वक्त काटने आए हैं। यहां कई बीमार बूढ़े रात-दिन खांसते रहते हैं। बच्चे दिन में आसपास से कचरा, लकड़ी, कागज आदि बीनते हैं, जिनसे कुछ आमदनी भी हो जाती है और शाम के वक्त खाना पकाने के लिए जलावन भी। जवान आदमी-औरतें सड़क के किनारे रेत डालने के काम में मजूरी करते हैं।
एक दिन सुबह-सुबह पांच-सात औरतें तुलसी के दरवाजे पर आ पहुंची। इनमें से एक ने दो दिन पहले तुलसी से मिलकर बच्चों के लिए दूध देने की विनती की थी कि वे रोज नकद पैसे देंगी, बस बदले में अच्छा दूध मिल जाए। तुलसी ने हामी भर दी। अब ये मजदूर महिलाएं तुलसी की नई ग्राहक बन गईं थीं।
एक रोज सूरज उगने से पहले ही सेठ का एक नौकर आया और कहा कि आज सेठ ने सारा दूध मंगाया है। सेठ के घर इतने दूध की क्या जरूरत, पता चला कि आज सेठ के पिताजी का श्राद्ध है, जिसके लिए गाय के शुद्ध दूध से हवेली के चारों तरफ लकीर निकाली जाएगी। तुलसी ने सोचा, चार किलो दूध रेत में बहा दिया जाएगा, इसका मतलब रोगियों का आधार, निरोगियों का बल और देश की संपत्ति आखिर वह क्यों बेचे, उसने नौकर से कह दिया कि जाकर सेठ से कह दो कि आज कहीं ओर से दूध का इंतजाम कर लें, मैं नहीं दे सकूंगी।
नौकर के बाद खुद सेठ चला आया। सेठ ने कहा कि दूध तो कहीं भी मिल जाएगा लेकिन ज्यादा तो मिलावट वाला मिलता है और तुमने नौकर से ना कह दी। उसने सेठ से कहाकि सच्ची बात तो यह है कि मैं रेत में बिखराने के लिए दूध नहीं बेचती। सेठ ने कहाकि वो चाहे धूल में मिलाए या कुछ भी करे उसे तो पैसों से मतलब होना चाहिए, वह ज्यादा पैसे दे सकता है। लेकिन तुलसी नहीं मानी तो नहीं ही मानी। इस पर सेठ को गुस्सा आ गया और उसने कह दिया कि आज की आज बाड़ा खाली हो जाना चाहिए। तुलसी ने कह दिया कि वह इस सुविधा की खातिर अपनी समझ पर पर्दा नहीं गिरने देगी। उदासी की हल्की रेखा चेहरे पर तैर गई। सेठ भांप गया और आज ही बाड़ा खाली करने की कहकर चला गया।
सेठ घर गया तो सेठानी को सारी बात बताई तो सेठानी ने कहा कोई बात नहीं, दूध तो कहीं से भी ले आएंगे। सेठ ने बताया कि उसने तुलसी को आज ही बाड़ा खाली करने के लिए कह दिया है। सेठानी ने कहाकि वह तो बाड़े की देखभाल ठीक कर रही है और कभी-कभार बिना किसी लोभ के वह आकर मेरा कुछ काम भी कर देती है। अलग किस्म की औरत है वह। हमें उससे क्यों बराबरी करनी चाहिए। सेठ ने कहा, अगर तुम ऐसा सोचती हो तो ठीक है, अगर शाम तक तुलसी आती है तो तुम ही उसे रहने के लिए कह देना, मैं तो अपने मुंह से नहीं कहूंगा।
दो दिन से तुलसी की सास का दमा का रोग जोर मार रहा था और लड़के को भी मलेरिया बुखार हो रखा था। लेकिन तुलसी को तो इस बात की चिंता खाए जा रही थी कि इतनी जल्दी जगह का इंतजाम कैसे होगा, उसने कोशिश करने की सोची और कुछ खा-पीकर जगह ढूंढने निकल पड़ी। उसने ठान लिया था कि सेठ के आगे जाकर हाथ नहीं फैलाएगी, किसी साधारण गुवाड़ी में उसके स्वभाव को देखते हुए जगह मिल ही जाएगी। और आखिर ढूंढ़ने पर उसे एक अकेली मालिन के पास कामचलाउ जगह मिल ही गई। उसे अपना सामान ढोने और लगाने में बहुत असुविधा तो हुई, लेकिन मां-बेटी लगी रही और दो बजे तक भूखे पेट बिना पानी पिये काम करती रही। ढाई बजे वह सेठ के यहां जा पहुंची।
सेठ अपनी गद्दी पर बैठा पान खा रहा था, देखते ही बोला, तेरे दूध नहीं देने से मेरा काम थोड़े ही रुका, पैसों के बदले दूध की कोई कमी थोड़े ही है।
तुलसी ने कहा, आप पर लक्ष्मी की कृपा है आप चार किलो क्या चार मण दूध से लकीर खींचो। लेकिन मेरी मान्यता है कि यही दूध अगर धूल में ना गिराकर भूखी-प्यासी जनता को पिलाते तो उसमें प्राणों का संचार होता, आपको आशीष मिलती और आपके पिता की आत्मा को कहीं ज्यादा खुशी मिलती।
सेठ ने कहा कि इन बातों को छोड़ और एक बार घर जाकर सेठानी से मिल ले। तुलसी ने कहा कि उनसे तो मिलती रहूंगी, लेकिन पहले आप यह चाबी सम्हालो। सेठ ने कहा, चाबी, बाड़ा खाली कर दिया क्या। हां, कहकर तुलसी चुपचाप चल दी। सेठ जाती हुई तुलसी की पीठ ऐसे देखता रहा, जैसे किसी अफीमची का नशा उतर गया हो।
कहानी अंश
समझदार तो कार्तिक लगते ही अपना-अपना पशुधन लेकर शहर के पास जा पहुंचे और नासमझ में से ज्यादातर के जानवर दो बरस में ही भूख की मार से रेत खा-खाकर सिधार गए। तुलसी ने देख लिया, अब यहां किसी हालत में गुजारा नहीं होगा, जल्दी से जल्दी किसी कस्बे की तरफ कूच करने में ही भलाई है। वहां पशुओं का भी पेट पाल लूंगी और परिवार का भी। परिवार में पांच बरस का एक लड़का, एक आठ साल की लड़की और दमे की रोगी एक बूढ़ी सास। देहरी को सीस नवा कर वह एक कस्बे की तरफ चल दी।
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वो आधा मिनट सोचने लगी, लकीर खींची जाएगी, थोड़ी दूर में नहीं, हवेली के चारों तरफ, वो भी पानी से नहीं दूध से। मतलब चार किलो दूध रेत में बिखेरा दिया जाएगा, किसके काम आएगा वो दूध, वो तो रोगियों का आधार है और निरोगियों का बल। देश की संपत्ति को इस तरह धूल में डालने के लिए बेचूं तो मेरी समझ ही खराब है।
सहसा उसकी आंखों के आगे उसके पास रहने वाले बीमार बच्चे, बुझते हुए और चाय के लिए तरसते बुजुर्ग औरत-आदमी, हारे थके मजूर नाच उठे। उसने कहा, ‘भाई, सेठजी को मेरी तरफ से हाथ जोड़कर कह देना कि दूध का इंतजाम कहीं ओर से कर लें, मैं नहीं दे सकूंगी।
लेखक परिचय
जन्मः 23 मई, 1923
शिक्षाः एम.ए.
कृतियां
उपन्यास- मैकती कायाः मुळकती धरती, आंधी अर आस्था, मैवै रा रूंख, डंकीजता मानवी, घर-संसार और अचूक इलाज
कहानी संग्रह- आंधै नै आंख्यां और गळत इलाज
कविता- पिरोळ में कुत्ती ब्याई, व्यथा-कथा अर दूजी कवितावां
यात्रा संस्मरण- दूर-दिसावर
नाटक- बंधती अंवळाई
बाल उपन्यास- गांव रो गौरव
सम्मान पुरस्कार
केंद्रीय साहित्य अकादमी पुरस्कार, सूर्यमल्ल मीसण पुरस्कार, मीरा सम्मान, सर्वश्रेष्ठ साहित्यकार सम्मान आदि कई पुरस्कार और सम्मान।
( दैनिक नवज्योति में रविवार 31 मई, 2009 को प्रकाशित।)

Monday 25 May, 2009

ढाणी में प्रकाश-हबीब कैफी की कहानी


राजस्थान में उर्दू और हिंदी के जिन रचनाकारों को राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचाना जाता है, उनमें हबीब कैफी का नाम बडे़ आदर के साथ लिया जाता है। कविता] कहानी] उपन्यास और लगभग सभी विधाओं में लिखने वाले हबीब कैफी की रचनाओं में राजस्थान का लोकजीवन, यहां के बाशिंदों का संघर्षपूर्ण जीवन, लोकसंस्कृति और मनुष्य का नैतिक चरित्र बहुत खूबसूरती के साथ उजागर होता है। उनकी अनेक कहानियों का तमिल, तेलुगु, गुजराती, पंजाबी और राजस्थानी में अनुवाद हुआ है। उनकी कई कहानियों का नाट्य रूपांतरण और सफल मंचन भी हो चुका है। रांगेय राघव पुरस्कार से सम्मानित हबीब कैफी की डेढ़ सौ से अधिक प्रकाशित कहानियों में ‘ढाणी में ‘प्रकाश’ का खासा महत्व है। यह कहानी राजस्थान में अकाल के दिनों में निर्धन ग्रामीण समुदाय के कठोर जीवन और उनके नैतिक बल को गहराई से रेखांकित करती है। यह उस मरुप्रदेश की कथा है जहां लोग अभावों के बावजूद ‘अतिथि देवो भव’ की परंपरा को निभाते हैं। मनुष्य के भीतर किस प्रकार संदेह जन्म लेते हैं और वह खुद को समर्थ होते हुए भी किस कदर असुरक्षित और भयभीत महसूस करता है, इसे बहुत ही रचनात्मक कौशल के साथ हबीब कैफी ने प्रस्तुत किया है।
जोधपुर शहर का एक फौजी शकूर छट्टियों में घर आता है। आने के अगले दिन ही यह सोचकर कि चार-पांच घण्टों में या ज्यादा से ज्यादा सांझ ढलने तक वह वापस लौट आएगा, अपने फौजी दोस्त दयाल के गांव बालेसर के लिए बस में बैठकर चल देता है। बालेसर के बस स्टैण्ड पर उतरकर वह आसपास का एक जायजा लेता है। गांव का एक अधेड़ शकूर को सवालिया निगाहों से देखता है तो वह पूछता है कि दयाल का घर कहां है, वह आदमी उससे दयाल के बारे में विस्तार से बताने को कहता है। इस पर शकूर अपना परिचय देते हुए बताता है कि उसे दयालदास फौजी के घर जाना है। वह शख्स कहता है कि बालेसर गांव तो फौजियों का ही गांव है। वह शकूर से दयालदास की वल्दियत और जाति पूछता है। शकूर बताता है दयालदास वल्द हरिदास मेघवाल। वह आदमी बताता है कि मेघवालों के घर गांव से बाहर हैं और वह उसे इशारे से एक दिशा में जाने के लिए कहता है। शकूर उसका शुक्रिया अदा कर उस दिशा में चल देता है।
गांव से बाहर निकल खेतों को पार कर हनुमान मंदिर के पास चबूतरे पर बैठे ग्रामीणों से वह फिर दयाल का घर पूछता है। दयाल के बारे में पहले की तरह विस्तार से पूछताछ के बाद उसे कहा जाता है कि दो रेतीले टीले पार करने के बाद दांये मुड़ने पर किसी से भी पूछ लेना दयाल का घर मिल जाएगा। शकूर उसी दिशा में चल देता है, लेकिन बहुत देर चलने के बावजूद उसे कोई टीला नहीं दिखाई देता। थकान महसूस होने से पहले ही शकूर को एक टीला दिखाई देता है। वह उस टीले के शिखर पर पहुंचता है तो उसे एक और टीला सामने दिखाई देता है। बड़ी मुश्किल से वह दूसरे टीले तक पहुंचता है तो उसे दूर-दूर तक सिर्फ रेत ही रेत दिखाई देती है। वक्त बीत रहा है और उसे लगता है कि अभी शाम हो जाएगी और फिर रात। उसकी जेब में एक बड़ी रकम है जो उसे दयाल के घर पहुंचानी है। हताश होकर शकूर ध्यान से देखता है तो उसे एक झोंपड़ी दिखाई देती है। वह उसी तरफ चल देता है। उसे लगता है कि शायद यही दयाल का घर हो। वहां संभव है पक्की सड़क दूर ना हो, जिससे वह वक्त पर वापस लौट सके। थकान, लुट जाने का खयाल, मार दिये जाने का खौफ और आस की किरण एक झोंपड़ी।
भूखा-प्यासा वह वहां पहुंचता है तो उसकी हालत का अंदाज लगाकर सत्तर वर्षीय बुढ़िया उसके लिए मिट्टी के बर्तन में पीने के लिए पानी देती है। पानी पीने के बाद वह देखता है कि बर्तन के पैंदे में गंदला पानी बचा था। लेकिन फौजी होने की वजह से वह सहज हो गया। उसने डूबते सूरज की रोशनी में देखा दुबली-पतली सत्तर पार की बुढिया का घाघरा और ओढ़नी दोनों ही तार-तार हो चुके थे। एक छरहरे बदन का किशोरवय लड़का चूल्हे में आग जलाने के लिए फूंक मार रहा है। बुढ़िया और लड़के की आंखों में सवाल देखकर शकूर उन्हें बताता है कि उसे अपने फौजी दोस्त दयालदास मेघवाल के घर उसकी अमानत पहुंचाने जाना है। बुढ़िया कहती है कि रात होने वाली है, सुबह चले जाना। शकूर देखता है कि सूरज क्षितिज से जा चुका है और अंधेरा बढ़ रहा है। उसे ठण्ड के मारे कंपकंपी हो रही है। वह इसका अंदाज लगाए बिना एक स्वेटर में रेगिस्तान में चला आया। सिकुड़कर वह झोला-सी चारपाई पर बैठ गया।
बुढ़िया ने लड़के को ज्वार की एक सुर्ख रोटी दी, लड़के ने उसे कसैला धुंआ देती आग में गर्म किया और पुरानी एल्यूमिनियम की प्लेट में रखकर शकूर को पेश की। शकूर ने रोटी लगभग झपटी, लेकिन उसके फौजी ने भूख पर काबू पा बुढ़िया और लड़के का खयाल किया। उसे लगा कि इस घर में भयानक अभाव है। शकूर की खामोशी देख बुढ़िया ने ठण्डी होती जा रही रोटी पर प्याज, थोड़ा-सा नमक और मोटी पिसी लाल मिर्च रख दी। शकूर ने रोटी का एक टुकड़ा तोड़कर बाकी बुढिया को वापस कर दी। बुढिया के इन्कार के बावजूद उसने रोटी वापस नहीं ली। स्वाद में अजीब रोटी को उसका फौजी गले से नीचे उतार ही गया। वही गंदला पानी फिर पीकर उसने देखा रोटी के उस टुकड़े को वे दोनों मिलकर खा रहे हैं।
मैले, चीकट, बदबूदार और फटे कंबल में वह खाट पर झूलता रहा। बुढ़िया एक कोने में गठरी बन दुबकी पड़ी थी और लड़का लीर-लीर रजाई में चूल्हे के पास। ठण्डी हवा में सीटियां बज रही थीं। एकाएक खटका हुआ तो उसे लगा लड़के की नीयत में खोट पैदा हो गया है। भूख और गरीबी कुछ भी करा सकती है। उसे लगा लड़का उसे मारकर यहीं रेत में गाड़ देगा और उसके पास की रकम हथिया लेगा। शकूर को अपने फौजी होने का खयाल आया तो लगा वह इससे निपट लेगा। सावधानी के लिए उसने जागना बेहतर समझा। आसमान में अचानक लड़ाकू जहाज मंडराने लगे थे। रेडियम डायल वाली उसकी घड़ी में ग्यारह बजे थे।
शकूर ने सपना देखा कई खूबसूरत औरतें हंसती, कहकहे लगाती उस पर बर्फ के गोले फेंके जा रही थीं। उसके खींसे में हीरे-जवाहरात थे और ये औरतें उसे अपने हुस्न के जादू में कैद कर लूट लेना चाहती थीं। एक ने कोशिश की तो उसने खुद को बचा लिया। ख्वाब टूटा तो वह सहज हुआ। रात के दो बजे थे। उसने देखा दूर से एक आकृति आ रही थी। चोर, डाकू या प्रेत, वह आकृति आकर चूल्हे के पास लेट गई। यह वही किशोर था।
जैसे-तैसे रात कटी। सुबह वह उठा तो उसे टूटे कप में बिना दूध की गुड़ की चाय पीने को मिली। शकूर ने विदा लेनी चाही तो बुढ़िया ने कहा, खातिर तो आपकी क्या करते। उसने बताया कि लगातार अकाल का यह चौथा साल है जिसमें पहले जानवर, फिर बुढ़िया का पति और बेटे के मां-बाप सब समा गये। शकूर उनकी मेहमाननवाजी के लिए शुक्रिया अदा करता है कि इस एक रात को मैं अपनी जिंदगी में कभी नहीं भूलूंगा। बुढ़िया कहती है, ‘परकास आपको पहले दयालदास के घर और फिर डामर वाली सड़क तक पहुंचा देगा।‘ शकूर एक बार फिर देखता है कि सत्तर पार की बुढ़िया की आंखों में अभी भी उम्मीद रोशनी है। इन हालात में भी वह टूटी नहीं, एक मुकम्मिल हिंदुस्तानी औरत की तरह। अनायास ही उसने हाथ जोड़ दिये तो बुढिया की मुस्कान में आशीर्वाद बरसा, जो उसने दिल से महसूस किया।
रास्ते में उसने लड़के से बातचीत की। पढ़ाई के बारे में लड़के ने बताया कि अकाल से पहले वह पाठशाला जाता था, चौथी कक्षा तक पढ़ा है वह। शकूर ने पूछा कि क्या वह अकाल राहत शिविर में काम पर जाता है, पता चला कि अफसर पहले अपनी जाति वालों को रखते हैं। शुरू में उसे कम उम्र कहकर टरका दिया, बाद में काम पर रखा तो साठ रूपये रोज पर दस्तखत कराते और बीस के हिसाब से देते। शकूर ने उससे पूछा कि उसने विरोध क्यों नहीं किया। लड़का चुप रहा, शकूर को उसके घर की हालत याद आ गई। चलते-चलते अचानक लड़के ने कहा, ‘दयाले का घर आ गया...वो सामने।‘
दयाल के घर शकूर को दयाल के पिता मिले, मां ने घूंघट की ओट से देखा। बच्चे खेलने में मगन थे। उसे लगा कि दयाल की बीवी पति का हालचाल जानने के लिए जरुर आसपास ही होगी। इस घर में ढोर-डांगर और मुर्गे-मुर्गियां भी काफी थे। पिता को उसने दयाल की भेजी रकम और चिट्ठी सौंपकर खुद को हल्का महसूस किया। चाय-नाश्‍ता हुआ, लेकिन प्रकाश घर के बाहर ही कहीं रुका हुआ था। जब शकूर दयाल के घर से बाहर निकला तो प्रकाश उसके साथ हो लिया।
रास्ते में शकूर ने प्रकाश से दयाल के घर के अंदर ना आने और चाय-नाश्‍ता नहीं करने का कारण पूछा तो प्रकाश मौन रहा। चलते-चलते जब डामर की पक्की सड़क दिखाई दी तो प्रकाश ने कहा, ‘’यहां से आपको शहर जाने वाली बस मिल जाएगी, मुझे आज्ञा दीजिए।‘
‘तुमने बड़ी तकलीफ की... शकूर ने कहा तो लड़का हाथ जोड़े खड़ा रहा। शकूर ने जेब से कुछ रुपये निकाल कर देने चाहे तो लड़का ‘धन्यवाद कह कर अपनी राह चल दिया।
कहानी अंश
सर्दी में भी शिद्दत की प्यास का अहसास, थकन से चूर, अमानत की शक्ल में जेब में मोटी रकम, लुट जाने का खौफ़, सुनसान में मार दिये जाने का भय और आस की किरण की शक्ल में बुलंदी पर वो झोंपड़ी। रेत में धंसते जूतों के बावजूद शकूर बढ़ रहा था, बढ़ा जा रहा था।
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ठण्डी हो चली लाल ज्वार की मोटी रोटी के टुकड़े को जल्दी से भकोस लेने की गरज से शकूर ने इस दाढ़ तले दबाया तो यकबारगी उसे ठहर जाना पड़ा। अधपिसी ज्वार, घास, किरकिरी, धुंए का कसैलापन और आंच की कमी के कारण कच्चापन। फिर भी एक फौजी और मेहमान के नाते वह रोटी के इस नायाब टुकड़े को नेमत समझ कर थोड़ा-थोड़ा कर गले से नीचे उतार ही गया।
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लेखक-परिचय
जन्म: 10 जुलाई, 1945
कृतियां: छह उपन्यास- अनायक, सफिया, रानी साहिबा, गमना, अंदर बाहर, प्रताड़ित।
दो कहानी संग्रह- बत्तीसवीं तारीख़, पराजित विजेता।
पुरस्कार: उपन्यास‘’अनायक’ पर राजस्‍थान साहित्य अकादमी का रांगेय राघव पुरस्कार।
उपन्यास -‘’सफिया’ पर राजस्‍थान उर्दू अकादमी का तौसीफनामा पुरस्कार।

Sunday 24 May, 2009

आत्महत्याओं के इस दौर में


कुछ बरस पहले आत्‍महत्‍या की खबरें अखबारों में बहुत कम हुआ करती थीं और लोगों को बेहद सदमा भी लगता था। लेकिन इधर देखने में आया है कि रोजाना एक से अधिक आत्‍महत्‍या की ख़बरें आ रही हैं और हर आयुवर्ग के स्‍त्री-पुरूष किसी ना किसी वजह से आत्‍महत्‍या जैसा कदम उठा रहे हैं। सामूहिक आत्‍महत्‍या के मामलों में भी खासी बढोतरी हो रही है। मुख्‍य रूप से देखा गया है कि आत्‍महत्‍या के ज्‍यादातर मामले किसी ना किसी असफलता से जुड़े हुए होते हैं। ज्‍यादातर मामलों में नवयुवकों में आत्‍महत्‍या की यह प्रवृति देखी गई है, जिसका एक बड़ा कारण यह है कि उम्र के एक खास दौर तक मनुष्‍य मानसिक रूप से परिपक्‍व नहीं होता और जिंदगी को लेकर बहुत भावुक होता है, उसे लगता है कि अब क्‍या जीना। देश में पिछले एक दशक में किसानों में आत्‍महत्‍या की प्रवृति भी तेजी से बढ़ी है।
तमाम तरह के खुदकुशी के मामलों का विश्‍लेषण करने पर पता चलता है कि 99 प्रतिशत आत्‍महत्‍या के मामलों में किसी ना किसी प्रकार की असफलता मूल में होती है और एक प्रतिशत लोगों का अनजाने में ही मानसिक तौर पर आत्‍महत्‍या के प्रति झुकाव होता है। असफलता की अगर बात करें तो पता चलता है कि आर्थिक कारणों से यानी आज के महामंदी के दौर में नौकरी ना मिलने, छूट जाने, व्‍यापार या धंधे में घाटा होने, ज्‍यादा कर्जे और आय के सभी स्रोत सूख जाने के कारण भी बहुत से लोग आत्‍महत्‍या या सामूहिक रूप से खुदकुशी करते हैं। आर्थिक असफलता के बाद सबसे बड़ा कारण इधर जो देखने में आया है वो है पढ़ाई में पिछड़ने या खराब परीक्षा परिणाम आने या आने की संभावना के कारण किशोर अवस्‍था से लेकर युवा अवस्‍था तक के लड़के-लड़कियां खुदकुशी करते हैं। प्रेम में असफल युवक-युवतियों द्वारा खुदकुशी की परंपरा सदियों पुरानी है। पारिवारिक संबंधों में तनाव और किसी कारण बदनामी के डर की वजह से भी बहुत से लोग आत्‍महत्‍या जैसा कठोर कदम उठाने के लिए विवश होते हैं। शराब के आदी लोगों में भी खुदकुशी की प्रवृति होती है। इसके अलावा घर में किसी निकट संबंधी की लंबी साध्‍य बीमारी के चलते या किसी परिजन द्वारा गैर कानूनी काम कर जेल चले जाने या किसी वजह से मर जाने के बाद भी कई लोग जीवन को व्‍यर्थ समझ खुदकुशी की ओर बढ़ते हैं। एक अमेरिकी अध्‍ययन के अनुसार इधर युवाओं में आत्‍महत्‍या की प्रवृति ज्‍यादा देखी गई है।
कारण कोई भी हो आत्‍महत्‍या करने वाले यह नहीं जानते कि खुदकुशी के अलावा भी बहुत से विकल्‍प होते हैं, जिंदगी जीने के लिए। लेकिन अक्‍सर ये विकल्‍प दुनिया किसी के चले जाने के बाद बताती है। दुनिया के अनेक देशों में सरकारी और गैर-सरकारी तौर पर ऐसे संगठन बने हुए हैं, जो आत्‍महत्‍या के लिए उत्‍सुक लोगों को जीवन जीने के विकल्‍प सुझाते हैं और उनकी मदद करते हैं। भारत में इस किस्‍म के संगठन बहुत ज्‍यादा नहीं हैं और न ही लोगों को उनकी कोई खास जानकारी है। ऐसे में हमारी सबसे बड़ी संस्‍था यानी परिवार ही है जो इस किस्‍म की प्रवृति को रोक सकती है। लेकिन आधुनिक जीवन शैली और एकल इकाई परिवार के उदय तथा संयुक्‍त परिवार के विघटन के कारण परिवार नाम की यह संस्‍था भी दरक चुकी है और इसी वजह से बहुत से परिवार अपने प्रियजनों को खो रहे हैं। इसके बाद एक ही विकल्‍प बच जाता है कि व्‍यक्ति स्‍वयं को और अपनी सोच को बदले। यह स्‍वीकारे कि इस संसार में किसी भी समस्‍या विकल्‍प आत्‍महत्‍या नहीं है। जिंदगी में जो भी मुश्किलें हैं वे सब किसी ना किसी प्रकार से सुलझाई जा सकती हैं।
आर्थिक रूप से हालत खराब होने के बाद आत्‍महत्‍या करने वाले एक सीधे-सादे पुराने भारतीय विकल्‍प को भूल जाते हैं यानी सादा जीवन उच्‍च विचार। मनुष्‍य को सामान्‍य जीवनयापन के लिए दो वक्‍त की रोटी और थोड़े से कपड़ों के सिवा और क्‍या चाहिए। खर्चों में कटौती कर अत्‍यंत सामान्‍य ढंग से जिंदगी की गाड़ी को खींचा जा सकता है। व्‍यक्ति को बस आरामतलब नहीं होना चाहिए, बल्कि भरपूर मेहनत करनी चाहिए और घर के सदस्‍यों को भी आर्थिक स्थिति ठीक नहीं होने पर अपनी मांगों में कटौती करनी चाहिए। अगर घर के सभी सदस्‍य मिलजुलकर आर्थिक हालात के अनुकूल घर की व्‍यवस्‍था को देखें तो हर हाल में परिवार के भरणपोषण के लिए जिम्‍मेदार व्‍यक्ति का मानसिक तनाव दूर हो सकता है। उत्‍तरदायी व्‍यक्ति को भी सोचना चाहिए कि हालात एक ना एक दिन जरूर बदलेंगे और उस दिन की प्रतीक्षा में मेहनत से जी नहीं चुराना चाहिए और जिंदगी को सकारात्‍मक विचारों से लैस करते रहना चाहिए, अपने घनिष्‍ठ मित्रों और परिजन-शुभचिंतकों से खुलकर बात करनी चाहिए। देश में बहुत से किसान हर साल आत्‍महत्‍या कर रहे हैं और जो नहीं करते वे गांव छोड़कर दूसरे शहरों का रूख कर लेते हैं, जहां उन्‍हें काम और भीख में से एक विकल्‍प तो मिल ही जाता है। शहरों में बढ़ती जा रही भिखारियों की तादाद में गरीब किसान ज्‍यादा हैं। उन्‍होंने मरने से बेहतर रास्‍ता चुना, क्‍योंकि मृत्‍यु कोई समाधान नहीं है।
असफलता को लेकर घबराने वाले लोगों को सोचना चाहिए कि यह खूबसूरत दुनिया दरअसल असफल लोगों ने ही बनाई है। सफलता का कोई तयशुदा गणित नहीं होता और असफलता कभी स्‍थायी नहीं होती। एक नौकरी जाती है तो दूसरी हजारों इंतजार करती हैं और एक व्‍यवसाय में नाकामी दूसरे व्‍यवसाय के लिए तैयार करती है। कैरियर के लिहाज से महात्‍मा गांधी दुनिया के संभवत: सबसे बड़े असफल वकील सिद्ध हुए, जो पहले ही केस में वकालत का पेशा छोड़ गये। लेकिन गांधी जी के लिए जिस तरह एक पूरी दुनिया खुली हुई थी, उसी प्रकार हर व्‍यक्ति के लिए दुनिया में हजारों काम पड़े हैं जो किये जाने हैं, व्‍यक्ति को बस हालात बदलने के लिए संकल्‍प करना चाहिए। अपनी जिंदगी हलाक करने से बेहतर है दूसरों की जिंदगी में उजाला करना। परीक्षा में असफलता इस बात का प्रमाण नहीं कि विद्यार्थी में प्रतिभा नहीं है, हो सकता है उसकी रूचि किसी और दूसरे काम में हो जहां इस पढ़ाई का कोई खास महत्‍व ही नहीं हो। वैसे भी हमारी शिक्षा प्रणाली बहुत अच्‍छी नहीं है, इसमें साल भर की पढ़ाई का दो-तीन घण्‍टों में मूल्‍यांकन किया जाता है जो किसी की मेहनत का मानक नहीं है। एक मित्र ने हाल ही में एक एसएमएस भेजा जो सकारात्‍मक जीवन के लिए बहुत प्रेरणादायक हो सकता है। पाश्‍चात्‍य संगीत के महान कलाकार बीथोवन, महान कवि मिल्‍टन और महान राजनेता फ्रेंकलिन रूजवेल्‍ट तीनों में एक चीज समान थी। ये तीनों किसी ना किसी शारीरिक अक्षमता के शिकार थे। बीथोवन बहरे थे, मिल्‍टन अंधे और रूजवेल्‍ट अपंग थे। कभी इस बात पर भी सोचना चाहिए कि एक वैज्ञानिक कितनी बार प्रयोग करता है और कभी असफलता को लेकर क्‍यों निराश नहीं होता। हजारों प्रयोगों के बाद एक वैज्ञानिक को सफलता मिलती है और कभी कभी तो उसके जीवनकाल में उसके अनुसंधान से कुछ भी रास्‍ता नहीं निकलता और फिर बरसों बाद कोई उसके काम को आगे बढ़ाता है।
प्‍यार में जान देने वाले यह नहीं सोचते कि प्रेम जिंदगी की अहम चीज है, लेकिन अंतिम नहीं। मनुष्‍य के मस्तिष्‍क की संरचना ही ऐसी है कि वह बहुत जल्‍द ही क्षणिक आवेगों और अन्‍य चीजों को भूल जाता है। सभी धर्मों में मृत्‍यु के बाद शोक रखने की अलग-अलग अवधि तय है, वह इसीलिए कि एक परिवार अपने प्रियजन की मृत्‍यु को धीरे-धीरे भूल सके। प्रेम भी एक समय बाद अपना जादुई असर खो देता है। प्रकृति ने मनुष्‍य ही क्‍या समस्‍त प्राणिजगत की संरचना ही ऐसी बनाई है कि मनुष्‍य हो या कोई और, एक जैसी स्थिति में लंबे समय तक नहीं रह सकता। प्रेम सिर्फ साथ रहने और ण्‍क दूसरे के बिना नहीं जी सकने का ही नाम नहीं है, बल्कि प्रेम तो एक दूसरे के बिना भी जीना सिखाता है। दुनिया के अनेक महान साहित्‍यकार और विद्वानों ने प्रेम में असफल रहने के कारण महान किताबें लिखीं। ‘पेराडाइज लोस्‍ट’ के अमर रचयिता दांते ने अपनी प्रेमिका बिएत्रिस की याद में महान रचना लिखी। बिएत्रिस का किसी दूसरे युवक से विवाह हुआ और कुछ दिन बाद वह भी मृत्‍यु को प्राप्‍त हो गई। दांते ने उसे अपनी कविता में अमर कर दिया। प्रेमी-प्रेमिकाओं को खुदकुशी के बजाय यह सोचना चाहिए कि शादी न होने पर वे एक दूसरे को किस प्रकार बेहतर जीवन जीने के लिए प्रेरणा दे सकते हैं और एक दूजे की याद में कौनसा महान काम कर सकते हैं। दुष्‍यंत कुमार का एक शेर बहुत कुछ कहता है-
जियें तो यार की गली में गुलमोहर के तले
मरें मो यार की गली में गुलमोहर के लिए
पारिवारिक संबंधों में उपजे तनाव को दूर करने का सबसे बढिया तरीका है घर-परिवार में प्रत्‍येक मुद्दे पर खुलकर बात करना और एक दूसरे के प्रति मन में किसी भी प्रकार की शंका या संदेह न रखते हुए मिलबैठ कर मामले को सुलझाने का प्रयास करना। पारिवारिक तनाव दरअसल संदेहों से ज्‍यादा बढ़ता है। संदेह आपस में समझ विकसित होने और निरंतर संवाद से ही दूर होते हैं। परिवार में किसी के दुष्‍कृत्‍य से एक बार जरूर बदनामी होती है, लेकिन सचाई यह भी है कि लोगों की याददाश्‍त बहुत कमजोर होती है। समय के साथ सब ठीक हो जाता है। वैसे यह भी स्‍वीकार कर लेना चाहिए कि व्‍यक्ति स्‍वयं अपने कृत्‍य के लिए उत्‍तरदायी होता है और कई मामलों में तो यह भी देखा गया है कि लोग कथित बदनामी से बचने के लिए गांव या शहर छोड़ने का आसान विकल्‍प अपनाते हैं, जिंदगी को दाव पर लगाने से बेहतर है यह विकल्‍प।
इधर कुछ वर्षों से यह भी देखने में आया है कि गंभीर बीमारी से पीडि़त रोगी या घर वाले आत्‍महत्‍या के बजाय जिंदगी को पूरी जिंदादिली के साथ जीने में लग जाते हैं। इस किस्‍म की बाजार में बहुत सी किताबें हैं जो रोगियों ने लिखी हैं। जिसके जीने की आस डॉक्‍टरों को भी नहीं होती वह अपने हौंसलों से मृत्‍यु को ठेंगा दिखाता हुआ जिंदगी को शान से जीता है। हाल ही में दिवंगत हुईं जेड गुडी की ही मिसाल लीजिए जिसने जिंदगी के आखिरी बरसों में किस शानदार ढंग से जीवन जीया।
आत्‍महत्‍या से बचने के लिए उपर सुझाये गये विकल्‍पों के अलावा कुछ और भी विकल्‍प हैं। मनुष्‍य ने अपनी बोरियत और तनावों को दूर करने के हजारों सांस्‍कृतिक उपकरण तैयार किये हैं। व्‍यक्ति को जिस भी चीज का शौक हो उसे दिल खोलकर करना चाहिए। बल्कि हम सबको चाहिए कि अपने बच्‍चों में भी इन रूचियों को विकसित करने के प्रयास करें, ताकि वे पढ़ाई के अलावा भी दुनिया की बेहतरीन कलाओं का आनंद ले सकें। गीत-ग़ज़ल गाना और वाद्ययंत्र बजाना, संगीत सुनना, चित्र बनाना, कला प्रदर्शनियां देखना, किताबें पढ़ना, योगाभ्‍यास और ध्‍यान करने के साथ सुबह-शाम घूमना, नियमित डायरी लिखना, यायावरी करना, कंप्‍यूटर पर गेम खेलना, इंटरनेट पर चैटिंग करना, सिनेमा-टीवी देखना, दोस्‍तों के साथ गप्‍पगोष्‍ठी करना, ताश खेलना और हर समय अपने आपको किसी ना किसी काम में व्‍यस्‍त रखना। ‘हमराज’ फिल्‍म का यह गीत हमेशा गुनगुनाते रहना चाहिए, ‘ना सर झुका के जिओ और ना सर छुपाके जिओ, गमों का दौर भी आये तो मुस्‍कुराके जिओ’।

Sunday 17 May, 2009

राजस्थानी प्रेम कहानी-जेठवा उजली


राजस्थान के लोकसाहित्य को संरक्षित, सवंर्द्धित और विकसित करने का जो काम विजयदान देथा ‘बिज्जी’ ने किया, उसी परंपरा की एक और महत्वपूर्ण रचनाकार हैं रानी लक्ष्मीकुमारी चूण्डावत। बातपोशी यानी कथा कहने की जो समृद्ध परंपरा राजस्थान में रही है, उसे कलमबद्ध कर आने वाली पीढ़ियों के लिए सहेजने का महान कार्य करने वाली इस 93 वर्षीय महान लेखिका का जन्म 24 जून, 1916 को हुआ। रानी जी ने राजस्थानी और हिंदी साहित्य को न केवल लोकसाहित्य संरक्षित करके ही समृद्ध किया, अपितु अनुवाद, मौलिक लेखन और यात्रा संस्मरणों से भी हमारे साहित्य के गौरव में श्रीवृद्धि की। राजस्थान की सांस्कृतिक परंपराओं और रीतिरिवाजों पर उनकी दो अत्यंत महत्वपूर्ण किताबें हैं। रवींद्रनाथ टैगोर की बांग्ला कहानियों के अलावा आपने रूसी और विश्‍व की कई भाषाओं से कहानियों का राजस्थान में अनुवाद किया। ‘देवनारायण बगड़ावत महागाथा’ आपका ऐतिहासिक महत्व का ग्रंथ है। रानीजी के विशद रचना संसार में संरक्षित लोककथाओं में ‘जेठवा उजली’ एक अत्यंत लोकप्रिय प्रेम आख्यान है। इस पर राजस्‍थानी भाषा में एक लोकप्रिय संगीतमय फिल्‍म भी बन चुकी है। राजस्‍थान के प्रख्‍यात रंगकर्मी आर साहित्‍यकार डॉ. अर्जुनदेव चारण इस कहानी पर एक विख्‍यात नाटक भी देश भर में मंचित कर चुके हैं।
एक दिन बरड़े की पहाड़ियों में जबर्दस्त आंधी, तूफान के साथ मूसलाधार बारिश हुई। बरसात ऐसी कि इस तलहटी में अपने पशु चराने आए चारणों के परिवारों के बच्चे सहम गये और अपनी मांओं की छातियों से चिपक गए। बूढों को लगा जैसे आज ही काल आ गया। क्या औरत, क्या आदमी और क्या बच्चे सब ईश्‍वर से प्रार्थना करने लगे कि प्रभु अपनी इस प्रकोपी बरसात को वापस ले लो। एक कामचलाउ झोंपड़ी में अस्सी बरस का बूढा अमरा चारण अपनी गुदड़ी में दुबका, ठिठुरता हुआ माला के मनके फर रहा था। आधी रात का वक्त इस भयानक बारिश में कब आ गया पता ही न चला। ऐसे ही वक्त अमरा को झोंपड़ी के बाहर घोड़े की टापों की आवाज सुनाई दी। वो आवाज थोड़ी देर में आवाज झोंपड़ी के बाहर आकर रूक गई। घोड़े की हिनहिनाहट सुनाई दी। बूढे अमरा ने अपनी जवान बेटी को आवाज दी, ‘बेटी उजली! उठकर जरा बाहर तो देख, इस तूफानी रात में कौन आया है।‘
ठण्ड में कांपती उजली ने गुदड़ी फेंकी और बाहर देखा तो एक घोड़ा खड़ा था। घुड़सवार घोड़े के पांवों के पास गठरी हुआ पड़ा था, बिल्कुल अचेत, पानी में तर बदन और आंखें बंद। उजली ने बापू को सारा दृश्‍य बताया तो बूढा बाप बाहर आया और देखा कि नौजवान घुड़सवार की नाड़ी चल रही है। दोनों बाप-बेटी जैसे-तैसे कर नौजवान को झोंपड़ी के भीतर लाए। बाप ने बेटी से कहा कि इस नौजवान को बचाना है तो इसका शरीर गर्म करना पड़ेगा, नही तो ठण्ड के मारे बदन अकड़ जाएगा। उजली ने बापू से कहा कि गुदडी़ तो एक ही है, बाकी सब बरसात में गीली हो गई हैं। पिता ने कहा कि चूल्हे में आग जला कर भी गर्मी पैदा की जा सकती है। उजली ने बताया कि थोड़ी-सी लकड़ियां हैं लेकिन वो भी गीली हैं। भयानक बारिश के बीच यह एक और भयानक संकट। घर आया अतिथि मर जाए तो भयानक पाप के भागी होंगे बाप-बेटी। पिता ने आखिरी उपाय सोचकर कहा, ‘बेटी अगर यह मर गया तो नरक में भी जगह नहीं मिलेगी, घर आए मेहमान की जान बचाना हमारी जिम्मेदारी है। अब तो एक ही उपाय है कि अपने बदन की गर्मी से इसकी जान बचाई जाए। मेरे बूढे शरीर में तो गर्मी है नहीं, तू अपने बदन की गर्मी इसे देकर बचा सकती है।’ बेटी बाप का मुंह देखती रह गई। बाप ने कहा, ‘इस बेहोश नौजवान के साथ भांवरें ले और ईश्‍वर को साक्षी मान कर कह कि आज से यही मेरा पति है।’ उजली ने पिता की बात मानी और परदेसी के साथ भांवर ले भगवान को प्रणाम कर अनजान परदेसी को पति स्वीकार किया और गुदड़ी में उसे लेकर सो गई।
उजली के बदन की गर्मी से नौजवान परदेसी की बेहोशी टूटी और फिर टूट गये सब बंधन। दो अनजान बदन एक ही रात में एक दूजे के हो गए। पोरबंदर का राजकुमार जेठवा गरीब अमरा चारण की उजली का संसार हो गया। सुबह बारिश थमने के बाद दोनों के बीच मिलन और धूमधाम से शादी के वायदे हुए। कुछ दिन उजली के साथ बिताकर जेठवा वापस चला गया।
बीच में जेठवा अपने पिता यानी पोरबंदर के महाराजा से शिकार पर जाने की कहकर उजली से मिलने आता। छुपकर उजली से मिलता और विवाह के मंसूबे बांधता। फूलों के गहने बना उजली को पहनाता, रात बिताकर सुबह वापस चला जाता। गुपचुप प्रेम की बात आखिर कब तक छुपी रहती, पहले लोगों में बात फैली और फिर राजा तक पहुंची। राजा ने सुना तो जेठवा को बुलाकर धमकाया, ‘चारणों की बेटी राजपूत के लिए बहन समान होती है, खबरदार जो कभी उस लड़की से शादी करने का सपना भी देखा।’ जेठवा ढीला पड़ गया और धीरे-धीरे उजली को भूलने लग गया।
उधर उजली जेठवा की राह तकती रही। वह सुबह से लेकर शाम तक पोरबंदर की तरफ जाने वाली राह पर जेठवा के घोड़े की टापों की आवाज सुनने और जेठवा को देखने के लिए बैठी रहती। कभी उस राह कोई घुड़सवार आता तो उसकी आंखों में चमक आ जाती लेकिन जब वो पास आता तो जेठवा को ना पाकर फिर निराश हो जाती। रातों में वो चांद सितारों से जेठवा को लेकर बातें करतीं। लेकिन अब ना तो जेठवा को आना था और न ही वो आया। आषाढ़ के बादल फिर आए और बरसने लगे। उजली के मन पर बरसात की बूंदें अंगारों की तरह पड़ने लगीं। विरही उजली के दिल में विरह के गीत गूंजने लगे। उजली ने अपने रचे सोरठे जेठवा के पास भेजे, जवाब में जेठवा ने कहला भेजा, ‘तू चारण की बेटी, मैं राजपूत, मेरे लिए तू बहन समान, भूल जा मुझे और कर ले किसी चारण से ब्याह।’ उजली ने जवाब में कहलवाया, ‘जिससे मन लग जाए वही प्रेम और पति होता है, जात-पांत का कोई भेद नहीं होता प्रेम में।’ लेकिन जेठवा का पत्थर दिल जरा भी नहीं पिघला। उसने उजली को कहला भेजा कि अगर तुझे जात-पांत की परवाह नहीं तो मुझसे भी बड़े राजा हैं, कर ले उनसे ब्याह।‘
उजली के तन-मन में आग लग गई। गुस्से से भरी उजली एक दिन निकल पड़ी पैदल ही पोरबंदर की राह। महल के बाहर भूखी-प्यासी पड़ी रही तीन दिन तक। तीसरे दिन जेठवा ने झरोखे से झांकते हुए कहा, ‘उजली तू किसी चारण के बेटे से शादी कर ले और मुझसे आधा राज ले ले।’ सुनकर उजली उठी, पास ही रत्नाकर सागर लहरा रहा था, उजली गई और सीधे सागर में कूद गई।
कहानी अंश
अठारह साल की कुंवारी कन्या बाप का मुंह देखती रह गई।
‘बेटी, यह धर्म है पाप नहीं।’ ठंडी आवाज में बाप ने कहा।
‘अचेत सोए आदमी की दो भांवरें ले, ईश्‍वर को साक्षी मान कह, आज से यह परदेसी मेरा पति’।
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उजली के दिल का दर्द काव्य की लड़ी में गुंथता जाता, उसकी जबान से दोहों और सोरठों की झड़ी लगने लगती। उसे सारा संसार ही जेठवामय दिखाई देता। पशु, पक्षी, ताल, तलैया, सारी प्रकृति में उसे जेठवा घुलामिला लगता। खेत में सारस का एक जोड़ा चुग रहा था। उजली रो पड़ी, संसार में प्रेम को निभाने वाला सारस का जोड़ा या फिर चकोर पक्षी। जेठवा, मुझे तो तीसरा कोई प्रेम निभाने वाला दिखाई नहीं देता।
लेखिका-परिचय
जन्म 24 जून, 1914
सम्मान-पुरस्कार
पद्मश्री, साहित्य महामहोपाध्याय, राजस्थान रत्न, तेस्सीतोरी स्वर्ण पुरस्कार, महाराणा कुंभा पुरस्कार, सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार सहित अनेकों सम्मान व पुरस्कार
विशेष
राष्ट्रसंघ के निशस्त्रीकरण सम्मेलन में भारत का प्रतिनिधित्व और कई विश्‍व सम्मेलनों में भाग लिया और यात्रा संस्मरण लिखे। राजस्थान प्रदेश कांग्रेस की प्रथम महिला अध्यक्ष बनीं, तीन बार विधायक रहीं और राज्यसभा की सदस्य रहीं।
प्रकाशन
हिंदुकुश के उस पार, शांति के लिए संघर्ष, अंतध्र्वनि, लेनिन री जीवनी, सांस्कृतिक राजस्थान, राजस्थान के रीतिरिवाज, देवनारायण बगड़ावत महागाथा
अनुवाद- रवि ठाकर री बातां, संसार री नामी कहाणियां, सूळी रा सूया माथै- जूलियस फ्यूचिक की ‘फांसी के तख्ते से’ का अनुवाद, गजबण-रूसी कहानियों का राजस्थानी अनुवाद। करीब चालीस किताबें प्रकाशित।

Wednesday 13 May, 2009

जयपुर बम धमाकों की बरसी पर सोचो


एक आंधी में इतने पेड़ उखड़ते देखे हैं मैंने
अब पत्‍ता भी हिलता है तो मेरा दिल कांप उठता है
- ओमप्रकाश ‘नदीम’
13 मई सिर्फ एक दिन नहीं, बल्कि एक ऐसी तारीख है, जिसे याद करना लगातार एक भयानक यातना से गुजरना है। वक्‍त का पहिया आंसुओं को सुखा देता है, लेकिन दिलोदिमाग पर पड़ी खौफ़ और दर्द की ख़राशों को नहीं मिटा सकता, बल्कि वो दिन याद आते ही दर्द की लकीरें कुछ ज्‍यादा लंबी हो जाती हैं। एक बरस पहले कुछ हमलावरों ने तीन सदी पुराने इस अमनपसंद गुलाबी शहर की शांति छीन ली थी, और इस एक बरस में ना जाने कितनी बार उस दिन को फिर से दोहराने की कोशिश भरी अफ़वाहों में यहां के बाशिंदे दहशत के साये में अपने हौसलों के दम पर जिंदादिली के साथ रोजमर्रा के जीवनसंघर्ष में शहर की पहचान को कायम रख सके हैं। लेकिन 13 मई की तारीख आज भी इस शहर के बाशिदों से ही नहीं यहां के कर्णधारों और कानून-व्‍यवस्‍था के अलमबरदारों से सवाल-दर-सवाल कर रही है कि ‘कहां गये वो वायदे वो सुख के ख्‍वाब क्‍या हुए’।
‘हर नई दुर्घटना पिछली दुर्घटनाओं को कार्यसूची से बाहर कर देती है’, क्‍या हम 13 मई की तरह फिर किसी हमले के इंतजार में लापरवाही के साथ आराम से बैठे यह नहीं सोच रहे कि यह मेरा काम नहीं, जो होगा देखा जाएगा, अभी तो कोई दिक्‍कत नहीं। हम ना खुद से सवाल करते हैं और न ही कर्णधारों से और यकीन मानिए हमारी आंखें तब भी नहीं खुलेंगी जब दूसरा हमला होगा। हम फिर एक खास समुदाय और पड़ोसी मुल्‍क पर गुस्‍सा होंगे और किसी ना किसी को उत्‍तरदायी ठहराते हुए अपनी जिम्‍मेदारी से पल्‍ला झाड़ लेंगे और इसके बाद शुरू होगा आतंकवादी के नाम पर बेगुनाह लोगों और निर्दोष अल्‍पसंख्‍यकों को हिरासत में लेने और फिर निर्दोषों की सचाई सामने आने पर बगलें झांकने और नए सिरे से कार्यवाही की शुरूआत का एक अंतहीन सिलसिला। आखिर कब तक यह सब चलता रहेगा। इस एक बरस में हमने आखिर इसके सिवा देखा ही क्‍या है? पुलिस के तमाम दावों और मीडिया इन्‍वेस्टिगेशन के नाम पर बेगुनाह लोगों की जिंदगी बरबाद करने के सिवा हमने क्‍या किया आखिर। उस युवक के बारे में हम क्‍यों नहीं सोचते जिसने डॉक्‍टर बनने का ख्‍वाब ही नहीं देखा, बनने जा रहा था, उसकी जिंदगी बम धमाकों से नहीं हमारी जल्‍दबाजी से और लापरवाही से तबाह हुई, क्‍या वो बमकांड के पीडि़तों में शामिल नहीं है। ऐसे कितने लोग हैं, इसकी हमें ठीक-ठीक जानकारी भी नहीं है। वो तो अच्‍छा हुआ कि पोटा जैसा काला कानून नहीं था, वरना ऐसे निर्दोष जिंदगी भर जेलों में सड़ते रहते।
जिन घरों पर 13 मई के हमलों का कहर टूटा, उनकी हालत इन आंखों से देखी नहीं जाती। बचे हुए लोगों को इलाज के नाम पर क्‍या मिला, मृतकों के परिवारों को हर्जाने के नाम पर क्‍या हासिल हुआ, जिनका काम-धंधा चौपट हुआ वो कहां हैं, क्‍या हमने इन सवालों पर कभी ग़ौर किया है। पीयूसीएल की एक जन-सुनवाई में ऐसे सैंकड़ों सवाल उठाये गये थे, लेकिन यकीन मानिए अखबारों में उसका बेहद संक्षिप्‍त विवरण छपा, क्‍योंकि वो जन-सुनवाई 13 मई को नहीं हुई। मीडिया में अब आतंक की खबर भी जयंती-पुण्‍यतिथि की तरह ही बिकती है। आतंकवाद को इस कदर सांप्रदायिक रंग दे दिया गया है कि बेगुनाह अल्‍पसंख्‍यक की पैरवी करना आतंकवादियों के पक्ष में खड़ा होना माना जाता है। और बहुसंख्‍यक को आतंकवादी साबित होने के बाद भी गौरवान्वित किया जाता है और निर्दोष माना जाता है।
इस एक बरस में हम जरा भी नहीं चेते, आज भी उसी तरह लोग अपने वाहन बेतरतीबी से पार्क करते चले जा रहे हैं, कोई किसी को नहीं टोकता कि अपने वाहन पर सामान छोड़कर क्‍यों जा रहे हो। पुलिस शायद ही कभी किसी के सामान या वाहन की जांच करती है, लोग अपने साइकिल-दुपहियों पर इतना बड़ा माल-असबाब ले जाते हैं कि हैरत होती है। दिल्‍ली के अलावा दूसरे रास्‍तों से आने वाली बसों और दूसरी गाडियों में कौन क्‍या ला रहा है कोई नहीं देख रहा। दाढ़ी और टोपी के सिवा हम किसी पर शक नहीं करते। आज भी लोग उसी तरह अनजान लोगों को मकान किराये पर दे रहे हैं, चंद पैसों के लिए होटल, गेस्‍ट हाउस वाले किसी के पहचान दस्‍तावेज की मौलिकता या वैधता पर सवाल नहीं करते। क्‍या हम तभी जागेंगे जब 13 मई को किसी और तारीख में दोहराया जाएगा। बकौल शायर ओमप्रकाश नदीम -
उस पेड़ से उम्‍मीद फल की कोई क्‍या करे
आपस में जिसके गुंचा-ओ-ग़ुल में तनाव है

Sunday 10 May, 2009

विजय दान देथा 'बिज्जी' की कहानी नाहरगढ़



भारतीय साहित्य के गौरवशाली रचनाकार विजयदान देथा उर्फ ‘बिज्जी’ की कहानियों में एक तरफ लोक का जादुई आलोक है तो दूसरी तरफ सहज चिंतन और गहरे सामाजिक सरोकारों से ओतप्रोत एक सजग रचनाकार का कलात्मक एवं वैचारिक स्पर्श। भारतीय मेधा का उत्कृष्ट रूप अगर आपको देखना हो तो आपको बिज्जी की कहानियों से एक बार रूबरू होना ही पडे़गा। उनकी कहानियों पर पहेली, परिणति और दुविधा जैसी फिल्में बन चुकी हैं और हबीब तनवीर विश्विख्यात नाटक ‘चरणदास चोर’ दुनिया भर में प्रदर्शित कर चुके हैं। बिज्जी के कथालोक में ‘नाहरगढ’ एक अनूठी कहानी है, जो जानवरों के माध्यम से मानवीय जगत की बुराइयों और उसके तमाम अच्छे-बुरे पहलुओं की तरफ संकेत करती है।
एक बडे धनी सेठ ने लक्खी बंजारे से 108 मोहरों में एक खूंखार सिंधी कुत्ता खरीदा, जिसका नाम था नाहर। यथा नाम तथा गुण नाहर ने सेठ की दौलत की ऐसी रखवाली की कि चोर-डाकू सेठ की ड्योढी की तरफ आते हुए भी डरते। नाहर ने कइयों को यमलोक पहुंचा दिया। सेठ के तीन लडकों में सबसे बडा शादीशुदा था और उसकी बीवी गहनों की शौकीन। बीवी ने पति के ऐसे कान भरे कि एक दिन वह चोरों के साथ मिलकर पिता की सारी दौलत ले उड़ा। लड़के ने एक पखवाड़े तक नाहर को रोज आधी रात को चूरमा खिलाना शुरू किया और सोलहवीं रात खिलाते-खिलाते नाहर को प्यार से सहलाते हुए उसके मुंह पर तारों की छींकी बांध दी और उसके चारों पैर रस्सी से बांध दिये। बंधनों में जकडा़ नाहर कुछ ना कर सका और उसकी आंखों के सामने ही चोर और सेठ का बेटा सारी दौलत साफ कर गये।
सुबह उठकर सेठ-सेठानी ने जो देखा तो दोनों के होश उड गये। उन्होंने इसके लिए नाहर को ही दोषी ठहराया। सेठ ने नाहर को बहुत मारा, लेकिन वह यह सोचकर सह गया कि मालिक बिचारा तमाम दौलत लुट जाने से दुखी है। नाहर ने सेठ-सेठानी से अपनी सफाई में जो भी हो सकता था वो कहा लेकिन दोनों ने उसकी एक ना सुनी और उसे घर से बाहर कर दिया। नाहर को उन्होंने रोटी देना भी बंद कर दिया। नाहर को रोटी से ज्यादा इस बात की चिंता थी कि उस पर ही तोहमत लगाई गई और बेटे की करतूत पर सेठ को बिल्कुल भी गुस्सा नहीं आया। सेठ ने मानाकि नाहर की मिली भगत के बिना कोई परिंदा भी उसकी दौलत की तरफ पर नहीं मार सकता था। सात दिन तक नाहर को ना रोटी मिली ना पानी। वह दुबला गया और भूख के मारे चिंतन करते नाहर को जैसे एक नई दिशा मिल गई। सातवें दिन वह एकदम उछलकर खडा हो गया और पांच-सात बार जोर-जोर से भोंका। गुस्साए सेठ-सेठानी बाहर आए तो नाहर ने कहा, ‘कसम खाता हूं कि आइंदा किसी इंसान की चौखट नहीं चढूंगा और कोशिश करूंगा कि कोई कुत्ता इंसान के तलवे ना चाटे। अब तो इस दुखी कौम के उद्धार के लिए ही मेरी जिंदगी है।’
सेठ की ड्योढी छोडकर नाहर निकला तो कौम के कुत्तों से संवाद हुआ। नाहर ने सबको समझाया कि इंसान से अलग एक नई बस्ती बसाने का वक्त आ गया है, जहां वे अपनी अलग दुनिया में रहेंगे और एक आजाद जिंदगी जीएंगे। कुत्तों को पहले तो नाहर की बातें समझ ही नहीं आईं कि आखिर इंसान के बिना कुत्ते रह कैसे सकते हैं। लकडबग्घे उन्हें कभी भी मार डालेंगे। नाहर ने एक-एक कुत्ते को सौ-सौ बार समझाया तब जाकर कुछ के समझ में आया। नाहर की मेहनत से आखिरकार सूने जंगल में ग्यारह हजार कुत्तों की एक अलग बस्ती बसाई गई और नाहर के नाम पर उसका नामकरण किया गया ‘नाहरगढ’। कुत्तों की आदतों में हुए बदलाव और उनके बीच एकता की परख करने के लिए नाहर उन्हें गंगा स्नान कराने के लिए ले गया और वापसी में पाया कि कुत्ते सचमुच बदल गए हैं। कुत्तों की इस बस्ती का जल्द ही दूर-दूर तक डंका बजने लगा। इंसान डर के मारे सीधा हो गया। लकडबग्घे दूर भाग गये। नाहर ने एक आदेश निकाला कि हर गांव से दो-दो मोतबर आदमी नाहरगढ आकर बातचीत करें।
नाहर के बुलावे पर तीन सौ लोग आए, जिनमें सेठ और उसका लडका भी शामिल था। नाहर ने फरमान सुनाया कि अगले पांच साल तक इस बस्ती के तमाम कुत्तों के रहने, खाने-पीने और पहनने-ओढने का बंदोबस्त करना है। यह युगों की गुलामी का हर्जाना है। गेहूं का दलिया, गुड, घी और नारियल की गिरी, खाने के लिए बडे थाल और पचास टहलुए, जो हरदम सेवा में रहें। गांव वालों ने हिसाब-किताब लगाकर सब इंतजाम करने का वचन दिया। इंसानी हाथ और बुद्धि के कौशल से सबके लिए अलग-अलग झोपडियां बनीं और बीचोंबीच एक शानदार गढ बनाया गया। सरदी से बचाव के लिए सबकों ऊनी झूल दी गई। बस्ती का सारा काम सहज गति से चलने लगा। नाहर ने कौम के लिए एकनिष्ठ सहवास का जो नियम बनाया उससे पहले तो परेशानी हुई लेकिन आखिर सबको मानना पडा। हर पूनम की रात सभा जुटती जिसमें नाहर एक ही बात कहता कि इंसान के अलावा हमें किसी से खतरा नहीं है। इंसान इस बस्ती की तरक्की से जल रहा है और वो कोई ना कोई षडयंत्र रचने में लगा होगा, इसलिए हमेशा सावधान रहना।
नाहर को बस्ती के एकछत्र राजा होने के कारण कुछ अभिमान भी हो गया था। होशियार कुत्तों ने नाहर को खुश रखने के लिए अपनी बीवियों को उसके पास भेजा। नाहर पहले तो कडा रहा लेकिन जब नरम पडने लगा तो ऐसा पडा कि उसने कुत्ते-कुत्ते में फर्क करना शुरू कर दिया। सत्ता के अहंकार ने नाहर में दूसरी बुराइयां भी पैदा कर दीं, वह सुबह सोचता कि सूरज उग जाना चाहिए और थोडी देर में सूरज उग जाता। उसे लगने लगा कि दुनिया में जो कुछ हो रहा है, सब उसी की इच्छा और मर्जी के कारण होता है। बारिश, बादल, हवा, चांदनी, दिन, रात सब उसकी वजह से होते हैं।
अगले साल बस्ती की आबादी बीस गुना बढ गई तो पचास आदमियों की तादाद इतनी बडी आबादी के लिए झोंपडी बनाने के लिए कम पडने लगी। आदमी बढाने की बात नाहर को ठीक नहीं लगी, अगर ज्यादा आदमी हो गये तो वो बस्ती को बर्बाद कर देंगे। उसने नया आदेश निकाला कि एक परिवार में एक ही पिल्ला रहेगा, बाकी खाने के काम आएंगे और आदेश के साथ ही हजारों पिल्ले मारे गये। गलियों में पिल्लों के खून की नदियां बह गईं।
नाहर बस्ती को विश्‍वास दिलाता कि इंसान उनका दुश्‍मन नंबर एक है। भरोसेमंद भेदिये पक्की खबर लाए हैं कि एक लाख लक्कडबग्घों की फौज नाहरगढ पर हमला करने की तैयारी में है। बस्ती को एक रहना है। बस्ती के कुछ कुत्तों को इंसान ने तोड लिया है। ऐसे कुत्तों से होशियार रहना है। नाहरगढ की गलियों में मुनादी गूंजने लगी। हेलिया नामक कुत्ते के यह बात गले नहीं उतरी और उसने धीरे-धीरे कुत्तों को अपने साथ लेना शुरू कर दिया, हेलिया के समर्थक बढने लगे। नाहर को उसकी भनक लग चुकी थी। उसने तय किया कि मौका आने पर वह हेलिया को ठिकाने लगा देगा। और जल्द ही वह मौका आ गया।
एक सुबह एक बैलगाडी पर एक आदमी भींटोरा लेकर जा रहा था। नाहर की गर्जना से बस्ती इकट्ठी हो गई। नाहर ने कहाकि जिस चीज का डर था वह आ गई है। उसने कहाकि बैलगाडी पर काली मौत आ रही है, इसलिए सब जोर से भौंको। बैलगाडी के नजदीक आने पर हेलिया ने कहाकि यह मौत नहीं है, यह तो दरअसल झरबेरियों के झाड हैं, जिनसे इंसान बाड बनाते हैं, इससे कोई खतरा नहीं। नाहर को हेलिया का यह अंदाज नागवार गुजरा। उसने हेलिया को खूब भला-बुरा कहा। हेलिया कुछ कहता इससे पहले ही नाहर ने सबको जोर से भौंकने का आदेश दे दिया। कुत्ते भोंकते रहे और बैलगाडी चुपचाप चली गई। हेलिया ने कहाकि नाहरगढ के भाग्य से यह खतरा टल गया है फिर भी सावधान रहने की जरूरत है। नाहर ने कहाकि खतरा टला नहीं छुप गया है, रात को अचानक हमला हो सकता है। यह कहकर वह खतरे को देखने के लिए बैलगाडी की तरफ चल दिया।
बहुत दूर तक चलने के बाद नाहर को लगा कि कोई खास खतरा नहीं है, इसलिए वह बैलगाडी के नीचे चलने लगा। बैलगाडी के साथ चलते-चलते उसे लगा कि बैलगाडी उसी की वजह से चल रही है, जब वह रूकता तो बैलगाडी भी रूक जाती। उसे लगा बैलगाडी क्या यह सारी दुनिया उसी के भरोसे चल रही है। इस अहसास के साथ वह वापस लौट आया। चबूतरे पर खडे होकर उसने घोषणा की कि डरने की कोई जरूरत नहीं, मेरे होते हुए नाहरगढ पर कोई खतरा नहीं है। मेरे कारण वह बैलगाडी चलती रही, मैं रूकता तो वह भी रूक जाती। इस पर हेलिया ने कहा कि आप बस एक शंका का समाधान कर दें कि बैलगाडी यहां तक कैसे आई और अब जब आप यहां हैं, वह कैसे चल रही है। नाहर को लगा यही ठीक समय है और उसने हेलिया के खिलाफ ऐसा धुंआधार बोलना शुरू किया कि नाहर के विश्‍वासपात्र कुत्तों ने हेलिया और उसके समर्थकों के चिथडे-चिथडे कर डाले। जब चार-पांच कुत्ते हेलिया की खोपडी पर झपटकर उसका भेजा खाने लगे तो नाहर ने उन्हें रोक दिया, ‘खबरदार जो इस गद्दार का भेजा खाया, इसे खाकर तुम्हारा भी दिमाग खराब हो जाएगा।’ सब वहां से हट गये। वह खोपडी आज भी वहीं पडी है, खाने के लिए सबका मन ललचाता है, लेकिन किसी की हिम्मत नहीं होती। एक कडकती आवाज फिजाओं में गूंजती रहती है-खबरदार! खबरदार!!
बिज्जी की इस कहानी में अनेक स्तरों पर नए-नए अर्थ ध्वनित होते हैं। एक तरफ यह मनुष्य द्वारा अपने पालतू कुत्ते के प्रति बिना वजह अविश्‍वास करने के कारण उपजी परिस्थितियों में कुत्ते के मानसिक विचलन और मनुष्य जाति से ही मुक्ति की कथा है तो दूसरी तरफ नाहरगढ बस्ती के बहाने मनुष्य जगत की कमजोरियों का कुत्तों के माध्यम से प्रत्याख्यान है। संक्षेप में कहें तो किसी भी जाति की मुक्ति अकेले नहीं हो सकती, इसी बात को यह कहानी रेखांकित करती है। मुक्ति चाहे मजलूमों की हो या जानवरों की वह साहचर्य और सामूहिक रूप से ही संभव है। दरअसल कुत्ता यहां एक प्रतीक भर है जिसे आप किसी भी वंचित समुदाय से जोडकर देख सकते हैं, जो अज्ञान के अंधेरे में मुक्ति की कामना करता है।

कहानी अंश
खून के आंसू रोते नाहर बोला, ‘ऐसा क्या किया मैंने! बेटे के अकरम का गुस्सा मुझ पर निकालते हो! अपने बाप से घात करने वाला मुझे कब छोडता! पैसा तो आदमी के हाथ का मैल है। फिर कमाया जा सकता है। पर मेरा यह कलंक तो मरकर भी नहीं मिटेगा। मुझे आपसे यह उम्मीद नहीं थी।’
सेठानी के होशोहवास ने जवाब दे दिया था। ताली बजाकर जोर से हंसी। बोली, ‘तू क्या समझता है, अपने जाए बेटे से मुझे यह उम्मीद थी! हम इंसान तो पैसों के लिए एक-दूसरे का गला काट सकते हैं, पर तुझे तो पैसों का लोभ नहीं। तेरी नीयत क्यूं खराब हुई?’
वो सुबकते बोला, ‘इस तोहमत से तो अच्छा है आप मुझे मार डालें।’
ःःःःःःःःःःःःःः
सबका मांस नोचने के बाद जब चार-पांचेक कुत्ते हेलिया की खोपडी पर झपटे तो नाहर उन्हें होशियार करते दहाड़ा, ‘खबरदार! इस गद्दार का भेजा मत खाना, वरना तुम्हारा दिमाग भी बिगड़ जाएगा।यह बहुत खतरनाक छूत की बीमारी है, जो मौत से पहले ही मार डालती है। खबरदार, जो किसी ने इसकी ओर देखा तो।’

Tuesday 5 May, 2009

इतिहास में यायावरी और लेखन

यायावरी और लेखनकला का लिखित इतिहास लगभग दो हजार साल पुराना है। विश्‍व इतिहास में हमें पहली किताब प्राचीन यूनान के यात्री पावसानियास की 'डेस्क्रिप्‍शन आफ ग्रीस’ मिलती है, जिसमें दूसरी शताब्‍दी के यूनान के बारे में प्राथमिक किस्‍म की जानकारियां मिलती हैं। पावसानियास के काम को साहित्‍य और पुरातत्‍व का मिलाजुला दस्‍तावेज माना जाता है। एक अनुमान के मुताबिक वह लीडिया का रहने वाला था और उसने प्राचीन यूनान ही नहीं रोम और मिश्र की भी यात्रा की थी। उसने मिश्र के पिरामिड, एम्‍मान का मंदिर, मैसिडोनिया में आरफियस का गुंबद, इटली से गुजरते हुए कंपानिया शहर और ट्राय शहर के अवशेष देखे। लिखित इतिहास में पावसानियास के बाद ईरान के नासिर खुसरो की ‘सफरनामा’ का भी खासा महत्‍व है। नासिर खुसरो का जन्‍म आज के अफगानिस्‍तान में सन 1004 में हुआ था। वह एक कवि, दार्शनिक और इस्‍लामी विद्वान था, जिसे गणित, चिकित्‍साशास्‍त्र और ज्‍योतिष-खगोलशास्‍त्र का भी अच्‍छा ज्ञान था। उसने मध्‍य-पूर्व और भारत तक की यात्रा की थी। सन 1046 से 1052 के बीच नासिर खुसरो ने करीब सात साल में उन्‍नीस हजार किमी की यात्रा की। उसने मक्‍का, कैरो, बगदाद, सीरिया, यरूशलम, लाहौर, मुल्‍तान और सिंध की यात्रा की। खुसरो के बाद स्‍पेन के कवि इब्‍न जुबैर का यात्रा वृतांत ‘द ट्रेवल्‍स आफ इब्‍न जुबैर’ मिलता है, जिसने सन 1183 से 1185 के बीच स्‍पेन से समुद्री यात्रा शुरू की और मिश्र, अलेक्‍जेंड्रिया, कैरो, मक्‍का, मदीना, यरूशलम, बगदाद और सिसिली की यात्रा की।
तेरहवीं शताब्‍दी के विश्‍वप्रसिद्ध यात्री मार्को पोलो से सब परिचित हैं। उसने लौटकर अपनी यात्रा का जो वृतांत पश्चिमी दुनिया के सामने रखा, उस पर लोग विश्‍वास भी नहीं करते थे। मार्को पोलो पहला पश्चिमी यात्री था, जिसने चीन की यात्रा की। वह चंगेज खां के पडपोते कुबला खान से मिला था और उसी ने पूर्व और पश्चिम के बीच व्‍यापार की शुरूआत की थी। मार्को पोलो के बाद इब्‍न बतूता की भारत यात्रा इतिहास में बहुत प्रसिद्ध है। मोरक्‍को के इस अदभुत यात्री ने अपनी जिंदगी के 65 बरसों में करीब तीस साल तक यात्राएं की। उसने ईराक, ईरान, अफ्रीका, मध्‍य एशिया, दक्षिण एशिया, चीन, भारत, बांग्‍लादेश, बर्मा, अल्‍जीरिया, माले, टयूनिशिया, सुमात्रा, फिलीपींस, मलेशिया, सीरिया, मिश्र, अरब के सभी देशों सहित तुर्की और पूर्वी यूरोप के कई देशों की यात्राएं की। इब्‍न बतूता के बाद इतिहास में अंग्रज लेखक रिचर्ड हकलेविट की अमरिका यात्रा का वर्णन भी अपना खास मुकाम रखता है। उसने उत्‍तरी अमेरिका और कई ब्रिटिश उपनिवेशों की खोजपूर्ण यात्राएं कीं और दो महत्‍वपूर्ण किताबें लिखीं। सत्रहवीं शताब्‍दी में फ्रांस के फ्रेंकोइस डी ला बूले ले गूज ने भारत, इर्रान, मिश्र, यूनान, मध्‍य पूर्व, इंग्‍लैंड, जर्मनी और अनेक यूरापीय देशों की यात्रा की और फ्रेंच में मशहूर यात्रा विवरण लिखा। भारत को लेकर लिखे गये यात्रा संस्‍मरणों में अफनासी निकीतीन की भारत यात्रा विश्‍वप्रसिद्ध है। इस रूसी यात्री ने भारत की सामाजिक, आर्थिक व्‍यवस्‍था और उस वक्‍त होने वाले युद्धों का रोचक और विश्‍वसनीय विवरण लिखा। उसी ने पहली बार पश्चिमी जगत को बताया कि भारत में हाथी जैसा जानवर होता है, जिस पर बैठकर युद्ध लडे जाते हैं।
इतिहास में यात्रा और लेखन को लेकर बात करें तो सैंकडों क्‍या हजारों लेखकों की बात की जा सकती है। और दरअसल देखा जाए तो लेखन अंतत: एक किस्‍म की यात्रा ही है। कालिदास का मेघदूत एक काव्‍यात्‍मक यात्रा संस्‍मरण ही तो है। कर्नल जेम्‍स टाड और एल.पी. टैस्सिटोरी का काम भी यात्रा विवरण ही है। भारत को लेकर अल बरूनी की किताब एक रोमांचक यात्रा संस्‍मरण है। लेकिन भारत के महानतम यायावरों की बात की जाए तो महापंडित राहुल सांकृत्‍यायन का नाम सबसे उपर आएगा। राहुल जी ने भारत के विभिन्‍न स्‍थ्‍ालों की ही नहीं श्रीलंका, तिब्‍बत, चीन और मध्‍य एशिया की बेहद लंबी और खेजपूर्ण पैदल यात्राएं की। वे अपनी यात्राओं में दुर्लभ और ऐतिहासिक महत्‍व के प्राचीन ग्रंथों को बर्बाद होने से बचने के लिए खच्‍चरों पर लादकर भारत लाए। राहुलजी ने देश के युवाओं को घुमक्‍कडी की शिक्षा देने के लिए कई किताबें लिखीं और कहा कि भारत के प्रत्‍येक सामर्थ्‍यवान और साहसी युवक को यायावर हो जाना चाहिए, तभी देश की उन्‍नति हो सकती है।
इतिहासप्रसिद्ध यायावरों की किताबों को आज इतिहास माना जाता है, लेकिन ये अपने समय के सर्वश्रेष्‍ठ यात्रा संस्‍मरण हैं। हम एक काल में यात्रा करते हैं और उसके बारे में लिखते हैं। आगे चलकर वही इतिहास हो जाता है। हम कहीं की भी यात्रा करें, अगर उस जगह के बारे में हमें पहले से कुछ जानकारी हो तो सच मानिए यात्रा का मजा दोगुना हो जाता है। वजह यह कि हम अपनी जानकारी से उस जगह का एक दिमागी नक्‍शा बना लेते हैं और फिर वहां जाकर जो देखते हैं तो एक दूसरी तस्‍वीर बनती है, वह आपको रोमांचित कर देती है।
लेखक और यायावरी का चोली दामन जैसा साथ होता है। बिना यायावरी के श्रेष्‍ठ लेखन संभव नहीं। एक दायरे में कैद होकर लिखना आसान है, लेकिन दुनिया के तमाम अदेखे अनजाने पक्षों को यायावरी करके ही लिखा जा सकता है। यायावरी लेखक की कल्‍पनाशीलता को नए आयाम प्रदान करती है। नई जगह देखने और समझने की जो सुविधा देती है, वह लेखक की खुराक होती है। इसीलिए आप पाएंगे कि लगभग हर लेखक यायावर होता है। लेकिन हर यायावर लेखक हो यह जरूरी नहीं। फिर भी इतिहास में हमें ऐसे यायावर लेखक मिलते हैं, जिन्‍होंने जिंदगी में एक ही किताब लिखी और वो भी यायावरी की। मराठी में विष्‍णुभटट गोडसे की ‘माझा प्रवास’ ऐसी ही किताब है। धार्मिक वृत्ति के गोडसे 1857 में महाराष्‍ट्र से पैदल उत्‍तर भारत की यात्रा के लिए चल पडे और गदर में फंस गए। लौटकर उन्‍होंने इसका रोचक विवरण लिखा। यह किताब अम़ृत लाल नागर को मिली और उन्‍होंने इसका हिंदी में अनुवाद किया ‘आंखों देखा गदर’। इस किताब से जाना जा सकता है कि धार्मिक पर्यढन भी किस कदर ऐतिहासिक महत्‍व का हो सकता है। इस लिहाज से अज्ञेय द्वारा कुंभ मेले को लेकर लिखे गये विवरण अत्‍यंत महत्‍वपूर्ण हैं। इसी प्रकार हिंदी और भारतीय भाषाओं में ऐसे हजारों उदाहरण मिलेंगे। अमृतलाल वेगड ने हिंदी में नर्मदा की यात्रा करके जो संस्‍मरण लिखे हैं, उनमें नर्मदा मैया के प्रति श्रद्धा और प्रकृति का मोहक विवरण पढकर मन तृप्‍त हो जाता है। कथाकार गोविंद मिश्र ने गोवर्धन परिक्रमा को लेकर एक शानदार पुस्‍तक लिखी है।
जीवन एक प्रकार से यात्रा ही है और हर पल हम सफर में रहते हैं। लेकिन इसका विवरण लिखना जितना सहज लगता है वैसा होता नहीं और उस यात्रा को लिखना जिस पर आप होकर आए हैं उसे तुरंत लिखना भी संभव नहीं होता। बहुत से ऐसे लेखक हैं जिन्‍होंने यात्रा के कई बरस बाद जाकर यात्रा वृतांत लिखा। हालांकि कुछ ऐसे लेखक भी होते हैं जो किसी जगह बिना गए ही विश्‍वसनीय यात्रा विवरण लिख देते हैं या दोस्‍तों को सुनाते हैं। यायावरी और लेखन का एक रोमांचक इतिहास है, जिसकी यात्रा किताबों को पढकर ही की जा सकती है।

Sunday 3 May, 2009

राम की हत्या



हिन्दी और राजस्थानी के महान कथाकार यादवेन्द्र शर्मा ‘चन्द्र’ निर्विवादित रूप से रांगेय राघव के बाद प्रदेश के राष्ट्रीय स्तर पर पहचाने जाने वाले विरल साहित्यमकारों में से थे. उनकी सैंकडों कहानियां पाठकों के दिलोदिमाग में पैठी हुई हैं. 15 अगस्त, 1932 को बीकानेर में जन्मे ‘चन्द्र’ जी का एक माह पहले ही निधन हुआ है. उनकी सवा सौ से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हैं, जिनमें कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक, संस्मरण और बाल साहित्य भी शामिल है. ‘चन्द्र’ जी को दर्जनों सम्माान और पुरस्कारों से नवाजा गया। वे राजस्थासन के संभवतः अकेले मसिजीवी रचनाकार थे, जिन्होंने सिर्फ लेखनी के बल पर ही पूरा जीवन जिया. उनके साहित्य में राजस्थान का लोकजीवन, यहां की सांस्कृकति परंपराएं और कठोर जीवन संघर्ष में मुब्तिला आम आदमी के साथ, खास तौर पर संघर्षशील महिलाएं भी दिखाई देती हैं.


उनके विशद कथा साहित्य में ‘राम की हत्या‘ एक ऐसी कहानी है, जो आज भी बहुत कुछ सोचने को मजबूर करती है और आज के माहौल में बहुत ही प्रासंगिक भी नजर आती है। रामलीला में राम का चरित्र निभाने वाले कलाकार मंगल की हत्या कर दी गई है और लोगों की भीड उसकी लाश को घेरे खडी है। लोग लाश पर भिनभिनाने वाली मक्खियों से बात का सिरा शुरू करते हैं। पास में एक सफेद बालों वाला बुजुर्ग खडा है. एक युवक उससे कहता है कि उस्ताद तुम्हारे राम की हत्या हो गई है. बुजुर्ग के चेहरे पर कोई भाव नहीं आते. रावण की भूमिका निभाने वाला कलाकार भीड को हटाने के लिए सबसे कहता है कि घर जाओ यहां क्यों भीड लगा रखी है. पुलिस आती है और फिर अस्पताल से लेकर श्मशान तक का एक लंबा सिलसिला चलता है. बुजुर्ग उस्ताद को याद आता है कि कल रात कैसे राम ‘सीते सीते’ चिल्लाता हुआ दर्शकों में राम-सीता के प्रेम और विरह की भावनाएं जगा रहा था. उसे बीस बरस पहले की एक घटना याद आ जाती है, जिस वक्त वह खुद राम की भूमिका निभाया करता था.


किसी गांव में उनकी मण्डली जमी हुई थी और एक सेठ ने उन्हें भोजन के लिए अपनी हवेली में बुलवाया था। खाने से पहले ही एक व्यक्ति आकर उसे यानी ‘राम’ को भीतर बुलाकर ले गया। वहां एक कोठरी में एक अनिंद्य सुंदरी उसकी प्रतीक्षा कर रही थी। यह सेठ की विधवा बेटी थी, जो रोज रामलीला में गुप्त नाम से राम को एक रूपये के नोटों की माला पहनाती थी. वह बाल विधवा उस वक्त के राम यानी उस्तोद नर्मदाप्रसाद को सीधे-सीधे प्रणय निवेदन करती है. उस्ताद स्पष्ट रूप से इन्कार कर देता है, क्योंकि उसके लिए गुरू हनुमान महाराज की दी हुई शिक्षा के अनुसार राम का चरित्र निभाने के लिए राम जैसा आचरण भी करना चाहिए. उसे रामलीला की यह नौकरी भी बडी मुश्किलों से गुरू की अथक सेवा के बाद मिली थी, वह नौकरी और चरित्र दोनों को नहीं छोडना चाहता था. युवती उस्ताद को बहुत प्रलोभन देती है, सोने की जंजीर, नौकरी और बहुत कुछ देने का वादा करती है. वह उसे राम होने के कारण उस पर दया करने के लिए भावनात्मक रूप से भी उकसाती है. पहले वह उस्ताद का हाथ पकडती है, फिर वासना के मारे उससे लिपट जाती है, उस्ताद नहीं मानता. वह उस कामासक्त युवती से कहता है कि वह पहले से ही शादीशुदा है और पराई नार को छूना उसके लिए पाप समान है. लडकी गुस्सा हो जाती है और उस्ताद किसी तरह वहां से बाहर निकल आता है. उस दिन उसे सेठ का स्वादिष्ट भोजन भी जहर लगता है.


श्मशान में रामलीला मण्डली के सब लोग चीख पुकार मचा रहे हैं, कामेडियन तक भयानक रूदन कर रहा है, लेकिन उस्ताद गुमसुम-चुपचाप बैठे हैं। उन्हें याद आता है कि उस बाल विधवा युवती के सामने भी अपना धर्म और ईमान नहीं छोडा और राम की मर्यादा को बरकरार रखा। उस्तांद को एक और स्त्री याद आती है जो उसे रोज एक सेर दूध भेजती थी और एक दिन उससे मिलने आई। उसने भी उस्ताद से प्रणय निवेदन किया था, जिसे उस्ताद ने बडी सहजता से अस्वीिकार कर दिया था। वह स्त्री भी युवती की तरह ही गुस्से से भर गई थी। उस्ताद को पता था कि इस राम की हत्या् शूर्पणखा के भाई मेघनाद ने की है। मण्डली के लोग पूछते हैं कि राम का चरित्र निभाने वाले मंगल की मौत का क्या उस्ताभ्द को कोई गम नहीं है? उस्ताद कहते हैं कि मंगल की मौत से ज्यादा गम इस बात का है कि उसे अपनी करनी का दण्डं मिला है। तुम सब लोग अपने कर्तव्य और धर्म की राह से भटक गए हो। उस्ताद बताते हैं कि मंगल ने किस तरह ‘राम’ की मर्यादा पहले ही दिन भंग कर दी थी। वह सीता की बजाय उस युवती के लिए विलाप करता था, जो उसकी तरफ प्यार भरी निगाहों से देखती थी। मंगल ने दिन में उस लडकी के साथ रास रचाना शुरू कर दिया और लडकी ने शूर्पणखा की भूमिका ले ली. उस लडकी की नाक कट गई और उसके भाई को पता चल गया. ‘राम’ बने मंगल ने उस लडकी से उपहार में सोने का नेकलैस भी ले लिया और उस्ताद के पूछने पर साफ इन्का’र भी कर गया. पेशे और चरित्र के प्रति इस किस्म् की बेइमानी का नतीजा यही होना था. ‘


चन्द्र’ जी की यह कहानी आज के घोर अर्थवादी, अनैतिक और निर्लज्ज समय में इसलिए अधिक प्रासंगिक है, क्यों कि आज चारों तरफ देखिए, अनैतिकता का महारास दिखाई देता है। रामलीला जैसे धार्मिक महत्व के आयोजन-प्रयोजन भी कहीं न कहीं पेशे के प्रति बेइमानी और लोगों का इस तरफ से ध्यान हटने के कारण अपना महत्व खोते जा रहे हैं. उस्ताद के रूप में हमें इस कहानी में एक ऐसा आदर्श चरित्र मिलता है जो तमाम मुश्किलों के बीच भी अपनी कला और नैतिकता को बचाने के लिए प्रतिबद्ध है. वासना में डूबी स्त्रियों के माध्यम से ‘चन्द्र ’ जी उन प्रलोभनों की तरफ इशारा करते हैं जो प्रतिबद्ध और ईमानदार लोगों को पथ से विचलित करने के लिए समाज में हर तरफ बिखरे पडे हैं. ‘चन्द्र’ जी इस कहानी में रामायण के पात्रों का प्रयोग करते हुए बहुत गहरा व्यंग्य करते हैं और धार्मिक प्रतीकों के प्रयोग से कहानी को त्रेता से कलियुग तक ले आते हैं. अपने समय को इस प्रकार देखना और व्याख्यायित करना ‘चन्द्र‘ जी की बहुत बडी खूबी थी, जिसके लिए उन्हें सदैव याद किया जाएगा.


कहानी अंश


‘मुझे छोड दीजिए। मैं आपके हाथ जोडता हूं। मैं राम हूं। हनुमान महाराज ने कहा था कि बेटा राम का पार्ट मांग रहे हो, उसे करने के लिए उस जैसी महान आत्मा भी चाहिए। उस जैसी मर्यादा भी चाहिए। जब तक तुममें अपने पेशे प्रति पवित्रता नहीं होगी, तब तक तुम मंच पर वह राम लग ही नहीं सकते, जो जन-जन के घट में बसा हुआ है।’ लेकिन बूली वासना में डूबी थी। वह उससे लिपट गई। वह आवेश में बडबडा रही थी, ‘मेरी पीर को जानो राम। मैं आपको बहुत चाहती हूं।’


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मंगल ‘राम’ की मर्यादा भूल गया... वह दिन के उजाले में विलास के फूल खिलाने लगा। यह राम, जो मयार्दा पुरूषोत्तम कहलाता है, ने मर्यादा के जिस्म पर लगे सलमों-सितारों को तोडना शुरू कर दिया। शूर्पणखा की नाक कट गई। मंगल ने राम की मर्यादा भंग की। वह अपने पेशे प्रति ईमानदार नहीं रहा। जिस पेशे ने उसके पेट की आग बुझाई, यश दिया, मान-सम्माान दिया, उस पेशे के धर्म को भूलकर वह मर्यादाविहीन हो गया।


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जयपुर से प्रकाशित दैनिक नवज्योति अख़बार में शुरू किया गए नए स्तम्भ 'एक कहानी' का आरम्भ आज इस कहानी से हुआ है, जिसमें राजस्थान के हिन्दी-राजस्थानी कथाकारों की एक प्रतिनिधि कहानी का सार संक्षेप और महत्त्व रेखांकित करने का विनम्र प्रयास किया जाएगा।