Sunday 22 March, 2009

भगत सिंह:क्रांतिपथ की सहयात्री किताबें

शहीदे आजम भगत सिंह को लेकर आम-अवाम में यही धारणा प्रचलित है कि एक नौजवान, देशप्रेम और स्वाधीनता के युवकोचित जोश के चलते आजादी के महासमर में वीरगति को प्राप्त हुआ। धीरे-धीरे ही सही लोगों में भगत सिंह को लेकर बनी-बनाई धारणाएं टूट रही हैं और भगत सिंह से संबंधित साहित्य का इसमें अत्यंत महत्वपूर्ण योगदान है। खुद भगत सिंह ने अपने प्रसिद्ध लेख ‘मैं नास्तिक क्यों हूं’ में लिखा है, ‘‘मैं 1925 तक एक रूमानी आदर्शवादी क्रांतिकारी ही था। तब तक हम सिर्फ दूसरों का अनुसरण ही करते थे। अब हमारे कंधों पर ही जिम्मेदारी आ गई...कुछ समय तक तो मुझे भी यही डर लगता रहा कि कहीं हमारा सारा कार्यक्रम ही तो निरर्थकता की ओर नहीं जा रहा। मेरे क्रांतिकारी जीवन में यही एक निर्णायक मोड़ था। मेरे दिलोदिमाग के गलियारों में यही गूंजता रहा ‘पढ़ो’। विरोधियों की तरफ से आने वाले सवालों से मुकाबला के लिए तैयार रहने के लिए पढो। खुद को अपनी राह के विचारों पर दृढ़ रहने के लिए पढ़ो। और फिर मैंने पढना शुरू कर दिया।’’ भगत सिंह के साथी और लाहौर षड़यंत्र केस के सहअभियुक्त जतींद्रनाथ सान्याल ने भगत सिंह की जीवनी में लिखा है कि भगत सिंह जबर्दस्त पढ़े हुए क्रांतिकारी थे और उनके अध्ययन के दायरे में समाजवाद से जुड़ा साहित्य प्रमुख था।
भगतसिंह के जीवन के विभिन्न आयामों की खोज करते हुए शोधकर्ताओं को जो जानकारी मिली है उसके मुताबिक अपने छोटे से जीवन काल में भगत सिंह ने क्रांतिकारी कामों में भाग लेते हुए सैंकडों पुस्तकें पढीं, जिनमें से तकरीबन तीन सौ किताबों की सूची बना ली गई है। इनमें भारतीय और विदेशी पुस्तकों की संख्या लगभग समान है। जेल में रहते हुए भगतसिंह जो किताबें पढते थे, उनसे उपयोगी और प्रेरक अंश वे एक डायरी में नोट कर लिया करते थे। कुछ वर्ष पूर्व ही यह जेल डायरी प्रकाश में आई और आते ही लोकप्रिय हो गई। इस जेल डायरी का प्रथम प्रकाशन जयपुर के विख्यात सामाजिक कार्यकर्ता और बुद्धिजीवी स्व. बी. हूजा ने किया था। भगतसिंह की इस डायरी को पढें तो पता चलता है कि उनकी रूचियों में कितनी विविधता रही। चार्ल्स डिकेंस की ‘पिकविक’ पढते हुए वे डायरी में नोट करते हैं, ‘मनुष्य जाति की सबसे रोमांचक और काबिलेमाफ कमजोरी है-प्रेम’। भगतसिंह की पढी कई किताबों के मामलों में तो यह भी देखा गया कि जिस पुस्तक या लेख से वे अत्यंत प्रभावित होते थे, उसका येनकेन प्रकारेण प्रचार-प्रसार करने में भी पीछे नहीं रहते थे। इसके लिए वे खुद ही अनुवाद भी कर देते थे और अपने साथियों को भी इसके लिए प्रेरित करते थे।
हमारे देखते देखते ही भगतसिंह को एक आदर्श क्रांतिकारी से पूजनीय महापुरूष बना दिया गया। भगतसिंह खुद इसके खिलाफ थे। उन्होंने जार्ज बर्नाड शा की पुस्तक ‘मैन एण्ड सुपरमैन पढते हुए अपनी डायरी में नोट किया, ‘एक मूर्ख राष्ट्र में प्रतिभाशाली व्यक्ति भगवान हो जाता है, हर कोई उसकी पूजा करता है, लेकिन कोई उसकी राह पर नहीं चलता।’ आज भी यही हो रहा है और होता रहेगा, अगर हम भगतसिंह को उसके विचारों के आधार पर स्वीकार कर लागू करने से भागेंगे तो यही होगा। लेकिन भगतसिंह को आजकल इसलिए भी खारिज किया जाता है कि उनके विचार जिस समाजवादी व्यवस्था का स्वप्न देखते थे, वह प्रयोग कुछ देशों में विफल हो चुका है। लेकिन हमें यह भी स्वीकार कर लेना चाहिए कि एक अच्छा वैज्ञानिक एक प्रयोग की विफलता से कभी प्रयोग बंद नहीं करता, वह लगातार अपनी खोज जारी रखता है।
भगतसिंह ने जो विदेशी पुस्तकें पढीं उनमें आयरलैंड के स्वाधीनता संघर्ष से जुडी डेढ दर्जन किताबें आजादी के आंदोलन को आगे बढाने वाली थीं। ब्रिटिष साहित्य में भगतसिंह ने कविता, कहानी, नाटक और उपन्यास के अलावा वैचारिक पुस्तकें पढीं। इनमें चार्ल्स डिकेंस की ‘पिकविक’ और ‘ए टेल आफ टू सिटीज’, हाल कैने के रोमांटिक-राजनैतिक उपन्यास, जार्ज बर्नाड शा का विपुल साहित्य, गोल्डस्मिथ, शेक्सपीयर, बर्ट्रेंड रसैल, आस्कर वाइल्ड, विलियम मौरिस और हर्बर्ट स्पेंसर जैसे अनेक लेखकों की कोई चार दर्जन किताबें शामिल हैं।
यूरोपीय साहित्य में कार्ल मार्क्स की ‘पूंजी’, ‘कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो’ और दो अन्य पुस्तकें, कार्लाइल की ‘फ्रेंच रिवोल्यूशन’, विक्टर ह्यूगो की ‘ला मिजरेबल’ और ‘नाइंटी थ्री’, रोजा लक्जमबर्ग, रूसो, हेगेल और जोसेफ मेजिनी की किताबों के अलावा नेपोलियन और गैरीबाल्डी की जीवनियां प्रमुख रूप से पढीं। अमेरिकी साहित्य में भगतसिंह ने अप्टोन सिंक्लेयर के आठ उपन्यास, जैक लण्डन का ‘आइरन हील’, एम्मा गोल्डमैन, स्काट नीरिंग, हेलेन केलर, जान डेवी और जान रीड की प्रसिद्ध किताब ‘टेन डेज देट शूक द वर्ल्ड’ सहित विभिन्न लेखकों की तीस से अधिक पुस्तकें पढीं।
रूसी साहित्य में भगतसिंह ने तोलस्तोय, गोर्की, दोस्तोयेव्स्की, बुखारिन, लेनिन, त्रात्स्की और स्टालिन जैसे लेखक, साहित्यकार, विचारक और राजनैतिक दर्शनशास्त्रियों और नेताओं की लगभग तीन दर्जन से अधिक किताबें पढीं। अपने आखिरी दिनों में वे लेनिन की जीवनी पढ रहे थे।

भारतीय साहित्य में भगतसिंह ने अंग्रेजी, हिंदी, उर्दू, पंजाबी और बांग्ला की कोई पांच दर्जन से अधिक पुस्तकों का अध्ययन किया। हिंदी, पंजाबी और उर्दू की नौ पत्रिकाओं से वे जुड़े रहे और उनमें लिखते रहे। भारतीय अंग्रेजी साहित्य में भगतसिंह ने पचास से अधिक पुस्तकें पढीं और वे गांधी जी की पत्रिका ‘यंग इण्डिया’ में भी रूचि लेते थे। हिंदी में उन्होंने साठ से अधिक पुस्तकें पढीं, जिनमें प्रेमचंद की ‘निर्मला’ और ‘सोजे वतन’, रामप्रसाद बिस्मिल, राधामोहन गोकुलजी, महात्मा गांधी, गणेश शंकर विद्यार्थी और लोकमान्य तिलक आदि की रचनाएं प्रमुख हैं। उर्दू और पंजाबी में वे मुख्य रूप से पत्रिकाएं पढते थे और जो किताबें उन्होंने पढीं, उनके रचनाकारों के बारे में जानकारी उपलब्ध नहीं है। अपने आखिरी वक्त तक भगतसिंह पढते रहे। जेल की कोठरी से फांसी के तख्ते तक जाते हुए भी वे लेनिन की जीवनी पढते रहे। जेलर के इस बाबत सवाल पूछने पर भगतसिंह ने कहा, ‘एक क्रांतिकारी दूसरे क्रांतिकारी से मिल रहा है।’

Thursday 19 March, 2009

मखदूम मोहिउद्दीन की तस्वीरें

दोस्तों,
हाल ही में हमने जयपुर में मखदूम मोहिउद्दीन का जन्म शताब्दी कार्यक्रम मनाया था। इस सिलसिले में हमें मीडिया के मार्फ़त जानकारी मिली कि गूगल या किसी अन्य वेबसाइट पर इस महान क्रांतिकारी शायर और जन नेता की तस्वीरें उपलब्ध नही हैं। हमने मखदूम साहब के फरजंद भाई नुसरत मोहिउद्दीन से गुजारिश की तो उन्होंने कुछ तस्वीरें हमें भेजीं। यह तस्वीरें हम एक वेब एल्बम के रूप में साहित्य जगत के लिए पेश कर रहे हैं। इस एल्बम में आप मखदूम को उनके क्रांतिकारी, राजनैतिक, शायर और अदबी दोस्तों के साथ देख सकते हैं। इन चित्रों में आप एक पेंटिंग भी देखेंगे जो मकबूल फ़िदा हुसैन की बनाई हुई है और उस पर मखदूम की शायरी भी दर्ज है। हम जल्द ही ऐसी कुछ और तस्वीरें और लेख भी आपके लिए प्रस्तुत करेंगे। इस पोस्ट के साथ जो तस्वीर आप देख रहे हैं वोह हमारे चित्रकार मित्र एकेश्वर हटवाल ने ख़ास तौर पर प्रगतिशील लेखक संघ के लिए बनाई थी। तो एक बार मखदूम के एल्बम पर निगाह जरूर डालें। शुक्रिया।

Sunday 15 March, 2009

साम्प्रदायिकता की छुपी हुई आग




"छुपी हुई आग" मंजुला पद्मनाभन का अदभुत एकांकी नाटक है। यह नाटक साम्प्रदायिक दंगों में मरने और मारने वाले लोगों की मानसिकता पर प्रहार करता है। इसका मैंने रूपांतर किया है। यह मूलतः हमारे कवि मित्र गिरिराज किराडू की द्विभाषी वेब पत्रिका ‘प्रतिलिपि.इन’ के लिए किया था। मैं इसे अपने दोस्तों और पाठकों के पढने के लिए अपने ब्लाग पर डाल रहा हूं। उम्मीद है यह छोटा सा मोनोलोग आपके दिलोदिमाग को भी मेरी तरह हिलाकर रख देगा।- प्रेमचन्द गांधी ।


(मंच पर अंधेरा है। लाल रंग के प्रकाश का एक वृत्त उभरता है और इसके नीचे खड़ा एक व्यक्ति दिखाई देता है, उसके बाल बिखरे हुए हैं। वह बोलना शुरू करने से पहले अपने चारों तरफ कई दफा देखता है। वह शांत है, लेकिन बहुत तना हुआ दिखाई दे रहा है।)
आदमी: हां...हां॥ मैं इसके बारे में बात कर सकता हूं। क्यों नहीं? मुझे इसमें कोई शर्म नहीं। और न ही मुझे किसी का कोई डर लग रहा है। चलिये मैं आपको बताता हूं कि पहले हफ्ते यह सब कैसे हुआ? मैं वहां शुरू से मौजूद था। हां... दस... मेरी गिनती के हिसाब से पूरे दस... मुझे यह बताने में कोई शर्म या संकोच नहीं। मैं आपको विस्तार से बता सकता हूं। आप जानते ही हैं, वे लोग इंसान तो कम से कम नहीं थे। तो वो दस या साढे दस थे, साढे दस इसलिए कि आप उस औरत की गिनती कैसे करेंगे जो गर्भवती हो? ऐसे हालात में हम एक गिनते हैं या डेढ या फिर पूरे दो? बहरहाल, इस मामले में दस लोग शामिल थे।


और यह सब बिना किसी चेतावनी के शुरू हुआ। मैं वहां अपनी दुकान में खड़ा था। एक पल के लिए मैंने अपनी भतीजी की सगाई के बारे में सोचा और अगले ही पल एक शोर सुनाई दिया। मेरी दुकान में खड़ी एक महिला ग्राहक ने पहले वो शोर सुना, फिर मुझे भी सुनाई दिया। वह बोली, ‘यह क्या हो रहा है’ और फिर मेरा ध्यान भी उस तरफ गया।हम दोनों एक साथ दुकान से बाहर निकले। हमने किसी को भागते हुए देखा, उसके पीछे सात या शायद आठ लोग दौड रहे थे। उनके हाथों में लाठियां थीं। सामने वाला एक आदमी मेरी तरफ ही चला आ रहा था। उसका मुंह खुला हुआ था, जिससे कोई आवाज नहीं आ रही थी। मैं जानता था मुझे इस वक्त क्या करना है।मैं उसके रास्ते के बीच खड़ा हो गया। वो मुझसे बचने के लिए मुड़ा, लेकिन मैंने उसे पकड़ लिया। पलक झपकते ही लड़कों ने उसे अपनी गिरफ्त में ले लिया। उन्होंने उस आदमी पर छलांग लगा दी, सीधे उस पर कूद पड़े और लगे उसे लात-घूंसों से मारने।लड़कों ने जब उसे मारना शुरू किया तो मुझे उसकी हड्डियों के टूटने-चटकने की आवाजें सुनाई पड़ीं। लाल रंग के ताजा जूस जैसा गरम खून उसकी नाक से बहने लगा। अपने आखिरी वक्त में उसने सीधे मेरी तरफ देखा, उसकी जिंदगी की गरमाहट से मेरा चेहरा झुलस उठा! और फिर... उसने दम तोड दिया।


इस आदमी जैसे दूसरे लोगों ने गलियों में बेतहाशा दौड़ना शुरू कर दिया। उनमें से कुछ औरतें थीं। आप चाहें तो इन्हें ‘लोग’ या ‘इंसान’ कह सकते हैं, लेकिन मैं तो बिल्कुल नहीं कहूंगा। सवाल ही नहीं उठता। यह बात आप नहीं समझ सकते। वे लोग आदमी यानी पुरुष की तरह दिखते हैं, औरत की तरह दिखते हैं। लेकिन असलियत में... खैर छोड़िए...आपको इस बात को समझना होगा। कुछ लोग, असल में ‘लोग’ यानी ‘इंसान’ नहीं होते। वो हमारे साथ ही गली मुहल्लों में रहते हैं, चलते हैं, लेकिन भीतर, कहीं बहुत गहरे अंदर वो लोग ‘इंसान’ नहीं होते...मैं और किस तरह आपको समझाउं? कुछ चीजें ऐसी होती हैं, जिन्हें आप सिर्फ जानते भर हैं। और जब आप एक बार जान जाते हैं तो फिर उससे अनजान नहीं रह सकते या कहें कि और ज्यादा जाने बिना नहीं रह सकते। यह एक तरह से लाल जलते हुए कोयले के जैसी बात है कि आपको सिर्फ एक बार बस इतना भर जानने की जरूरत होती है कि आप इससे जल सकते हैं और फिर इससे ज्यादा जानने की कोई खास जरूरत नहीं होती।आप उन्हें ‘लोग’ या ‘इंसान’ कहते हैं। मैं उन्हें लाल गर्म कोयले कहता हूं। एक आदिम अग्नि में जलते हुए कोयले, इंसान कतई नहीं। जब तक वो ठण्डे और अविचलित रहते हैं ठीक लगते हैं। लेकिन जैसे ही उनसे धुंआ उठने लगता है, या वे अपनी आदिम अग्नि दिखाने की कोशिश करते हैं, तब... ओफ्फो तब... इससे पहले कि वो आग हमें जला डाले, हमें उस आग को किसी भी तरह से शांत करने की कोशिश करनी पड़ती है। आखिर इन कोयलों को किसने जीवन दिया? क्या वो खुद ही जल उठे या हमीं ने जलाया? किसने गलियों के साथ उनको भी आग के हवाले किया? खुद उन्होंने या हमने? साफ कहूं तो मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता। और आप तो जानते ही हैं, आग को शांत करने का सबसे बढ़िया तरीका यही है कि उसे बुझा दिया जाए, शांत कर दिया जाए।


यहां, वहां और हर तरफ, इस या उस तरीके से हमारे शहर को यह आग आतंकित करती रहती है और और देश को बर्बादी की राह पर ले जाती रहती हैं। इस किस्म की कोई आग बहुत ज्यादा भयानक होती है, कुछ सिर्फ धुआं देने वाली होती हैं। लेकिन हर आग अपने आप जलने वाली, भीतर ही भीतर बराबर सुलगती रहने वाली और बहुत अजीब किस्म की होती हैं।जब आपकी जिंदगी खतरे में होती है तो आप हर कीमत पर उसे बचाने की कोशिश करते हैं, करते हैं ना? जब आपका देश खतरे में होता है तो आप उसे हर तरीके से बचाने का प्रयास करते हैं, करते हैं ना? हमने भी बिल्कुल यही किया। हमने न केवल अपने आपको और देश को बचाया, बल्कि आग को देखते ही हमने उसे रोकने और आगे ना बढने देने के प्रयास किए।ठीक यही बात मुझे आपके चेहरे के भावों में दिखाई देती है। आपको लग सकता है कि मैं गलत हूं। लेकिन मैं आपको सच्चाई बताता हूं कि मैं बिल्कुंल भी गलत नहीं हूं। मैंने जो किया वो सही था। मैं यही कर सकता था। विशवास कीजिए, अगर आग की कोई तेज लपट आपकी तरफ आ रही होती तो आप भी यही करते। आपके पास उस आग से बचने का एकमात्र यही तरीका होता।पहला दिन खत्म होने पर हमने खबरों में सुना कि दो सौ मारे गये। अगले दिन की शाम हमने सुना कि तीन सौ मारे गये। महीने के आखिर में पता चला कि दो हजार मारे गये और छह महीने बाद समाचार मिला कि दस हजार लोग मारे जा चुके हैं।परायेपन की आग... एक भयावह किस्म का कोडा है... लेकिन इस सबसे बच निकलने का एक अत्यंत साधारण सा नियम है कि आप जब कहीं भी इस किस्म की आग देखें तो उसे तुरंत दबा दें। उस दिन यानी पहले दिन मैंने गिने कि कुल दस लोग मैंने मारे। लेकिन उस दिन के बाद मैंने गिनती करना ही बंद कर दिया। मुझे नहीं पता मैंने कितने लोग मारे। यह एक रूटीन सा बन गया था। इसमें कुछ भी तो खास नहीं था, यह सब उतना ही सामान्य था, जैसे कीडे-मकोडों को मारने के लिए पेस्ट कंट्रोल करते हैं या आग बुझाने के उपाय करते हैं।


आपको परेशान होने की कोई जरूरत नहीं। कुछ लोग जैसे आप यह जानना चाहेंगे कि यह सब कैसे हुआ? लेकिन सच बात तो यह है कि मैं हूं या कोई और, आखिरकार किसी न किसी की हत्या तो करते ही हैं। बहुत सारे लोगों की। मैं आपको बिल्कुल साफ बता देना चाहता हूं कि मैंने किसी को नहीं मारा, यहां तक कि किसी ने भी किसी को नहीं मारा। हमने सिर्फ आग देखी और उसे आगे बढने देने से रोकने की kओशिश की।देखा जाए तो यह एक बहुत ही बढिया नजरिया है चीजों को देखने का। पहले जब मैं एक सामान्य सा दुकानदार था, दुकान के बारे में ही सोचता था और अपने धंधे के अलावा कुछ नहीं सोचता और समझता था, मैं नहीं सोचता था कि जिंदगी इतनी सादा और सहज होती है। इन बरसों में मैंने यही समझा कि जिंदगी में बहुत सारे कायदे, कानून और नियम आदि होते हैं। मैंने वही किया जो मुझे बताया गया। लेकिन अब जाकर मैं यह समझा हूं कि इस दुनिया में एक ही नियम है कि जब और जहां कहीं आप आग देखें तो उसे तुरंत बुझाने या रोकने की कोशिश करें।किसी की मदद या पुलिस की सहायता की उम्मीद ना करें। जब और जहां कहीं भी आग देखें तो उसे तुरंत बुझाने या रोकने की कोशिश करें।और मेरा यकीन कीजिए कि आपके चारों तरफ अनेक किस्म की आग पहले से ही मौजूद है। इनमें से आप सब किस्म की आगों को नहीं देख सकते। इनमें से कुछ तो बहुत छुपी हुई होती हैं। यहां तक कि जिन लोगों के भीतर ये जलती रहती हैं, उन्हें भी इनका पता पहीं होता। इन्हें देखने के लिए एक खास किस्म की दृष्टि की जरूरत होती है। मसलन मेरी आंखें...लेकिन मैं तो शुरू से ही इन लोगों पर शक करना शुरू कर देता हूं।अगर एक बार मैंने सब लोगों को ठीक से देख लिया है तो मैं अच्छी तरह जान जाता हूं कि वो लोग वास्तव में कौन हैं और कहां से आए हैं। जल्द ही मुझे समझ आ जाता है कि हर आदमी ने वैसे ही कपडे पहन रखे हैं, सबके चेहरों पर एक ही किस्म के निशानात हैं, सबने एक जैसी ही टाई पहन रखी है, एक जैसे ही चश्में हैं... कभी कभार संदेह होता है कि वो उन सबमें से एक है या हम में से ही कोई एक?मैं सोचता हूं कि अगर आपके भाव से मुझे नहीं लगता, या आपके पहने हुए कपडों से नहीं महसूस होता, या आपके जेवरात से भान नहीं होता, या आपकी चूडियों से नहीं लगता या कि आपके ब्लाउज से पता नहीं चलता कि आप हम में से हैं तो बहुत संभावना है कि मैं तुरंत अनुमान लगा लूं कि आप उन में से ही एक होंगे। मेरे तो सोचने का बस अब यही तरीका हो गया है।


जानवरों में भी लगभग ऐसा ही होता है। शेर होते हैं, हिरण होते हैं, लेकिन क्या आपने कभी किसी को यह कहते सुना है कि शेर भी वैसे ही होते हैं, जैसे हिरण होते हैं या कि हिरण भी शेरोन जैसे ही होते हैं। नही ना, बिल्कुल नहीं। वास्तव में हम कहते हैं कि वे सब एक दूसरे से बिल्कुल अलग और जुदा होते हैं।ऐसा ही हमारे में यानी मनुष्यों में होता है। हम में कुछ शेर होते हैं तो कुछ हिरण होते हैं। तो यह बिल्कुल साफ हो जाता है, सीधी सी बात है शेर के लिए हिरण को खाना सामान्य बात है और हिरण का शेर का शिकार होने से बचकर भागना भी सहज है। आखिरकार कोई भी किसी के द्वारा क्यों खाया जाना पसंद करेगा? जबकि यह होना ही है, मैं इसे क्या कहूं? उनकी नियति यही है, हिरण को शिकार होना ही है।यह जंगल का कानून है। और जब जंगल का यह कानून टूटता है तो भयंकर गड़बड़ी होती है। और कोई भी इस तरह की अव्यवस्था पसंद नहीं करता। यहां तक कि हिरण भी ऐसा नहीं चाहेंगे और मुझसे पूछेंगे तो मैं भी नहीं चाहता कि अव्यवस्था फैले। इसीलिए तो मैं आपसे बात कर रहा हूं, क्योंकि मैं आपकी मदद करना चाहता हूं ताकि अव्यवस्था फैलने से रोकी जा सके। बस इतनी सी बात है।मुझे पूरा विश्वास है कि आप भी अव्यवस्था पसंद नहीं करते। आप भी सहज रूप से अपनी जिंदगी जीना चाहते हैं। सही कह रहा हूं ना? क्यों? मैं भी यही चाहता हूं। मुझे यकीन है कि आप मेरी बात समझ रहे हैं। मैं सही कह रहा हूं ना? आप मेरी बात समझेंगे, इसीलिए तो मैं आपके पास आया हूं। इसीलिए तो मैं आज यहां खड़ा हूं।


मैं आपका थोड़ा सा वक्त चाहता हूं और...प्लीज, रुकिये, जाइयेगा नहीं, प्लीज थोड़ा रुकिए। प्लीज...कल तक यह बिल्कुल साफ था, जैसा कि मैं आपको बता चुका हूं, सब कुछ सहज था। जगंल का एक कानून था और मैं उसमें शेर था। कल तक, जब वे मेरे घर आए... नहीं प्लीज रूकिये, जाइयेगा नहीं, मेरी बात गौर से सुनिए।उन्होंने मुझसे कोई सवाल तक नहीं किया और बस मुझे बुरी तरह पीटना शुरू कर दिया। फिर उन्होंने मुझे उठाकर मेरे घर से बाहर फेंक दिया और मेरी बीवी को जिंदा जला डाला। वो अभी चालीस की भी नहीं हुई थी। वो मेरी बहनों और बेटियों को भी उठा ले गये। उन्होंने मेरी आंखों के सामने मेरे बेटे को गला दबाकर मार डाला और उसके मुंह में पेशाब कर दिया।मैं चीखा। मैं चिल्लाया। मैंने कहा कि मैं भी तुम्हारे जैसा ही इंसान हूं, तुम्हीं में से एक हूं। उन्होंने इतना भर कहा कि छुपी हुई आग, तुम्हारे भीतर छुपी हुई आग है और अब हमने इसे ठण्डा कर दिया है।मैंने कहा, नहीं, नहीं, तुम गलत कह रहे हो, मेरे भीतर कोई छुपी हुई आग नहीं है। मेरे पास ऐसी कोई चीज नहीं है जो तुम्हारे पास नहीं है। लेकिन वो तो बहरे हो गये थे, अंधे हो गये थे, मेरी बात सुनने और मेरी तरफ देखने का किसी को खयाल ही नहीं रहा। उन्होंने कहा, छुपी हुई आग, हमने अब ठण्डी कर दी है।‘बताओ मुझे’, मैंने उनसे लगभग भीख मांगते हुए पूछा, मुझे कोई एक निशाँ तो बताओ कि मैं तुमसे कैसे और कहां अलग हूं? लेकिन उन्होंने तो बस इतना ही कहा, तुम्हें पता है, हमें कोई कारण बताने की जरूरत नहीं हैं। यही तो जंगल का कानून है। और तुम भी तो इसी में विशवास करते हो, करते हो ना? जैसे हम करते हैं। तुम कहते हो कि तुम एक शेर हो, लेकिन हमें किसी ने बताया कि तीन पीढी पहले, तुम्हारी पड़दादी एक हिरण थी, इसलिए तुम एक हिरण हो। और यही तुम्हारे भीतर छुपी हुई आग है, जिसे हमने अब ठण्डा कर दिया है। फिर उन्होंने मुझे बताया कि वे मेरे प्रति थोड़ी दया और करुणा दिखा सकते हैं और मेरी जिंदगी बख्श सकते हैं। उन्होंने मुझसे कहीं दूर भाग जाने और वापस लौटकर नहीं आने के लिए कहा। उन्होंने कहा कि मैं अपनी दुकान, अपने घर और अपनी संपत्ति को बिल्कुल भूल जाउं। उन्होंने कुल मिलाकर बस इतना ही कहा।


आपको नहीं लगता कि यह सरासर अन्याय है। नहीं लगता? हैं? नहीं, प्लीज! आप मुंह मोड़कर क्यों जा रहे हैं? आप समझ क्यों नहीं रहे? कहीं ना कहीं कोई गलती हुई है... क्या ऐसा नहीं लगता? आप सुन क्यों नहीं रहे? उनके पास मुझे पीटने का कोई कारण नहीं था। मेरे भीतर कोई छुपी हुई आग नहीं थी। अगर वो मुझे पीट सकते हैं तो आपको भी पीट सकते हैं, नहीं...नहीं कृपया सुनिए तो। आपको मेरी बात सुननी चाहिए...मेरी बात आपको सुननी पड़ेगी। मैं आपके भले के लिए ही कह रहा हूं...मेरा इश्वास कीजिए! अगर यह मेरे साथ हो सकता है तो आपके साथ भी हो सकता है...( रोशनी कम होने लगती है) प्लीज मेरी बात सुनिए, प्लीज। आपके भले की ही बात है, मेरे बारे में बिल्कुल भी मत सोचिए। और यूं मुह चुराकर भागिए भी मत। यूं हंसिए नहीं और इस तरह सिर भी मत हिलाइये। मेरी बात सुनिए, प्लीज, सुनिए तो सही... ( रोशनी और आवाजें धीरे धीरे कम होने लगती हैं और आखिर में लाल रोशनी का एक नुकीला टुकड़ा उसके सीने पर आकर ठहर जाता है।) मैं आपको फिर से पीछे लिए चलता हूं, जैसा कि मैंने पहले कहा था। मुझे लगता है कि मैं गलत था, अंधा हो गया था, मैं असहिष्णु हो गया था। लेकिन यह सब इसलिए हुआ कि मैं समझता नहीं था। इसीलिए मैं आपसे गुजारिश कर रहा हूं कि मेरी बात सुनिए। यह तो आपके ही हित की बात है, नहीं, सुनिए यूं मुंह मोड़कर भागिए मत...प्लीज...सुनिए॥सुनिए तो सही...प्लीज... (थोड़ा सा प्रकाश भी समाप्त हो जाता है।)

पाकिस्तान की सेना का व्यावसायिक चेहरा






इन दिनों हमारा पड़ौसी देश पाकिस्तान जिस दौर से गुजर रहा है, उसे देखते हुए अंदेशा होता है कि वहां कभी-भी फौजी तख्तापलट हो सकता है। अगर ऐसा हुआ तो यह बेहद बदकिस्मत वाकया होगा, लेकिन जब सियासी पार्टियां और नेता नाकामयाब हो जाएं, अवाम की इच्छाओं को पूरा नहीं करें और उम्मीद की कोई किरण नजर नहीं आए तो ऐसा होना पाकिस्तान जैसे मुल्क के लिए लाजिमी हो जाता है। वहां गुजश्ता बासठ में से बत्तीस बरस फौजी सरकार ने मुल्क चलाया है और आज पाकिस्तान के समाजी, सियासी और माशी मामलों में फौज की मौजूदगी इस कदर हावी हो गई है कि इक्तिसादी नजरिये से वहां मिलटिरी और बिजनेस शब्दों को जोड़कर एक ‘मिलबस’ जुमला ही चल पड़ा है। पाकिस्तानी फौज के इस जबर्दस्त किरदार को लेकर डा. आयशा सिद्दीका ने ‘मिलिटरी इंक. इनसाइड पाकिस्तान’स मिलिटरी इकोनोमी’ किताब लिखी, जो 2007 में शाया हुई। छपते ही इसे पाकिस्तान में बैन कर दिया गया। जिन दिनों यह किताब आई, हम लोग पाकिस्तान में थे। वहां दोस्तों ने कहा यार हमारे लिए तोहफे में कम से कम आयशा की किताब ही ले आते। दरअसल हमें खयाल ही नहीं आया था कि कोई किताब बैन होने के बाद इस कदर शोहरत हासिल कर लेती है। बरसों पहले हमारी एक दोस्त लंदन गई थीं और वो सलमान रश्दी की किताब ‘सेटेनिक वर्सेज’ छुपाकर लाईं तो हमें गजब का रोमांच महसूस हुआ था। बहरहाल, आयशा की यह किताब पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी की अमेरिका बेस्ड वेबसाइट पर पीडीएफ फाइल के रूप में मौजूद है।



आयशा ने ग्यारह बरस तक पाकिस्तान नेवी के रिसर्च डिपार्टमेंट की डाइरेक्टर और आडिट डिफेंस सर्विसेज की डिप्टी डाइरेक्टर के रूप में काम किया और अपने तजुरबे से महसूस किया कि फौज मुल्क में एक ऐसी पैरेलल इकोनोमी चला रही है, जो जम्हूरियत के लिहाज से बिल्कुल ठीक नहीं है। और यह सब हो रहा है, जनता की गाढ़ी कमाई यानी करदाताओं के धन से। पाक सेना के कुछ कल्याणकारी संगठनों के नाम पर सरकार से अनुदान लेकर उस धन को सीधे खर्च करने के बजाय जमीनें खरीदने, व्यापारिक कार्यों में निवेश करने और इसी किस्म के व्यावसायिक कामों में उपयोग किया जाता है। इस प्रकार से प्राप्त जनधन के प्रबंधन और मूल्यांकन की कोई व्यवस्था नहीं है और इसीलिए बड़े अधिकारी वहां के सबसे अधिक पैसे वाले पूंजीपतियों के समान हैं। सेना का देश की व्यापारिक गतिविधियों में भाग लेना नई बात नहीं है, लेकिन जिन देशों में सेना इस किस्म की गतिविधियों में लगी रहती है, वहां सरकार सेना को अपनी जरूरतें पूरी करने के लिए व्यवसाय की इजाजत देती है। लेकिन पाकिस्तान में सरकार सैन्य बजट भी देती है और सेना, सैनिक विधवाओं के कल्याण के नाम पर शुरू हुए फौजी और शाहीन फौंडेशन जैसे कुल चार मुख्य संगठनों के नाम पर अनेक कार्पोरेट कंपनियों व उद्योगों का संचालन करती है, जिनमें से कुछ तो कराची स्टाक एक्सचेंज में सूचित कंपनियां हैं।



दरअसल कानून और देश के नाम पर पाकिस्तान में लोकतंत्र का जो नुकसान सेना ने किया उसका खामियाजा पूरे देश की जनता को उठाना पड़ रहा है। हम लोग अब तक यही समझते थे कि सेना ने कानून और व्यवस्था के नाम पर मुल्क की व्यवस्था को वश में कर रखा है। लेकिन आयशा की किताब से पता चलता है कि सेना ने किस प्रकार अपने हितों को साधने के लिए समूची राजनैतिक व प्रशासनिक व्यवस्था को लाचार बना रखा है और ऐसे हालात पैदा कर रखे हैं कि जिस प्रकार की समानांतर अर्थव्यवस्था पैदा की है उसे बदलना या समाप्त करना बेहद मुश्किल लगता है। यह किताब बताती है कि अगर पाकिस्तान में लोकशाही को मजबूत बनाना है तो एक प्रक्रिया के तहत लोकतांत्रिक सरकार द्वारा धीरे-धीरे सेना को अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों से निकालकर बाहर करना होगा। क्योंकि सेना के विभिन्न अंग-उपांग रियल एस्टेट, बैंकिंग, शिक्षा, एयरलाइन, कार्गो व्यापार, निटवेयर और बीमा व्यवसाय से लेकर विभिन्न किस्म के कृषि आधारित व्यापारिक क्षेत्रों में काम कर रहे हैं और स्वायत्तता के नाम पर वे इस कदर स्वतंत्र हैं कि लोकतांत्रिक संस्थाओं का कोई नियंत्रण नहीं है। इन संस्थाओं की कोई आडिट नहीं होती ।



आयशा के मुताबिक यह सब जनरल अयूब खां के जमाने में शुरु हुआ। आज एक मेजर जनरल पाकिस्तान में रिटायर होने पर लगभग तीस करोड़ का मालिक होता है। पाक सेना का यह व्यवसाय एक अनुमान के अनुसार देश के जीडीपी का चार और निजी क्षेत्र के व्यवसाय का सात से दस फीसद होता है। इसके पीछे कुछ तो वहां के कानून की खामियां भी जिम्मेदार हैं, जिसमें भूमि सुधार न होना भी एक बड़ी वजह है। एक पाकिस्तानी कानून के अंतर्गत सरकार अगर कोई जमीन नागरिकों के लिए विकासित करती है तो उसका दस प्रतिशत सेना को देना अनिवार्य है। सेना के बड़े अधिकारी तय करते हैं कि वे इस जमीन का क्या उपयोग करें। शहरी जमीन में आवासीय कालोनियां काट दी जाती हैं या सेना की सहायक संस्थाओं को व्यावसायिक उपयोग के लिए जमीन दे दी जाती हैं। अनेक मामलों में उच्च सैन्य अधिकारी अपने परिजनों के या अपने नाम बड़ी जमीन ले लेते हैं और यह सब बहुत मामूली दरों पर होता है। सेना को शहरों में या कहीं भी जमीन तीस से साठ रूपये प्रति एकड़ के भाव से सरकार से मिलती है और फिर इस जमीन पर प्लाट काटने के बाद इसकी कीमतें हजारों गुना बढ़ जाती हैं। इस तरह जमीनों का धंधा करती हुई सेना कारखाने और कंपनियां खोलकर भी स्वायत्त सत्ता का आनंद भोग रही है।



पाकिस्तान में जब भी लोकतांत्रिक सरकार का गठन होता है तो जनता मांग करती है कि सेना की भूमिका को सार्वजनिक जीवन में कम किया जाए। क्योंकि वहां अनेक लोक प्रशासन के पदों पर भी सैन्य अधिकारी कायम रहते हैं, विभिन्न निगमों और बोर्डों के निदेशक या अध्यक्ष के रूप में। लोकतांत्रिक सरकार ऐसा करती है तो सेना को बुरा लगता है और दोनों में टसल शुरू हो जाती है। आयशा की किताब को अगर पाकिस्तान में सेना की हैसियत का एक आईना मानें तो बेहद निराशा होती है और लगता है कि पाकिस्तान में सही मायने में लोकतांत्रिक सरकार का ख्वाब तभी पूरा हो सकता है जब पूरी जनता लामबंद हो जाए। क्योंकि वहां अभी भी लोकतंत्र की बागडोर बड़े जमींदारों और उद्योगपतियों के हाथों में ही है। और इस तरह सेना और पूंजीपतियों के दुष्चक्र में आम पाकिस्तानी मारा जा रहा है। आतंकवाद तो इस दुष्चक्र का एक पहलू है, जिससे पूरी दुनिया परेशान है।

Wednesday 11 March, 2009

होली क्यों नहीं मनाई जाती है कभी कभी


आज होली है और मैं घर पर बैठा हूं। यह मेरा जन्मदिन भी है, भारतीय तिथि के अनुसार। हमारे यहां होली का त्योहार प्यार और मोहब्बत का त्योहार है। कई बार होली का यह त्योहार नहीं मनाया जाता, जैसे मैं नहीं मना रहा। जिनके साथ होली मनाने का मजा या आनंद आता है, अगर उनमें से कोई नहीं रहे, हमसे बिछुड़ जाए तो होली का मजा भी नहीं रहता।

इस बार मेरे साढू राजेंद्र विमल, कथाकार मित्र लवलीन और हमारी एक ताई जी का निधन हो गया। इसलिए मैं होली नहीं खेल रहा। आज सुबह ही सूचना मिली कि जिस अपार्टमेंट में हम रहते हैं, वहां एक बुजुर्ग महिला का भी देहांत हो गया। अब कोई ऐसे में कैसे होली की खुशियों में शरीक हो।हालांकि बच्चे होली खेल रहे हैं, उन्हें किस बात का गम? वो जब बड़े हो जाएंगे तो इस बात को समझेंगे कि पापा ने होली क्यों नहीं खेली?हमारे यहां किसी आत्मीय के देहांत के बाद पहली होली नहीं मनाई जाती और लोग, दोस्त, रिश्तेदार व पड़ौसी आकर ‘सोग’ उठाने की रस्म अदा करते हुए जिंदगी को फिर से नई चेतना के साथ जीने के लिए प्रेरित करते हुए गुलाल का टीका लगाते हैं। सोग उठने के बाद फिर से होली मनाना शुरू हो जाता है।

इन्कलाबी शायर मख़्दूम मोहिउद्दीन का जन्म शताब्दी समारोह




मख़्दूम की जिन्दगी और उनकी शायरी में कोई अन्तर्विरोध नहीं था-नुसरत



मखदूम में अपने समय को जांचने और परखने की अद्भुत क्षमता थी-स्वाधीन



मख़्दूम हमारे साहित्य का शानदार सरमाया है-कृष्ण कल्पित
जयपुरः राजस्थान प्रगतिशील लेखक संघ और राजस्थान हिन्दी ग्रंथ अकादमी जयपुर के संयुक्त तत्वावधान में 8 मार्च, 09 को अकादमी सभागार में हिन्दुस्तान के इन्कलाबी शायर और स्वतंत्रता सेनानी मख़्दूम मोहिउद्दीन की जन्म शताब्दी श्रद्धापूर्वक मनाई गई।
मुख्य अतिथि प्रतिष्ठित शायर और मख़्दूम मोहिउद्दीन के सुपुत्र नुसरत मोहिउद्दीन ने उनके जीवन के अछूते और अंतरंग संस्मरण सुनाते हुए बताया कि मख़्दूम की बातचीत का अंदाज अनूठा और प्रभावित करने वाला था। उन्होंने कहा कि मख़्दूम की जिन्दगी और उनकी शायरी में कोई अन्तर्विरोध नहीं था। वे जो देखते थे उसका अक्स उनकी शायरी में प्रतिबद्धता के साथ झलकता था। वे बच्चों को बताते थे कि हम अपराधी के रूप में जेल यात्रा नहीं करते थे बल्कि गरीबों को उनका हक और किसानों को उनकी जमीनें दिलाने के लिए जेल जाते हैं।
अपना संस्मरण सुनाते हुए नुसरत ने बताया कि एक बार हिन्दुस्तान की मशहूर महिला कव्वाल शकीला बानो भोपाली उन दिनों हैदराबाद आई हुई थीं और मख़्दूम मोहिउद्दीन की लिखी गजल को अपनी आवाज में सजाने के लिए रियाज कर रही थी। हमें उनसे मिलने की चाहत हुई तो अपने वालिद मख़्दूम साहब को बिना बताये ही उनका शेरवानी शूट पहनकर उस होटल में पहुंच गये जहां शकीला जी ठहरी हुई थीं। कुछ देर बाद जब मख़्दूम साहब वहां आये तो हमें देखकर हैरत में पड़ गये और अपने ही अंदाज में कहने लगे, ’तो जनाब आप यहां पहुंच गये। ये सूट तो मुझे पहनकर आना था। खैर, आप लोग शकीला जी से मिल लिए हैं और आपका मकसद पूरा हो गया है तो अब घर चले जाएं और यह सूट एहतियात से हैंगर में लगाकर रख दें। उनकी बात सुनते हुए हम पसीना-पसीना हो रहे थे।’
नुसरत ने बताया कि उन्होंने प्रेम विवाह किया जिससे घर वाले नाराज थे। अपने पिता को जब यह बात पता चली तब वे जेल में थे। उन्होंने मुझे आश्वस्त करते हुए कहा कि फिक्र मत कीजिए और मेरे दोस्त राज बहादुर गौड़ से मिलिए जो आपको सरपस्ती देंगे। उनकी सरपरस्ती में ही शादी हुई थी, लेकिन हम शादी के बाद अपने घर नहीं गये। जब पिता मख़्दूम साहब जेल से छूटे तो वे हमें लेकर घर आये। बच्चों के साथ उनका हमेशा अच्छा सलूक रहता था। वे जहां भी जाते या रहते तो वहां के वाकियात, रहन-सहन, खानपान की बातें हमसे किया करते थे। मख़्दूम साहब बेशक आम लोगों की लड़ाई में साथ खड़े हुए रहते थे, लेकिन परिवार के लोगों और बच्चों से भी बराबर जुड़े रहते थे। हमने उन्हें दिली तौर पर कभी अपने से अलग महसूस नहीं किया।
नुसरत ने मख़्दूम की स्मृति में लिखी एक नज्म की ये पंक्तियां सुनाते हुए अपनी बात पूरी की-
तीन छः महीने और फिर बरस बीत गए

दिल तन्हा है

तन्हाई आंख से आंसू बनकर ढल जाती है

फिर भी अरसे से तेरे शे’र तेरी आवाज गूंजा करती है

फजाओं में आसमानों में

मुझे यूं महसूस होता हैजैसे तू हयात बन गया हैऔर मैं मर गया हूं।
हैदराबाद से आये समारोह के मुख्य वक्ता, प्रतिष्ठित कवि और ’हिन्दी साहित्य संवाद’ के सम्पादक शशिनारायण स्वाधीन ने अपने वक्तव्य में कहा कि जब उपनिवेशवाद से लड़ाई चल रही थी तब मख़्दूम मोहिउद्दीन ’अंधेरा’ नज्म कह रहे थे। आजादी की लड़ाई के समापन पर नये सूरज के स्वागत के प्रति गिरिजा माथुर ने भी हमें सावधान किया था। यह एक मोहभंग के समय की ओर संकेत था - ’आज जीत की रात पहरुए सावधान रहना’ और मख़्दूम खुले रूप में कह रहे थे -
रात की तलछटें हैं, अंधेरा भी है, सुबह का कुछ उजाला, उजाला भी हैहमदमों हाथ में हाथ दोसूए मंजिल चलोमंजिलें प्यार की मंजिले दार की कूए दिलदार की मंजिलेंदोश पर अपनी-अपनी सलीबें उठाए चलो।
स्वाधीन ने मख़्दूम और मुक्तिबोध के साहित्य की शाश्वतता पर विस्तृत चर्चा करते हुए कहा कि हर तरफ जब अंधेरा था तब उसके खिलाफ हमारे यहां मख्दूम और मुक्तिबोध जैसे दो बड़े रचनाकार संघर्ष कर रहे थे। इन दो क्रांतिकारी और युग परिवर्तनकारी कवियों का सामाजिक, राजनीतिक और साहित्यिक संघर्ष अलग-अलग भूगोल और स्थितियों से जुड़ा रहा, लेकिन इनके मूल संघर्ष की धारा, साम्राज्यवाद के विरुद्ध कहीं अधिक निकट और पास-पास देखी जा सकती है। मख़्दूम को समझने के लिए देश, काल और इतिहास के साथ हमें कवि की संघर्ष भूमि-तेलंगाना के सशस्त्र संग्राम को भी समझना जरूरी है। इस संघर्ष में मख्दूम ने गरीब किसानों को निजामशाही और सामंतों-जागीरदारों के शोषण से मुक्ति दिलाने के लिए खुद बंदूक उठाई थी और निजाम की सेना के अलावा अंग्रेजों की सेना का भी मुकाबला किया था।
स्वाधीन ने कहा कि मख़्दूम मुक्तिबोध की तरह पहले अध्यापन से जुडे़। उन्होंने जीवन के प्रारम्भिक दिनों में निचले दर्जे की जिन्दगी का सामना किया, एक अनाथ बच्चे के रूप में मस्जिदों में झाड़ू लगाते हुए उन्होंने बचपन बिताया और बड़ी जद्दोजहद करते हुए तालीम हासिल की। जब उन्होंने अध्यापन शुरु किया तब वे अपने छात्रों को अंग्रेजी से भारतीय भाषाओं में रुसी साहित्य का अनुवाद करने की प्रेरणा देते थे। यह साहित्य उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद के विरुद्ध लोगों को तैयार करने वाला था। मख़्दूम क्लास रूम में पाठ्यपुस्तकों के पाठ की बजाय निजाम और जमींदारों के अत्याचारों के विरुद्ध अधिक बोलते थे। बाहर उनकी ख्याति एक इन्कलाबी शायर के रूप में हो गई थी। एक दीक्षान्त सामारोह में निजाम उस्मान अली खान आमंत्रित थे। तब मख़्दूम के नेतृत्व में सैकड़ों छात्रों ने ’गाॅड सेव दी किंग’ राष्ट्रीय गीत को गाने से इंकार कर दिया था और मख़्दूम ने उसकी जगह अपना गीत ’धंसता है मेरेे सीने में जैसे बांस का भाला, वो पीला दुशाला सुनाया। गौरतलब है कि निजाम हरा साफा बांधते थे और पीला दुशाला ओढ़ते थे। इस घटना के बाद मख़्दूम ने काॅलेज से इस्तीफा दे दिया। सितम्बर 1939 में जब साम्राज्यवादी जंग हुई उस समय मख़्दूम ने इन्कलाबी नज़्म लिखी जिसमें आने वाली नई विश्वव्यवस्था की ओर बढ़ने की आशा थी।
स्वाधीन ने कहाकि मुक्तिबोध और मख़्दूम में अपने समय को जांचने और परखने की क्षमता मौजूद थी। प्रतिबद्धता और दृष्टिकोण की अतल स्पर्शिता दोनों में थी। यह कहा जा सकता है कि मख़्दूम का कवि अवामी लड़ाइयों में शामिल था। निजामशाही साम्राज्य को उखाड़ फैंकने के लिए एक तरफ उन्होंने अभियान चलाया था वहीं अपने क्रांतिकारी साथियों के साथ भारत की स्वतंत्रता के लिए जान की बाजी लगा रखी थी। वे अपनी कलम के साथ-साथ सशस्त्र घूमते थे और हुकूमत ने उनके सिर पर उस जमाने में पांच हजार का इनाम घोषित कर रखा था। मख़्दूम मोहिउद्दीन आज भी प्रासंगिक हैं और हमेषा रहेंगे।
सुपरिचित कवि कृष्ण कल्पित ने कहा कि हम उन खुशनसीब भारतीयों में से एक हैं जो मख़्दूम की शायरी पढ़ते हुए बड़े हुए और हमारे साहित्यिक संस्कार उन्हीं से प्रेरित रहे। मख़्दूम सच्चे अर्थों में क्रांतिकारी शायर थे। उर्दू में रोमेंटिक रिवोल्यूशनरी धारा मख़्दूम साहब से शुरु हुई। ग़ज़ल और शायरी से मख़्दूम ने क्रांति जगाने का जैसा काम किया, इस तरह पहले किसी ने शायरी को क्रांति, आम आदमी और सड़क से नहीं जोड़ा। इसके बाद तो उर्दू शायरी में एक धारा ही चल पड़ी। मज़ाज़ जैसे शायर इसी कड़ी के शायर थे। मज़ाज़ को उर्दू का कीट्स कहा जाता है लेकिन मज़ाज़ से पहले मख़्दूम जैसे कीट्स उर्दू में पैदा हो चुके थे और वही धारा थी जो मज़ाज़ तक पहुंची। संस्कृत में जिसे वज्र से भी कठोर और फूल से भी कोमल कहा जाता है, ऐसी ही शायरी मख़्दूम साहब की थी जिसका विस्तार जीवन में होता दिखाई देता है। अगर मख़्दूम की शायरी का ठीक-ठीक अक्स हिन्दी में खोजना हो तो वह निराला या नागार्जुन में मिलेगा। वैचारिक धरातल एक होते हुए भी मख़्दूम की शायरी और मुक्तिबोध की कविता की शक्लें अलग थीं। इतनी मौलिक, इतनी पैनी और सेंसिटिव शायरी करने वाले मख़्दूम ’एक चमेली के मंडवे तले दो बदन प्यार के लिए जल गये’ जैसी और क्रांति की कविता लिखने वाले शायर की तुलना मुक्तिबोध से करने के साथ-साथ क्रांतिकारी कवि नजरुल इस्लाम से भी की जानी चाहिए। मख़्दूम सिर्फ उर्दू के शायर नहीं थे। भारतीय कविता के आसमान में जो सितारे और नक्षत्र आज हम देख रहे हैं, उनमें मख़्दूम सबसे तेज चमकते सितारे हैं। आने वाले हजारों वर्षाें तक उनकी शायरी जिन्दा रहेगी। मुक्तिबोध का संघर्ष उनका मानसिक संघर्ष था, जबकि मख़्दूम साहब ने सड़क पर आकर राजशाही और साम्राज्यवाद के खिलाफ लड़ाई लड़ी।
कल्पित ने कहा कि मख़्दूम ने ’ये जंग है जंगे आजादी, आजादी के परचम के तले’ और ‘फिर छिड़ी बात फूलों की रात है या बारात फूलों की’ जैसी शायरी की। कहते हैं कि रेगिस्तान में गर्मी और ठंड के तापमान में जो अन्तर है वह विस्तृत भूमि और विस्तृत वेदना मख़्दूम की शायरी में मिलती है जो मख़्दूम को बड़ा बनाती है। वे हमारे भारतीय साहित्य का शानदार सरमाया हैं।’
उन्होंने कहा कि प्रगतिशील आन्दोलन में मख़्दूम का जो योगदान है उसे हमें पाॅब्लो नेरुदा या विश्व के ऐसे ही महान रचनाकारों की तरह याद करना चाहिए। उनकी कविता में जो क्रांतिकारिता दिखाई देती थी वही उनके जीवन में झलकती थी। आज के दौर में किसी को रिवोलुशनरी कहना जबकि महाश्वेता देवी द्वारा ब्यूरोक्रेट्स को भी रिवोलुशनरी कहा जाता है, कुछ सोचने को विवश करता है। आज जब हमारे प्रगतिशील और जनवादी मित्रों को पूंजीपतियों के पुरस्कार लेने से फुरसत नहीं है, ऐेसे समय में मख़्दूम को याद करना एक सही पथ को याद करना है।
अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में प्रमुख कवि और मीडियाकर्मी नन्द भारद्वाज ने कहा कि मख़्दूम और उस दौर के बहुत से कवि एवं लेखक इस बात की ओर इशारा करते हैं कि आजादी की लड़ाई मंे किस तरह शायरों और अदीबों ने अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। सभी परिचित हैं कि राजस्थान में अंग्रेजी हुकूमत और देशी हुकूमत के खिलाफ एक जबर्दस्त लड़ाई यहां के लेखकों ने अपने स्तर पर लड़ी। वे आजादी की मशाल को बुलन्द किए रहे। उन्होंने कलम के माध्यम से आवाज उठाई और आंदोलनों में भी शामिल रहे।
राजस्थानी कवि आजादी के आंदोलन में भी सक्रिय रहे। वह लड़ाई की प्रकृति ही कुछ ऐसी थी जो जागरूक लोगों को स्वतः अपने से जोड़ लेती थी। उन लोगों का आजादी और लोकतंत्र को लेकर एक खूबसूरत सपना था। वह लड़ाई कोई छोटे मकसद या आजादी प्राप्त कर लेने से सब कुछ प्राप्त हो जायेगा, इस मकसद को लेकर नहीं थी बल्कि बेहतर हिन्दुस्तान, एक अच्छा देश और एक अच्छा भविष्य बनाना है, यह बात उनके दिमाग में थी। आजादी के बाद जब यह सपना बिखरने लगा तो चाहे मुक्तिबोध हों या मख़्दूम मोहिउद्दीन, तमाम फनकार-अदीब चुप नहीं रह सकते थे। ऐसे शायरों को याद करना हमारा फर्ज भी है और जरूरत भी।
भारद्वाज ने कहा कि हम अपनी इस विरासत को सहेजकर रखें, इससे सीखें और हम इसमंे क्या जोड़ सकते हैं, इस बात पर मिल-बैठकर विचार करें। इसी में इस आयोजन की सार्थकता है। प्यार की जो पवित्र भावना थी वह मख़्दूम की नज़्मों और ग़ज़लों में मौजूद थी। ऐसे शायर की विरासत को हम अपनी विरासत का हिस्सा अनिवार्य रूप से बनाएं तभी लेखन की सार्थकता है।
इस अवसर पर अली सरदार जाफरी द्वारा मख़्दूम मोहिउद्दीन के जीवन संघर्ष और उनकी शायरी पर निर्मित डेढ़ घण्टे की एक फिल्म का प्रदर्शन किया गया। जयपुर में जन्मे सिने जगत के मशहूर अभिनेता इरफान ने बखूबी मख़्दूम के किरदार की भूमिका निभाई है। इस फिल्म के साथ मख़्दूम मोहिउद्दीन की आवाज में शायरी भी समारोह में मौजूद श्रोताओं को सुनाई गई। समारोह के अन्त में यशस्वी उपन्यासकार-कथाकार स्व. यादवेन्द्र शर्मा ’चन्द्र’ और जयपुर के सांसद स्व. गिरधारीलाल भार्गव को दो मिनट का मौन रखकर श्रद्धाजंलि दी गई।
प्रारंभ में राजस्थान प्रगतिशील लेखक संघ के महासचिव प्रेमचन्द गांधी ने मख़्दूम मोहिउद्दीन की शायरी, उनके जीवन संघर्ष और साहित्य जगत के लिए उनके योगदान पर विस्तृत रूप से प्रकाश डाला। गंाधी ने कहा कि मख्दूम मोहिउद्दीन को आजकल लोग एक फिल्मी गीतकार की तरह जानते हैं, जबकि सच्चाई यह है कि मख्दूम ने कभी फिल्म के लिए नहीं लिखा। मख्दूम की रचनाओं की ताकत और लोकप्रियता के कारण फिल्मकारों ने उनकी रचनाओं को फिल्मों में लिया। उनकी कुल जमा छह रचनाएं फिल्मों में ली गई हैं। मख्दूम ने तेलंगाना में किसानों के साथ जो संघर्ष किया उसे लेकर उर्दू के महान उपन्यासकार कृषन चंदर ने ‘जब खेत जागे’ उपन्यास लिखा, जिस पर गौतम घोष ने तेलुगू में ‘मां भूमि’ फिल्म बनाई। गांधी ने कहा कि मख्दूम की प्रमुख कृतियों में सुर्ख सवेरा, गुल-ए-तर और बिसात-ए-रक्स हैं। इस जन्मषताब्दी के मौके पर नुसरत और स्वाधीन ने ‘सरमाया’ नाम से मख्दूम समग्र संपादित किया जिसे वाणी प्रकाषन ने प्रकाषित किया है। मख्दूम ने जार्ज बर्नाड शा के नाटक ‘विडोवर्स हाउस’ का उर्दू में ‘होष के नाखून’ नाम से और एंटन चेखव के नाटक ‘चेरी आर्चर्ड’ का ‘फूल बन’ नाम से रूपांतर किया। मख्दूम ने रवींद्रनाथ टैगोर और उनकी शायरी पर एक लंबा लेख भी लिखा। ‘फूल बन’ में भारत कोकिला सरोजिनी नायडू की बेटी लीलामणि ने अभिनय किया, जो आंध्रप्रदेष की रंगमंच पर आने वाली पहली अभिनेत्री थीं। इस अवसर पर प्रमुख चित्रकार एकेष्वर हटवाल ने श्रद्धास्वरूप मख़्दूम का खूबसूरत चित्र तैयार कर प्रगतिशील लेखक संघ को भेंट किया, जिस पर श्रद्धासुमन अर्पित किये गये।
प्रस्तुति-फारूक आफरीदीउपाध्यक्ष, राजस्थान प्रगतिशील लेखक संघ,ई-750, न्याय पथ, गांधी नगर, जयपुर-302015 (राज.)मो.ः 94143 35772

Sunday 8 March, 2009

शब्दों की सरहद पर औरत



साहित्य और समाज में हर दौर में स्त्रियों की बदहाली को लेकर चिंतन-अनुचिंतन किया जाता रहा है। दुर्भाग्य से बहुत सारे लोग यह मानकर चलते हैं कि नारीवादी चिंतन पाश्चात्य दुनिया में पैदा हुआ और भारत में इसका अंधानुकरण किया जा रहा है। दरअसल स्त्री विमर्ष कोई नई परिघटना नहीं है और अगर भारतीय परंपरा में देखें तो ऋग्वेद से ‘सीमंतिनी उपदेश’ तक एक लंबी परंपरा है, जिसमें स्त्री की स्वाधीनता और पुरुष के समान अधिकारों की बात कही गई है। हिंदी की प्रसिद्ध कवयित्री अनामिका की पुस्तक ‘स्त्रीत्व का मानचित्र’ इस विषय की सबसे महत्वपूर्ण पुस्तक है, जिसमें भारतीय आर्ष साहित्य से लेकर सामाजिक आंदोलनों, विभिन्न भाषाई साहित्य और पाश्चात्य नारीवादी विमर्ष की बहुत गहरी पड़ताल की गई है। इसी प्रकार कात्यायनी ने ‘दुर्ग द्वार पर दस्तक’ में समकालीन स्त्री विमर्ष को एक रेडिकल नजरिये से देखा है और आज के समय में समूचे नारीवादी चिंतन को एक प्रतिबद्ध वामपंथी दृष्टिकोण से जांचने-परखने की कोषिष की है। देखा जाए तो साठ के दशक के नारीवादी आंदोलन के बाद स्त्रियों के बहुत से सवालों को भारतीय समाज में प्रतिबद्ध लेखिकाओं और सामाजिक-सांस्कृतिक कार्यकताओं ने विभिन्न नजरियों से देख परख कर विश्लेषित कर समग्रता में एक वृहद नारी-समानतावादी विमर्ष तैयार करने के प्रयास किये हैं, जिसने बहुत सी नई लेखिकाओं को तैयार किया और अपने समय और समाज को लैंगिक समानतावादी दृष्टि से रूपायित करने की जमीन तैयार की।
यद्यपि यह बात सही है कि बीसवीं शताब्दी में स्त्री को लेकर सबसे ज्यादा विमर्ष और चिंतन हुआ। लेकिन भारत ही नहीं दुनिया के अनेक देशों में नारी समानता को लेकर चिंतन उन्नीसवीं सदी में ही प्रारंभ हो गया था। कार्ल मार्क्स ने ‘पूंजी’ में सैंकड़ों जगह मजदूर स्त्रियों के साथ अन्याय से लेकर विभिन्न प्रकार के समतामूलक सवालों की चर्चा की है, यद्यपि मार्क्स का विश्लेष्ण लैंगिक आधार पर नहीं था और उन्होंने स्त्री की बात वर्गीय ढांचे के अंतर्गत ही की है, जिसे बहुत से लोग उस वक्त की एक सीमा मानते हैं। आज के महाशक्तिशाली देश अमेरिका में 1861 में तीस वर्षीया रेबेका हार्डिंग ने साहित्य के तत्कालीन घेरे से बाहर रहकर ‘लाइफ इन द आइरन मिल्स एण्ड अदर स्टोरीज’ जैसी किताब लिखी जो अमेरिका के इतिहास की पहली नारीवादी विमर्ष की प्रामाणिक पुस्तक मानी जाती है। इस किताब की खास बात यह कि अमेरिका में इससे पहले स्त्री विमर्ष की कोई लिखित रचना या किताब ही नहीं मिलती। लेकिन नारीवादी विमर्ष में हमारे सामने सीमोन द बोउवा, वर्जीनिया वुल्फ, कैथरीना मैन्सफील्ड, केट मिलेट, ज्यां राइस, एडिथ व्हार्टन, क्रिस्टीना स्टीड, जेन बाउल्स और क्रिस्टीन ब्रुक रोज जैसी लेखिकाएं प्रमुख तौर पर सामने आती हैं, जिन्होंने अपने लेखन से बीसवीं शताब्दी के सामाजिक चिंतन की धारा को ही बदल डाला। सीमोन द बोउवा की 1949 में प्रकाशित ‘द सैकण्ड सेक्स’ ने अपने समय में जो हलचल मचाई उसकी अनुगूंज आज भी सुनाई देती है। दुनिया की तमाम प्रमुख भाषाओं में अनूदित इस पुस्तक ने स्त्री विषयक चिंतन को वैज्ञानिक और तार्किक आधार दिया और नारी समानता की पुरजोर वकालत की। यह किताब बताती है कि किस प्रकार इतिहास में एक स्त्री को मनुष्य समझने के बजाय लैंगिक भेदभाव की दृष्टि से एक ‘इतर लिंग’ के रूप में देखा जाता रहा है और इसी आधार पर प्रताड़ित किया गया है।
वर्जीनिया वुल्फ की 1929 में प्रकाशित ‘ए रूम आफ वन्स ओन’ में इस बात की चर्चा की गई है कि क्या एक स्त्री लेखन में शेक्सपीयर के समान ही उत्कृष्ट रचना कर सकती है? वो इस किताब में दिखाती हैं कि तमाम किस्म की चीजों के बावजूद एक स्त्री पुरुष के समकक्ष सिर्फ इसलिए नहीं हो सकती, क्योंकि उसके लिए कुछ दरवाजे हमेषा बंद रहते हैं, जो उसे रोकते हैं। इसी प्रकार केट मिलेट की पुस्तक ‘सेक्सुअल पालिटिक्स’ में इस बात को रेखांकित किया गया है कि राजनीति में स्त्रियों को लैंगिक आधार पर खारिज किया जाता रहा है और पितृसत्तात्मक व्यवस्था के चलते यौन संबंध भी प्रभावित होते हैं, जिन्हें अनेक स्तरों पर देखा जा सकता है। मिलेट ने डी.एच.लारेंस जैसे महान लेखकों की रचनाओं में पितृसत्तात्मक व्यवस्था के लक्षणों को उजागर किया। 1970 में प्रकाशित मिलेट की इस कृति के बाद राजनीति में महिलाओं की भागीदारी की बात प्रमुखता से उठने लगी और आज के नारी आंदोलन की यह सबसे अहम मांगों में से एक है।


स्त्री समानता का लक्ष्य स्त्रियों को सत्ता में भागीदार बनाए बिना प्राप्त नहीं किया जा सकता और हजारों वर्षों से सताई हुई स्त्री की आवाज जिन किताबों में मुखरित हुई हैं, वे सदियों तक मानवजाति का मार्गदर्शन करती रहेंगी।

Tuesday 3 March, 2009

संघर्ष और जीवन की जयकथा





कुछ कलाकार हमेशा लीक से हटकर काम करने में विशवास करते हैं और तमाम किस्म की मुश्किलों के बीच भी अविचलित रहते हुए निरंतर अपने सृजन में रत रहते हैं। एकेश्वर हटवाल ऐसे ही कलाकार हैं, पूरी निष्ठा के साथ कला को समर्पित और मीडिया की चकाचौंध से दूर अपने अनूठे अंदाज में उद्देश्यपरक और जनपक्षधर कला का संसार रचते हुए। वे पहले-पहल अपनी ‘रिक्षावाला’ चित्र-श्रृंखला से चर्चित हुए थे। इसके बाद एकेश्वर ने लोक कलाकार-नर्तकों को अपने चित्रों में पूरी खूबसरती के साथ ही नहीं बल्कि सांगीतिक लय और कलात्मक उर्जा के साथ जीवंत किया। हमेशा कुछ अलग और सार्थक प्रयोग करने वाले एकेश्वर ने इस बार अपनी कला का माध्यम ही बदल डाला और मूर्तिशिल्प के साथ ब्लू पोटरी में आधुनिक चित्र बनाने की पहल की। इस नये काम की हाल ही एन एक प्रदर्शनी जवाहर कला केंद्र, जयपुर में आयोजित हुई तो एक सुखद आश्चर्य हुआ कि पिछले कई महीनों से एक सड़क दुर्घटना में घायल शरीर के कष्ट झेलते एकेश्वर ने एक नया अवतार लिया है। यह प्रदर्शनी उस दिन शुरू हुई जिस दिन बराक हुसैन ओबामा ने अमेरिका के राष्ट्रपति पद की शपथ ली। एकेश्वर के ब्लू पोटरी चित्रों में ओबामा भी है, जो पूरी दुनिया के अश्वेत और वंचितों के नए मसीहाई प्रतीक कहे जा रहे हैं।

मूर्तिकला एकेश्वर बरसों से पढ़ा रहे हैं, लेकिन पहली बार उन्होंने इस माध्यम में खुद काम किया है। और उनके मूर्तिशिल्प देखने से पता चलता है कि इस माध्यम पर उनकी कितनी गहरी पकड़ है और अपने गहन चाक्षुष अध्ययन से उन्होंने जिन लोक कलाकारों की कला को आत्मसात किया है, उसे मूर्तिशिल्प में ढालते हुए वे इस कदर तल्लीन हो जाते हैं कि दो कला-रूप एक दूसरे में बहुत खूबसूरती के साथ समाविष्ट हो जाते हैं। नृत्य और संगीत की लय को मूर्तिशिल्प में पकड़ पाना आसान नहीं है और सबसे बड़ी बात यह कि उसमें नवीनता का समावेश कैसे किया जाए? आखिरकार कला में नवीनता का सृजन ही तो सबसे महत्वपूर्ण बात है। जिंदगी के जिस पहलू को कला में व्यक्त किया जाता है, वह अगर प्रेक्षक को नवीनता का बोध नहीं कराता तो कैसी कला? देखे हुए को नये ढंग से दिखाना ही तो चाक्षुष कला है। कहना न होगा कि एकेश्वर ने इस दृष्टि से बहुत ही सुंदर और उत्कृष्ट काम किया है। इन मूर्तिशिल्पों में ढोल, मंजीरे और परात बजाते तथा नृत्य करते लोक कलाकार राजस्थान, मध्यप्रदेश या छत्तीसगढ़ के होते हुए भी वैश्विक लगते हैं, क्योंकि एकेश्वर ने अपनी कलाभिव्यक्ति में उनको इस कदर रूपांतरित कर दिया है कि वे सृजनशील और श्रमजीवी कलाकार अधिक लगते हैं, पेशेवर कलाकार कम। और ऐसा करते हुए एकेश्वर इस बात का ध्यान रखते हैं कि लोक कलाकारों की सर्जनात्मक जिजीविषा और उर्जा ही शिल्प की ताकत बन जाए, स्त्री-पुरुष कलाकार का भेद मिट जाए और एक सार्वभौमिक लोक कलाकार की छवि प्रेक्षक के दिलो-दिमाग पर इस तरह रच-बस जाए कि उसके लिए देखे हुये कलाकार एक सर्वथा नए रूप में प्रकट हों और किंचित विस्मय के बाद वह दो कलाओं के इस महामिलन को एक नए चाक्षुष कला-आस्वाद के रूप में ग्रहण कर सके। इन मूर्तिशिल्पों में एक शिल्प रिक्षा वाले का भी है। इस शिल्प की खास बात यह है कि इसमें रिक्षा और चालक एकमेक हो गये हैं और लोक कलाकारों की भांति रिक्षाचालक भी अपनी विशिष्ट लय में किसी श्रमजीवी कलाकार की तरह सृजन में लीन दिखाई देता है।जयपुर की ब्लू पोटरी कला विश्वविख्यात है और राजस्थान के महान चित्रकार स्व. कृपालसिंह शेखावत ने इस कला को नए आयाम प्रदान किए। एकेश्वर हटवाल ने ब्लू पोटरी में सर्वथा नए प्रयोगशील काम की शुरूआत की है। इस प्रदर्शनी में एकेश्वर के तीस ब्लू पोटरी चित्रों को देखने के बाद बरबस ही इस बात पर हमारा ध्यान जाता है कि अभी भी आधुनिक कला को कितने नए माध्यमों में प्रवेश करना बाकी है। ब्लू पोटरी कला में अब तक पारंपरिक किस्म का चित्रांकन ही होता आया है और स्व. कृपालसिंह जी जैसे कलाकार भी उसमें इस किस्म के प्रयोग नहीं कर पाए थे। वैसे भी कृपालसिंह जी पारंपरिक कला को थोड़ी ज्यादा ही तवज्जोह दिया करते थे। बहरहाल, एकेश्वर ने इस लिहाज से ऐतिहासिक शुरूआत की है। इधर कुछ सालों से इस कला में यानी ब्लू पोटरी में प्रयोग और नवाचार तो हुए हैं, लेकिन कथ्य या अंतर्वस्तु के लिहाज से कोई खास उल्लेखनीय बदलाव नहीं देखने को मिले। जो थोड़े बहुत बदलाव हुए भी तो कृपालसिंह जी और उनके शिष्य रामगोपाल सैनी ने किए। एकेश्वर ने रामगोपाल सैनी के साथ मिलकर इस नए काम को पूरा किया। एकेश्वर के ब्लू पोटरी चित्र टाइल्स में बनाए गये हैं। अभी तक हम लोग टाइल्स में खास तौर पर सिरेमिक में, एक ही बदलाव देख पाए हैं कि वहां भी धार्मिक प्रतीक और देवी-देवता सजावटी चीजों की तरह प्रवेश कर गये हैं या पाश्चात्य नमूने और वस्त्रसज्जा के रूपाकार आए हैं। ऐसे में एकेश्वर का काम बेहद सुकून देता है कि टाइल्स में आप अश्वेत समुदाय के महानायक बराक हुसैन ओबामा से लेकर लोक कलाकार, नर्तक, संगीतकार, नृत्य में लीन गणपति, रिक्षाचालक, पहाड़ी मजदूर अर्थात् पिट्ठू, गधे और सुअर तक को एक कला संसार में दाखिल होते हुए देख सकते हैं। इस कला संसार में सब कुछ जीवन, संगीत और श्रम में रचा-बसा है। जीवन की पूरी लय और गति अपनी पूरी ताकत के साथ दिखाई देती है। एकेश्वर के कला संसार में अभिजात्य की कोई जगह नहीं है, वहां सिर्फ मेहनतकशों की सृजनशीलता है या जीवन के संघर्ष में मुब्तिला जानवर, जो अपनी मूक वाणी से मनुष्यों की तरह ही अपना दुख अभिव्यक्त करते हैं। चूंकि एकेश्वर ने खुद एक अत्यंत संघर्षशील जीवन जिया है और जी रहे हैं, इसलिए ‘संघर्ष’ उनकी कला के केंद्र में रहता है। यही संघर्ष कला में जब व्यक्त होता है तो एक सर्वथा नई दुनिया हमारे सामने आती है। हमें खुशी ही नहीं अत्यंत गर्व महसूस होता है, जब हम देखते हैं कि हमारे बीच एकेश्वर के रूप में एक ऐसा कलाकार मौजूद है, जो मनुष्य जाति के सांस्कृतिक संघर्ष को उसकी पूरी संवेदना के साथ व्यक्त करता है और जीवन की जयकथा गाता है।

टूटती जंजीरें


यूं तो राजस्थान ही क्या पूरे भारत के ही पुरातनपंथी, जातिवादी और सामंती संस्कारों वाले समाजों में आज भी महिलाओं की और खासकर विधवाओं की स्थिति बेहद दयनीय है। अगर सामंती मूल्यों वाली जातियों की बात करें तो क्षत्रिय और ब्राह्मणों में औरतों की हालत आज भी भयावह है, जिसमें कम उम्र में विवाह, शिक्षा पर रोक, विधवा विवाह पर प्रतिबंध, जाति पंचायतों की निर्णायक भूमिका के साथ झूठी आन-बान और शान के नाम पर अपनी ही बेटियों को प्रताड़ित करना इतना आम है कि इसे लेकर आज भी तलवारें तन जाती हैं और स्त्रियों को नारकीय स्थितियों में जीना पड़ता है। राजस्थानी और हिंदी साहित्य में स्त्री के इन हालात को लेकर काफी कुछ लिखा गया है, लेकिन राजस्थान के उर्दू साहित्य में राजस्थानी स्त्री के इस विकट जीवन को, संभवतया पहली बार उर्दू की महत्वपूर्ण कथाकार सरवत खान ने ‘अंधेरा पग’ उपन्यास के रूप में चित्रित किया है। उर्दू साहित्य के इतिहास में साहसी स्त्री कथाकारों की जो परंपरा रशीद जहां से चली आई है, कहना न होगा कि सरवत खान ने उसे समृद्ध करने का अत्यंत सार्थक प्रयास किया है। वैसे उर्दू में गालिब के समकालीन हाली ने पहली बार ‘मुनाजाते बेवा’ अर्थात् ‘विधवा की प्रार्थना’ लिखी थी, क्योंकि क्या हिंदू क्या मुस्लिम, किसी भी भारतीय समाज में विधवा जीवन स्त्री के लिए एक अभिशाप ही रहा है।
सरवत खान ने अपने इस पहले उपन्यास में बीकानेर के ग्रामीण जनजीवन को केंद्र में रखकर राजपुरोहित समुदाय में एक विधवा युवती के अदम्य संघर्ष और उसकी विजय को चित्रित किया है। इस उपन्यास की खास बात यह है कि आज के समूचे स्त्री विमर्ष में से विधवा जीवन जिस प्रकार से गायब है, उसे भी यह केंद्र में रखता है और उन तमाम प्रश्नों पर सोचने के लिए विवश करता है, जिन पर सामंती संस्कारों वाले हमारे प्रदेश में आज भी बहुत गहराई से सोचने की जरूरत है।

एक लड़की है रूपकुंवर, जिसने कस्बे की पहली डाक्टर बनने का ख्वाब देखा था और स्कूली पढाई के बीच ही उसे विवाह के बंधन में बांध दिया गया। विवाह के तुरंत बाद ही वह विधवा हो गई और फिर शुरू हुआ उसकी अंतहीन तकलीफों का एक सिलसिला। अमावस की रात उसे ससुराल से पीहर के लिए ‘अंधेरा पग’ की रस्म के निभाने के लिए चुपचाप रवाना कर दिया जाता है। वह यह सोचकर पीहर आती है कि ससुराल के विधवा जीवन से मुक्ति मिलेगी, लेकिन पारंपरिक समाजों में स्त्री की मुक्ति कहीं नहीं है। इस बात का अहसास रूपकुंवर को पीहर आने पर होता है, जहां उसके लिए एक अंधेरी कोठरी इंतजार कर रही है। जिस कोठरी को वह बचपन से एक रहस्य की तरह देखती आई थी, वह कोठरी उसी की प्रतीक्षा में अपने भीतर सीलन और बदबू भरे बैठी थी। मां, बाप, दादी, चाचा, चाची, घर-परिवार और नौकरानियों के होते हुए भी वह अपने ही घर में पराई और अभिशप्त स्त्री का जीवन जीने के लिए मजबूर होती है।उसकी शहरवासी बुआ राजकुंवर, जिद करके उसे अपने साथ शहर ले जाती है और यह बात फैला दी जाती है कि रूपकुंवर बीमारी का इलाज कराने गई है। नगर में रूपकुंवर पढ़ाई में ऐसी जुट जाती है कि हर बार अव्वल आती है और सचमुच डॉक्टरी की पढ़ाई करने लग जाती है। सब ठीक चल रहा होता है, लेकिन एक दिन गांव का ही एक युवक रूपकुंवर का रहस्य खोल देता है और फिर जाति-समाज-गांव की पंचायत जुट जाती है, एक विधवा को उसका कथित ‘आदर्श जीवन’ जिलाने के लिए। रूपकुंवर अर्श से वापस फर्श पर आ जाती है, डॉक्टर बनने का सपना कहीं गुम हो जाता है। काली अंधियारी कोठरी में किताबों के साथ भी वह क्या करे? इस बीच उसके पिता उसकी हमउम्र नौकरानी के साथ रास रचा लेते हैं और जब वह गर्भवती हो जाती है तो उसे मरवा डालते हैं। रूपकुंवर को पता चलता है तो वह पुलिस में किसी तरह रपट दर्ज करवाती है और पुलिस के आने पर पता चलता है कि बच्चों को जिस सूखी बावड़ी की तरफ जाकर खेलने से हमेशा मना किया जाता था, वहां एक नहीं दो लाशें दफन थीं, एक ताजा और एक दो दशक पुरानी और दोनों ही औरतों की। उसकी मां पुलिस के सामने अपने सारे जेवरों की पोटली लाकर रख देती है और पुलिस वहां से चुपचाप चली जाती है। यहीं रूपकुंवर को अहसास होता है कि अब कोई चारा नहीं और वह अपनी किताबें उठाकर सहेली जैसी नौकरानी के साथ घर से बाहर ‘उजियारा पग’ बढ़ाती दूर निकल जाती है और घर वालों में से कोई उसे नहीं रोकता। एक था ससुराल जहां से उसे ‘अंधेरा पग’ लिए निकलना पड़ा और अब उसके सामने थी पूरी दुनिया, जिसमें उजाले उसकी राह देख रहे थे।

उर्दू साहित्य में सरवत खान के इस उपन्यास के महत्व को स्वीकारते हुए ही उर्दू के प्रसिद्ध आलोचक शकील सिद्दीकी ने खुद इसका हिंदी में अनुवाद भी किया और एक लंबी भूमिका भी लिखी है। उनके अनुसार सरवत खान की इस कृति ने ‘उर्दू उपन्यास के किसी हद तक निराशा से भरे परिदृश्य में एक हलचल पैदा की है, आस बंधाई है और उर्दू उपन्यास के सामाजिक आधार को नया विस्तार दिया है। उर्दू के वरिष्ठ साहित्यकार वारिस अलवी ने इस उपन्यास के बारे में लिखा है कि सरवत खान ने एक पुराने विषय को ऐसा रूप दिया है जिसमें विधवा का दुःख विद्रोह में बदल जाता है। राजस्थान के उर्दू साहित्य में इस उपन्यास को इसलिए याद किया जाएगा कि इसमें राजस्थानी भाषा और संस्कृति की गहरी मिठास भी पूरी तरह मौजूद है, जो उर्दू-हिंदी की गंगा-जमनी तहजीब की शानदार विरासत भी है।