Thursday 31 December, 2009

31 दिसंबर की रात




यह कहानी पिछले साल लिखी थी। आज 31 दिसंबर के दिन अपने दोस्‍तों और पाठकों के बीच इसे प्रस्‍तुत करते हुए थोड़ी झिझक हो रही है। वजह यह कि ब्‍लॉग पर पहली बार अपनी कहानी दे रहा हूं। पता नहीं पाठकों को पसंद आएगी कि नहीं।
बाहर बारिश हो रही है। पड़ोस में कहीं तेज आवाज में डीजे बज रहा है। नया साल अब कुछ ही घंटों में आने वाला है। मद्धम बारिश में यह शोर किसी शोकगीत की तरह लगता है। इस बारिश भरी जाड़े की रात की कोख से जो दिन निकलेगा, वह नया साल लेकर आएगा। कुछ भी तो नहीं बदलेगा, सिवाय एक केलेण्डर के या कहें कि कुछ दिन हमें नया सन् लिखने की आदत डालनी पड़ेगी। जीवन वैसे ही चलता रहेगा। मैं अभी की तरह यूं ही बिस्तर में दुबका पड़ा रहूंगा। अपनी हालत पर खुद ही तरस खाता रहूंगा और उम्मीद करता रहूंगा कि वह आएगी और मुझे झिंझोड़कर कहेगी, 'चलो बहुत हुआ रोना धोना, उठो और तैयार हो जाओ।'

खुशफहमियों में जीना इंसान की फितरत है। मैं भी वही कर रहा हूं। खिड़की से बाहर देखता हूं तो स्ट्रीट लाइट का पीलिया के रोगी जैसा प्रकाश बारिश की बूंदों में यूं लग रहा है जैसे मेरे दिल के घावों पर कोई सुइयां चुभो रहा है और पीला जर्द मवाद बूंद बूंद कर बरस रहा है। पता नहीं वह कौनसी घड़ी थी, जब मैं उससे प्यार कर बैठा? क्या वह सचमुच प्यार करने के काबिल है? उसमें ऐसा कुछ भी तो नहीं।

लम्बा और अण्डाकार चेहरा, जिस पर बड़ी और चौड़ी चौड़ी आंखें। मर्दों की तरह भरी-भरी काली भवें। पतले होंठ, निचला होंठ थोड़ा सा बड़ा। जब वह चुप रहती तो लगता, निचला होंठ कहीं गिर न पड़े। ठुड्डी और होंठों के बीच का फासला काफी कम। मेरा मन करता कि कभी कहकर देखूं कि जरा अपनी जीभ से यह घुमावदार ठुड्डी छूकर देखो। वह सचमुच नाराज हो जाती। गाल हल्के से पिचके हुए और उन पर बहुत बारीक गेहुंए रंग के रोंये, उसके सांवले रंग को ये रोंये गेहुंआ रंग देते। लम्बी गर्दन पर उभरी हुई नीली नसें। मुझे बेसाख्‍ता पद्मिनी का खयाल आता और मैं सोचता कि कि अगर इसका रंग गोरा होता तो नीली नसों के भीतर बहता रक्त भी दिखाई देता। आम लड़कियों के मुकाबले वह थोड़ी लम्बी थी छह फीट के करीब यानी मुझसे बामुश्किल एक आध इंच कम। अगर वह हाई हील पहनती तो मुझसे लम्बी लगती। हालांकि उसे हाई हील पहनना पसंद नहीं। चुस्त सलवार कमीज में उसकी लम्बाई और रोबदार लगती। उसके लम्बे हाथों में आश्चर्यजनक रूप से बेहद छोटी और पतली अंगुलियां। वह पतली तो नहीं लेकिन देह इतनी भरी हुई भी नहीं कि गदराया हुआ जिस्म कहा जा सके। बड़ी सादगी पसन्द। आम तौर पर सलवार कमीज और कभी-कभी साड़ी पहनती। सादे ढंग से बाल बनाती और बालों में नारियल या सरसों का तेल लगाती। कहने का मतलब यह कि उसके व्यक्तित्व में ऐसा कुछ भी नहीं था जिससे तुरन्त आकर्षित हुआ जा सके। फिर भी मैं क्यों उसके लम्बे बालों वाली पतली सी चोटी के पीछे फुन्दे सा लटक गया। दरअसल इसकी भी एक कहानी है। उन दिनों मैं इसी शहर के एक मोहल्ले में अपनी मौसी के यहां रहता था। मेरी परीक्षाएं खत्म हो चुकी थीं और मैं रिसर्च की तैयारी में जुटा हुआ था। गर्मी के दिन थे। मैं छत पर बैठकर पढ़ता था। पूरी पूरी रात। सुबह नौ बजे के आस पास जब मैं अखबार पढ़ रहा होता तो उसे सड़क पर बस स्टॉप की ओर जाते हुए देखता। हरे रंग का एक बैग उसके कंधे पर होता। वह लम्बी टांगों से तेज-तेज चलती। एक सुबह वह सामने से गुजरी तो अचानक उसकी चप्पल जवाब दे गई। वह गिरते गिरते बची और सधे कदमों से चलती चली गई। मैं उसके इस आत्मविश्वास पर मुग्ध हुआ। लेकिन इसमें आकर्षण जैसा कुछ नहीं था। मैं वापस अखबार में डूब गया, जहां पुलिस के आपरेशन मजनूं की खबर थी। मैंने डर के मारे उसका खयाल ही दिमाग से निकाल दिया।

रविवार का दिन था। एक प्रतियोगी परीक्षा के लिए मैं जल्दी तैयार होकर बस स्टॉप पर बस की राह देख रहा था। मैं जब बस में घुसा तो देखा कि वह मेरे पीछे पीछे बस में चढ़ रही है। बस में दो ही सीटें खाली थीं। हम साथ-साथ बैठ गए। वह बैठते ही एक किताब में डूब गई और मैं बाहर देखने लगा। कण्डक्टर ने किराया मांगा तो उसने वही स्टाप बताया जहां मुझे भी जाना था। पैसे देने के बाद मैंने कनखियों से देखा वह उसी परीक्षा की तैयारी में डूबी थी जिसके लिए मैं खाली हाथ जा रहा था। गंतव्य आया तो हम एक ही दिशा में आगे बढ़ते रहे। अब इसे संयोग ही कहिए कि हम दोनों एक ही कमरे में बैठे थे। एक दूसरे को देखने लायक दूरी जरूर थी हमारे बीच। परीक्षा देकर बाहर की तरफ निकलते हएु मैंने यूं ही पूछ लिया, 'कैसा हुआ पेपर?' उसने कहा, 'अच्छा।' मेरी हिम्मत बढ़ी और अगला सवाल दाग दिया 'हम एक ही मोहल्ले में रहते हैं।' उसने बेरुखी से कहा, 'जानती हूं।'

वापसी के लम्बे सफर में थोड़ी बहुत बातचीत हुई। वह विधवा मां की इकलौती संतान है। पिता दुर्घटना में मारे गए। मां को पिता की जगह क्लर्क की नौकरी मिल गई। मां बेटी किराए के घर में रहते हैं। उसने भी मेरी तरह एम.ए. कर लिया है। वह मुझसे उदासीन रहकर बातें करती रही। मैंने भी पल्ला झाड़ लिया था। लेकिन उसकी दुखदायी अवस्था यानी कि विधवा मां और किराये का मकान, मुझे बेचैन करने के लिए काफी था। इस घटना के बाद हमारी मुलाकातें थोड़ी सी अनौपचारिक होने लगीं।

एक दिन मैंने तय किया कि इस चिल्ल पौं वाले मोहल्ले में रहकर में रिसर्च का काम आगे नहीं बढ़ सकता। यहां आए दिन जागरण होते रहते हैं। जन्म दिन हो या कोई मौका, लोग जोर से डेक बजाना अपना फर्ज समझने हैं। नाई से लेकर पंसारी तक सुबह शाम भजनों के कैसेट बजाते रहते हैं। मैंने एक संभ्रान्त कॉलोनी में खाली पड़े मकान का गैरेज पोर्शन किराए पर ले लिया। मौसी ने कुछ नहीं कहा। शिफ्टिंग वाले दिन मैं पता नहीं क्यों सुबह उठकर बस स्टॉप पर चल दिया। उसके आने तक किसी बस में नहीं बैठा और जब वह आई तो उसके साथ बस में चढ़ गया। आज भीड़ थी। कोई सीट नहीं मिली। एक कोने में हम दोनों खड़े हो गए। मैंने उसे बताया कि मैं यहां से जा रहा हूं। उसने सिर्फ इतना कहा, 'अच्छा।' पता नहीं क्यों मेरा मुंह लटक गया था। उसने कहा, 'शहर तो यही है। मौसी की याद आए तो कभी भी आ सकते हैं। दूर थोड़े ही है।'

वह अपने कॉलेज चली गई और मैं वही बस स्टॉप के आस पास तब तक भटकता रहा जब तक वह नहीं आई। पहली बार वह मुझे देखकर मुस्कराई। 'सुबह से यहीं हो?' मैं चुप रहा। उसने एक रिक्शा वाले को इशारा किया और बोली, 'चलो बैठो।' मैं रिक्शे में बैठ गया। उसने बैठते ही रिक्शे वाले से कहा, 'क्वीन्स पार्क।' फिर मुझसे बोली, 'उदासी छोड़ दीजिए, हम कॉफी पीने चल रहे हैं।' वह पहली बार खिलखिलाई तो उसके पतले होंठों के पीछे सफेद दांतों की पंक्तियां चमकीं। मैं मंत्रमुग्ध बैठा रहा।

कॉफी के दौरान वह मुझे किसी अभिभावक की तरह पढ़ाई का ध्यान देने और बाकी फालतू चीजों से बचने के लिए कहती रही। मैं बस हूं हां करता रहा। वापसी में मैंने उससे पूछा कि अब कैसे और कहां मिलेंगे हम। उसने कहा वह शनिवार को कमरे पर आएगी। मुझे आश्चर्य भी हुआ और खुशी भी। ...मैं शनिवार का इंतजार करने लगा। शनिवार आया और चला गया। वह नहीं आई। सोमवार मैं उसके कॉलेज के दरवाजे पर जा बैठा। शाम हो गई, वह नहीं दिखी। मैं मौसी के यहां पहुंचा। मोहल्ले के हाल-चाल पूछे। कोई खास खबर नहीं थी। रात खाना खाकर उसके घर के सामने दो चार चक्कर लगाए ओर कमरे पर लौट आया। कॉलेानी में सन्नाटा छाया था और मेरे मन पर भी। उसके खयालों में पता नहीं कब नींद आ गई। बुरे बुरे खयाल आते रहे और बेमन से पढ़ाई भी चलती रही। मैं कमरे में बन्द हो गया। फिर एक शनिवार आ गया। मैंने कमरे को व्यवस्थित किया और इन्तजार में कान लगाए पढऩे की कोशिश करता रहा। दोपहर के तीन बजे लोहे का गेट खुलने की आवाज आई। मैंने झटपट टी शर्ट पहनी और दरवाजा खोला तो वह मुस्कुराती चली आ रही थी। पीली कमीज और सफेद सलवार में वह पहली बार मुझे बेहद आकर्षक लगी। मैं 'पिछले शनिवार मां बीमार थीं। उन्हें दमे का दौर पड़ा और अस्पताल ले जाना पड़ा। अब ठीक है।'

मैं निरूत्तर मौन रह गया। वह कुर्सी पर बैठ गई और मुझे देखने लगी। मैं झेंप गया और उसके लिए मटके से पानी लेने लगा। 'मेरे पास एक ही गिलास है।' कहकर मैंने उसे पानी थमाया तो वह मुंह ऊपर कर हलक में पानी उंडेलने लगी। गिलास वापस रखकर हम दोनों मौन बैठे रहे। उसने अपना हैण्डबैग एक तरफ रखा और खड़ी हो गई। उसने मेरे कंधे पर हाथ रखा तो मैं ढेर होने लगा। वह हौले से मेरा कंधा थपथपाने लगी। मैंने उसके दूसरे हाथ को थामा और पता नहीं कैसे और क्यों हम एक दूसरे से लिपट से गए। हम बस एक दूसरे की धड़कनें सुनते रहे बिल्कुल चुपचाप। वह मेरे बालों में अंगुलियां फिराती रही और मैं उसके नथुनों की गरमाहट अपनी गर्दन पर महसूस करता रहा।... उसके आने का यह सिलसिला चलता रहा। लेकिन उस दिन के बाद हम कभी एक दूसरे से नहीं लिपटे। बस हाथ थामे बैठै रहते। घर परिवार और पढ़ाई की बातें होतीं। कभी कभी हम साथ फिल्म देखने जाते या खाना खाने। इस तरह महीने गुजरते रहे। दिसम्बर की एक दोपहर उसने आकर बताया कि उसे एक नौकरी मिल गई है वह भी सरकारी। केन्द्र सरकार के एक संस्थान में। वह अगले दिन मां के साथ ज्वाइन करने जाएगी और ३१ दिसम्बर को मेरे साथ नया साल मनाने वह सहेली का बहाना बनाकर मेरे कमरे पर आएगी। हम बाजार से खाने पीने का सामान खरीदेंगे और इस कमरे में कैण्डल लाइट डिनर करेंगे।

इस बात को ज्यादा वक्त नहीं बीता। सिर्फ एक साल गुजरा है। मैं बाजार से खाने पीने का सामान सुबह ही खरीद लाया हूं। ठीक पिछले साल की तरह। पिछले साल ३१ दिसम्बर की रात बारिश नहीं हुई थी, सिर्फ बूंदें पड़ी थी। यह कैसा शगुन है? आधा घंटे बाद यह साल भी चला जाएगा। लेकिन मैं सोचता हूं कि आने वाला साल उसे नहीं तो कम से कम उसकी कोई खैर खबर ही लेकर आएगा। पहली जनवरी को आने वाले सूरज, क्या तुम अपनी किरणों के साथ उसे भी लेकर आओगे? अगर हां, तो मैं तुम्हारा स्वागत करता हूं।

Monday 28 December, 2009

2009 के नौ नौजवान


गुजश्‍ता साल में राजस्थान के नौजवानों ने साहित्य, कला और संस्कृति की दुनिया में राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इस कदर नाम कमाया है कि आज की युवा पीढ़ी की प्रतिभा और कर्मशीलता देखकर हर किसी को नाज होता है। हमने राजस्थान के समूचे सांस्कृतिक परिदृश्‍य पर एक विहंगम दृष्टि डाली तो सुखद आश्‍चर्य हुआ कि साहित्य, कला और संस्कृति के क्षेत्र में निरंतर नए लोग आ रहे हैं और पिछले कुछ सालों से सक्रिय संस्कृतिकर्मियों ने निरंतर उपस्थिति से अपनी विशिष्ट पहचान बनाई है। गुजरते हुए 2009 के नौ युवा लेखक-कलाकारों का चयन करना खासा मुश्किल काम है। फिर भी हमने विभिन्न क्षेत्रों के वरिष्ठ संस्कृतिकर्मियों से बातचीत के आधार पर साल के नौ प्रतिबद्ध, समर्पित, सक्रिय और प्रतिभावान युवाओं का चयन किया है। 35 वर्ष से कम आयु के ऐसे नौजवान जिन्होंने इस वर्ष खास उपलब्धि हासिल की और अपनी प्रतिभा के दम पर सुनहरे भविष्य के संकेत दिए। इनके अतिरिक्त ऐसे युवा भी हैं, जिन्होंने अपनी सक्रियता से उम्मीदें जगाई हैं। इन सभी नौजवानों को सौ-सौ सलाम।

ग़ज़ल की दुनिया का नया सितारा: मोहम्मद वकील


टेलीविजन से सिनेमा तक की दुनिया में नाम कमा चुके युवा ग़ज़ल गायक मोहम्मद वकील इस बरस अपने नए एलबम ‘गुजारिश’ की वजह से राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सराहे गए। इस एलबम की ‘स्क्रीन’ जैसी प्रतिष्ठित पत्रिका ने प्रशंसा की। इस एलबम में मो. वकील ने संगीत के महान दिग्गज कलाकारों मसलन बेगम अख्तर, बड़े गुलाम अली खां, मोहम्मद रफी, लता मंगेशकर और जगजीत सिंह को आदरांजलि दी है। ग़ज़ल सम्राट उस्ताद अहमद हुसैन-मोहम्मद हुसैन के इस प्रतिभावान शिष्य से संगीत की दुनिया को बहुत उम्मीदें हैं।

सितार का नया जादूगर: अंकित भट्ट


मशहूर सितारवादक पं. शशिमोहन भट्ट के पोते युवा सितारवादक अंकित भट्ट ने इस साल की शुरुआत ही अहमदाबाद के प्रसिद्ध सप्तक समारोह में सितारवादन से की। संगीत में सर्वोच्च अंकों के साथ एम.ए. करने पर अंकित को राज्यपाल ने सम्मानित किया। गोवा, मुंबई, दिल्ली, जयपुर और देश के विभिन्न स्थानों पर राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय संगीत सम्मेलनों और जुगलबंदी कार्यक्रमों में शिरकत कर यह सिद्ध किया कि वह सितार का नया जादूगर है। इसी बरस अंकित को मुंबई का प्रसिद्ध सुरमणि सम्मान प्रदान किया गया।

साहित्य का उभरता नक्षत्र: राहुल सोनी


लेखक, अनुवादक और संपादक राहुल सोनी भारत की पहली पांडुलिपि संपादन सेवा ‘राइटर्स साइड’ के संपादक हैं। इस साल उनके द्वारा संपादित पुस्तक  मैन एशियन लिटरेरी अवार्ड के लिए नामांकित हुई। राहुल ने केदारनाथ सिंह, विष्णु खरे, उदय प्रकाश, उदयन वाजपेयी, गगन गिल आदि बहुत से हिंदी साहित्यकारों का अंग्रेजी में अनुवाद किया। इन दिनों वे धर्मवीर भारती के उपन्यास ‘सूरज का सातवां घोड़ा’, गीतांजलि श्री के उपन्यास ‘तिरोहित’ और श्रीकांत वर्मा के काव्य संग्रह ‘मगध’ का अंग्रेजी में अनुवाद कर रहे हैं।  राहुल द्वारा संपादित पुस्तकें पेंगुइन, हे हाउस, सेडार, हार्पर कोलिंस, यात्रा बुक्स आदि प्रतिष्ठित प्रकाशनों से प्रकाशित हुई हैं। इसी बरस राहुल को प्रतिष्ठित ईस्‍ट एंग्लिया विश्‍वविद्यालय, ब्रिटेन ने वर्ष 2010 के लिए चार्ल्‍स वालेस फेलोशिप प्रदान करने की घोषणा की है। राहुल हिंदी की पहली द्विभाषी वेब पत्रिका 'प्रतिलिपि' के, गिरिराज किराडू के साथ संस्‍थापक-संपादक हैं।

रंगमंच की नई प्रतिभा: दिनकर शर्मा


साबिर खान जैसे समर्पित वरिष्ठ रंगकर्मी के हाथों ढलकर जयपुर के जिन युवा कलाकारों ने इस वर्ष अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया उनमें दिनकर शर्मा बेहद प्रतिभाशाली हैं। दर्जनों नाटकों में अभिनय कर चुके दिनकर राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के दौलत वैद के साथ ‘बेहद नफरत के दिनों में’ नाटक में निर्देशन आदि में सहयोग किया। इसके अतिरिक्त दो नाट्य कार्यशालाओं में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस वर्ष भारत सरकार के कला व संस्कृति मंत्रालय की प्रतिष्ठित जूनियर छात्रवृत्ति के लिए दिनकर शर्मा का चयन किया गया। इस छात्रवृत्ति के तहत दिनकर स्तानिस्लाव्स्की और बर्तोल्त ब्रेख्त की अभिनय दृष्टि का तुलनात्मक अध्ययन करेंगे। राजस्थान के रंगमंच को इस युवा कलाकार से बहुत आशाएं हैं।

फिल्म, कला और साहित्य की त्रिवेणी: निधि सक्सेना


कविता से शुरुआत कर चित्रकला और मूर्तिकला से होते हुए निधि सक्सेना ने डाक्यूमेंट्री और धारावाहिकों की दुनिया में इस साल पदार्पण किया है। कोई एक दर्जन से अधिक डाक्यूमेंट्री फिल्में एक साल में बनाने वाली निधि ने इन फिल्मों में लेखन और निर्देशन भी स्वयं किया है। इस बरस के आखिर में निधि ने राजस्थान के शास्त्रीय संगीत को लेकर जयपुर दूरदर्शन पर अपना पहला स्वतंत्र धारावाहिक ‘राग रेगिस्तानी’ शुरु किया है, जिसमें दिग्गज संगीतकारों के साथ निधि ने उनकी कला को अंतरंगता से पहचानने और सामने लाने की कोशिश की है। इसके अलावा विभिन्न कला प्रदर्शनियों में निधि के चित्र और मूर्तिशिल्प भी इस वर्ष प्रदर्षित हुए और पर्याप्त सराहे गए।

राजस्थानी का कल्पनाशील कवि: मदन गोपाल लढ़ा


राजस्थानी भाषा में ‘म्हारी पांती री चिंतावां’ कविता संग्रह से चर्चा में आए युवा कवि और कथाकार मदन गोपाल लढ़ा लगातार सक्रिय हैं। हिंदी और गुजराती में उन्होंने काफी अनुवाद किए हैं। पत्र-पत्रिकाओं में उनकी रचनाएं निरंतर प्रकाशित होकर पाठकों और आलोचकों का ध्यान खींचती रही हैं। मनुज देपावत, भत्तमाल जोशी और चंद्रसिंह बिरकाळी सम्मान से सम्मानित इस प्रतिभावान युवा राजस्थानी लेखक को इस साल कमला गोईन्का फाउण्डेशन, मुंबई की ओर से प्रतिष्ठित किशोर कल्पनाकांत सम्मान से नवाजा गया।

भवाई में समाई निष्ठा


राजस्थानी लोक नृत्यों की प्रवीण युवा नृत्यांगना निष्ठा अग्रवाल ने भवाई जैसे मुश्किल नृत्य को इस कदर साध लिया है कि भारत सरकार के कला व संस्कृति मंत्रालय की ओर से इस वर्ष निष्ठा को राष्ट्रीय युवा छात्रवृत्ति के लिए चुना गया। देश भर में निष्ठा ने भवाई के सैंकडों कार्यक्रम प्रस्तुत कर राष्ट्रीय ख्याति अर्जित की है। छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, पंजाब और राजस्थान सरकार द्वारा सम्मानित इस युवा नृत्यांगना ने राजस्थानी लोक नृत्य को नए आयाम दिए हैं और उम्मीद जगाई है कि उनके रहते राजस्थानी लोक नृत्यों का भविष्य बहुत उज्ज्वल है।

आम आदमी का चितेरा: सोहन जाखड़


चित्रकला में राजस्थान के जिन युवा चित्रकारों ने इस साल सबसे ज्यादा सक्रिय रहकर अपनी प्रतिभा और लगन से अपनी विशिष्ट पहचान बनाई उनमें सोहन जाखड़ का नाम इसलिए भी लिया जाना चाहिए कि इस युवा कलाकार के चित्र राष्ट्रीय ही नहीं अंतरर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रशंसित हुए। एक बरस में छह प्रदर्शनियां और विभिन्न कला शिविरों में शिरकत करने वाले सोहन की चित्रकृति को सूदबी जैसी प्रतिष्ठित संस्था ने न्यूयार्क में नीलामी के लिए चुना। इसी साल उनके चित्रों की दिल्ली, मुंबई और सिंगापुर में प्रदर्शनियां हुईं। सोहन के चित्रों में आम भारतीय आदमी के संघर्षपूर्ण जीवन को गहरी संवेदनशीलता के साथ चित्रित किया गया है, इसीलिए समकालीन कला में उनकी अलग पहचान बनी है।

गहरे बिंबों का सर्जक: राजेन्‍द्र प्रसाद


बहुत से युवा चित्रकार प्रारंभ से ही अपनी अलग सोच और कल्पनाशीलता से एक खास पहचान बना लेते हैं। ऐसे कलाकारों में राजेन्‍द्र प्रसाद भी हैं, जिनके चित्र उनसे बेहद उम्मीदें जगाते हैं। राजेन्‍द्र का काम राजस्थान में उस परंपरा का काम है, जिसे पी.एन. चोयल जैसे महान चित्रकारों ने विकसित किया। लोक में बिखरे चित्राम और बिंबों को राजेन्‍द्र ने बहुत खूबसूरती के साथ पकड़ा है। इस साल राजेन्‍द्र ने जे.आर.एफ. में सफलता हासिल की और अनेक कला प्रदर्शनियों व शिविरों में भाग लेकर अपनी कला के प्रति बेहद आश्‍वस्त किया है। इस वर्ष राजेन्‍द्र को कला मेले में और एक पोस्टर प्रतियोगिता में भी पुरस्कृत किया गया।

इन कलाकारों और रचनाकारों के अलावा भी अनेक युवाओं ने अपनी विशिष्ट पहचान बनाई और अपनी सर्जनात्मकता से सबका ध्यान आकर्षित किया। संगीत की दुनिया में सलिल भट्ट को प्री ग्रैमी नोमिनेशन मिला, गायन में जयपुर के अल्लाह रक्खा, दिव्या शर्मा जांगिड़ व बीकानेर के समर्थ जाह्नवे, जोधपुर के दीपक क्षीरसागर गिटार वादन में, जयपुर के विनायक सेठ वायलिन में और विनायक शर्मा सितार में अपनी प्रतिभा से वर्षपर्यंत चर्चित रहे। चित्रकला में अमित शर्मा हारित, गौरी शंकर सोनी, हरि कुमावत, राम खिलाड़ी सैनी, आकाश चोयल, पवन शर्मा, अजय मिश्रा और बहुत से कलाकार हैं। साहित्य में गौरव सोलंकी,  पल्लव, मिहिर पण्ड्या और गिरिराज किराडू सरीखे राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त लेखक हैं, जो निरंतर सक्रिय हैं। युवा कथाकार रामकुमार सिंह की दूसरी कहानी 'तुझे हम वली समझते, जो न बादाख्‍वार होता' संगमन-2009 में चर्चा के केंद्र में रही। साहित्‍य अकादमी से अब तक रिकॉर्ड सबसे कम उम्र में सम्‍मानित राजस्‍थानी कवयित्री संतोष मायामोहन का दूसरा काव्‍य संग्रह 'जळविरह' आया। रंगमंच के क्षेत्र में जयपुर की सारिका पारीक और धौलपुर के नरेश पाल सिंह चौहान ने दूसरे प्रयास में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में दाखिला पाया। वहीं अभिषेक गोस्‍वामी और गगन मिश्रा ने थिएटर इन एजूकेशन के माध्यम से नई पीढ़ी में रंगमंच को लोकप्रिय बनाने में खासे सक्रिय रहे। उर्दू साहित्य के लिहाज से ‘आबशार’ की गुलजार के साथ युवा शायरों के साथ वर्कशॉप से साल का आगाज हुआ, लेकिन नए शायरों में आदिल रज़ा मंसूरी और ब्रजेश अंबर के अलावा किसी ने प्रभावित नहीं किया।

Sunday 27 December, 2009

एक किताब ने बनाया इतिहास



कई बार किसी लेखक की एक ही कृति इतनी महत्वपूर्ण हो जाती है कि अनेक महत्वपूर्ण लेखकों की रचनाओं पर सदियों तक भारी पड़ती है। नोबल पुरस्कार के दूसरे ही वर्ष यानी 1902 में ऐसी ही एक ऐतिहासिक महत्व की पुस्तक ‘हिस्ट्री ऑफ रोम’ के लेखक थियोडोर मॉमसेन को पुरस्कृत किया गया। करीब 1,500 प्रकाशित रचनाओं के रचयिता मॉमसेन का जन्म 1817 में जर्मनी में हुआ। कई भाषाओं के जानकार मॉमसेन की प्रतिभा बहुमुखी थी। विद्वान शोधकर्ता, राजनेता, इतिहासकार, पुरातत्वविद, पत्रकार, न्यायविद और लेखक के रूप में मॉमसेन को उन्नीसवीं सदी के महानतम प्रतिभाशाली जर्मन रचनाकार के तौर पर जाना जाता है। रोम के इतिहास को लेकर तीन खण्डों में लिखे उनके विशालकाय ग्रंथ को आज भी आधारभूत ग्रंथ माना जाता है। 1902 में नोबल पुरस्कार की दौड़ में उनके साथ महान रूसी लेखक लियो तोलस्तोय भी थे, जिन्हें कभी नोबल पुरस्कार नहीं मिला।

बहरहाल, मॉमसेन के पिता ने बचपन से अपने सुयोग्य पुत्र को जर्मन क्लासिक साहित्य और विक्टर ह्यूगो, बायरन और शेक्सपीयर जैसे रचनाकारों को पढने के लिए प्रेरित किया। प्रारंभ में उनकी शिक्षा-दीक्षा घर पर हुई और कालांतर में उन्हें पढने के लिए इटली और फ्रांस भेजा गया। उन्होंने साहित्य, इतिहास, विधि आदि कई विषयों में गहन अध्ययन किया। एक रचनाकार के रूप में मॉमसेन ने प्रारंभ में कविताएं लिखीं और टाइको और स्टॉर्म भाइयों के साथ पहला कविता संग्रह प्रकाशित हुआ, जिसमें उन्होंने ईसाइयत से अपने मोहभंग की कविताएं प्रस्तुत कीं। मॉमसेन की रोम के इतिहास को लेकर 1854, 1855 और 1856 में प्रकाशित इस महती ग्रंथ में मॉमसेन ने ई.पू. 46 से लेकर रोमन साम्राज्य के पतन तक और जूलियस सीजर तक का इतिवृत लिखा। 1925 में जब जॉर्ज बर्नाड शॉ को नोबल पुरस्कार मिला तो उन्होंने मॉमसेन के प्रभाव को स्वीकार किया कि मॉमसेन को पढ़े बिना मैं ‘जूलियस सीजर एण्ड क्लियोपेट्रा’ नाटक नहीं लिख सकता था। इस पुस्तक का महत्व इस बात में भी है कि उन्होंने रोमन साम्राज्य के इतिहास को समकालीन जर्मन राजनीति के बरक्स रखते हुए एक तुलनात्मक किस्म का इतिहास लिखकर यह दर्शाने की कोशिश की कि इतिहास से कैसे हम अपने समय के घट रहे इतिहास को देख सकते हैं। इसी बिंदु पर उनके काम की खासी आलोचना भी हुई, क्योंकि इतिहास के आईने में समकालीन राजनीति कभी भी स्वयं को देखना पसंद नहीं करती।

यह मॉमसेन की ही विराट प्रतिभा थी कि वे अपने समकालीन महान जर्मन राजनेता बिस्मार्क तक की खुली आलोचना कर सके। जर्मनी के एतिहासिक एकीकरण की शुरुआत करने वाले बिस्मार्क ने जब बर्लिन को जर्मनी की राजधानी बनाया तो मॉमसेन ने कहा, ‘बिस्मार्क ने देश की कमर तोड़ दी है।’ मॉमसेन चाहते थे कि उदारवादी और समाजवादी डेमोक्रेट्स के बीच सामंजस्य बिठाकर दोनों को राष्ट्र के विकास में साथ जोड़ा जाए, यहूदियों को मुख्यधारा में लाया जाए और एक बेहतर तालमेल वाले सौहार्द्रपूर्ण माहौल का निर्माण किया जाए। उस समय इसे अतिवादी विचार माना गया। बिस्मार्क ने मॉमसेन के विचार का प्रत्युत्तर देते हुए कहा कि एक पूर्ण रूप से तैयार राष्ट्र ही उदारवादी सरकार की इजाजत दे सकता है। बिस्मार्क के विचार में वह समय ऐसे विचार के लिए उपयुक्त नहीं था। अगर मॉमसेन की इतिहास दृष्टि से देखें तो उनके विचार को ना मानने से जर्मनी में नाजी विचारधारा को प्रश्रय मिला और हिटलर का उदय हुआ। मॉमसेन चाहते थे कि रोम के इतिहास का चौथा खण्ड लिखें, लेकिन विवादों और आलोचनाओं के साथ तत्कालीन राजनीतिक वातावरण ने उन्हें रोक दिया। इस उद्देश्‍य से उन्होंने जो कुछ महत्वपूर्ण सामग्री एकत्र की और जितनी पाण्डुलिपि तैयार की वह 1880 में एक अग्नि दुर्घटना में जलकर खाक हो गई।

मॉमसेन ने 1863 से 1886 के बीच बर्लिन विश्‍वविद्यालय में अपने विद्यार्थियों को जो लेक्चर दिए, उनके नोट्स दो शिष्यों ने एकत्र कर उन्हें पुस्तकाकार प्रकाशित किया ‘ए हिस्ट्री ऑफ रोम अण्डर द एंपरर्स’। इस पुस्तक से रोमन साम्राज्य के बारे में मॉमसेन की इतिहास दृष्टि का पता चलता है, इसे जबर्दस्त खोज माना जाता है। इसमें मॉमसेन रोमन साम्राज्य के अधिकांश शासकों को निष्प्रभावी और दोयम दर्जे का सिद्ध करते हुए बताते हैं कि कमजोर शासकों के कारण ही आगे चलकर रोमन साम्राज्य पतन की ओर उन्मुख हुआ। इतिहास के शिलालेख और पुरालिपियों के अध्ययन में मॉमसेन की भूमिका पथप्रदर्शक की है। रोमन साम्राज्य के इतिहास के साथ मॉमसेन ने उनके संविधान, मुद्रा प्रबंधन, अर्थव्यवस्था, दण्ड संहिता और कई महत्वपूर्ण पहलुओं का विशद अध्ययन किया। इन विषयों पर लिखे गए उनके ग्रंथ आज भी विश्‍व के आधारभूत ग्रंथ माने जाते हैं।










Sunday 20 December, 2009

गुनाहों का देवता: 50 बरस: सौ संस्करण



हिंदी में अगर साहित्य की लोकप्रिय किताबों की बात की जाए तो धर्मवीर भारती का उपन्यास ‘गुनाहों का देवता’ शीर्ष दस पुस्तकों में होगा। भारत की विभिन्न भाषाओं में इसके सौ के करीब संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं और युवा वर्ग में आज भी यह खासी लोकप्रिय किताब है। इस लोकप्रियता का कारण अगर इसकी बेहद रोमांटिक प्रेम कहानी है तो इसके बरक्स प्रेम का एक उदात्त और बलिदानी स्वरूप भी है। इस उपन्यास की जितनी लोकप्रियता है उसे देखते हुए कहा जा सकता है कि हिंदी में इससे ज्यादा लोकप्रिय उपन्यास की चर्चा करेंगे तो एक के बाद एक कई नाम आते चले जाएंगे और बावजूद इसके ‘गुनाहों का देवता’ की पसंदगी अपनी जगह कायम रहेगी। इस पसंदगी के कारण जुदा हो सकते है, लेकिन बहुत से ऐसे लोग भी मिल जाएंगे जो एक खास वक्त में इसे पसंद करते थे, लेकिन अब यह उन्हें नहीं रूचता। खुद धर्मवीर भारती ही इस बात को कभी नहीं समझ पाए कि इसकी अपार लोकप्रियता के पीछे क्या कारण रहे।

प्रेम का निष्छल रूप उर्फ प्लेटोनिक लव की अवधारणा

जब यह उपन्यास प्रकाशित हुआ तब पूरे देश में आदर्शवाद की जबर्दस्त धूम थी। छठे दशक की किसी भी कला संस्कृति की विधा को ले लीजिए हर तरफ आदर्शवाद ही दिखाई देता है। स्वतंत्रता प्राप्ति के लगभग तुरंत बाद के इस परिदृश्‍य में एक अजीब किस्म का जोश और जुनून था जिसमें बहुत कम लोग थे जो अंग्रेजों से मुक्ति के मोहभंग को यथार्थ में चित्रित कर रहे थे। नेहरूयुगीन आशावाद का एक जोम था, जिसमें पूरा देश बह रहा था। धर्मवीर भारती भी उस परिदृश्‍य के ही एक पात्र और कलाकार थे। वे उससे अलग कैसे रह सकते थे? आजादी के बाद के इस कालखण्ड में जो महत्वपूर्ण किताबें सामने आईं उनमें से अधिकांश में आत्मबलिदान को लेकर एक विचित्र किस्म का व्यामोह था। हर कोई कुरबान होना चाहता था, लेकिन किसी को पता नहीं था कि किस पर कुर्बान होना है। कोई अपनी कला पर कुर्बान था तो कोई अपनी प्रेमिका पर और बाकी सब किसी ना किसी मकसद को लेकर। बलिदानी होने की कामना कोई बुरी बात नहीं, लेकिन दिक्कत तब होती है जब आपके सामने कोई ठोस आदर्श नहीं हो। यह उपन्यास उसी दौर की कथा है जिसमें आदर्श का कोई एक स्वरूप नहीं था और सच्चाई यह भी है कि यथार्थ में आदर्श का कोई एक मानक और ठोस रूप हो भी नहीं सकता। और प्रेम में तो आदर्श वक्त के साथ बहुत तेजी से बदलते रहते हैं। इसलिए भारती जी के युवावस्था में लिखे इस उपन्यास में एक यूटोपियाई प्रेम है। दो युवा दिलों के बीच पनपने वाला अव्यक्त किस्म का प्रेम, जिसे दोनों जानते तो हैं, पर अनजान भी बने रहते हैं और एक दूसरे को बस किसी प्रकार सुखी देखना चाहते हैं। जिसे अंग्रेजी में प्लेटोनिक लव कहते हैं, जिसमें दैहिक संबंध के बिना अपने प्रेम का चरम रूप दो प्रेमी दिखाना चाहते हैं। चंदर और सुधा ऐसे ही प्रेमी हैं।

भोली नायिका का आदर्श बनाम प्रेक्टिकल ईसाई लडकी

सुधा के रूप में धर्मवीर भारती ने एक मासूम, चंचल, शोख और भोली नायिका का आदर्ष चरित्र गढ़ा, जिसके लिए चंदर अपने आपको बलिदान कर देता है। इसके बरक्स भारती जी ने पम्मी के रूप में एक व्यावहारिक युवती का चरित्र रचा, जो एक आजाद खयाल युवती है, लेकिन उसके भी अपने आदर्श हैं। वह भी देह से परे के प्रेम को महत्व देती है। लेकिन चंदर और पम्मी की पहली रोमांटिक मुलाकात को भारती जी इस वाक्य से खत्म कर बहुत कुछ कह देते हैं, जो दृश्‍य में नहीं कहा जा सकता था। ‘पम्मी उठी, वह भी उठा। बांस का मचान हिला। लहरों में हरकत हुई। करोड़ों साल से अलग और पवित्र सितारे हिले, आपस में टकराए और चूर-चूर होकर बिखर गए।’ पम्मी का आदर्श प्रेम और चंदर की पवित्रता क्या इस वाक्य में टूट कर बिखरते नहीं दिखाई देते। अंत में जाकर चंदर सुधा के सामने स्वीकार भी करता है, जब वह कहता है, ‘लेकिन तुमसे एक बात नहीं छिपाउंगा। वह यह कि ऐसे भी क्षण आए हैं जब पम्मी के समर्पण ने मेरे मन की सारी कटुता धो दी है..।’ पम्मी के प्रेम का फलसफा यह है कि आदर्शवादी प्यार की प्रतिक्रिया सेक्स की ही प्यास में होती है। चंदर को लिखे अपने अंतिम पत्र में पम्मी कहती भी है, ‘मैं जानती थी कि हम दोनों के संबंधों में प्रारंभ से इतनी विचित्रताएं थीं कि हम दोनों का संबंध स्थायी नहीं रह सकता था, फिर भी जिन क्षणों में हम दोनों एक ही तूफान में फंस गए थे, वे क्षण मेरे लिए मूल्य निधि रहेंगे।’

मध्यवर्ग की ढुलमुल मानसिकता और प्रेम का यथार्थ

अनिर्णय निम्न मध्य वर्ग की चारित्रिक विशेषता है, जिसे चंदर के व्यक्तित्व में बखूबी देखा जा सकता है। प्रेम में समर्पण और बलिदान में से उसने बलिदान को चुना और इस चुनाव ने दो युवाओं को दूर कर दिया। वह बेहद प्रतिभाशाली है, सुधा के पिता उसे पसंद भी करते हैं, लेकिन दो भिन्न जातियों के बीच कैसे एक संबंध विवाह तक पहुंच सकता है? इस पर सुधा के पिता का मौन बहुत कुछ कह देता है। वे भी तो उसी मध्यवर्गीय मानसिकता के शिकार हैं, जो छठे दशक में एक आदर्श समाज की परिकल्पना में सामाजिक जीवन में कोई बदलाव नहीं चाहता था। यथार्थ में घट रहे प्रेम को अनदेखा कर आदर्शवादी और आज्ञाकारी बना रहना इस उपन्यास के तमाम पात्रों की चारित्रिक विवशता है। प्रेम का आदर्श स्वरूप क्या हो इस पर हर कालखण्ड में बहस चलती रहती है। धर्मवीर भारती के इस उपन्यास की लोकप्रियता के बहुत से कारणों में संभवतः यह सबसे महत्वपूर्ण कारक है, कि इस उपन्यास में युवा मन, प्रेम और सेक्स को लेकर पहली बार इतनी खुलकर चर्चा की गई, जिसमें सामाजिक बंधनों के साथ एक आदर्शवादी प्रेम को ही अंतिम सत्य के तौर पर प्रतिष्ठित किया गया। इसीलिए सामान्य घर-परिवारों में माता-पिता ने इस उपन्यास को अपने अपनी संतानों के लिए वर्जित नहीं किया। मनुष्य को वैसे भी आदर्श अच्छे लगते हैं, इसलिए ‘गुनाहों का देवता’ हर काल में पसंद किया गया और किया जाता रहेगा।


देवदास का शाकाहारी संस्करण

जिन लोगों ने इस उपन्यास को अपनी युवावस्था में पढ़ा, उन्हें बीस-तीस बरस बाद अगर यह उपन्यास पढ़ने को दिया जाए तो अधिकांश को इसमें एक विचित्र बचकानापन नजर आता है। खुद भारती जी भी इसे कलात्मक रूप से अपरिपक्व उपन्यास मानते थे। इसमें बहुत से ऐसे विवरण हैं, जिन्हें अगर हटा दिया जाए तो भी इसकी कथावस्तु पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा। उपन्यास में कई जगह अति भावुकता है, कोरा आदर्शवाद है। मेरे जैसे कई पाठकों को यह शरत चंद्र के ‘देवदास’ का शाकाहारी संस्करण लगता है। जहां देवदास प्रेम में नाकाम होकर शराब की शरण में जाता है यानी एक भटकाव में जीता है, वहीं चंदर भी अनिर्णय में भटकता है। पारो की तरह सुधा भी अपने प्रेम के लिए कुछ नहीं कर पा सकने के लिए विवश है और अंत में दम तोड़ देती है। चंद्रमुखी की तरह पम्मी चंदर को राह पर लाने की कोशिश में खुद अपने पति के पास चली जाती है। देवदास और चंदर में फर्क इतना है कि देवदास की भांति चंदर आत्महंता बनने के बजाय सुविधाजनक राह पर चलते हुए बिनती के साथ जिंदगी गुजारने के लिए चल देता है। एक फिल्मी किस्म का समापन होता है, जिसमें अंत में सुधा की मृत्यु के बाद सब अपनी राह पर सुखी जीवन जीने के लिए चल पड़ते हैं और इन सबके पास एक आदर्श भरी दुनिया का स्वप्न है।

एक ना बन सकी फिल्म

इस उपन्यास की लोकप्रियता को भुनाने का एक फिल्मी प्रयास भी हुआ। अमिताभ बच्चन और रेखा को लेकर एक फिल्म का निर्माण शुरु हुआ था ‘एक था चंदर एक थी सुधा’ के नाम से। यह हिंदी सिनेमा का दुर्भाग्य ही है कि साहित्यिक कृतियों पर बनने वाली फिल्में प्रायः अधबीच में ही दम तोड़ देती हैं। इस फिल्म के साथ भी यही हुआ, कुछ रीलें बनीं और फिर फिल्म डिब्बे में बंद हो गई। इसकी शूटिंग इलाहाबाद में हुई थी, जिसमें अमिताभ पर इलाहाबाद में साइकिल चलाने के दृश्‍य फिल्माए गए थे। एक पूरा गाना भी रफी की आवाज में रिकार्ड किया गया था, जिसे बाद में अधूरी फिल्मों के टुकड़े जोड़कर बनाई गई ‘फिल्म ही फिल्म’ शीर्षक फिल्म में इस्तेमाल किया गया।

Sunday 13 December, 2009

कलिंग की युद्ध भूमि को देखकर

कई बरस पहले उड़ीसा गया था। उस वक्‍त धौलगिरि और कोणार्क देखकर कुछ कविताएं लिखी थीं। इतने साल गुजर गए हैं, लेकिन ये कविताएं मुझे आज भी अच्‍छी लगती हैं। अपने पाठक-मित्रों के लिए आज ये दो कविताएं प्रस्‍तुत कर रहा हूं।


एक

जहाँ लड़ा गया था युद्ध
वहाँ खेत खड़े हैं धान के
और काजू का लहलहाता जंगल


युद्ध भूमि क्या हमेशा
उपजाऊ ही होती है
या धरती चुकाती है
पिये गये रक्त का क़र्ज़ ?

दो

इतनी शांत है दया*
गोया अभी तक याद हो
गौतम से जो आया था
अशोक तक शान्ति का उपदेश


इसी जल में बहा होगा लाखों सैनिकों का रक्त
शान्त दया के सीने में अभी भी दबे होंगे
लाखों सैनिकों के कवच-कुण्डल अस्त्र-शस्त्र

एक नदी की गवाही क्या काफ़ी नहीं है
रक्तपात के ख़िलाफ़


दया से पूछो
नरसंहार देखकर
कितना रोयी होगी
पछाड़ें मार-मार
धौलगिरि की चट्टानों से


राम ने ली सरयू में जल-समाधि
अशोक ने लिया शांतिव्रत दया की साक्षी में


नदियों ने ही बचाया है
इंसान को हैवानियत से
नदियों ने ही बनाया है
पुरुष को पुरुषोत्‍तम


नदियों के इस बचाने और बनाने में ही छिपा है
नीर-क्षीर विवेक ॰



*दया - नदी का नाम

Sunday 6 December, 2009

छह दिसंबर : दो कविताएं


छह दिसंबर, 1992 के सांप्रदायिक दावानल के बाद  दो कविताएं लिखी थीं, जो कहीं प्रकाशित नहीं हुईं। आज सत्रह बरस बाद भी मैं वही पीड़ा और आक्रोश महसूस कर रहा हूं, जो उस वक्‍त इन कविताओं को लिखते समय था। समय कभी कम नहीं करता यादों के जख्‍म, बल्कि तासीर बढ़ा देता है। सांप्रदायिक हिंसा में इन सत्रह बरसों में मारे गए लोगों के प्रति शोकांजलि के रूप में प्रस्‍तुत हैं ये कविताएं।

कारसेवक

वादाफरामोश आए हैं
नई मिसालें लाए हैं
बनाने गए थे
ढहाके आए हैं

6 दिसंबर का एक अखबार

घिसी पिटी गजटनुमा सरकारी खबरों और
रात भर की भयावह आशंकाग्रस्‍त प्रतीक्षा के बाद
सुबह मिला अखबार

देखते ही लगा
इससे तो बेहतर है
वह सरकारी बुलेटिन

जब चौथा खंभा ही करने लगे
हत्‍यारों की हिमायत
देशभक्‍तों को सिखाने लगे सबक
करने लगे घृणा का व्‍यापार
तब ढुलमुल सरकारी खबरें ही देती हैं सुकून

अपराधी-उपद्रवियों को कहा जाए बलिदानी कारसेवक
तो सचमुच ऐसे अखबार को कर देना चाहिए
सिगड़ी के हवाले

Friday 4 December, 2009

राजस्थानी लोकगीतों में नारी संवेदना




बचपन से मैं विभिन्न अवसरों पर गाए जाने वाले महिलाओं के गीत सुनता आया हूं और साहित्य में रूचि पैदा होने के बाद से इन गीतों के विविध पक्षों को लेकर सोचता विचारता रहा हूं। सबसे पहले मुझे जिन गीतों ने आकृष्ट किया, वो थे विवाह के अवसर पर गाए जाने वाले गीत। इनमें भी खास तौर पर समधी और समधन को लेकर गाए जाने वाली गालियां। मेरी स्मृति में आज भी उस बारात की याद बहुत ताजा है जिसमें मैंने पहली बार इन वैवाहिक गालियों को गौर से सुना था। यह उस किशोरावस्था के दौर की बात है, जब शब्दों के अर्थ समझ में आने लगे थे और खुद भी तुकबंदी की उधेड़बुन प्रारंभ कर दी थी। मेरे ननिहाल पक्ष में विवाह था और गर्मियों की छुट्टियों के दिन थे। उस बारात में हम एक गांव में गए थे। वहां गांव की महिलाओं ने जिस तरह खुलकर गालियां गाईं थीं, वो अविस्मरणीय है। वर पक्ष के तमाम महत्वपूर्ण पुरुषों के नाम वधू पक्ष की स्त्रियां बारात में आए हम बच्चों से पूछतीं और फिर सबके नाम ले-लेकर खुलकर गालियां गाती जातीं और बारातियों के लिए पूरियां बेलने और सब्जी काटने के काम निपटातीं जातीं। उन बहुत-सी गालियों में एक आज भी याद रहती है तो इसलिए कि यह आज भी बतौर शगुन सब जगह गाई जाती है। समधी का नाम चाहे जितना लंबा या छोटा हो स्त्रियां उसे इस छोटे से छंद में बहुत खूबसूरती से पिरोकर अपने जज्बात का इजहार कर ही देती हैं।

रामू जी की लौंठी बड़ी मसतानी
म्हारी बोतल को डाटो बा ही खोलै
लुळ जा रै पतासा दिन उगियौ


अर्थात रामू जी की पत्नी बड़ी मस्त है, मेरी शराब की बोतल का ढक्कन वही खोलेगी। इसके बाद की पंक्ति सिर्फ छंद की पूर्ति के लिए है, इसका सिर्फ इतना ही अर्थ है कि बताशे अब झुक जा, दिन उगने वाला है। वस्तुतः यह वैवाहिक अवसरों पर महिलाओं द्वारा समय काटने का गीत है, जिसमें एक किस्म की मस्ती और ठिठोली है, एक नए बनने वाले संबंध को सहज बनाने की कोशिश है। इस तरह वे अपने तमाम समधियों के नामों से परिचित हो जाती हैं। इसमें अगर समधन का नाम मालूम हो जाए तो उसे भी पिरो दिया जाता है।

बहरहाल हम जब वापस लौटे तो रास्ते में दूल्हे के मामा का गांव था, वहां भी बारात की मेजबानी की गई और एक दिन ठहराया गया। यहां भी रात भर मांगलिक गीतों के साथ गालियां गाई गईं। तीसरे दिन जब बारात शहर आई तो मालूम हुआ कि दो दिन बाद लड़की वाले लड़की को लेने आएंगे और साथ में स्त्रियां भी आएंगी। राजस्थान में समधनों के इस मिलन को ‘समडोळा’ कहते हैं, इसके बिना समधन कभी एक दूसरे से नहीं मिलतीं। इस परंपरा के पीछे संभवतः यही आशय रहा होगा कि समधनों का यदि आकस्मिक मिलन होगा तो वह शिकवे-शिकायत का होगा। इसलिए ऐसी व्यवस्था बनाई गई कि एक उत्सवी मिलन हो जाए तो भविष्य में इस प्रथम मिलन की स्मृतियां संबंधों में कड़वाहट की जगह मधुरता पैदा करेगी। तो दो दिन बाद जो समधिनों का महामिलन हुआ, वह जबर्दस्त था। दोनों तरफ लंबे-चौड़े परिवार थे, इसलिए दोनों ओर से सैंकड़ों स्त्रियां एक साथ जमा हुईं। इक्का-दुक्का साड़ियों में और बाकी सब लहंगे और लूगड़ी में थीं। एक रंगीन नजारा था, भरपूर उत्साह और आनंद का। और फिर शुरु हुआ गालियां गाने का मुकाबला। दोनों तरफ से एक प्रतियोगिता जैसा माहौल बन गया, कव्वाली की तरह सवाल-जवाब का सिलसिला चल निकला और बिना किसी साज-बाज के गालियां इतने प्रभावी ढंग से गाई जाने लगीं कि एक संगीतमय वातावरण बन गया। ऐसे में किसी के भी पैर थिरक सकते हैं, सो दोनों तरफ से महिलाएं नाचने लगीं। मुकाबला दिलचस्प होता जा रहा था, शक्ति प्रदर्शन के लिए वर पक्ष की एक महिला ने मूसल थाम लिया था और उसे धरती पर खम ठोकने के अंदाज में हर टेक के साथ जोरों से जमीन में पैबस्त करने की कोशिश करतीं। वधू पक्ष कहां पीछे रहने वाला था, पास में एक थान था, जिस पर धूणा जलता रहता था, कोई वहां से एक चिमटा उठा लाई और फिर वधू पक्ष की सबसे दमदार गायिका ने उस चिमटे को तलवार की तरह लहराकर अपना शक्ति प्रदर्शन किया। कोई दो-तीन घण्टों तक यह दिलचस्प मुकाबला चलता रहा, जो बाद में खाने और विदाई तक निर्बाध गति से जारी रहा।

इस लंबे संस्मरण का मकसद यह बताना है कि राजस्थानी समाज एक बंद समाज है, जिसमें महिलाओं को बहुत कम अवसर मिलते हैं, जहां वे अपने आपको किसी भी प्रकार व्यक्त कर सकें। शादी-ब्याह के मौके पर उन्हें जो सीमित स्वतंत्रता मिलती है उसमें वे पुरुष सत्ता को ललकारती हैं, अपने आक्रोश को व्यक्त करती हैं और अगले अवसर तक ‘रिलेक्स्ड’ महसूस करती हैं। बंद समाजों में स्त्रियों को इस प्रकार के अवसर कम मिलते हैं जब वे पुरुषों को चुनौती दे सकें, उनके साथ चुहल कर सकें। विवाह और होली के अवसर पर ही उन्हें इसके लिए इजाजत मिलती है, जिसका वे भरपूर इस्तेमाल करती हैं। बारात के आगमन पर दूल्हे का स्वागत सत्कार तो ‘तोरण आयो राइबर’ जैसे सुंदर गीतों से किया जाता है, लेकिन बारातियों के लिए गाली गाई जाती है-

काळा-काळा ही आया रै
गोरो एक न आयो
बूढ़ा-बूढ़ा ही आया रै
छोरो एक न आयो
छोटा-छोटा ही आया रै
लांबो एक न आयो


राजस्थानी लोक संस्कृति के विविध पक्षों पर विचार करते हुए, खास तौर पर गीतों के सामाजिक पक्षों पर गौर करते हुए मुझे कई नई जानकारियां पता चलीं। अपनी एक कविता के लिए मुझे जब अंग्रेजी के ‘डिम्पल’ शब्द का कोई हिंदी पर्याय नहीं मिला तो मैंने राजस्थानी के विद्वान कवि चंद्रप्रकाश देवल से पूछा कि क्या राजस्थानी में कोई ऐसा शब्द है? उन्होंने कहा कि भारतीय सौंदर्यशास्त्र में डिम्पल कोई उपमा या सौंदर्य का मानक नहीं है, इसलिए इसका पर्याय कहां मिलेगा। हमारे यहां तो प्रेमी या प्रेमिका के लिए ही कोई शब्द नहीं, लोककथा के प्रेमी-प्रेमिकाओं के नाम या गोरी, जोड़ायत जैसे संबोधनों से ही अपने प्रिय को बुलाया जाता है। संभवतः यही बात आज पूरे देश में देखी जा सकती है, जहां सब स्त्री-पुरुष अपने बच्चों की मार्फत पति-पत्नी को बुलाते हैं, गोलू की मां-गोलू के पापा जैसे संबोधनों से।

पिछले दिनों आदरणीय विजयदान देथा द्वारा संग्रहित और संपादित ‘गीतों की फुलवाड़ी’ पढ़ते हुए राजस्थानी लोक गीतों के भीतर की सामाजिक चेतना के कई पहलुओं को जानने का अवसर मिला। राजस्थानी के जितने भी प्रेम गीत हैं, उनमें पति प्रेम के गीत हैं, स्वतंत्र प्रेम के नहीं। जहां भी लड़की ने किसी दूसरे प्रेमी की कल्पना की तो वह निषिद्ध है, फिर वो चाहे मोर जैसा सुंदर पक्षी ही क्यों ना हो। मोर हो या जोगी, इन पर मोहित होने का मतलब है, ये मारे जाएंगे। ननद अपनी भाभी के साथ पानी लेने जाती है और रास्ते में या कुए-तालाब पर अगर किसी परपुरुष को देख भी लेती है तो भाभी ननद की मिन्नतें करती हैं कि वह ससुराल में किसी को नहीं बताए, वरना गजब हो जाएगा। इन प्रेमगीतों की इस पृष्ठभूमि के आधार पर कुछ निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं। पहली बात तो यह कि भले ही बंद समाज में प्रेम की आजादी ना हो, पति के परदेस जाने या अन्यान्य कारणों से रूपवान पुरुष पर मोहित होने की स्थितियां समाज में होती थीं और इस पाप की सजा होती थी, जो आज भी राजस्थान, हरियाणा और उत्तरप्रदेश के कई समाजों में देखा जा सकता है। इन गीतों से एक और बात पता चलती है कि अविवाहित स्त्री भी प्रेमी का स्वप्न अगर देखती है तो वह किसी राव या राजकुमार तक लाकर सीमित कर दिया जाता है। एक गीत में एक कुंवारी लड़की सिंध के एक राजकुमार रायधन का स्वप्न देखती है, जिसे माता खारिज कर देती है, कारण सिंध में अकाल पड़ा है और यहां खूब मेह बरसा है, इसलिए राव से ब्याहेंगे। इसे इस तरह भी कहा जा सकता है कि बेटी को दूर मुश्किल हालात में नहीं ब्याहना।


राजस्थानी प्रेम गीतों में ‘कुरजां’ बहुत लोकप्रिय गीत है। कुरज एक प्रवासी पक्षी है जो मध्य एशिया से चलकर हर साल राजस्थान के रेतीले इलाकों में आता है और तालाबों के किनारे डेरा डालता है। इसके प्रवास स्थल में कंकड़ बहुत होते हैं, जिन्हें कुरज खाना पसंद करता है। कहते हैं कि कुरज पक्षी एक ही बार जोड़ा बनाता है। राजस्थानी लोक परंपरा ने इस मिथ को अपने भीतर इस कदर गूंथा है कि कुरज का मादा रूप कुरजां हो गया। अब नायिका या विरहणी के लिए कुरजां एक ऐसा माध्यम बन जाती है, जो उसके परदेस गए पति को उसका संदेश पहुंचा सकती है। कुरजां का परदेस कहीं और है, लेकिन भोली नायिका के लिए सब परदेस बराबर हैं। कुरजां की मनुहार करती नायिका कहती है कि क्या कंकड़ खाती है, तुझे सच्चे मोती चुगाउंगी, मेरे प्रियतम तक मेरा संदेस पहुंचा दे। कुरजां संदेश लेकर जाती है और पिया को साथ लाती है। ‘कुरजां ऐ म्हारो भंवर मिला दियो ऐ।’

पीहर और ससुराल के गीतों में नारी की वही सनातन कोमल भावनाएं हैं, जिसके तहत वह परदेस में ससुराल नहीं चाहती और हो जाता है तो पीहर की याद में रोती हुई गाती रहती है। फिर भी वह खुश है, तमाम मुश्किल हालात के बावजूद वह अपने सुंदर पति और भरे-पूरे ससुराल से प्रसन्न है, बस याद सताती है। यह एक प्रकार से स्त्री की भावनाओं को सीमित कर देता है और ऐसे वातावरण की सृष्टि करता है, जिसमें स्त्री के दुख कविता में व्यक्त तो होते हैं, लेकिन एक किस्म से स्त्री यहां समझौता कर लेती है। वह प्रतीकों में अपनी बात कहती है और गीत गाने भर से मुक्त हो जाती है। लोक की यह खास विषेषता भी है, जिसमें वह अपने दुख-दर्द के लिए किसी सांस्कृतिक माध्यम या कला रूप में अपनी शरणस्थली ढूंढ़ लेता है।

यहां मुझे एक गीत याद आ रहा है जो किसी भी जनम, मरण या परण के अवसर पर सबसे पहले गाया जाता है। यह एक प्रकार की वंदना है, जो भगवान गणेश को ‘घर आओ गजानंद राज’ कहने से शुरू होता है और फिर इसमें तमाम देवी, देवताओं, लोक देवता-देवियों तक को घर आने का निमंत्रण दिया जाता है। यह गीत अत्यंत सामान्य ढंग से प्रारंभ होता है और जैसे-जैसे इसमें देवी-देवता बढते जाते हैं, इसके गाने की गति और ओज भी बढता जाता है। सुनते हुए लगता है जैसे स्त्री जाति तमाम देवी-देवताओं को ललकार रही हों कि आओ और देखो हम किस हाल में रह रही हैं। यह गीत मुझे अक्सर वंदना से अधिक विद्रोह का गीत लगता है। मेरे विचार से स्त्री को जहां भी जगह मिली उसने अपनी व्यथा-कथा कहने का अवसर नहीं छोड़ा। फिर वो चाहे वंदना हो या गाली गायन। लोकगीतों में छिपी इस चेतना के स्वरों का जितना अवगाहन किया जाएगा, हमें लोक संस्कृति के उतने ही नए और महत्वपूर्ण पहलू नजर आते चले जाएंगे।

यह आलेख लोक संस्‍कृति की महत्‍वपूर्ण पत्रिका 'मड़ई' के अंक-2009 में प्रकाशित हुआ है।

Wednesday 2 December, 2009

मित्रों के आग्रह पर ब्‍लाग पर कविता



बहुत से पाठक और मित्रों का लंबे समय से आग्रह था कि अपने ब्‍लाग पर कविताएं भी प्रकाशित करनी चाहिएं। मैं बहुत संकोच में था, लेकिन अब लगता है कि जो कविताएं संग्रह में हैं और बहुत से पाठक-मित्रों ने नहीं पढ़ी हैं, उन्‍हें यहां दिया जा सकता है। इस तरह शायद इन कविताओं को एक नया पाठक वर्ग मिले। और इन कविताओं की कुछ और परख हो सके। आज जो कविता सबसे पहले दे रहा हूं, वह इतिहास की एक पुस्‍तक पढ़ते हुए सूझी थी। इतिहास सुंदरी आम्रपाली का एक प्रसंग पढ़ा था कि वह अपने अंतिम दिनों में बौद्ध भिक्षुणी हो गई थी। मुझे इस प्रसंग को पढते हुए लगा कि क्‍या वजह रही होगी और क्‍या मानसिकता रही होगी आम्रपाली की, कि उसे अंतिम शरण धर्म में मिली। क्‍या आध्‍यात्मिकता की तरफ झुकाव के पीछे मनुष्‍य के व्‍यक्तिगत जीवनानुभव होते हैं, या जीवन के एक मोड़ पर आकर संसार और जीवन को निस्‍सार समझने से यह संभव होता है। ऐसे कई सवालों से जूझते हुए यह कविता लिखी थी। आज पाठक और मित्रों से जानना चाहता हूं कि वे इस कविता के कुछ और अर्थ भी खोल सकेंगे और मेरा ज्ञानवर्धन कर सकेंगे।  

वैशाली-सी दुनिया में


नगर भर को
खुश रखने के जतन में
रोज़ रेतघड़ी में से रिसती रेत की मानिंद
भीतर ही भीतर कण-कण रिसती रही आम्रपाली

सिक्कों की खनक और चमक के बदले
किसी न किसी का पहलू
रोशन करती रही आम्रपाली

छाता ही रहा उसकी आत्मा पर
अंधकार का काजल

महागणिका होते हुए भी उसने
अनुभव किया खुद को
साधारण से भी तुच्छ

झोंपड़ों में पली आम्रपाली को
रास न आया महागणिका का वैभव
उसके रोम-रोम ने पुकारा
तथागत ! तथागत ! तथागत !

आम्रपाली चाहती है
आख़िरी बार रमण करना
मृत्यु की तरह आयें तथागत

वैशाली-सी दुनिया है यह
और ज़िंदगी आम्रपाली है ॰

Sunday 29 November, 2009

अर्थवान की तलाश में निरर्थकता के दर्शन का लेखक - अल्बैर कामू



भारत में जिन विदेशी रचनाकारों को सबसे ज्यादा पढ़ा जाता है, उनमें अल्बैर कामू एक ऐसा नाम है, जिनकी रचनाओं का भारत की विभिन्न भाषाओं में अनुवाद हुआ है। 1957 में नोबल पुरस्कार से सम्मानित कामू, रूडयार्ड किपलिंग के बाद दूसरे ऐसे साहित्य़कार हैं जिन्हें महज 44 वर्ष की आयु में वैश्विक प्रतिष्ठा मिली। 7 नवंबर, 1913 को अल्जी़रिया के कृषि मजदूर पिता के घर में जन्मे कामू ने शुरुआत में अत्यंत संघर्षपूर्ण जीवन जीया। जन्म को एक साल भी नहीं हुआ था कि पिता की युद्ध में मृत्यु हो गई। मां की एक हादसे में सुनने-बोलने की क्षमता आधी रह गई थी। लेकिन विधवा मां ने अपने इस इकलौते सपूत के पालन-पोषण में कोई कमी नही रखी। कामू ने छात्रवृत्ति से अपनी शिक्षा जारी रखी। कई किस्म की छोटी-मोटी नौकरियां करते हुए वे एक अखबार के संपादक बने। 22 बरस की उम्र में दर्शनशास्त्र की शिक्षा प्राप्त करते ही दर्शनशास्त्र पर लिखे लेखों की पुस्तक प्रकाशित हुई तो अल्जीरिया में एक लेखक के रूप में कामू की ख्या‍ति फैल गई।


रंगमंच, पत्रकारिता, वामपंथी राजनीति और दार्शनिक-सामाजिक गतिविधियों के बीच कामू ने अपना पहला उपन्या‍स ‘अजनबी’ लिखा और एक उपन्यासकार के तौर पर उनकी कलम का लोहा माना जाने लगा। इस पहले उपन्यास ने बीसवीं सदी के अस्तित्ववादी दर्शन को एक विशाल कैनवास प्रदान किया। जर्मनी के नाजीवाद के कुकृत्यों को कामू ने धर्म, राजनीति, दर्शन और मानव अस्तित्व के सवालों के कटघरे में खड़ा कर यह सिद्ध करने की कोशिश की कि नाजीवाद एक निरर्थक और अमानवीय विचार है, जिसकी वजह से मनुष्य जाति का ही भविष्य संकट में पड़ गया है। इस उपन्यास के साथ ही कामू के सुप्रसिद्ध दार्शनिक लेख ‘मिथ ऑफ सिसिफस’ का प्रकाशन हुआ। इस पुस्तक में कामू ने निरर्थकतावाद के दर्शन को प्रस्तुत किया। कामू की मान्यता थी कि एक अदृश्य ईश्वर की कपोल कल्पना में बनाई गई इस दुनिया में अर्थ, एकता या समरूपता की खोज करना निरर्थक है। ग्रीक मिथक सिसिफस के माध्यम से कामू ने यह प्रमाणित करने का प्रयास किया कि संघर्ष का अपना आनंद है, भले ही वह लोगों की नजरों में निरर्थक हो और सबसे बड़ी बात यह कि सारी निरर्थकता के बावजूद आत्महत्या कोई विकल्प नहीं है, बल्कि विद्रोह और क्रांति ही विकल्प है।

1947 में कामू का एक और विश्वप्रसिद्ध उपन्यास ‘प्लेग’ प्रकाशित हुआ। एक शहर में प्लेग की महामारी फैलने का यह रोमांचक दस्तावेज है, जिसमें कामू की कलम पाठक की समूची चेतना को इस कदर झिंझोड़ कर रख देती है कि पाठक खुद को रोगी समझने लग जाए। विश्वसाहित्य में किसी महामारी की त्रासदी को लेकर लिखा गया संभवत: यह अकेला उपन्यास है। चिकित्सक, मरीज, पत्रकार, प्रशासन और पूरे नगर का महामारी के आतंक में जीता हुआ वातावरण इतनी गहरी संवेदना और लेखकीय संलग्नता के साथ लिखा गया है कि नियति और मानवीय स्थितियों को लेकर ढेरों सवाल उठ खड़े होते हैं। इस उपन्यास की हर पंक्ति अपने भीतर एक से अधिक अर्थ व्यक्त करती हुई पाठक की चेतना को कई स्तरों पर सोचने के लिए विवश करती है। इस उपन्‍यास को द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान नाजियों के खिलाफ फ्रांसिसी विद्रोह का प्रतीकात्मक आख्यान भी माना जाता है।

कामू की मान्यता थी कि उपन्यास दर्शनशास्त्र को दृश्य और बिंबों में व्यक्त करने के अलावा कुछ नहीं है। दर्शन और साहित्य के साथ राजनीति में समान विचारों के कारण प्रारंभ में अल्बैर कामू और ज्यां पाल सार्त्र की जबर्दस्त दोस्ती रही, लेकिन आगे चलकर राजनैतिक विचारों में मतभेद के कारण यह दोस्ती टूट गई। कामू और सार्त्र दोनों को अस्तित्ववाद का प्रवर्तक माना जाता है, लेकिन दोनों ने ही इससे इन्कार किया, लेकिन द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद के लेखकों में इन दोनों की प्रसिद्धि विश्वव्यापी रही। कामू ने अपने दार्शनिक और राजनैतिक विचारों के कारण बहुत से मित्रों को भी दुश्मन बना डाला था। वामपंथी झुकाव के बावजूद उन्होंने सोवियत रूस, पोलैंड और जर्मनी की सरकारों के कई निर्णयों की खुलकर आलोचना की। कामू के विचारों में मानवाधिकार अत्यंत महत्वपूर्ण हैं और इसीलिए उन्होंने मृत्युदण्ड की जबर्दस्‍त आलोचना की। सार्त्र से संबंध विच्छेद से पहले कामू ने 1951 में ‘द रिबेल’ पुस्‍तक लिखी, जिसमें सत्ता के विरुद्ध मानव के विद्रोह के विभिन्न स्‍वरूपों और सिद्धांतों की गहरी पड़ताल की गई है।

1956 में कामू का एक और महत्वपूर्ण उपन्यास प्रकाशित हुआ ‘पतन’। इसमें एक धार्मिक व्‍यक्ति किसी बार में बैठकर एक अजनबी के सामने अपने द्वारा किये गए अपराध स्वीकार करता है। इस प्रकार कामू जहां धार्मिकता के आवरण में छिपे पाखण्डों को उजागर करते हैं वहीं ज्यां बैप्टिस्ट के चरित्र के कथनों के माध्यम से आधुनिक व्यक्ति पर भी प्रहार करते हैं जो बार में बैठकर अपने गुनाह स्वीकार करता है। कामू ने अपने जीवन में ढेरों कहानियां और नाटक भी लिखे, जिनमें ‘कलिगुला’ नाटक बेहद प्रसिद्ध है। अल्जीरिया उस वक्त फ्रांस का उपनिवेश था, इसलिए कामू मुक्ति संग्राम के सिपाही भी थे। उनके दर्शन में इसीलिए विद्रोही विचारों की व्याप्ति मिलती है। कामू अपने देश को लेकर एक विशाल उपन्यास की रचना करना चाहते थे, जिसमें अल्जीरिया की सभ्यता, संस्कृति और इतिहास को एक बड़े व्यापक परिदृश्य पर प्रस्तुत करना चाहते थे। एक उपन्यास और कई कहानियां उनकी अधूरी रह गईं। 4 जनवरी, 1960 को एक कार दुर्घटना में उनकी असामयिक मृत्यु हो गई। निधन के बाद उनकी बेटी कैथरीन ने उनकी अप्रकाशित रचनाओं को प्रकाशित कराया। 1970 में ‘ए हैप्पी डैथ’ का प्रकाशन हुआ, जिसमें ‘अजनबी’ से मिलती जुलती कहानी है। 1995 में ‘द फर्स्ट मैन’ प्रकाशित हुआ, यह कामू का अधूरा उपन्यास है, जिसमें कामू ने अल्जीरिया में अपने बचपन के दिनों की यादें आत्मकथा के रूप में लिखी हैं। कामू ने अपने एक मित्र को पत्र में लिखा था कि अगर किसी भी चीज का कोई अर्थ नहीं है तो तुम सही हो, लेकिन फिर भी कुछ है जो अर्थवान है। कामू के साहित्य से उन्हीं अर्थवान चीजों को जानने और समझने की शक्ति मिलती है जो तमाम निरर्थकताओं के बावजूद अपने आप में ही नहीं मनुष्य जाति के लिए भी अर्थवान हैं। हिंदी में कामू की अधिकांश साहित्यिक रचनाएं प्रकाशित हो चुकी हैं, दार्शनिक विषयों पर लिखी पुस्तकें अभी आना बाकी हैं।

( यह आलेख राजस्‍थान पत्रिका के रविवारीय संस्‍करण में 29, नवंबर, 2009 को 'विश्‍व के साहित्‍यकार' शृंखला में प्रकाशित हुआ।)

Saturday 28 November, 2009

दिसंबर के एक सर्द सफर की याद




लेखकों के साथ यूं तो बहुत-सी यात्राएं की हैं, लेकिन दिसंबर की कड़ाके की ठण्ड में किये गए दो लंबे सफर यादगार हैं। पहली याद दिसंबर 2005 की है, जब हम 25 लेखक दिल्ली से वाघा के रास्ते पाकिस्तान जा रहे थे। मैं पहली विदेश यात्रा के जोम में था, इसलिए दो-चार पैग ज्‍यादा लेकर बैठा था। सुबह करीब छह बजे आंख खुली तो ब्‍लैकआउट की वजह से याद ही नहीं आया कि बस में मैंने सामान रखा भी था कि नहीं। मैंने साथी लेखकों की तरफ देखा तो ज्‍यादातर सोए हुए थे, चंद्रकांत देवताले ही जागृत थे। मैंने उनसे पूछा तो उन्‍होंने आश्‍वस्‍त किया कि तुम्‍हारा सामान रख दिया गया था। लेकिन मैं असमंजस में था। बस एक ही खयाल आ रहा था कि कहीं बस रुके तो डिक्‍की खुलवाकर देख लूं। घने कोहरे की वजह से बस बहुत धीरे चल रही थी। लुधियाना से आगे सुबह के नौ बजे सबकी इच्छा हुई कि अब चाय पीनी चाहिए, सो एक ढाबे पर रुक गए। इलाहाबाद के एक बुजुर्ग शायर कोहरे में किसी खुले स्थान पर हल्के होकर आए तो उनके पीछे-पीछे एक नौजवान लाठी लेकर गुस्से में पंजाबी में गालियां बकता आ गया। लंबी बहस के बाद मामला समझ में आया कि बुजुर्गवार जिस जगह हल्के होकर आए हैं वहां एक बड़ा होटल है, जो कोहरे की वजह से दिखाई नहीं दिया। पच्चीस लोगों में महिलाएं भी थीं, जिनकी वजह से नौजवान शांत हो सका और उसके होटल में चाय-ना'श्‍ते के वादे पर मामला हंसी-खुशी में निपट सका। अगर कोहरा ना होता तो हम वाघा सुबह के सात बजे पहुंच सकते थे, लेकिन पहुंचे बारह बजे।

लाहौर रेल्वे स्टेशन पर जब हम सांझ ढले सात बजे अपनी गाड़ी का इंतजार कर रहे थे, तो दो डिब्बों में लेखकों का बंटवारा होना था कि छह सीटों वाले डिब्बे में कौन बैठेगा और बीस वाले में कौन? आखिर तय हुआ कि सूफी मत के छह लेखक अलग हो जाएंगे और बाकी सब एक साथ। इन छह में कवि राजेंद्र शर्मा अनचाहे ही फंस गए। खैर, हम बीस लेखक एक डिब्बे में बैठ तो गए, लेकिन यह समझ में नहीं आया कि रेल में और वो भी पाकिस्तान में रसरंजन कैसे होगा? बाद में पता चला कि हमारे पाकिस्तानी दोस्त छह फीट लंबे इरशाद अमीन ने रेल के सुरक्षा प्रहरियों को पहले ही समझा दिया था कि इस डिब्बे में हिंदुस्तानी लेखक-पत्रकार हैं। मैं जयपुर से ही ठण्ड में जकड़ा हुआ चला था। मुझे ऊपर वाली बर्थ पर जमना था, नीचे की बर्थ बुजुर्ग और लेखिकाओं के लिए थीं। मेरे नीचे वाली बर्थ पर चंद्रकांत देवताले बैठे थे। रेल का डिब्बा वातानुकूलित था, लेकिन सर्दी इतनी गजब की थी कि एसी के बावजूद कंपकंपी छूट रही थी। मेरे जैसे कई लेखक थे, जो इस भयानक सर्दी में गला तर करके सुकून पाना चाहते थे। हमारे मेजबान दोस्त ने जब अपना पिटारा खोला तो सबकी बांछें खिल गईं। वोदका के घूंट हलक में उतरे तो कंपकंपी कम हुई। गीत और गजलों की महफिल सज गई और चलती रेल में सुर और सुरा की सरिता बहने लगी। हमसफर पाकिस्तानी नागरिक भी इसमें मजा लेने लगे और सुबह होते-होते तो हिंदुस्तानी-पाकिस्तानी यात्रियों में ऐसा भाईचारा स्थापित हो गया कि लेखिकाएं ही नहीं कई बुजुर्ग लेखक पाकिस्तानी यात्रियों के सफरी कटोरदानों में नाश्‍ता करते नजर आने लगे।
मेरी हालत सर्दी की वजह से खराब थी और दवाइयां कोई असर नहीं कर रही थीं। देवताले जी ने अपने बैग में से मेरे लिए सोंठ निकाली और कहा इसे चबाते रहो, तुम्हारे पान मसाले से बेहतर है यह। मैंने पान मसाला छोड़कर सोंठ चबाना शुरु किया तो कराची पहुंचते-पहुंचते इतना आराम मिला कि अगले दिन पता ही नहीं चला कि कब-कैसे सीने में जमा बलगम गायब हो गया और बंद नाक खुल गई।

कराची से लौटते वक्त हम लोग एक नॉन एसी बस में रवाना हुए। बॉर्डर एरिया और डाकू-लुटेरों के भय के कारण सारे शीशे बंद कर दिए गए। बहुत घुटन होने लगी तो हवा के लिए कण्डक्टर ने छत वाली खिड़की खोल दी। रेतीले इलाके की धूल बस में समाने लगी और विभूति नारायण राय की हालत खराब होने लगी। वो खिड़की बंद करनी पड़ी। सेवण के शाहबाज कलंदर की दरगाह की जियारत कर हम ब्रिटिश जमाने के गेस्ट हाउस में रात बिताने पहुंचे। सुबह पांच बजे ही हमें जगा दिया गया, मोहन्जोदड़ो जाने के लिए। छह बजे नाश्‍ता लग गया। एकाध वीर लेखक नहा धोकर तैयार हो गए थे। आलोचक खगेंद्र ठाकुर इतनी सुबह चार परांठे खा चुके थे और सबको चकित कर दिया था। बाहर निकले तो जिंदगी की अब तक की सबसे खूबसूरत सुबह देखी। सिंध नदी कोहरे में लिपटी हुई मंथर गति से बह रही थी और आसमान में सूरज के आने से पहले का सुरमई और सुनहले रंगों का कैनवस मंडा हुआ था। एक तरफ दरगाह की रोशनी थी और दूसरी जानिब सूर्यदेव की कलाकारी। हम तमाम लेखक इस रंगीन सुबह के मोहपाश में इस कदर जकड़ गए थे कि चंद्रकांत देवताले और कमला प्रसाद ने कहा कि अपने कैमरे निकालो और इस सुबह को कैद कर लो, जिसमें हमारी तस्वीरें भी हों।


मोहन्जोदड़ो से लरकाना पहुंचे तो हमने अपने मेजबान दोस्तों से मिन्नत की कि कहीं कोई दुकान हो तो बता दें, हमारा कोटा खत्म हो चुका है। हमें जानकर ताज्जुब हुआ कि इतने बड़े नगर में शराब की कोई दुकान नहीं है, जबकि यहां हिंदुओं की अच्छी खासी आबादी है। हमें लगा कि हमारे मेजबान पक्के मुसलमान हैं। जब सब तरफ उम्मीदें खत्म हो चुकीं तो खयाल आया कि राय साहब और पवन कुमार के सामान में दो बोतलें हैं। दो दिन के सफर में एक नई पार्टी का गठन हो चुका था, जिसके महासचिव थे राय साहब। पार्टी की सदस्यता मुझ जैसे कुछ लोगों को प्राप्त हो चुकी थी, बाकी की विचाराधीन थी। राय साहब के पास जो बोतल थी, उसके बारे में वो इतना कुछ बता चुके थे कि उसे देखने भर से शायद हमारी प्यास शांत हो जाती। वे यह बोतल मॉरीशस से लाए थे, जिस पर मार्क ट्वेन की प्रसिद्ध उक्ति लिखी थी कि ईश्‍वर ने पहले मॉरीशस बनाया और फिर स्वर्ग। स्वर्ग मॉरीशस की नकल है।

सवाल यह था कि बस की छत पर तिरपाल में बंधे हमारे सामान में से वो बोतलें कैसे लाई जाए। लेखक के पास विचारों की कमी नहीं होती, इसलिए निरंतर चिंतन के बाद राय साहब की तबियत को आधार बनाया गया। उनकी दवा उनके सामान में बंद है, उसे निकालना है। बीच सड़क पर बस रुकवाई गई, खलासी के साथ कवि पवन कुमार बस की छत पर चढ़े और राय साहब के सूटकेस के साथ अपना बैग भी ले आए। अब रात आराम से गुजारी जा सकती थी। लेकिन सामान कम था और प्रत्याशी ज्यादा। देवताले जी ने मुझसे मनुहार की कि डेढ़ पैग से काम चल जाएगा। एक लेखिका ने भी सर्दी के कारण एक पैग की गुजारिश की। राय साहब की पार्टी की सदस्यता लेने वालों की तादाद बढ़ गई। उन्होंने घोषणा की कि समाजवाद की राह पर आगे चलना है, इसलिए यथासंभव कोशिश की जाएगी कि कोई तिश्‍नालब ना रह जाए। थोड़ी ही सही मिलेगी सबको। और सच में कोई तिश्‍नालब ना रहा। सबको मिली और एक सर्द सफर में सबको राहत मिली। लाहौर पहुंचे तो राय साहब की तबियत और बिगड़ गई। उन्हें वहां के सर गंगाराम अस्पताल ले जाया गया और सक्‍शन मशीन से उनका जमा कफ निकाला गया।
दिसंबर का दूसरा सर्द सफर डॉ. नामवर सिंह, शरद दत्‍त, प्रभुनाथ सिंह आजमी, कमला प्रसाद और राजेंद्र शर्मा के साथ भोपाल से छिंदवाड़ा पैसेंजर ट्रेन में फर्स्‍ट क्‍लास के कूपे में किया था, 2007 में। उस पर फिर कभी।

Sunday 8 November, 2009

प्रयोगधर्मिता से निकली राह : सुनीत घिल्डियाल का कला संसार



सुनीत घिल्डियाल राजस्‍थान के बेहद प्रशंसित और प्रतिष्ठित चित्रकार हैं। राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर उनके काम को एक दर्जन से अधिक बार सम्मानित-पुरस्कृत किया गया है। देश-विदेश तक उनकी कलाकृतियां पहुंची हैं और सराही गई हैं। राष्ट्रीय स्तर के विभिन्न कला शिविरों में उनकी सक्रिय भागीदारी रही है। उनके चित्र चालीस से अधिक एकल व समूह प्रदर्शनियों में प्रदर्शित किये गए हैं। हेमवतीनंदन बहुगुणा विश्‍वविद्यालय, गढ़वाल से कला में स्नातकोत्तर सुनीत वर्तमान में जयपुर में राजस्थान स्कूल आफ आर्ट में पढ़ा रहे हैं।
स्वभाव से बेहद हंसमुख, मिलनसार और निरंतर कला की धुन में मगन रहने वाले सुनीत घिल्डियाल का काम मुझे व्यक्तिगत रूप से उस वक्त से पसंद रहा है, जब वे पेंसिल ड्राइंग से अत्यंत अर्थवान चित्रों की रचना किया करते थे। यह बात करीब दो दशक पुरानी है। इस बीच सुनीत ने एक लंबी कला यात्रा की है, जिसमें वृहदाकार कैनवस से लेकर ताजा काष्ठ कलाकृतियों का अभिनव कला संसार समाहित है। मुझे इस पूरी कला यात्रा को देखकर महसूस होता है कि अब शायद सुनीत को अपना मनचाहा कला रूप या कहें कि माध्यम मिल गया है। पता नहीं क्यों ये पंक्तियां लिखते वक्त मुझे सुनीत की वो ड्राइंग बुक्स याद आ रही हैं, जिन्हें दिखाते हुए सुनीत एक-एक चित्र की गहन व्याख्या कर मुझे अपनी सृजनशीलता की गहराई से ही नहीं बल्कि अपनी विचार प्रक्रिया और उससे संबद्ध सृजन प्रक्रिया से प्रभावित किया करते थे। उस दौर में वे एक युवा कलाकार के तौर पर जिस आत्म संघर्ष की प्रक्रिया से गुजर रहे थे, वह आज जिस मुकाम पर आई है, उसमें सुनीत की बरसों की कलात्मक अंतर्यात्रा बहुत गहराई से रची-बसी है और मुझे गहरी आश्‍वस्ति देती है। उनके कला संसार की सबसे बड़ी खूबी यह है कि वे मूर्त और अमूर्त दोनों तरह के चित्र बनाते हैं और बहुधा उनके यहां दोनों का अत्यंत सुंदर समावेश देखने को मिलता है।



इन बरसों में सुनीत ने रंग और रेखाओं के साथ जो रिश्‍ता बनाया वह कागज, कैनवस से आगे चलकर काष्ठ कला के नए आयामों वाली कला में विकसित हुआ है। कला के सुधी प्रेक्षकों को याद होगा कि सुनीत अपनी ‘फेसेज’ चित्र श्रृंखला से बेहद चर्चित हुए थे, जिसमें उन्हें कई सम्मान-पुरस्कार हासिल हुए थे। पिछले एक दशक से सुनीत ने इस नई कला प्रविधि में देवदार की लकड़ी के पटरे पर कुरेद कर आकृतियां बनाई हैं और इनमें रंग भर कर बेहद खूबसूरत कलाकृतियों का सृजन किया है। लकड़ी पर सुनीत रंगों को कुछ इस प्रकार भरते हैं कि लकड़ी का अपना सौंदर्य भी बना रहे और रंगों की पारदर्षिता प्रेक्षक को नया कलात्मक आस्वाद प्रदान करे। कागज से काष्ठ तक की इस यात्रा को मैं सुनीत की चित्रकला में एक माध्यम भर की खोज हीं नहीं मानता, बल्कि मेरे लिए यह यात्रा सुनीत के चित्रों की अंतर्वस्तु की यात्रा भी है। क्योंकि मेरे लिए कला में माध्यम की खोज अंततः अंतर्वस्तु के बिना नहीं हो सकती। इसलिए मुझे सुनीत की इस नई कला प्रविधि में उनकी वर्षों की सतत कला साधना और गहरी विचार प्रक्रिया दृष्टिगत होती है।



सुनीत ने इस नई कला यात्रा को ‘टाइम एण्ड लाइफ-ए कण्टीन्युअस जर्नी’ शीर्षक दिया है। एक सृजनशील कलाकार के लिए यह शीर्षक उचित भी है, क्योंकि वह इस तरह अपनी पूरी सृजन यात्रा को बयां कर रहा होता है। इस यात्रा पथ में जितने उतार-चढाव हो सकते हैं, वे सब आपको उनकी कला में दिखाई देंगे। हंसी-खुशी के पल हों या किंचित अवसाद के, जीवन के चमकीले प्रकाशमान अवसर हों या गहरी स्मृतियां, सुनीत की कला में वो सब अपनी सदेह उपस्थिति दर्ज कराते हैं। दरअसल सुनीत के काम में आपको एक अजीब किस्म की गहरी संलग्नता दिखाई देती है, जो आपको पहली नजर में ठिठका देती है और जब आप एकबारगी ठहर कर उनके काम को देखने लगते हैं तो रंग और आकृतियों के व्यामोह में आप पूरी तरह खो जाते हैं। फिर आप अपनी स्मृतियों पर जोर डालने लगते हैं और आपके सामने आपका अपना स्मृतिलोक एक नए कलात्मक रूप में सामने दिखने लगता है। इस तरह सुनीत अपने प्रेक्षक को कई स्तरों पर देखने सोचने के लिए विवश करते हुए आधुनिक कला की अद्भुत कल्पनाशील सर्जनात्मक दुनिया से साक्षात कराते हैं। आधुनिक कला को अर्थहीन कहने वाले बहुतेरे लोग मिल जाएंगे, लेकिन ऐसे लोगों को भी सुनीत की कला, मेरा दावा है, एकबारगी तो गहराई से देखने और सोचने के लिए विवश करेगी ही।



सुनीत गढ़वाल, उत्तराखंड में जन्मे हैं और उनके कला संसार में वहां की खूबसूरत वादियों के साथ, सर्पिल राहें, पगडंडियां, फूलों से महकता परिवेश, जाड़ों में कांपता-सा सूरज, ग्रामीण जनजीवन में व्याप्त लोक रूपाकार, कठोर पहाड़ी जीवन का संघर्ष और इस सबके साथ राजस्थान के रेतीले धोरों की पीली उजास भरी दुनिया इस तरह एकाकार हो गई है कि दो विपरीत छोरों के अंचलों के तमाम रंग उनके काम में सहज दृष्टिगोचर होते हैं। सुनीत प्रारंभ से ही प्रयोगधर्मी रहे हैं और इस माध्यम में उनकी प्रयोगशीलता बहुत आगे निकल आई है, जहां वे काष्ठ पटरे को कैनवस की तरह इस्तेमाल करते हुए उसे कैनवस से अलग भी आकार देते हैं, यानी तयशुदा ज्यामितीय आकार से अलग एक किस्म का ‘लोक रूप’, जिसमें आपको कांकड़ पर विराजमान लोकदेवता के थान की याद आ जाए या फिर गांव-देहात में बिखरे लोक कलारूपों की।



सुनीत के काम की खूबी यही है कि इसमें हमारी जानी पहचानी दुनिया नए रूपाकारों में दिखाई देती है। इस बात को मैं विशेष रूप से कहना चाहता हूं कि आज के आधुनिक कला जगत में जब बहुतेरे कलाकारों की कला प्रेक्षक को एक अजीब किस्म से भयभीत करती है या सजावटी सामान की तरह दिखाई देती है, सुनीत की कला एक विचार प्रक्रिया से गुजरने और सहज ढंग से आधुनिक कला का आस्वाद लेने के लिए आमंत्रित करती है। सुनीत ने वर्षों की प्रयोगधर्मिता के बाद नए माध्यम की खोज करते हुए जो अंतर्यात्रा की है, वह एक और नए सुनीत की संभावना जगाती है, जो अगली बार कुछ और अर्थवान रचता हुआ, हमारे लिए नई कलात्मक दुनिया लेकर आएगा। इस अंतर्यात्रा का हासिल यह है तो इसका आगामी पड़ाव और बेहतर होगा, यही उम्मीद करनी चाहिए।


(सुनीत घिल्डियाल से ए-60, गोल मार्केट, जवाहर नगर, जयपुर, मोबाइल नंबर 09413622979 पर संपर्क किया जा सकता है। यह आलेख जयपुर से समांतर संस्‍थान द्वारा प्रकाशित की जाने वाली द्विमासिक पत्रिका 'संस्‍कृति मीमांसा' के जुलाई-अगस्‍त अंक में शाया हुआ।)





Monday 2 November, 2009

आलोचना की उपेक्षा परंपरा के शिकार जनकवि


हिंदी आलोचना की परंपराओं में उपेक्षा भी एक परंपरा ही है, जिसमें अनेक महत्वपूर्ण कवियों को बिल्कुल भुला दिया जाता है और कम महत्वपूर्ण कवियों को खासी तवज्जोह देकर महान सिद्ध कर दिया जाता है। ऐसी उपेक्षा के शिकार कवियों में हिंदी और राजस्थानी के सुप्रसिद्ध जनकवि हरीश भादाणी भी हैं। साहित्य की तथाकथित मुख्यधारा ने भले ही हरीश भादाणी को ज्यादा महत्व ना दिया हो, लेकिन वे एक ऐसे कवि थे, जिनकी कविता हजारों लाखों कण्ठों से एक साथ फूटती हुई इंकलाब का परचम बन जाती है। गांधी जयंती यानी 2 अक्टूबर, 2009 को ऋषि परंपरा के इस महान कवि ने कैंसर से लड़ते हुए अंतिम सांस ली। उनकी लोकप्रियता का आलम यह था कि उनकी महायात्रा में बीकानेर और प्रदेश भर से आए हजारों लोगों ने उनके गीत गाते हुए उन्हें अंतिम विदाई दी।



11 जून, 1933 को बीकानेर के एक समृद्ध सामंती परिवार में उनका जन्म हुआ। जन्म के तुरंत बाद ही पिता संन्यासी हो गए और इस शोक को सह नहीं पाने के कारण जल्द ही माता का भी देहावसान हो गया। जब तक पिता रहे, उनके घर में भक्ति संगीत की महफिलें जमती थीं। इसलिए कदाचित उन्हें विरासत में संन्यासी पिता बेवा जी महाराज जैसा सुरीला कण्ठ मिला, जिससे गीत सुनकर लोग उन्मत्त हो जाते थे। संन्यासी पिता की बड़ी प्रतिष्ठा थी। जयपुर में एक घर में उनकी विशाल तस्वीर लगी हुई कुछ लोगों ने देखी है। बहरहाल, बचपन में भादाणी जी की घर में ही हिंदी, महाजनी और संस्कृत की प्रारंभिक शिक्षा हुई। जन्म के साथ ही पिता के संन्यासी बनने और मां की असमय मृत्यु के कारण परिवार द्वारा उन्हें अपशगुनी बालक करार दिया गया, दूसरी तरफ घर का सामंती माहौल। इसलिए उन्हें संभवतः बचपन से ही उस घर से वितृष्णा हो गई थी, ऐसे में उनका प्रतिरोध कविता के सिवा और कहां स्वर पाता? और जब समाजवादियों के गढ़ बीकानेर में रायवादियों और समाजवादियों के संपर्क में आए तो फिर पूरी दुनिया उनका घर हो गई। किसी को तंगहाल देखते तो अपनी चिंता छोड़कर उसकी मदद करने में लग जाते। जो कुछ संपति विरासत में मिली था, उसे परमार्थ में लगाने लगे। सामाजिक आंदोलनों में सक्रियता ऐसी बढ़ी कि एम.ए. अधूरा रह गया और मजदूर-किसानों के साथ संघर्ष करते हुए जेल जाना भी सामान्य बात हो गई। आंदोलनों में सिर्फ भाषणों से काम नहीं चलता इसलिए संघर्ष के जुझारू गीत लिखने लगे। लोकप्रिय रूमानी गीतों का गायक, मंचों पर वाहवाही लूटने वाला गीतकार, जनता का, जनता के संघर्षों का कवि बन गया।

उनका घर जरूरतमंदों का आश्रयस्थल बन गया। दूर-दूर से साहित्यकार, परिचित, सामाजिक कार्यकर्ता और बहुत से लोग आकर उनके विशाल हवेलीनुमा घर में डेरा जमा लेते और फिर आवश्यककता के अनुकूल समय तक, जो कई बार दो साल भी होता, वहीं रहते। 1960 में उन्होंने राजस्थान में अपने ढंग की नई साहित्यिक पत्रिका ‘वातायन’ का प्रकाशन शुरु किया। (हिंदी के सुप्रसिद्ध कवि राजेश जोशी की पहली कविता इसी ‘वातायन’ में प्रकाशित हुई थी।) अब भादाणी जी को लोगों के साथ पत्रिका प्रकाशन के लिए भी आर्थिक व्यवस्था करनी थी। एक-एक कर उनकी सारी विरासत परमार्थ और ‘वातायन’ के लिए बिकती चली गई और इस व्यवस्था को कायम रखने के लिए बंबई और कलकत्ता में कई किस्म की कलमी मजूरी करनी पड़ी। चौदह वर्षों तक उन्होंने ‘वातायन’ को नियमित चलाया। लेकिन अनवरत संघर्ष करने की प्रक्रिया में उनकी आखिरी हवेली भी बिक गई और उसी हवेली के सामने एक छोटा-सा वातायनी घर बनाकर रहने लगे। उनकी दरियादिली में इस सबके बावजूद कोई कमी नहीं आई।



सिर्फ कविता के बल पर जीने वाला कवि आपको हरीश भादाणी जैसा दूसरा शायद ही मिले। मंच के कवि सम्मेलनों से कविता की यात्रा आरंभ करने वाले हरीश जी जनता के संघर्ष की कविता से होकर ऋग्वेद और उपनिषदों की रहस्यमय कविताओं तक गए। ‘सयुजा सखाया’ संग्रह में उनके वो गीत हैं, जिनके बारे में प्रख्यात आलोचक प्रभाकर श्रोत्रिय ने लिखा है कि इन कविताओं में ‘भारत के आध्यात्मिक, दार्शनिक चिंतन को यथार्थ जीवन, कर्म और लौकिक संबंधों से पृथक न कर उनसे गूंथा गया है, कबीर की चदरिया की तरह। इससे जीवन-जगत की सही मानवीय समझ पैदा होती है। यद्यपि चिंतन भीतर से शुरु होता है लेकिन वह सारे सृष्टि-अर्थ खोल देता है ताकि मनुष्य, चराचर की समानता और सह अस्तित्वमय जीवन जीने की ओर बढ़ सके।... कवि ने द्वंद्वात्मक भौतिकवादी दृष्टि का समायोजन, पारंपरिक भाव, चेतना और अभिव्यक्ति का सही मान रखते हुए किया है, ताकि अलौकिक अर्थ का महत्व भी कम ना हो और वह लौकिक अर्थ में भी ढल सके। यह शैली संतों जैसी है।’  हरीश जी ने अपने निजी जीवनानुभवों से काव्ययात्रा में यह रास्ता चुना था, भारतीय मनीषा का एक प्रगतिशील जनवादी प्रत्याख्यान करने का, जिसे पढ़-सुन कर नए अर्थ ध्वनित होते हैं। बाबा नागार्जुन को भी उनकी ऐसी कविताएं बहुत पसंद थीं।


हरीश जी की कविताओं के हिंदी और राजस्थानी में बीस से अधिक संकलन हैं, इसके अलावा जनगीतों और साक्षरता के लिए लिखी दो दर्जन से अधिक पुस्तिकाएं प्रकाशित हुईं। कविता के लिए उन्हें मीरा प्रियदर्शिनी सम्मान, राहुल सम्मान और बिहारी सम्मान सहित अनेक सम्मान-पुरस्कारों से नवाजा गया। बंबई में कलम मजूरी करते हुए उन्होंने फिल्मी दुनिया के लिए भी काम किया। इनमें से बहुत-सी चीजें दूसरों के नाम चली गईं, उनके नाम बचा सिर्फ ‘आरंभ’ फिल्म का गीत, ‘सभी सुख दूर से गजरें, गुजरते ही चले जाएं’। मुकेश के गाए इस गीत को सुनकर अंदाज होता है कि सिनेमा के लिए ऐसी कविता भी लिखी जा सकती है।

वे कई मायनों में सामाजिक क्रांति के अग्रदूत थे। अपनी बेटियों को उन्होंने खुद आगे बढ़कर सामाजिक आंदोलनों में अग्रणी बनाया। उनकी सबसे बड़ी बेटी सरला माहेश्वरी पं. बंगाल से दो बार सांसद रह चुकी हैं। बीकानेर में पुष्पा और कविता निरंतर आंदोलनों में सक्रिय रहती है। उन्होंने बीकानेर की प्रसिद्ध होली को अश्लीलता से मुक्त कर उसमें जनजागरण के गीतों की शुरुआत की। सोरठा छंद में उन्होंने जो ‘हूणिए’ लिखे, वो जनसंघर्षों के दौरान क्रांति का उद्घोष गीत बन गए। उनके जनगीतों में ‘रोटी नाम सत है और ‘बोल मजूरा हल्ला बोल’ वो गीत हैं, जिन्हें हजारों लोगों द्वारा दिल्ली के इंडिया गेट से लेकर गांव-कस्बों के जनांदलनों में गाया जाता है। उनकी लोकप्रियता का आलम यह था कि बीकानेर में उनका पता किसी से पूछने की जरूरत नहीं थी, कोई तांगे वाला आपको बिना पैसे लिए उनके घर छोड़ देता था। हर गांव, कस्बे और शहर में उनके अपने जैसे कई घर थे, जहां वे अपनी सुविधा से रहते थे। जीवन भर लोगों के काम आने वाले इस महान जनकवि ने मृत्यु के बाद अपनी देह बीकानेर मेडिकल कालेज को दान कर अपनी अंतिम इच्छा पूरी की। शत शत नमन।

पार्टी झण्‍डे में लिपटी जनकवि की देह

(बीकानेर मेडिकल कॉलेज को देहदान करते मित्र, परिजन और प्रशंसक, 'हरीश भादानी अमर रहे' का नारा लगाती श्रीमती जमुना भादानी, हरीश जी की जीवनसंगिनी)

हरीश भादानी जी को पुष्‍पांजलि अर्पित करते मुख्‍यमंत्री अशोक गहलोत
( यह आलेख हिंदी मासिक 'आउटलुक' के नवंबर, 2009 अंक में प्रकाशित)