Sunday 29 January, 2012

कार्टूनिस्‍ट-कलाकार अभिनेता-अभय... खा गया समय...


अभी-अभी उस अभय वाजपेयी को आखिरी सलाम कहकर आया हूं, जो हरदिल अजीज था। राजस्‍थान पत्रिका के पॉकेट कार्टून झरोखा  के विख्‍यात त्रिशंकु, जिसे लाखों पाठकों की बेपनाह मोहब्‍बत हासिल थी... जिसने अपने मुंह से कभी नहीं कहा कि मैं ही त्रिशंकु हूं और मैं ही कलाकार, रंगकर्मी, निर्देशक अभय वाजपेयी। अजीब मस्‍तमौला और बिंदास आदमी था। किसी के बारे में था कहना-लिखना कितना मुश्किल होता है... जिंदादिल लोग आपको बहुतेरे मिल जायेंगे, लेकिन अभय वाजपेयी जैसे शख्‍स बहुत दुर्लभ होते हैं...हर फिक्र को धुंए में उड़ाते चला गया... ऐसी बेफिक्री कि बावजूद डॉक्‍टरों और मित्रों की चेतावनियों के, बीपी की दवा ही नहीं ली... उनका शाम के वक्‍त तकियाकलाम होता था, शाम के वक्‍त चाय पीने से मुंह से बदबू आती है.. लोग क्‍या कहेंगे...अभय वाजपेयी के इतने बुरे दिन आ गये हैं कि शाम 6 बजे बाद चाय पीता है... सरकार ने नौकरी से निकाल दिया है या कि राजस्‍थान पत्रिका ने कार्टून के पैसे देना बंद कर दिया है...यार दोस्‍तों की मंडली को अपनी लाजवाब चुटकियों और किस्‍सों की कभी ना खत्‍म होने वाली पोटली से गुलजार करने वाला वो अप्रतिम कलाकार...
मैं उनसे इस बात के लिये बहुत झगड़ता था कि अपने कार्टूनों की एक पुस्‍तक प्रकाशित की जानी चाहिए... वे इस पर तैयार भी हो गये थे... लेकिन अपनी मस्‍ती में भूल ही जाते थे... उन्‍होंने कभी अपने कार्टून प्रकाशित होने के बाद प्रेस से शायद ही वापस मांगे हों... अखबार के दफ्तर की रद्दी में ना जाने कहां गुम हो गये हजारों कार्टून... बाद के दिनों में उन्‍होंने शायद उन्‍हें सहेजना शुरु कर दिया था... मैंने उन्‍हें चुनिंदा कार्टून्‍स की प्रदर्शनी लगाने की भी सलाह दी थी... लेकिन उनके पास ऐसे फालतू कामों के लिए शायद वक्‍त ही नहीं था... जिस जमाने में लोग अपनी मार्केटिंग खुद ही करते रहते हैं, उन्‍होंने खुद के लिए कोई वक्‍त नहीं रखा... इसीलिए 2002 की शुरुआत में उन पर जबर्दस्‍त अटैक हुआ और वे लंबे समय तक कोमा में रहने के बाद जब ठीक हुए तो जुबान चली गई. और साथ ही चला गया हाथों का कौशल...  फिर भी अपनी जिंदादिली से उन्‍होंने दो-तीन साल में बहुत कुछ अर्जित कर लिया था. कुछ बोलने लगे थे और उन पर कार्टून का जुनून सवार था... मैं बनाउंगा, फिर से कार्टून... इतना अदम्‍य विश्‍वास था उन्‍हें... और साबित कर दिया कि वे बेजोड़ हैं। कुछ दिन दैनिक नवज्‍योति में उनके कार्टून छपे थे, जिनमें से एक की याद आज पत्रिका के अभिषेक तिवारी जी ने याद दिलाई। वर्तमान अशोक गहलोत सरकार की नई-नई ताजपोशी हुई थी और मीडिया में सब कह रहे थे कि कर्मचारियों ने इस बार अशोक गहलोत की वापसी में बड़ा काम किया है..लेकिन कुछ ही दिनों में कर्मचारियों के किसी आंदोलन के संबंध में सरकार ने सख्‍ती की थी, उस पर उनके कार्टून का कैप्‍शन था दिल दिया, दर्द लिया। वे एक लाइन में इतनी बड़ी बात कह देते थे, जो कई पेज के लेख में नहीं कही जा सकती। उनके पास फिल्‍मी गीतों की एकाध पंक्ति पर कार्टून बना देने की अद्भुत कला थी। अपनी मौज में खूब पैरोडियां बनाते थे और अपनी अभिनय कला से उसका ऐसा वाचन करते थे कि सुनने वालों के पेट में बल पड़ जायें। धीरे-धीरे प्‍यार को बढना है गीत में वे मुखड़े के तुरंत बाद दो सिंधी शब्‍द डालकर और हद को बंगाली में हौद करके वे अपने अंदाज में गाते थे, धीरे-धीरे प्‍यार को बढाना है, अरे वरी हद से गुजर जाना है.. धीरे-धीरे प्‍यार को बढाना है, अरे सांई हौद से गुजर जाना है. इसी तरह उन्‍होंने कुछ कुछ होता है की पैरोडी बनाई थी। तुम पास आये, हम हिनहिनाए, यूं मुस्‍कुराये, तुमने ना जाने क्‍या सपने दिखाये, अब तो मेरा दिल जागे ना सोता है, क्‍या करूं हाय, कुछ नहीं होता है...
वे रंगमंच के मंजे हुए कलाकार थे और कई धारावाहिकों और फिल्‍मों में भी उन्‍होंने अभिनय किया। उनके पास गजब का विट और ह्यूमर था, जिसे उन्‍होंन खुद के बनाये अजब गजब जैसे दूरदर्शन धारावाहिकों में बखूबी इस्‍तेमाल किया. अपने साथी कलाकारों में वे बेहद लोकप्रिय थे और सभी उन्‍हें बेहद सम्‍मान से देखते थे। बहुत से फिल्‍म कलाकार उनके जिगरी दोस्‍त हैं, जिनमें रघुवीर यादव की बात मुझे इसलिए याद है कि एक शाम मैंने भी दोनों के साथ गुजारी थी।
उनके कार्टून आज भी लोगों की स्‍मृति में जिंदा हैं। मुझे कर्मचारी हड़ताल के दौरान बनाया एक कार्टून याद आता है, जिसमें घर पर खाना खाने के बाद कर्मचारी पत्‍नी से कहता है कि अब लंच हो गया, तुम मेज कुर्सी लगा दो, मैं सोने जा रहा हूं। एक बार आर.एस.एस. का कोई कार्यक्रम था, जिसमें स्‍वयंसेवकों के पास गणवेश ना होने की खबर छपी थी। कार्यक्रम से ऐन पहले उनका कार्टून था, जिसमें पति टांड पर सामान के बीच गणवेश खोज रहा है और पत्‍नी से कह रहा है, कहीं तुमने बर्तनों के बदले में तो नहीं बेच दिया... उनका आम आदमी राजस्‍थानी पगड़ी वाला साधारण किसान-मजदूर था, जिससे दूर-दराज का पाठक भी अपना संबंध बना लेता था। मुझे एक बार किसी मित्र ने बताया था कि उनके निरक्षर दादाजी अखबार से खबरें सुनने के साथ कार्टून भी सुना करते थे।

अभी इतना ही... अगर आपको उनके कार्टून याद आयें तो जरूर बतायें...


Thursday 12 January, 2012

दो नई कविताएं

शुक्रवार की साहित्‍य वार्षिकी-2012 में ये दो नई कविताएं प्रकाशित हुई हैं। मेरे मित्र और पाठक जानते हैं कि इधर मेरी कविताओं का स्‍वर बहुत बदला है और ये कविताएं इसे बताती हैं। कुछ मित्रों ने इन कविताओं को पहले सुना भी है और शायद एकाध ने पढ़ा भी है। आज मैं अपने तमाम दोस्‍तों के नाम ये कविताएं इस उम्‍मीद के साथ प्रस्‍तुत कर रहा हूं कि शायद आप सबको इनसे कुछ कहने को मिले, जो मेरी काव्‍य यात्रा में सहायक हो।


मृत्‍यु और प्रमाण पत्र



एक

वो नहीं रहे
इसका सबूत क्‍या है

मैंने कहा
जैसे वे गए
वसंत भी चला गया
उन्‍होंने कहा
सबूत पेश करो
शरद, शिशिर, हेमंत और वर्षा भी नहीं रहे

हमें सबका मृत्‍यु प्रमाणपत्र चाहिए।

दो

उन्‍हें चाहिए
हर जगह मूल मृत्‍यु प्रमाणपत्र
कोई प्रतिलिपि नहीं चलेगी

बैंक, बीमा, पेंशन, पानी, बिजली, टेलीफोन
नगर पालिका, आवासन मण्‍डल
सभी को चाहिए
मूल मृत्‍यु प्रमाणपत्र

मैं कहना चाहता हूं कि
पहली बार वे तब मरे थे
जब उन्‍हें स्‍कूल में दाखिला नहीं दिया गया था
उनकी जाति के कारण

इस पहली मृत्‍यु के निशान
जीवन भर रहे उनकी आत्‍मा पर

दूसरी बार उनकी मौत तब हुई
जब सबसे अच्‍छे अंकों से
प्रथम श्रेणी में उत्‍तीर्ण होने के बावजूद
उन्‍हें गांव भर में अपमानित किया गया
दूसरी मौत उन्‍हें शहर ले आई
शहर में उन्‍हें धीरे-धीरे मारा गया

सबसे पहले अच्‍छी कॉलोनी में
किराए के मकान से वंचित रखकर मारा गया
दफ्तर में पानी का अलग
मटका रखकर मारा गया
ज्‍यादा काम करने के बावजूद
औरों के हिस्‍से का काम लाद कर मारा गया

उन्‍होंने धार्मिक जुलूस के लिए चंदा नहीं दिया तो
उनकी दराजों-अलमारियों में
अदृश्‍य रंग में डूबे
रुपये रखकर मारा गया

उन्‍हें पदोन्‍नति में
नाकाबिल कहकर मारा गया
बच्‍चों की पढ़ाई
और मकान के लिए
उन्‍हें कर्जे के लिए अपात्र मानकर मारा गया

सेवानिवृति से ऐन पहले
उनके खिलाफ जांच बिठाकर मारा गया
कचहरी में झूठी गवाहियों से मारा गया
घाघ वकीलों की जिरह में
उन्‍हें लांछनों से मारा गया

आए दिन पल-पल की इस मौत से
सुकून दिलाने वाली
उनकी थोड़ी-सी शराब को
गांधीवाद और मद्यनिषेध के नाम पर
महंगी कर-करके उन्‍हें मारा गया 

वे अपनी बमुश्किल सत्‍तर-साला जिंदगी में
दस हजार बार मरे
क्‍या करें हुजूर
इन मौतों का कोई प्रमाण नहीं

यह उनकी आखिरी मौत थी प्राकृतिक
बस इसी का पंजीकरण हुआ है
जिसका दस्‍तावेज है
यह मूल मृत्‍यु प्रमाणपत्र।


अंतिम कुछ भी नहीं होता

कोई दिन नहीं अंतिम
न कोई पल अंतिम
झूठी और भ्रामक हैं
अंतिम की सारी अवधारणाएं
जैसे सृष्टि के अंत की घोषणाएं

किसी के अंत या अंतिम होने की बात
लोभ और लालच की संस्‍कृति में
व्‍यापार की नई कला है
बिक्री और छूट का आखिरी दिन
बचे हुए माल को बेचने का तरीका
आवेदन की अंतिम तिथि
गलाकाट प्रतियोगिता का पैंतरा
कमजोर को बाहर करने का हथियार अंतिम

अंतिम आदमी तमाम सूचियों से बाहर
अन्‍न के आखिरी दाने गोदामों में सड़ते
अंतिम पायदान पर लोग तरसते
पानी की आखिरी बूंद पर कंपनियां काबिज
हर अंतिम सत्‍य को झुठलाती संसद

कौन देता है अंतिम रूप उन नीतियों को
जो पहले से त्रस्‍त लोगों को
धकेलती अंत की ओर
समस्‍याओं का आखिरी समाधान
क्‍यों होता है सिर्फ व्‍हाइट हाउस के पास

दरिद्रता के अंतिम मुहाने पर खड़े
आदिवासियों के पास
कहां से आता है आखिरी हथियार
क्‍यों अपनी ही जनता को
गोलियों से भून देने का
बचा रह जाता है आखिरी उपाय

कहीं नहीं कोई अंतिम सत्‍ता
इस अनंत सृष्टि में
हमने मंगल तक जाकर देख लिया

अंतिम कुछ भी नहीं होता
आखिरी सांस के बारे में
सिर्फ मृतक जानते थे
हमारे पास तो सिर्फ इरादे हैं
इनमें से कोई अंतिम नहीं।