Sunday 28 June, 2009

फुरसत - मदन सैनी की कहानी


हिंदी और राजस्थानी में समान रूप से लिखने वाले प्रदेश के अत्यंत महत्वपूर्ण कथाकार मदन सैनी राजस्थान के ऐसे रचनाकार हैं, जिन्होंने लोकसंस्कृति का गहन अध्ययन भी किया है और शोध भी। उनकी कहानियों की तरह उनके शोध निबंध भी समय-समय पर सराहे गये और पुरस्कृत किये गए। उनकी हिंदी और राजस्थानी कहानियों की दो पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं और पुरस्कृत भी। मदन सैनी कम लिखते हैं, लेकिन उनकी कहानियों से गुजरने के बाद अहसास होता है कि मात्रा और गुणवत्ता में कितना भेद होता है। मदन सैनी की कहानी ’फुरसत’ एक ऐसे इंसान की कहानी है जो बुढापे और अकेलेपन के बीच निरंतर चिंतन करता हुआ पूरे समाज में उपहास का पात्र बन जाता है।
बासठ बरस के मघजी को यह बात कभी समझ में नहीं आई कि जिस बात को वो समझते हैं, उसे बाकी लोग क्यों नहीं समझते। उन्हें अपनी समझ पर पूरा भरोसा है और वो मानते हैं कि उनकी बात बिल्कुल सही है, भले ही दूसरे लोग समझें या नहीं। और इस बात के उनके पास पक्के सबूत भी हैं। माता-पिता के इकलौते पुत्र मघजी के पिता तो जिंदगी भर सेठों के खेत में मजदूरी करते रहे, लेकिन मघजी के होश संभालने के बाद घर की हालत दिन-ब-दिन बदलती चली गई। मघजी ने व्यापार में जो हाथ आजमाया तो उनकी सफलता की ऐसी कथा शुरु हुई कि गांव के बाहर चारों तरफ उनकी कीर्ति पताका फहरने लगी। उनकी बड़ी बेटी दुर्गा और मझले बेटे मोहन का ऐसे गाजे-बाजे के साथ ब्याह हुआ कि गांव और आस-पड़ौस में लोग दंग रह गए। उनके घर के सदस्य जब नित नए कपड़े-गहने पहनकर बाहर निकलते हैं तो लोगों की आंखें फटी रह जाती हैं।
मघजी को पता ही नहीं चला कि धीरे-धीरे कब उनके व्यापार की बागडोर उनके बेटे मोहन ने संभाल ली। उन्हें तो तब पता चला जब बेटे ने उन्हें आराम करने, घर सम्हालने और भगवत भजन की सलाह दी। समझदार को इशारा काफी, मघजी ने बेटे का कहा माना और ध्यान दूसरी तरफ लगाने की कोशिश की। लेकिन पहाड़ जैसा दिन काटना बिना कामधाम के खासा मुश्किल था। एक दिन सुबह-सुबह उन्होंने पत्नी से कहा कि इस तरह तो वक्त कैसे कटेगा, पता नहीं लड़के को भी क्या सूझी, उम्र और अनुभव को कोई मोल नहीं। पत्नी ने कहा, क्यों खून जलाते हो, पूजा-पाठ से वक्त नहीं कटता, तो बाहर घूमो, सुबह शाम दिशा-मैदान के लिए रेत के धोरों की तरफ ही चले जाया करो। मघजी उसी वक्त लोटा लेकर चल दिये।
मघजी एक धोरे पर बैठ सूरज की किरणों और चमकती बालू रेत का सौंदर्य देख रहे थे। उन्होंने सोचा, रेत और सागर की लहरों में क्या फर्क है, दोनों ही तूफान मचा सकती हैं, इन्हें अपने सौंदर्य का गुमान ही नहीं। विचारमग्न मघजी को अचानक अपनी अंगुलियों के पास सरसराहट महसूस हुई। देखा तो एक टीटण थी। टीटण गुबरैला की एक प्रजाति है, जिसे अपने काले रंग के कारण ’रामजी की भैंस’ भी कहा जाता है। मघजी ने उसे पकड़कर अलग फेंक दिया, लेकिन वो तो वापस उन्हीं के पास चली आई। मघजी उसे उठा-उठाकर फेंकते थक गए, लेकिन टीटण नहीं मानी। उन्होंने लोटे का पानी पिया और टीटण को लोटे में छोड़ दिया। मघजी ने ध्यान से देखा तो उन्हें वह भंवरे की तरह सुंदर लगी, वे सोचने लगे कवियों ने इस खूबसूरत जानवर पर कुछ नहीं लिखा, सौंदर्य में यह भंवरे से कहां कम है, उन्हें लगा टीटण के साथ भारी अन्याय हुआ है और उनके भीतर ज्ञान का नया प्रकाश हुआ है।
मघजी टीटण को हाथ में लेकर देखने लगे तो वह कूद पड़ी, उन्हें लगा, कहीं इस बिचारी को चोट तो नहीं लगी, उन्‍होंने उसे फिर हथेली पर रखा और लगे निरखने। अरे! यह छोटा-सा मुंह तो रेल के दानवी इंजन की तरह दिख रहा है, वैसा ही कालाकलूटा और विकराल। पता नहीं इस पर किसी का ध्यान गया कि नहीं। दुर्गा की मां को जाकर बताउंगा तो उसे बड़ी खुशी होगी। उन्होंने टीटण को फिर से लोटे में रखा और घर की तरफ चल दिये।
जाते ही माला फेरती पत्नी से बोले, माला छोड़कर जल्दी आओ, देखो मैं क्या लाया हूं, रेल का इंजन! आश्चर्य से पत्नी ने कहा, रेल का इंजन, और उन्होंने पत्नी की हथेली खोलकर लोटा उंडेल दिया। पत्नी बोली, ‘यह तो टीटण है... हटाओ हाथ में पेशाब कर दिया तो तीन दिन तक गंध नहीं जाएगी। उन्होंने पूछा, बता तो सही, यह कैसी लग रही है, वो बोली, घर से बाहर भगाओ इसे। पता नहीं बुढापे में क्या कौतुक लाए, लोग हंसेंगे, कुछ तो सफेद बालों की इज्जत रखो। मघजी पत्नी को फटकार कर कहने लगे, सामने पड़ी चीज दिखती नहीं, लेकिन गांव में तो समझदार लोगों की कोई कमी नहीं है।,
मघजी गांव में निकले तो सबसे पहले मुकना मिला तो उसे बुलाकर लोटे में दिखाया और पूछा, बता क्या है इसमें। उसने जवाब में टीटण कहा तो पूछा कि बता इसका मुंह कैसा है, रेल का इंजन जैसा नहीं लग रहा, मुकना ने कहा कि काका, तबियत तो ठीक है, कहीं भांग-गांजे की चपेट में तो नहीं आ गये। उसकी समझ को कमजोर बताकर वो आगे चल पड़े। पूरा दिन वो गांव की गलियों में फिरते रहे पर उनकी बात को मानने समझने वाला कोई नहीं मिला। मास्टर दीनदयाल का खयाल आया पर संध्याकाल देखकर विचार त्याग दिया।
सुबह स्कूल का समय होने से पहले ही मघजी मास्टरजी के यहां पहुंच गए। वे खाट पर बैठे कोई किताब पढ़ रहे थे। मघजी ने लोटा हाथ में लिए हुए ही राम-राम किया। कहा कि पूरे गांव में घूम लिया पर कोई दिमाग वाला आदमी नहीं मिला। किसी को नई बात सोचने-समझने की फुरसत ही नहीं है और कोई कहे तो सुनने को तैयार ही नहीं है। मास्टरजी ने हंसते हुए पूछा कि ऐसी क्या बात है। उन्होंने कहा, लोग फूल, तितली, भंवरे पर रीझते हैं पर इसमें नई बात क्या है, आप देखिए इस टीटण का नया रूप तो मुझे सबसे अलग दिखता है। कहकर उन्होंने लोटा उलट दिया। हल्की-सी आवाज के साथ टीटण गिर पड़ी और उसके एरियल और छहों पांव हिलने लगे। मास्टरजी के जैसे करंट लगा, वो उछलकर खड़े हुए और गुस्से में बोले, गांव में तो एक भी समझदार नहीं मिला, तुम्हारी अक्ल घास चरने चली गई क्या, जो मजाक करने के लिए टीटण ही मिली... मैंने सोचा था, भले आदमी हो, सुबह-सुबह कोई काम की बात करने आए हो। अब आप घर जाओ... नहीं तो बच्चे पत्थर मारना शुरु कर देंगे।
मघजी को लगा वे गलत जगह-गलत वक्त आ गए हैं। डगमगाते कदमों से घर पहुंचे और अपने कमरे में बंद हो गए। ना किसी से बोलचाल और ना किसी से कहासुनी। उन्हें पता नहीं चला कि इस वक्त खुद उनकी शक्ल चुपचाप आंसू बहाते मोर जैसी लग रही थी। जब पत्नी ने आकर उनकी हालत देखी तो पूछा कि कहीं कुछ दुख तो नहीं रहा, तंज में बोले, दुखे तेरा माथा। पत्नी ने कहा कि ऐसे क्यों बोलते हो, मैं समझदार नही हूं, दुर्गा की मां... मैं तो बिल्कुल बेवकूफ हूं, मूर्ख हूं। अब मैं क्या करूं, और उनकी आंखें छलछलाने लगीं, वो फफक-फफक कर रोने लगे।
दुर्गा की मां कहने लगी, हे बालाजी महाराज...ये इनको क्या हो गया बाबा, इतने अच्छे-भले आदमी का माथा कैसे फिर गया! आपके लिए जागरण करूंगी बाबा... इनकी आंखों के आंसू पोंछ दे बाबा।
इतने में ही किसी ने घर की कुण्डी बजाई। दुर्गा की मां अपने आंसू पोंछती बाहर गई तो देखा, एक लड़का चमचमाता लोटा लेकर खड़ा था। लड़के ने कहा, मास्टरजी ने लोटा भिजवाया है, सुबह मघजी उनके घर के बाहर छोड़ आए थे। मास्टरजी ने कहा है कि टीटण नहीं मिली, मिलते ही भिजवा देंगे।
दुर्गा की मां ने तुरंत लोटा लिया और दरवाजा बंद कर कुण्डी लगा ली।
कहानी अंश
बड़े-बड़े व्यापारियों को सलाह देने वाले मघजी को एक बार तो लगा उनकी समझ ही अपाहिज हो गई है। जिस समझ पर जिंदगी भर गर्व किया, उसे आज उन्हीं का सपूत बेकार साबित कर रहा है। लेकिन मघजी समझदार आदमी थे। सोच-समझकर घर रहने को ही अच्छा मान, मंदिर-देवालय, पूजापाठ में मन लगाने की जैसे-तैसे मंशा कर ही ली।
ऐसी मंशा करनी तो आसान थी, लेकिन इनमें मन लगाकर दिन काटना बहुत मुश्किल था। दिन उगता तो छिपना मुश्किल और छिप जाता तो उगना मुश्किल हो जाता। दिन बीते या रात मघजी को लगता जैसे युग बीत गया।
.......
दूर तक पसरी बालू की लहरों में मघजी अपने मन की नाव खे रहे थे कि अचानक उनके पांव की अंगुलियों के पास सरसराहट हुई। नीचे देखा तो एक टीटण थी। उन्होंने उसे हाथ में पकड़कर दूर फेंक दिया। लेकिन वो थोड़ी ही देर में वापस आ जाती। मघजी ने तीन-चार बार उसे फेंका, लेकिन वो असली टीटण थी, धरती का हठीला जीव। हमीर ने अपना हठ छोड़ा हो तो यह आज ही छोड़ दे।
मघजी थक गए। उन्होंने लोटे का पानी गटागट पिया और टीटण को लोटे में छोड दिया। इसके बाद उन्होंने टीटण को नजदीक से देखना शुरु कर दिया। अरे! ये तो बिल्कुल भंवरे जैसी लग रही है। भंवरा इतना नादीदा जीव और बिचारी टीटण की कोई बात ही नहीं करता। मघजी ने सोचा, इसी को कहते हैं संगत का असर... ये भंवरा भिनभिनाता गीत गाता तितलियों और फूलों के पास जा पहुंचा और कवियों की आंख का तारा बन गया। लेकिन बिचारी टीटण को कौन पूछे।
लेखक परिचय
मदन सैनी
जन्म- 3 मई, 1958
प्रकाशित कृतियां- फुरसत-राजस्थानी कहानी संग्रह
सफेदे और भेड़ें- हिंदी कहानी संग्रह
संपादन- रामरास, सीतपुराण, कृष्णावतार, रामरासौ
पुरस्कार- मुरलीधर व्यास कथा साहित्य पुरस्कार
एल.पी. तैस्सीतोरी गद्य पुरस्कार


Saturday 13 June, 2009

गाभाचोर-भरत ओला की कहानी




ऐसा जबर्दस्त चोर आज तक नहीं सुना। एक दो नहीं कोई बीसियों घरों में चोरी हुई और चोरी में कोई बर्तन, गहने या रूपया पैसा नहीं गया। सबके यहां से चोर सिर्फ औरतों के कपड़े ही चुराकर ले जाता। गांव भर में बस एक ही चर्चा कि कोई चोर है जो सिर्फ औरतों के कपडे चुराता है] पता नहीं यह किसी जादू टोने वाले तांत्रिक का ही कोई काम हो। साहित्‍य अकादमी पुरस्‍कार से सम्‍मानित राजस्‍थानी के समर्थ कथाकार भरत ओला की इस कहानी का नायक एक स्कूल मास्टर है] जो स्कूल में भी इसी चोर की चर्चा से यह सोचने के लिए मजबूर है कि आखिर ऐसा कौनसा चोर है जो यह काम कर रहा है। वो जब स्कूल पहुंचता है तो चपरासी महेश कुमार जवानी में निकलने वाले मुहांसो को फोड़ता मिलता है। स्कूल के सब मास्टर भी चोर चर्चा में लगे मिलते हैं। पता चलता है कि चोर नहाती हुई स्त्रियों के कपड़े चुरा ले भागा। एक मास्टर का चोर के बारे में तर्क है कि चोर को पहली बार चोरी में कपड़ों के साथ कोई गहना हाथ लग गया होगा और अब वो इसीलिए कपड़े चुरा रहा है, क्योंकि हमारे यहां स्त्रियां नहाते वक्त गहने उतारकर कपड़ों के साथ रख देती हैं। खैर, जितने मुंह उतनी बातें।
एक मास्टर जी का कहना था कि कोई गरीब चोर होगा, जो अपनी स्त्री के लिए कपड़े चुराता होगा, बेचारा अपनी पत्नी को फटे कपड़ों में कैसे देख सकता है। दूसरे मास्टरजी कहते हैं कि वो चोर कपड़े ही नहीं अधोवस्त्र भी चुराता है। गांव भर में कई दिनों तक इस चोर की चोरियों की खासी चर्चा रही, लेकिन समय के साथ बातें मंद पड़ती गईं। लेकिन कपड़े चोरी होने का सिलसिला नहीं रुका। या तो औरतों ने ही अपने कपड़े चोरी होने की बातें किसी बदनामी से बचने के लिए और बिना वजह चर्चा में आने के डर से अपने घर वालों को बतानी बंद कर दीं या लोगों ने ही। वैसे भी एक ही किस्म की चर्चा बहुत ज्यादा दिनों तक चलती भी नहीं रह सकती।
कथा का नायक एक रात सोते समय घर के बाहर कोई खटका सुनकर उठ जाता है। दरवाजा खोलते ही चांदनी रात में वह जो देखता है तो देखता ही रह जाता है। स्कूल का चपरासी महेश कुमार अलगनी पर से नायक की पत्नी के कपड़े उतार रहा था। कपड़े उतारकर वह दोनों हाथों से उन्हें भींचकर मुंह के आगे लगा रहा था। महेश कपड़ों को किसी गंजेड़ी की तरह गहरा कश लगाने के अंदाज में सूंघ रहा था और नाक में से धुआं निकालने के अंदाज में सांस बाहर छोड़ रहा था। मास्टर के बदन में आग लग गई, आखिर उसी की आंखों के सामने महेश उसी की पत्नी के कपड़े सूंघ रहा था। उसके मुंह से गालियों का एक भभका निकलने को था कि अचानक उसके सामने महेश का सार्वजनिक चेहरा तैर गया। एक मिलनसार, हमदर्द, आज्ञाकारी, शांत और मृदुभाषी महेश कपड़ा चोर नहीं हो सकता। मास्टर चुपचाप भीतर चला जाता है।
सुबह होने पर पत्नी भी शायद दूसरी महिलाओं की तरह बदनामी के डर से कपड़ों की बात नहीं करती। रोज की तरह मास्टर स्कूल जाता है, महेश हमेशा की तरह दुआ-सलाम करता है। लेकिन मास्टर को लगता है कि महेश उसके सामने सहज नहीं है और आंखें नहीं मिला पा रहा है। मास्टर को गुस्सा तो रात से ही आ रहा था, लेकिन वह थोड़ा सोच विचार कर समय आने पर उससे बात करने के बारे में सोचता है। स्कूल की छुट्टी होने पर सब चले जाते हैं और मास्टर दिशा मैदान के लिए निकल जाता है। लौटकर वापस स्कूल आता है और महेश से हाथ धुलवाने के लिए कहता है। महेश पानी लाकर हाथ धुलवाता है, तो हाथ धोते वक्त मास्टर के हाथ महेश की धुनाई के लिए मचल उठते हैं। वह रगड़-रगड़ कर हाथ धोते हुए अपने गुस्से को काबू में रखता है। हाथ धुलाकर महेश तौलिया लेकर आता है। मास्टर महेश से हौले से पूछता है, ‘महेश, तुम्हें पता है, कपड़ाचोर कौन है
महेश के मुंह का सारा तेज भंग हो गया और चेहरा फक्क हो गया। महेश ठीक उसी जगह जहां हाथ धोने से कीचड़-सा हो गया था, मास्टर के पैरों में गिर गया, ‘गुरुजी...गुरुजी...! मुझे माफ कर दो। मुझे बख्श दो गुरुजी।... यह मेरे वश की बात नहीं है गुरुजी...सारा दिन इसके लिए मैं खुद को धिक्कारता रहता हूं, लेकिन शाम होते ही मुझे जनाना कपड़ों की गंध चैन नहीं लेने देती। मेरा गुनाह माफ करो गुरुजी, गरीब आदमी हूं। गुरुजी...गुरुजी...!
अचानक मास्टर को एक खोई हुई गंध की बेतरह याद आती है। उसे लगता है कि जैसे कपड़े चुराने वाला महेश नहीं वह खुद है। उसे महसूस होता है कि उम्र के कितने वर्ष वह भी ऐसी ही गंध का पीछा करता रहा था, वह गंध जो रोज मिलकर भी उससे जुदा ही है। वह सरपट घर की ओर चल देता है। घर के पास पहुंचने पर उसे खयाल आता है कि क्या आज की रात फिर किसी औरत के कपड़े चोरी होंगे। उत्तर में उसके अंतर से एक मुस्कान उठकर पूरे वजूद को घेर लेती है।
सुविख्यात कवयित्री कात्यायनी ने एक कविता में लिखा है, सभी वासनाएं अश्‍लील नहीं होतीं। इस कहानी पर भी यही बात लागू होती है। नौजवानी के दौर में युवक-युवतियां सब इसी किस्म के अनुभवों से गुजरते हैं। कहानी और कहानीकार की खूबी यह है कि वह महेश को बड़े मानवीय ढंग से निर्दोष ठहराते हुए मनुष्य की नैसर्गिक भावना और आवेगों को इस किस्म की ‘चोरी के लिए उत्तरदायी बताते हैं। मुझे एक ब्यूटी पार्लर संचालक मित्र ने बताया कि उनके यहां एक डाक्टर अक्सर आकर बैठ जाता था और चुपचाप बैठा स्त्रियों के बाल कटते हुए देखता रहता था। उस स्त्री के जाने के बाद वह उसके कटे हुए बालों में से एक लट उठाता और जेब में रखकर ले जाता। यह कितनी अजीब दुनिया है जिसमें एक पढे़ लिखे डाक्टर को बालों की लट से और चपरासी महेश को जनाना कपडों की गंध से तृप्ति मिलती है। मानवमन में ना जाने कितनी गुफाएं हैं जिनके भीतर पैठना अभी भी साहित्य और कलाओं की दुनिया में शेष है।
लेखक परिचय
जन्‍म – 6 अगस्‍त, 1963
कृतियां
कहानी संग्रह- जीव री जात, सेक्‍टर नंबर पांच
कविता- सरहद के आर-पार
उपन्‍यास- घुळगांठ
सम्‍मान-पुरस्‍कार जीव री जात पर केंद्रीय साहित्‍य अकादमी पुरस्‍कार और मुरलीधर व्‍यास राजस्‍थानी कथा साहित्‍य पुरस्‍कार के अलावा बीसियों सम्‍मान-पुरस्‍कार

Monday 8 June, 2009

पटाक्षेप नहीं होगा- डा. हेतु भारद्वाज की कहानी


राजस्थान के जिन साहित्यकारों को अखिल भारतीय स्तर पर पहचाना जाता है उनमें डा. हेतु भारद्वाज का नाम प्रमुखता के साथ लिया जा सकता है। वे पिछले पांच दशकों से कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक और आलोचना के साथ सामाजिक सरोकारों और सांस्कृतिक चिंताओं को केंद्र में रखकर विविध प्रकार का चिंतनपरक लेखन कर रहे हैं। उनकी दो दर्जन से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं और आज भी वे निरंतर सृजन कर रहे हैं। डा. भारद्वाज के सृजन संसार का फलक बहुत व्यापक है और उसमें मनुष्य की कमजोरियां ही नहीं उसका अदम्य साहस, जीवन संघर्ष और एक लोकतांत्रिक समाज के भीतर चलने वाली गहरी उथल-पुथल का जीवंत वर्णन देखने को मिलता है। अनेक सम्मान और पुरस्कारों से सम्मानित डा. हेतु भारद्वाज की रचनाओं में बदलाव के प्रति एक गहरा आकर्षण और असमानता, शोषण, अन्याय और समझौतावादी प्रवृत्ति के विरुद्ध जबर्दस्त प्रतिरोध है। उनकी सैंकड़ों कहानियों में कई साल पहले लिखी गई कहानी ‘पटाक्षेप नहीं होगा’ आज भी पढ़ने पर ऐसी लगती है, जैसे यह आज ही की कहानी हो। एक बड़े रचनाकार की यही विशेषता भी होती है कि उसकी रचना काल का अतिक्रमण कर हर युग में अपने समय की रचना लगती है। इस कहानी की एक और खासियत यह भी है कि शिल्प के स्तर पर यह नाटक के विविध सोपानों की तरह आगे बढ़ती है और अंत में इसका नाटक की तरह पटाक्षेप नहीं होता, क्योंकि जो परिस्थितियां इस कहानी में हैं वे शास्वत हैं और अगर पाठक हालिया लोकसभा चुनावों के परिप्रेक्ष्य में इसे पढ़ेंगे तो यह और समीचीन लगेगी।
यह कहानी देश की आजादी से शुरु होती है, जिसमें देश के साथ ही रामनेर गांव की आजादी की बात से कथाकार पूरे माहौल की रचना करता है। गांव का ठाकुर पहले की तरह ही मुखिया बना हुआ है, ब्राह्मण उसके पूज्य सहयोगी हैं और शेष निर्धन वंचित जातियों के लोग इनके शोषण के लिए अभिशप्त। इस कहानी में कोई पात्र नहीं है, फिर भी गांव में रहने वाले कुछ किरदार हैं जो रामनेर की तरह किसी भी गांव के हो सकते हैं। इस गांव में समतावादी समाज के नाम पर लोकतंत्र का जो नाटक पहले चुनावों से चला आ रहा है वह आज भी जारी है।
आजादी के बाद जो कुछ बदलाव इस गांव में हुए उनमें स्कूल और डाकखाना खुलने के अलावा दस गुना लगान जमा करवा कर किसानों का स्वयं जमीन मालिक बन जाना था। ठाकुर की जमींदारी से कुछ को तो मुक्ति मिली और कुछ अभी भी ठाकुर-ब्राह्मणों के रहमोकरम पर ही थे। इस तरह के बदलाव के साथ गांव में लोकतंत्र को भी आना ही था। पहली बार ग्राम पंचायत के चुनाव आये गांव वाले समझे ही नहीं कि क्या करना है। इस पर मुखिया ने गांव में सभा बुलाकर सबसे राय पूछी कि किसे प्रधान बनाया जाए। उसके पंडित मित्र ने उसे ही प्रधान बने रहने की बात कही, बदले में उसने बुढापे का बहाना बनाया और पंडित के कहने पर ठाकुर के बेटे रामसिंह को सर्वसम्मति से प्रधान चुन लिया गया और बाकी चुनाव भी सर्वसम्मति से हो गये। मुखिया ने बाद में गांव वालों को बताया कि निर्विरोध चुनाव के कारण गांव का नाम पंडित नेहरू तक गया है। गांव वाले बहुत खुश हुए।
रामनेर गांव में आबादी के लिहाज से ठाकुर-ब्राह्मण तो बराबर थे, कुछ और दलित जातियों के भी घर थे, लेकिन चमारों की संख्या इन सबसे बहुत ज्यादा थी,। इस बात को चमार नहीं जानते थे, क्योंकि उनकी हैसियत ही ऐसी नहीं थी। हालांकि इनमें से कुछ के पास जमीन भी थी और पैसे भी। गांव के स्कूल में रामसिंह ने कच्ची-पक्की इमारत बनवा दी और अपने गुर्गे को नियुक्ति दिलवा दी, वही डाकखाने का भी काम देखने लगा। इस उद्दंड गुर्गे ने पढाने के बजाय बच्चों को पीटा ज्यादा और बच्चे शिक्षा के मामले में फिसड्डी ही रहे। गांव में बदलाव की पहली बयार दो ब्राह्मण भाइयों महेंद्र और बलबीर के दिल्ली जाकर काम करने की खबर से आई। इनका पिता स्वाभिमानी था और मुखिया से दबता नहीं था। नाराज मुखिया ने उसे जमीन से बेदखल कर जबरन अपना कब्जा जमा लिया। पुलिस भी कुछ नहीं कर सकी और आखिरकार एक दिन गांव के पास नहर किनारे उसकी लाश मिली। उसके अनाथ बच्चों को मामा दिल्ली ले गया, कुछ पढ़ाया और सरकारी आफिस में चपरासी लगवा दिया। दोनों कभी-कभार गांव आकर घर की मरम्मत करवा जाते। इनके मन में भी मुखिया के विरुद्ध गहरा आक्रोश था।
दोनों भाई जान गये थे कि निर्विरोध चुनाव मुखिया की रणनीति का हिस्सा थे। दिल्ली में रहने कारण वे जानते थे कि अगर चमारों को संगठित कर दिया जाए तो मुखिया के आतंक से गांव को मुक्ति मिल सकती है। उन्होंने दिल्ली में ही तय कर लिया था कि अगले चुनाव में वे थोड़े बहुत पढ़े लिखे, समझदार और आर्थिक रूप से किंचित समर्थ फगना को चुनाव लड़वाएंगे। चुनाव घोषित होते ही वे गांव आ गए और फगना से चर्चा की। फगना को उनकी बात में दम लगा और फिर सारे चमार एक हो गए। मुखिया और सवर्णों को जब पता चला तो उन्हें बलवीर-महेंद्र पर बहुत गुस्सा आया। उन्हें हर तरह से समझाने की कोशिशें हुईं, लोभ-लालच भी दिया और डराया-धमकाया भी। लेकिन वे अड़े रहे। मुखिया ने चमारों को बुलाकर समझाया तो जो ठाकुर की दया पर निर्भर थे, वे पसर गये, जाति के मामले में क्या करते। ठाकुर ने कहा कि चुपचाप साथ देना नहीं तो देख लेना। इस तरह चमारों में अदृश्य फूट पड़ गई। चुनाव का नतीजा वही निकला जिसकी आशंका थी। चमारों की फूट से रामसिंह ने फगना को भारी मतों से पराजित किया। बलवीर और महेंद्र को मुखिया ने बुलाकर खूब लानत-मलामत की। दोनों ने कहा कि यह आखिरी चुनाव थोड़े ही है। मुखिया ने कहा, ‘तुम्हारे लिए तो आखिरी ही समझो।’ दोनों भाई पराजय से टूटे फगना के पास गये और हिम्मत बंधाई। दोनों ने कहाकि अपने लोगों को संगठित करने में लगे रहो, अगले चुनाव में सबको दिखा देंगे। उसी रात कुछ लोगों ने महेंद्र-बलबीर को बुरी तरह पीट डाला। सुबह फगना और कुछ लोग दोनों को मरहम-पट्टी के लिए कस्बे ले गये। थाने गये तो पुलिस ने डांटकर भगा दिया। दोनों भाई वहीं से दिल्ली चले गये।




गांव में जातिवादी माहौल घना हो गया। विधान के अनुसार पंचायत के चुनाव तीन साल में एक बार होने थे, लेकिन सूखा और बाढ़ जैसे बहानों से चुनाव टलते रहे और सात साल तक रामसिंह ही प्रधानी करता रहा। गांव में जातिवादी वैमनस्य बढ़ने लगा, लेकिन फगना के कारण चमारों में आई चेतना से वे ठाकुर-ब्राह्मण गठजोड़ का डटकर मुकाबला करने लगे। रामसिंह इस बीच पंचायत के पैसों से खुद का विकास और तेजी से करता रहा। मुखिया की मौत के बाद वह और निरंकुश हो गया। फिर चुनावों की घोषणा हुई तो चमार बहुत खुश हुए। फगना महेंद्र-बलवीर के पास दिल्ली गया। इस बार वे आने के लिए राजी न थे, लेकिन फगना के कहने पर चुनाव से एक सप्ताह पहले गांव आने के लिए मान गए। दोनों गांव आए तो देखा चमारों में जबर्दस्त जोश था। लेकिन रामसिंह भी कम नहीं था, उसने शुरु से ही इनकी राह में कांटे बिछाना प्रारंभ कर दिया था। पहले तो इन्हें वोटर लिस्ट नहीं मिली और जब मिली तो देखा कि उसमें दोनों भाइयों के साथ चमारों के उन लोगों के भी नाम नहीं हैं जो बाहर रहते हैं, जबकि ब्राह्मण-ठाकुरों में सबके नाम थे। इसके बावजूद चमारों के वोट अब भी बाकी सबसे ज्यादा थे, यानी जीत का गणित चमारों के पक्ष में था और वे आश्वस्त थे।
चुनाव से पहले पोलिंग पार्टी आई, जिसका चुनाव अधिकारी संयोग से ठाकुर ही था। रामसिंह ने उसे रात को दावत पर बुलाया, दारू पिलाई तो जाति के नाम पर और रिश्वत में मिले रुपयों के कारण अधिकारी ने रामसिंह को हर हाल में जीतने की रणनीति बताई। सुबह पोलिंग के वक्त जब शुरु में मतदाता नहीं पहुंचे तो अधिकारी दोनों के एजेंटों को चाय पिलाने ले गया। एक घण्टे बाद वे लोग लौटे तो वोटर आने लगे थे। चमारों की औरतें आईं तो पता चला उनके वोट तो पहले ही दिये जा चुके हैं। खूब हंगामा हुआ। साफ था कि रामसिंह ने एक घण्टे में उतने वोट डलवा दिये जिससे वो जीत सके और हुआ भी यही वो करीब सौ वोटों से जीत गया।
फगना ने लोगों की सलाह पर अदालत में चुनाव के खिलाफ रिट लगाई और अगले चुनाव तक मुकदमा चलता रहा। रामसिंह के धांधली से प्रधान बन जाने से गांव में सवर्ण-दलित संघर्ष और गहरा गया। फगना ने केंद्र तक के दलित नेताओं तक पहुंच बना ली तो रामसिंह ने सवर्ण नेताओं से। दोनों अपने नेताओं को गांव में लाकर सभाएं कराने लगे और गांव में अलग किस्म की जातीय राजनीति का उभार हुआ। दोनों तरफ गुण्डों की तादाद बढ़ गई और आए दिन संघर्ष होने लगा। रामसिंह पंचायत के पैसों से कागजों में गांव का विकास करता रहा और खुद भी माल हड़पता रहा। फिर चुनाव आए तो रामसिंह को लगा अब चुनाव जीतना आसान नहीं है तो उसने नई रणनीतियों पर सोचना शुरु कर दिया। ब्राह्मण-ठाकुरों की मीटिंगा बुलाकर पूछा कि क्या करना है। खुद चुनाव लड़ने से इन्कार कर दिया और कहा कि इस बार सब मिलकर तय करें। उसने अपने विश्वस्त चमार लच्छीराम का नाम चला दिया। चमार पहले तो खुश हुए फिर निराश कि इससे तो रामसिंह की ही सत्ता चलती रहेगी। उनमें दो गुट बन गये। रामसिंह के सिखाने से लच्छीराम का जोश दोगुना हो गया और वह अपने जाति भाइयों के कहने पर भी मैदान से नहीं हटा।
पर्चा दाखिल करने वाले दिन रामसिंह ने चुपके से अपने बेटे नाहरसिंह का भी फार्म भरवा दिया। आखिर में नाम वापस लेने के बाद तीन उम्मीदवार रह गये, नाहरसिंह, लच्छीराम और इतवारी चमार यानी दो दलित और एक सवर्ण। चुनाव का नतीजा तय था, क्योंकि रामसिंह ने खेल ही ऐसा खेला था। चमारों के वोट बट गये और नाहरसिंह अपने दादा और पिता की परंपरा आगे बढाता हुआ प्रधान बन गया। आजादी से पहले उसका दादा गांव का मुखिया था और अब तीसरी पीढी में वह था। यह सिलसिला खत्म नहीं हुआ ना? जब तक इस नाटक का पटाक्षेप नहीं होगा, समाज नहीं बदलेगा।
कहानी अंश
मैंने पहले ही कहा कि यह एक गांव की कहानी है और इसमें कोई पात्र नहीं है। पर जो लोग इस कहानी में विद्यमान हैं, उन्हें इसी गांव का कैसे कहूं। वैसे वे लोग इस गांव के हिस्से भर हैं। रामनेर गांव की यह कहानी एक अनवरत चलने वाला नाटक है। पर यह नाटक नहीं है, कहानी है। इस नाटक की शुरुआत भारत को आजादी मिलने के बाद शुरु हुई थी और नाटक बराबर चल रहा है, बिना किसी पटाक्षेप के।
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पर यह भी तो अंतिम चुनाव नहीं था और रामनेर में समतावादी समाज की स्थापना का सिलसिला जारी था। सिलसिला तो जारी रहना चाहिए-आजादी से पहले केसरीसिंह रामनेर का मुखिया था। आजादी के बाद उसका पुत्र रामसिंह तीन बार रामनेर गांव का प्रधान चुना गया, फिर रामसिंह के पुत्र नाहरसिंह ने प्रधान-पद का चुनाव जीता।
पर यह सिलसिला खत्म नहीं हुआ न? इस नाटक का पटाक्षेप नहीं होगा, तभी तो यह समाज बदलेगा।






लेखक परिचय






जन्म:15, जनवरी, 1937


प्रकाशित कृतियाँ


कहानी संग्रह: तीन कमरों का मकान, ज़मीन से हटकर, चीफ साहब आ रहे हैं, तीर्थ यात्रा, सुबह-सुबह, पटाक्षेप नहीं होगा, रास्ते बंद नहीं होते।


उपन्यास: बनती बिगड़ती लकीरें


आलोचना: परिवेश की चुनौतियां और साहित्य, हिन्दी कहानी में मानव प्रतिमान, संस्कृति और साहित्य सहित कुल दस पुस्तकें।


व्यंग्य संग्रह: छिपाने को छिपा जाता


नाटक: आधार की खोज


सम्मान-पुरस्कार: राजस्थान साहित्य अकादेमी द्वारा 'कथा पुरस्कार' (अब रांगेय राघव पुरस्कार) और विशिष्ट साहित्यकार सम्मान

Sunday 7 June, 2009

डायन समाज में निर्भीक लेखन : कमला दास


भारतीय साहित्य में कमला दास उर्फ कमला सुरैया उर्फ माधवी कुटटी जैसी लेखिकाएं न होतीं तो शायद आधुनिक भारतीय महिला लेखन की वह तस्‍वीर भी नहीं दिखाई देती जिस पर आज का समूचा स्‍त्री-विमर्श गर्व करता है। एक साधारण गृहस्‍थ महिला अपनी सच्‍ची भावनाओं को जब अपनी पूरी ताकत और साहस के साथ लेखन में उतारती है तो साहित्‍य की दुनिया में तहलका मच जाता है। कमलादास का लेखन इसकी गवाही है, जिसने अपने दुस्‍साहस के चलते ना जाने कितनी बदनामियों के कलंक झेले, लेकिन अपने पथ से विचलित नहीं हुई। साहित्‍य की दुनिया में ऐसी महिलाओं को एक वक्‍त तक बेहद शंकालु दृष्टि से देखा जाता है और साधारण लोग तो इनके नाम से ही मुंह बिचकाते फिरते हैं। उत्‍तर भारत में ऐसा साहसिक लेखन उर्दू में डा. रशीद जहां ने किया था, जब उनकी प्रतिबंधित कहानियां लोग बंद कमरों में चोरी-चोरी पढते थे। कमला दास के नाम से अंगेजी में और माधवी कुटटी के नाम से मलयालम में लिखने वाली कमला सुरैया की अंग्रेजी और मलयालम दोनों भाषाओं में आत्‍मकथा जब छपी तो हंगामा मच गया था। अंग्रेजी में ‘माइ स्टोरी’ और मलयालम में ‘एंटी कथा’ खूब पढी गई और विवादों में भी रही। बाद में अंग्रेजी पुस्‍तक को उन्‍होंने स्‍वयं एक औपन्‍यासिक कृति कह दिया। यहां प्रस्‍तुत है उनकी मलयाली आत्‍मकथा का एक अध्‍याय-
ऐसे बहुत से कारण हैं कि मैं क्‍यों उन नैतिक मापदण्‍डों को अस्‍वीकार कर देती हूं जो समाज में आसानी से मान लिए जाते हैं। यह नैतिक दृष्टि नश्‍वर मानवीय देह से पैदा होती है। मेरा यकीन है कि आदर्श नैतिक दृष्टि, जिसका सम्‍मान किया जाना चाहिए, का निर्माण मनुष्‍य की आंतरिक आत्मा से होना चाहिए, और अगर कोई ऐसा करने में सामर्थ्‍यवान नहीं हो तो उसकी मानसिक चेतना से उसकी नैतिक दृष्टि का निर्माण होना चाहिए। मेरी नजरों में समाज एक डरावनी डायन है। वह अपने गर्म कम्‍बल में नफरत के सौदागरों, झूठों, विश्‍वासघातियों, लोभी-लालचियों और हत्‍यारों तक को बडे प्रेम से छुपा लेती है। जो लोग इस कंबल की आरामदेह गर्मी से नफरत करते हैं उन्‍हें बाहर ठिठुरने के लिए छोड दिया जाता है। अगर मैं झूठ बोलती, नकली चेहरा दिखाती, विश्‍वासघात करती और नफरत फैलाती तो मुझे भी नैतिकता के इस आरामदेह गर्म कंबल की पनाह मिल सकती थी। लेकिन तब मैं एक लेखिका नहीं होती। मेरे गले में अटकी सच्‍चाइयां कभी बाहर प्रकाश में नहीं आतीं। एक लेखक की पहली और सबसे बडी शर्त यही है कि वह अपने आपको उन कसौटियों पर खरा उतारे, जो वह समाज से चाहता है, यानी स्‍वयं को उस चूहे के रूप में रखे जिस पर परीक्षण किये जाते हैं। उसे जिंदगी के अनुभवों से कभी नहीं भागना चाहिए। उसे अपने आपको कुहरे की ठिठुरन और आग की आंच के सामने खडा कर देना चाहिए। उसके पांवों को कभी आराम नहीं करना चाहिए। वो तो उसे हत्‍यारे की मांद तक ले जाते हैं। उसकी इंद्रियों को बस जरा-सा आराम मिलता है। वो हंसेगा, शराब पियेगा, प्रेम करेगा, बेहोश पडा रहेगा, बुरी तरह बीमार होगा और फूट-फूट कर रोएगा। उसका प्रमुख काम है मानवीय जीवन के अनचीन्‍हे पहलुओं को संजोकर रखना। यह मानव देह आखिरकार एक दिन या तो आग की शिकार होनी है या फिर धरती के कीटाणुओं की। मनुष्‍य इस पृथ्‍वी का शिकार है। यह धरती मानव की मांस-मज्‍जा से ही खुराक लेती है। लेकिन मनुष्‍य के शब्‍द अमर होने चाहिएं। इंसान बोलता है, लेकिन अवसर आने पर उसे सच्‍चाई नहीं निगल जानी चाहिए।
एक लेखक कौन होता है, वो जिसने अपनी अंगूठी बदल ली है और भविष्‍य के साथ मंगनी कर ली है। वह आपसे नहीं आपकी आने वाली पीढियों से संवाद करता है। उसके मस्तिष्‍क में ज्ञान है, समझ है, इसीलिए वह उस वक्‍त भी चुप नहीं होता, जब आपके फेंके पत्‍थरों से उसका शरीर लहूलुहान और घायल जाता है।
कुछ लोगों ने मुझे कहा कि इस तरह की आत्‍मकथा लिखना, पूरी ईमानदारी के साथ, कुछ भी नहीं छुपाना, एक प्रकार से एक-एक कर अपने ही कपडे उतारने जैसा काम है, यानी स्‍ट्रिपटीज। यह सच हो सकता है। मैं सबसे पहले अपने कपडे और गहने उतार कर रख दूंगी। फिर मेरी इच्‍छा है कि मैं इस हल्‍की भूरी त्‍वचा के छिलके उतारकर रख दूं और फिर अपनी अस्थियों को चकनाचूर कर डालूं। आखिर में मुझे पूरी उम्‍मीद है कि आप मेरी बेघर, अनाथ और बहुत ही सुंदर उस आत्‍मा को देख सकेंगे, जो अस्थियों और मांस-मज्‍जा के कहीं बहुत गहरे भीतर तक धंसी हुई है, यानी आप चौथे आयाम में मेरी आत्‍मा देख सकेंगे। मैं आपके सामने अपनी इस चमकीली-रंगीन, कोमल, कांतिवान, गर्म देह को नहीं रखना चाहती, क्‍योंकि यह तो सिर्फ एक कवच है, महज खोल है। यह एक जीवंत गुडिया है, जो खेलती है, बातें करती है, अभिनय करती है। इसकी गतिविधियां उतनी ही बेमानी हैं जितनी गुडिया की। लेकिन मेरी अदृश्‍य आत्‍मा आपसे पूछना चाहती है कि क्‍या आप मुझे प्रेम करने के काबिल होंगे, क्‍या आप मुझे उस दिन प्रेम करने के लायक होंगे जब मैं इस देह को उतार फेंकूंगी जो सिर्फ एक आवरण है... आप सिर हिला रहे हैं, यह असंभव है। इसकी अहमियत सिर्फ तभी तक है जब तक ये कपडे और गहने हैं। उतार दीजिए इन उन्‍नत उरोजों को, हटा दीजिए इन रेशमी जुल्‍फों को और महकती जघन रोमावलियों को... जो हमारी आंखें में बसी हैं, फिर क्‍या बच जाता है हमारे सामने, एक ऐसा आकार जिसकी हमें कोई जरूरत ही नहीं। यह बहुत ही कारूणिक है, वह आत्‍मा... लेकिन मैं फिर भी कोशिश करूंगी। आखिरकार जब पाठक अंत में मेरी आत्‍मा से मिल लेगा, तो मुझे यकीन है कि वह मिलन एक पवित्र, बेदाग मिलन होगा, जैसे किसी भटकते हुए राही को घूमते-घूमते, थकान और प्‍यास से बेजार होने के बाद घने जंगल में मीलों लंबे सफर के बाद एक पवित्र आशियाना कहीं दूर दिखाई दे जाए और वह एकदम से चौंक पडे।
हम लोगों ने जून के महीने में सागर के पास एक धनुस्‍त्रा नामक परिसर में रहना शुरू किया था। यहां चमकीला नीला आकाश था, लाल गुलमोहर और पीली तितलियां थीं। उस डेढ एकड के कंपाउण्‍ड में समुद्र की ओर देखते दो छोटे-छोटे घर थे और सडक की ओर देखती एक छह मंजिला इमारत थी। इन घरों और इमारत के बीच के फासले तथा पश्चिम की ओर समुद्र तक जाती राह के बीच चमकती लाल बजरी बिछी थी। जब कोई उधर से गुजरता तो मुझे दूसरे छोटे घर के अपने कमरे में उसकी पदचाप सुनाई देती, जहां मैं लेटकर कोई उपन्‍यास पढ रही होती। मेरे बैडरूम के पश्चिम में खिडकी के पास नंदायरवत्‍तम की एक विशाल सुंदर झाडी थी, जिसके फूलों की महक कई दिनों तक मेरे कमरे में बसी रही।
सामने बैडमिंटन खेलने के लिए एक लॉन था। इसके चारों ओर मेंहदी की बाड थी, करीने से कटी हुई। साफ-सुथरी क्‍यारियों में गुलमेंहदी उगी हुई थी। पीली तितलियां वहां से सुबह ग्‍यारह बजे गुजरतीं। मेरा दूसरा बेटा प्रियदर्शन अपनी गहरी हरी कमीज में उन्‍हें पकडने के लिए दौडता, उन दिनों की मीठी यादें मुझे आज भी याद आती हैं। चौकोर आंगन में बोगनबेलिया और रंगून की बेल की छाया दोनों दीवारों पर पडती थी। मैंने वहां पीतल का एक लैंप लटका दिया था। एक दिन जैसे ही मैं गोधूलि के वक्‍त सबसे ऊपरी सीढी पर जाकर बैठी, भूरी आंखों वाला वो नौजवान मुझ तक आया और मेरे पांवों के पास बैठ गया। मैं उसके गुलाबी होंठों को कसकर चूमना चाहती थी। मैंने देखा कि बोलते हुए उसके होंठ कांप रहे थे।
‘क्‍या तुम मुझसे प्रेम करने लगे हो ?’ मैंने हंसते हुए उससे पूछा। उसने मेरी साडी की सलवटों में अपना चेहरा छुपा लिया। मेरे बच्‍चे खेलने के लिए दौडे जा रहे थे। भीतर ड्राइंग रूम में एक मेज लगाए सोफे पर मेरे पति अपनी फाइलों में व्‍यस्‍त थे...
मेरा सबसे बडा बेटा मोनू दो-तीन दिन से बुखार में पडा था, उसने बिस्‍तर से डठने की कोशिश की और गिर पडा। मैंने तुरंत बच्‍चों के डॉक्‍टर को बुलाया कि कहीं उसे पोलियो तो नहीं हो गया। बिना देर किये मैं उसे अस्‍पताल ले गई। डॉक्‍टर ने कहा कि ये पोलियो के प्रारंभिक लक्षण हैं। एकमात्र इलाज यह है कि इसके हाथों और पांवों का तापमान बढाया जाए। मैं निढाल हो गई, मुझे अपने छोटे बेटे और पति की याद आने लगी, अस्‍पताल में हर तरफ अव्‍यवस्‍था थी। मैं अपना भी मानसिक संतुलन खो चुकी थी। मैं किसी भी वक्‍त फूट-फूट कर रोने के लिए तैयार थी। मेरे छह साल के बेटे ने कई बार मुझसे पूछा:
‘अम्‍मा, आप क्‍यों रो रही हैं?‘
एक दिन मेरा खूबसूरत नौजवान दोस्‍त मुझसे मिलने अस्‍पताल आया। मेरा बेटा सो रहा था। मुझे उसका आभार जताने के लिए शब्‍द नहीं मिल रहे थे। उसने मेरी धार-धार बहती आंखें को चूम लिया।
‘आमी, आई लव यू।‘ उसने कहा। मैं उसके सीने में अपना चेहरा छुपाकर रोने लगी।
‘सब कुछ ठीक हो जाएगा, माइ डार्लिंग।‘ वह बडबडाया।
वो मेरा कौन था? वो मुझसे क्‍या चाहता था? वो नौजवान, जिसने उन गर्मियों में जब गुलमोहर धधक रहे थे, मेरी वेणी में नंदायरवत्‍तम की शीतल कलियां सजाईं थीं। अक्‍सर जब मैं उसके बिल्‍कुल पास खडी हो जाती, देह का दबाव देह पर पडता और आंखें नम होने लगतीं, मैं उससे कहती, ‘तुम जो चाहो कर सकते हो, मैं तुम्‍हारी हूं।‘
लेकिन वो इन्‍कार में सिर हिलाकर कहता, ‘मेरी नजरों में तुम एक देवी हो। मेरे लिए तुम्‍हारी देह पवित्र है। मैं इसका अपमान नहीं करूंगा...’
जब हम बाहर निकलकर उजाले में आते और बेमकसद घूमने लगते तो सांझ का ढलता हुआ सूरज उसकी भूरी आंखों में चमकने लगता। हमारे पास शांत एकांत की कोई जगह नहीं थी। जैसे ही हम हाथ में हाथ थामे सूरज की रोशनी में चलने लगते तो ऐसा लगता जैसे हम जन्‍नत के बाशिंदे हैं। ऐसे देवता जिन्‍हें गलती से इंसानों की दुनिया में भेज दिया गया है।