Sunday 23 August, 2009

प्रतिरोध का कवि : आक्तोविया पाज


भारत में जिन विश्‍वविख्‍यात साहित्‍यकारों को बेहद आत्‍मीयता के साथ जाना जाता है, उनमें मेक्सिकन कवि ऑक्‍टोविया पाज का नाम बड़े आदर के साथ लिया जाता है। इसके दो कारण हैं, पहला तो यह कि वे भारत में मेक्सिको के राजदूत रहे और दूसरा यह कि भारतीय दर्शन, परंपरा और संस्‍कृति को आत्‍मसात कर पाज ने विश्‍व कविता को उस शिखर पर प्रतिष्ठित किया, जहां उन्‍हें भारतीय मूल्‍यों के संवाहक के रूप में जाना गया। 1990 में जब पाज को नोबल पुरस्‍कार से सम्‍मानित किया गया तो किसी को आश्‍चर्य नहीं हुआ, क्‍योंकि वे इसके स्‍वाभाविक हकदार थे।
31 मार्च, 1914 को जन्‍मे आक्‍टोविया पाज को साहित्‍य विरासत में मिला था। इनके नाना आइरिनियो पाज खुद एक प्रतिष्ठित बुद्धिजीवी, उपन्‍यासकार और प्रकाशक थे। आक्‍टोविया पाज का बचपन अपने ननिहाल में बीता, जहां नाना की विशाल लाइब्रेरी में वे क्‍लासिकी मेक्सिकन और यूरोपियन साहित्‍य में डूबे रहते थे। बचपन के इसी अध्‍ययन और किताबी सोहबत का असर था कि मात्र सत्रह साल की उम्र में उनका पहला काव्‍य संग्रह प्रकाशित हुआ और दो साल बाद दूसरा संग्रह आया। तेइस साल की उम्र में पाज ने अपनी कानून की पढ़ाई छोड़ दी और मेरिदा जाकर किसान और मजदूरों के बच्‍चों के स्‍कूल में जाकर पढाने लगे। इसी वर्ष उन्‍हें फासिस्‍ट विरोधी लेखक सम्‍मेलन का निमंत्रण मिला और स्‍पेन के गृह युद्ध के उन दिनों में भी वे बेखौफ होकर गए। लौटकर पाज ने ‘टालर’ अर्थात् ‘कार्यशाला’ नामक पत्रिका निकाली और 24 की उम्र में एलेना गैरो से विवाह किया। इस विवाह से एक पुत्री का जन्‍म हुआ। 1959 में उनका तलाक हो गया।
1943 में पाज को प्रतिष्ठित गगनहेम फैलोशिप से नवाजा गया और वे बर्कले स्थित कैलिफोर्निया विश्‍वविद्यालय में पढने चले गए। दो साल बाद वे मेक्सिको की राजनयिक सेवा में चले गए जिसमें उन्‍हें पहले अमेरिका और फिर पेरिस भेजा गया। पेरिस प्रवास के दौरान पाज ने मेक्सिकन अस्मिता और विचार को लेकर अत्‍यंत महत्‍वपूर्ण पुस्‍तक ‘लेबरिंथ आफ सॉलिट्यूड’ लिखी। 1952 में वे पहली बार भारत आए और यहां के साहित्‍य, संस्‍कृति और दर्शन से बेहद प्रभावित हुए। सेवाकाल में कई देशों में प्रवास करते हुए 1962 में पाज भारत में मेक्सिको के राजदूत नियुक्‍त हुए। यहां रहते हुए उन्‍होंने कविता लिखने के साथ-साथ कई महत्‍वपूर्ण पुस्‍तकें लिखीं। इनमें ‘द मंकी ग्रामेरियन’ और ‘ईस्‍टर्न स्‍लोप’ प्रमुख हैं। भारत में वे बंगाल की ‘भूखी पीढी’ के लेखकों के संपर्क में आए और उन पर जबर्दस्‍त प्रभाव छोड़ा। बांग्‍ला से शुरू हुआ ‘भूखी पीढी’ के लेखकों के इस आंदोलन का मुख्‍य नारा था कि साहित्‍य, कला और संस्‍कृति को उपनिवेशवादी विचारों से मुक्‍त कराया जाए और पाठक की चेतना को झकझोर देने वाले ऐसे साहित्‍य का सृजन किया जाए कि नई सोच और मानसिकता का निर्माण हो। यह आंदोलन बांग्‍ला से चलकर हिंदी, मराठी, असमिया, तेलुगू और उर्दू में भी जबर्दस्‍त लोकप्रिय हुआ। पाज भी इस आंदोलन से प्रभावित हुए और भारत को लेकर बहुत सी कविताएं लिखीं। सरकार ने इस पीढी के कई लेखकों को जेल में डाल दिया था और पाज ने उनकी रिहाई के लिए तीन साल तक बहुत प्रयास किए। भारत विषयक पाज की कविताओं में से चुनिंदा कविताओं का हिंदी में प्रयाग शुक्‍ल ने अनुवाद किया, जो साहित्‍य अकादमी ने प्रकाशित किया। हिंदी और भारतीय भाषाओं में ऑक्‍टोविया पाज की कविताओं का खूब अनुवाद हुआ है और कई संकलन प्रकाशित हुए हैं।
1968 में मेक्सिको में वास्‍तविक लोकतंत्र की मांग कर रहे हजारों विद्यार्थियों पर का आंदोलन जब नहीं थमा तो सरकार ने सेना भेज दी और सेना ने गोलियां चला कर हजारों छात्रों को मार डाला। ऑक्‍टोविया पाज इससे बेहद नाराज हुए और विरोध में अपने पद से इस्‍तीफा दे दिया और पेरिस में जाकर शरण ली। 1969 में वे वापस मेक्सिको लौटे और ‘प्‍लुरल’ ( क्या आपको 'बहुवचन' की याद आ रही है?) पत्रिका शुरू की। 1970 से 1974 के दौरान वे हार्वर्ड विश्‍वविद्यालय की चार्ल्‍स नॉर्टन पीठ में पढाने गए और इस दौरान पढाए गए विविध व्‍याख्‍यान ‘चिल्‍ड्रन ऑफ मीर’ पुस्‍तक के रूप में सामने आए। 1975 में सरकार ने ‘प्‍लुरल’ पर प्रतिबंध लगा दिया तो पाज ने नई पत्रिका शुरू की ‘व्‍यूएल्‍टा’। इसी शीर्षक से पाज ने 1969 से 1974 के बीच लिखी कविताओं का एक संकलन भी प्रकाशित किया। इस पत्रिका को स्‍पेनिश संस्‍कृति की असाधारण घटना मानते हुए पुरस्‍कृत भी किया गया। इस पत्रिका में पाज ने कम्‍युनिस्‍ट शासन के दौरान मानवाधिकारों के उल्‍लंघन को बड़ा मुद्दा बनाया और तत्‍कालीन कम्‍युनिस्‍ट देशों में स्‍तालिनवादी तानाशही की प्रवृति का जबर्दस्‍त विरोध किया। पाज खुद को एक लोकतांत्रिक उदार वामपंथी मानते थे और कट्टर वामपंथ का विरोध करते थे। पाज मृत्‍युपर्यन्‍त इस पत्रिका के संपादक रहे। 1990 में जर्मनी में बर्लिन की दीवार गिरने के बाद पाज और उनकी पत्रिका के सहयोगियों ने अनेक अंतर्राष्‍ट्रीय वामपंथी लेखकों को इस परिघटना पर बात करने के लिए मेक्सिको बुलाया। 1974 में पाज को साहित्‍य में वैयक्तिक स्‍वतंत्रता के लिए यरूशलम प्राइज प्रदान किया गया। 1980 में पाज को हार्वर्ड विश्‍वविद्यालय ने मानद डॉक्‍टरेट प्रदान की और 1982 में ओकलाहोमा विश्‍वविद्यालय ने ‘न्‍युस्‍टेड अवार्ड’ प्रदान किया, जिसे नोबल पुरस्‍कार के बाद सबसे बड़ा पुरस्‍कार माना जाता है। 1998 में कैंसर से पाज का निधन हुआ।
पाज की कविता पर मार्क्‍सवाद, अस्तित्‍ववाद, बौद्ध और हिंदू दर्शन का गहरा प्रभाव था। उनकी कविता में प्रेम, आवेग, समय की प्रकृति और बौद्ध दर्शन का अद्भुत संयोजन दिखाई देता है। आधुनिक चित्रकला से पाज को गहरा लगाव था और उन्‍होंने अपने प्रिय चित्रकारों के चित्रों पर विपुल मात्रा में कविताएं लिखीं। लेकिन उनकी कविता और लेखन का सबसे ताकतवर पहलू है उनका तीव्र प्रतिरोध, जिसमें वे हमेशा मनुष्‍य की पूर्ण स्‍वतंत्रता, वैयक्तिक आजादी की बात करते हैं और इस पर किसी भी प्रकार के अंकुश और दमन का विरोध करते हैं। इसके लिए वे अपनी ही सरकार के खिलाफ खड़े हो जाते हैं और राजदूत जैसे पद को भी ठुकरा देते हैं। ऐसा प्रतिरोधी स्‍वर आपको विश्‍व साहित्‍य में कम ही देखने को मिलता है। नोबल पुरस्‍कार समारोह में पुरस्‍कार देते वक्‍त उनके इस प्रतिरोधी स्‍वर को रेखांकित करते हुए कहा गया कि पाज ने हमेशा ‘झुकने से इन्‍कार किया’ और यही उनके व्‍यक्तित्‍व को बड़ा बनाता है।
पाज कवि के अलावा बहुत गहरे चिंतक और समाजशास्‍त्री भी थे। उनके निबंधों की कई किताबें प्रकाशित हुई हैं, जिनमें ‘ऑन पोएट्स एंड अदर्स’ बहुत महत्‍वपूर्ण है। ऑक्‍टोविया पाज भाषा और सांस्‍कृतिक अस्मिता को लेकर बेहद सजग लेखक थे। इस पुस्‍तक में वे कहते हैं कि किसी भी समाज का सांस्‍कृतिक पतन उसकी भाषा के पतन से होता है, अगर भाषा को लेकर समाज सजग नहीं है तो उसका सांस्‍कृतिक पतन बहुत तेजी से होता है। नोबल पुरस्‍कार ग्रहण करते हुए पाज ने महज तीन मिनट के अपने भाषण में ढेर सारे महत्‍वपूर्ण सवाल खड़े करते हुए विश्‍व समुदाय से पूछा कि हम कब वास्‍तविक अर्थों में एक आधुनिक और सच्‍चे लोकतांत्रिक समाज का निर्माण कर पाएंगे, जो हमारी सांस्‍कृतिक परंपराओं के अनुकूल हो और जिसमें मनुष्‍य को पूर्ण स्‍वतंत्रता के साथ जीने के लिए पर्याप्‍त संसाधन उपलब्‍ध हों। पाज ने कहा, ‘सितारे, पर्वत-पहाड़, बादल, वृक्ष, पशु-पक्षी, झींगुर, मनुष्‍य सबकी अपनी दुनिया है, ये सब अपने आप में एक दुनिया है और एक दूसरे से इनका संबंध है। हम जीवन को तभी बचा पाएंगे जब हम यह महसूस करेंगे कि प्रकृति के साथ हमारा रिश्‍ता कितना गहरा और मजबूत बनता है। यह असंभव नहीं है। धर्म और विज्ञान की दुनिया में, उदारवाद और समाजवाद की परंपरा में ‘भ्रातृत्‍व‘ एक पुराना और बेहद उपयोगी शब्‍द है।‘ पाज के साहित्‍य में हमें उसे फिर से पुनर्जीवित करने की बराबर प्रेरण मिलती है। प्रस्‍तुत है उनकी एक छोटी-सी कविता-
स्‍पर्श
मेरे हाथ तुम्‍हारे होने के परदों को खोलते हैं
और अगली किसी नग्‍नता में कपड़े पहनाते हैं
तुम्‍हारी देह से देहों को निर्वसन करते हैं
मेरे हाथ
तुम्‍हारी देह के लिए
एक नई देह ईजाद करते हैं
(राजस्थान पत्रिका के रविवारीय अंक में २३ अगस्त, २००९ को प्रकाशित.)

Saturday 15 August, 2009

प्रतिबंध तो है



‘चरणदास चोर’ को लेकर प्रतिबंध की बात जहां से शुरू हुई थी, वह अत्यन्त दुर्भाग्यपूर्ण थी, इसलिए कि छत्तीसगढ़ सरकार के किसी नुमाइंदे ने इसका प्रतिवाद नहीं किया कि सरकार ने नाटक पर कोई प्रतिबंध नहीं लगाया। जब यह खबर अंग्रेजी अखबारों में छपी और इसके विरोध में बुद्धिजीवी, कलाकारों, साहित्य्कारों और संस्कृतिकर्मियों ने आवाज उठाई तब छत्तीसगढ़ सरकार माउण्ट आबू में ‘राजयोग’ कर रही थी। जहां तक मेरी जानकारी है, सरकार की ओर से इतने विरोध प्रदर्शन के बावजूद कुछ भी नहीं कहा गया है। निश्चय ही यह बेहद दुखद है। इस प्रकरण में सबसे पहले रविवार डॉट कॉम में राजेश अग्रवाल ने खुलासा किया और बताया कि ‘चरणदास चोर’ नाटक पर छत्तीसगड में कोई प्रतिबंध नहीं है। इतना अवश्य है कि राज्ये के सरकारी स्कूलों में पुस्तक वाचन कार्यक्रमों में इस किताब के वाचन पर प्रतिबंध है।
इस पूरे प्रकरण पर प्रसिद्ध कथाकार उदय प्रकाश ने भी तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की। लेकिन कबाड़खाना में अशोक पाण्डे ने वाणी प्रकाशन से प्रकाशित इस नाटक की भूमिका का एक अंश पोस्ट कर इस बात की ताईद की है कि हबीब साहब सतनामी समुदाय के प्रति कितना गहरा प्रेम रखते थे। सतनामी गुरू बालदास की यह आपत्ति स्वाभाविक है कि इस भूमिका में सतनामी पंथ के आदिगुरू घासीदास को डाकू बताया गया है।
दरअसल सभी समुदायों और पंथों में आजकल एक नई धारा चल पड़ी है कि इतिहास का पुनर्लेखन किया जाए और इसे शुद्ध बनाया जाए। इस शुद्धतावादी आंदोलन में अपने इतिहास पुरूषों को महानायक बनाया जा रहा है और ज्ञात-अज्ञात गुरू महात्माओं की रचना की जा रही है। दलित, वंचित और आदिवासी समुदाय इसमें सबसे आगे हैं। क्यों कि सवर्णों के लिखे इतिहास में अधिकांश दलित-आदिवासी गुरू चोर-डाकू-लुटेरे बताए गए हैं। कोई भी समाज अपने आदर्शों को इस रूप में नहीं देखना चाहता। छत्तीसगढ़ के शिक्षा विभाग को इस नाटक के वाचन पर प्रतिबंध लगाने की बजाय भूमिका से इस वाक्यांश को विलोपित करने का आदेश देना चाहिए था। लेकिन हमारे देश में सब जगह नीम हकीम हैं जो रोग ठीक करने के स्थान पर पुराने जर्राह की तरह अंग काटना उपायुक्त समझते हैं।
अब भी समय है, सरकार को चाहिए कि इस गलती को दुरूस्त कर दिया जाए, ताकि विद्यार्थियों को एक अच्छा नाटक पढने-सुनने को मिलता रहे।
मुझे यह पोस्ट लिखने के लिए ब्लॉगर मित्र वाणी शर्मा ने प्रेरित किया। उनके प्रति कृतज्ञता स्वरूप ही लिखी गई यह पोस्ट‍ उन्हीं को समर्पित है।
(इस पोस्ट में रविवार, कबाड़खाना और उदय प्रकाश के लिंक पढने के लिए रेखांकित टेक्स्ट को क्लिक करें, जो नीले रंग में है।)

Sunday 9 August, 2009

विरोध तो हमको करना ही होगा


हबीब तनवीर के बहुचर्चित नाटक ‘चरणदास चोर’ पर छत्‍तीसगढ सरकार ने प्रतिबंध लगा दिया है। सतनामी समाज के गुरू बालदास जी की मांग थी कि इसे प्रतिबंधित किया जाए। सरकार किसी धर्मगुरू को नाराज नहीं करना चाहती इसलिए तुरंत मांग पूरी कर दी। अंग्रेजों के बनाए कानून ड्रामेटिक परफार्मेंस एक्‍ट 1876 को भारत ही नहीं पाकिस्‍तान तक में जब चाहे कलाकारों पर लागू करते हुए अभिव्‍यक्ति की आजादी पर प्रतिबंध लगा दिया जाता है। उसी काले कानून को छत्‍तीसगढ सरकार ने ‘चरणदास चोर’ पर लगा दिया, जैसे इस नाटक से पता नहीं क्‍या हंगामा मच जाएगा। पिछले पैंतीस बरसों में इसके सैंकड़ों राष्‍ट्रीय और अंतर्राष्‍ट्रीय प्रदर्शन हुए होंगे, कई तो खुद सरकारों ने आयोजित किए होंगे, लेकिन किसी को आपत्ति नहीं हुई। लगता है गुरू बालदास को कोई आकाशवाणी हुई होगी और रमन सरकार ने उसे मानते हुए राष्‍ट्रहित में कदम उठाते हुए यह पुण्‍य काम किया होगा। अब आराम से धर्म की ध्‍वजा फहरेगी और देश आगे बढेगा।

इस ब्रिटिश कानून को रद्द करने के लिए कई बार लिखा जा चुका है, लेकिन कुछ नहीं हुआ। एक बार मैंने सांसद, अभिनेता राज बब्‍बर से भी इस बारे में कहा था, उन्‍होंने आश्‍वासन दिया, लेकिन कुछ नहीं हुआ। 16 अगस्‍त, 2005 को फिरोजाबाद सुरक्षित सीट से चुने गए सपा सांसद रामजी लाल सुमन ने लोकसभा में इस कानून को रद्द करने की मांग की थी, उसके बाद आज तक लोकसभा में किसी ने इस पर चर्चा नहीं की। 2001 में बांग्‍लादेश में इस कानून को रद्द कर दिया गया। पाकिस्‍तान में तो आए दिन सरकार कलाकारों को इस कानून से हांकती रहती है।
किसी नाटक के प्रदर्शन से सरकार पैंतीस साल बाद खफा होती है तो इसे क्‍या कहा जाए। गुरू बालदास ने 2004 में प्रतिबंध की मांग की थी और पांच साल बाद, हबीब साहब की मौत के बाद, सरकार ने रद्दी की टोकरी से मांग निकाल कर पूरी कर दी। चरणदास चोर ने प्रतिज्ञा की थी कि वह जिंदगी में कभी झूठ नहीं बोलेगा, इसीलिए उसकी जान चली गई। सतनामी गुरू और प्रदेश सरकार की शायद यही मंशा रही हो कि अब इस संदेश की कोई जरूरत नहीं है, लोगों को झूठ बोलने की आजादी होनी चाहिए। इसलिए नाटक पर प्रतिबंध लगा दिया।
इस पर जनसंस्‍कृति मंच के महासचिव प्रणय कृष्‍ण ने जो प्रतिक्रिया की है, उसे ध्‍यान में रखते हुए मेरा मानना है कि इसका व्‍यापक विरोध होना चाहिए। विरोध तो हमको करना ही होगा, क्‍योंकि बकौल फैज़ अहमद फैज़,
बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे
बोल ज़बां अब तक तेरी है
तेरा सुतवां जिस्‍म है तेरा
बोल कि जां अब तक तेरी है
देख कि आहंगर की दुकां में
तुंद हैं शोले सुर्ख हैं आहन
खुलने लगे क़ुफलों के दहाने
फैला हर इक ज़ंज़ीर का दामन
बोल ये थोड़ा वक्‍त बहुत है
जिस्‍म-ओ-ज़ुबां की मौत से पहले
बोल कि सच जि़ंदा है अब तक
बोल जो कुछ कहना है कह ले

Wednesday 5 August, 2009

शिल्पा शेट्टी का चुंबन ले रहे हैं बाबाजी




नाग पंचमी के दिन शिल्‍पा शेट्टी एक मंदिर में पूजा करने गईं। पुजारी ने उन्‍हें किस तरह आशीर्वाद दिया, इसे वनइंडिया इन वेबसाइट ने उजागर किया है। इस पोस्‍ट के शीर्षक को क्लिक कर आप सीधे भी ये तस्‍वीरें देख सकते हैं।


जब रिचर्ड गेर ने शिल्‍पा का चुंबन लिया था तो जबर्दस्‍त हंगामा हुआ था। अब इसे आशीर्वाद बताया जा रहा है। फिलहाल तो आप तस्वीरें देखिये और ख़ुद ही सोचिये।


Tuesday 4 August, 2009

जोस सारामागू की कल्पंनाशील दुनिया


पुर्तगाल का भारत से गहरा रिश्‍ता रहा है और आज भी हमारी प्रचलित भाषा में गमला, गोभी, मस्‍तूल, आलमारी और गोदाम जैसे बहुत से शब्‍द हैं, जो पुर्तगाली मूल के हैं। पुर्तगाली भाषा की गरिमा को वैश्विक स्‍तर पर पहली बार तब पहचाना गया जब 1998 में जोस सारामागू को पुर्तगाली भाषा का पहला और अभी तक का आखिरी नोबल पुरस्‍कार दिया गया। गरीबी में पले-बढ़े इस महान रचनाकार को जब नोबल पुरस्‍कार की सूचना मिली तो उनकी पहली प्रतिक्रिया थी कि मैं इस यश के लिए पैदा नहीं हुआ था। जिसने अपने बचपन के दिन खुले आकाश में पेड़ की छांव में सोकर बिताए हों और अपने ननिहाल में अनपढ़ नाना-नानी के साथ सुअर पालते हुए बचपन जीया हो उस बालक के लिए नोबल पुरस्‍कार की कल्‍पना उतनी ही कठिन है, जितनी सारामागो के उपन्‍यासों की काल्‍पनिक दुनिया। सारामागो को सिर्फ आर्थिक अभावों के कारण प्रारंभ में भाषा और साहित्‍य के बजाय मैकेनिकगिरी सीखनी पड़ी। दो साल तक कार मैकेनिक का काम करने के बाद जोस सारामागो ने अनुवाद का काम किया। शुरूआती दौर में उन्‍हें अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा, कई नौकरियां छूटी, लेकिन अंतत: वे पूर्णकालिक लेखक हो ही गए। कविताओं से लेखन की शुरूआत कर सारामागो ने कहानियां लिखते हुए उपन्‍यास की दुनिया में प्रवेश किया तो पुर्तगाली भाषा को जैसे अपनी जड़ों से जुड़ा अद्भुत किस्‍सागो मिल गया। फंतासी रचने और उसे समकालीन बना देने का जैसा कौशल जोस सारामागो के पास वह विश्‍व साहित्‍य में दुर्लभ है। इसीलिए आलोचक उन्‍हें आज की दुनिया के सबसे प्रतिभावान जीवित उपन्‍यासकार कहते हैं। एक करोड़ की आबादी वाले पुर्तगाल में उनकी एक किताब की बीस लाख प्रतियां बिक जाती हैं, यह उनकी लोकप्रि‍यता का एक और सबूत है।
जोस सारामागो पहली बार 1986 में पुर्तगाली भाषा से बाहर ‘बाल्‍टासर एंड ब्लिमुण्‍डा’ उपन्‍यास का अनुवाद होने से चर्चा में आए। यह एक जबर्दस्‍त फंतासी से सराबोर प्रेमकथा थी, जिसे यूरोप और अमेरिका-लेटिन अमेरिकी देशों में बेहद पसंद किया गया और उनकी तुलना गेब्रिएल गार्सिया मारक्‍वेज से की जाने लगी। इसके बाद ‘स्‍टोन राफ्ट’ उपन्‍यास अंग्रेजी में आया तो तहलका मच गया। इस उपन्‍यास में उन्‍होंने कल्‍पना की थी कि आईबेरिया प्रायद्वीप यूरोप से अलग होकर अटलांटिक महासागर में चला जाता है और फिर शुरू होता है वहां के लोगों के जीवन का एक विचित्र संघर्ष, जिसमें जीवन और संबंधों को बचाना महत्‍वपूर्ण हो जाता है। इसी बरस उनका उपन्‍यास ‘द ईयर आफ द डेथ आफ रिकार्डो रीस’ भी प्रकाशित होकर चर्चित हुआ, जिस पर उन्‍हें दो प्रतिष्ठित पुरस्‍कारों से नवाजा गया। उनकी जबर्दस्‍त कल्‍पना शक्ति ने ‘ब्‍लाइंडनेस’ उपन्‍यास में एक ऐसे देश को प्रस्‍तुत किया, जहां सभी नागरिक अंधता की महामारी के शिकार हो जाते हैं। इसी प्रकार ‘डेथ विद इंटरप्‍शन्‍स‘ में वे एक ऐसे देश की चर्चा करते हैं, जहां सात महीने तक किसी की मृत्‍यु नहीं होती और लोग इस बात को सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक और आध्‍यात्मिक नजरियों देखते हुए चर्चा करते हैं कि अगर यही सब चलता रहा तो देश का भविष्‍य क्‍या होगा। लेकिन जोस सारामागो को विवादास्‍पद बनाया ‘द गोस्‍पेल अकॉर्डिंग टू जीसस क्राइस्‍ट’ उपन्‍यास ने। इसमें उन्‍होंने ईसा मसीह को दैवी चरित्र के बजाय एक साधारण मानव की तरह प्रस्‍तुत किया। इससे ईसाई समुदाय खासकर रोमन कैथोलिक चर्च के अनुयायी जबर्दस्‍त रूप से खफा हो गए और इसका परिणाम यह हुआ कि सरकार ने उपन्‍यास पर प्रतिबंध लगा दिया और जोस को पुर्तगाल छोड़कर स्‍पेन में शरण लेनी पड़ी। अभी भी वे स्‍पेन में ही रहते हैं और उनके साथ रहती हैं उनकी आधिकारिक अनुवादक पत्‍नी पिलर डेल रियो। स्‍पेनिश पत्रकार रियो से जोस ने 1988 में विवाह किया था। इससे पहले 1944 में ईदा रीस से विवाह किया था, इस विवाह से उन्‍हें एक बेटा हुआ।
अपने लेखन में मार्क्‍सवादी वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाते हुए सारामागो ने पुर्तगाल के लिखित इतिहास को मानवीय दृष्टि से अपने उपन्‍यास ‘द हिस्‍ट्री ऑफ द सीज ऑफ लिस्‍बन’ उपन्‍यास में फिर से लिखा और अपार लोकप्रियता हासिल की। यह उपन्‍यास कुछ साल पहले हिंदी में भी ‘लिस्‍बन की घेराबंदी का इतिहास’ शीर्षक से प्रकाशित हो चुका है। उनकी कुछ कहानियां भी हिंदी में आई हैं और उम्‍मीद है जल्‍द ही उनके अन्‍य उपन्‍यास भी हिंदी में प्रकाशित होंगे। अपनी तरह के इस अद्भुत किस्‍सागो के तमाम उपन्‍यासों में एक ऐसी काल्‍पनिक दुनिया देखने को मिलती है, जिसे हम बहुत करीब से जानते हैं, लेकिन यह लेखक की खासियत है कि वह उस जाने-पहचाने जगत को एक नई अज्ञात दुनिया की तरह पेश करता है। और जब पाठक उस दुनिया में दाखिल हो जाता है तो उसे समझ में आने लगता है कि लेखक ने यह काल्‍पनिक दुनिया क्‍यों बनाई और आखिर इस तरह वह क्‍या दिखाना चाहता है। दरअसल जोस का अधिकांश लेखन आज के नागर समाज में अकेले पड़ते जा रहे मनुष्‍य को लेकर है। वह मनुष्‍य जो आधुनिकता के मोहपाश में फंसा है और मनुष्‍य की स्‍वाभाविक सामाजिक होने की प्रवृत्ति के चलते अपने आसपास के लोगों से, समाज से और इतिहास व संस्‍कृति से जुड़ना चाहता है। यह उस अकेले पड़ गए एक मनुष्‍य की नहीं बल्कि पूरे नागर समाज की नियति है, जिसे सर्जनात्‍मक कल्‍पनाशीलता के साथ डील करते हुए जोस सारामागो हमारे समय के महाकाव्‍यात्‍मक उपन्‍यासों की रचना करते हैं। उनकी चिंता की केंद्रीय धुरी यह है कि क्‍या वर्तमान आर्थिक-राजनैतिक ढांचे के बाहर कहीं भी मनुष्‍य को कोई गरिमामय और अर्थवान जगह मिल सकती है।
जोस सारामागो कथा के लिहाज से ही प्रयोग नहीं करते बल्कि वो तो वाक्‍य विन्‍यास, पैरेग्राफ संरचना, संवादों की प्रस्‍तुति और संज्ञा, सर्वनाम तक में बहुत से प्रयोग करते हैं। उनके उपन्‍यासों में पैरेग्राफ बहुत लंबे होते हैं, कई बार तो एक पैरेग्राफ कई पृष्‍ठों का होता है। वे संवाद दर्शाने के लिए भी पैरा नहीं तोड़ते, जो कि एक आम चलन है, जोस तो बस वक्‍ता बदलने पर पहले अक्षर को कैपिटल कर देते हैं। संज्ञा या सर्वनाम की जगह वे पात्र की चारित्रिक विशेषताओं का सहारा लेते हैं।

जोस सारामागो पिछले 40 सालों से कम्‍युनिस्‍ट पार्टी के सक्रिय सदस्‍य हैं और लगातार यूरोपियन यूनियन और मुद्रा कोष की नीतियों की खिलाफत करते रहे हैं। फिलीस्‍तीन और लेबनान में इजराइल की गतिविधियों को लेकर सारामागो ने एक लंबा और अत्‍यंत विवादास्‍पद लेख लिखा, जिसमें इजराइल की यह कहकर खासी निंदा की कि इजराइल सिर्फ यहूदियों से घृणा के कारण यह सब कर रहा है। हाल ही में उन्‍होंने यूरोपियन यूनियन के चुनावों में हिस्‍सा लिया और हार गए। लेखन और राजनीति में समान रूप से सक्रिय जोस सारामागो जैसे लेखक हमारे समय में हैं यह विश्‍व साहित्‍य का सौभाग्‍य है, क्‍योंकि आज के वक्‍त में सच कहने वाले लेखक दिनोंदिन कम होते जा रहे हैं।

ज़रूरी तथ्‍य
जन्‍म – 16 नवंबर, 1922 को एक भूमिहीन किसान परिवार में
शिक्षा – स्‍नातक
पेशा – कार मैकेनिक से शुरू होकर पूर्णकालिक लेखन तक पहुंचा
राष्‍ट्रीयता – पुर्तगाली
पुरस्‍कार – पुर्तगाली पैन क्‍लब अवार्ड, इंडिपेंडेंट फॉरेन फिक्‍शन अवार्ड और 1998 में नोबल पुरस्‍कार
मुख्‍य कृतियां – कुल करीब पचास कृतियां, जिसमें तीन कविता संग्रह, अठारह किताबें कहानी-उपन्‍यास की, एक डायरी, सात निबंध संग्रह, पांच नाटक संग्रह और एक दर्जन के करीब अन्‍य पुस्‍तकें प्रकाशित।

Sunday 2 August, 2009

साहित्‍य में दोस्‍ती और लवलीन की अन्तिम कविता




साहित्‍य –संस्‍कृति की दुनिया में दोस्‍ती कुछ ज्‍यादा ही महत्‍व रखती है। वजह यह कि इन क्षेत्रों में काम भले ही व्‍यक्ति अकेले करता हो, मित्र समुदाय एक दूसरे को निखारने, संवारने और उत्‍साह बढाने में बेहद मददगार साबित होते हैं। बौद्धिक दुनिया में अब तक की सबसे महान दोस्‍ती का उदाहरण कार्ल मार्क्‍स और फ्रेडरिक एंगेल्‍स से बड़ा कोई नहीं मिलता। इन दोस्‍तों ने मिलकर जो काम किया उसे इस दुनिया के सबसे परिवर्तनकारी कामों में शुमार किया जाता है। जब मार्क्‍स का निधन हुआ तो उनकी शवयात्रा में बमुश्किल बीस लोग थे। उनमें एंगेल्‍स भी थे। अपने मित्र की मृत्‍यु पर बोलते हुए एंगेल्‍स ने जो कहा, वो आज भी प्रासंगिक है। एंगेल्‍स ने कहा था, ‘आने वाली दुनिया या तो मार्क्‍स के पक्ष में होगी या इसके खिलाफ, इसके सिवा कोई विकल्‍प नहीं होगा।‘
साहित्‍य की दुनिया में देखें तो सबसे बड़ी दोस्तियों में ज्‍यां पाल सार्त्र और सीमान दा बोउवा की दोस्‍ती रही। एक महान दार्शनिक और दूसरी स्‍त्री स्‍वाधीनता की प्रबल पक्षधर इन दो महान हस्तियों ने साहित्‍य की दुनिया की सबसे प्रसिद्ध मित्रता निभाई। जब सार्त्र ने सीमोन से पूछा कि तुम मुझसे शादी करना चाहती हो या जिंदगी भर की दोस्‍ती, तो सीमोन ने जवाब में दोस्‍ती मांगी और दोनों बिना शादी किये आजीवन साथ रहे। विश्‍व साहित्‍य में इस किस्‍म की दोस्तियों के अनेक उदाहरण मिल जाएंगे। हमारे यहां भी खासकर हिंदी उर्दू साहित्‍य में अपने समय की मशहूर हस्तियों ने जबर्दस्‍त दोस्तियां निभाई हैं और इनके विविध प्रसंगों को लेकर काफी लिखा गया है। खुद लेखकों ने एक दूसरे पर संस्‍मरण लिखते हुए दोस्‍ती का फर्ज अदा किया है। दोस्‍ती को साहित्‍य में परवान चढाने में डाक विभाग का सबसे ज्‍यादा योगदान है। पत्र लेखन से ही लेखक, बुद्धिजीवियों के बीच आपसी संवाद बढ़ा और संबंधों में मजबूती आई। यूं मित्रों के बीच पत्राचार की परंपरा हमारे यहां मिर्जा ग़ालिब के जमाने से चली आई है। उर्दू साहित्‍य में तो पत्रवाहक यानी कासिद के साथ महबूबा के चले जाने की भी परंपरा मिलती है। ग़ालिब का वो मशहूर शेर हर बार याद आता है,
कासिद के आते-आते खत इक और लिख रखूं
मैं जानता हूं वो जो लिखेंगे जवाब में
बहरहाल, उर्दू में मंटो पहले लेखक थे, जिनके साथ अपनी मित्रता को लेकर उनके परम मित्र उपेंद्रनाथ अश्‍क ने एक पूरी किताब लिखी ‘मंटो मेरा दुश्‍मन’। ये अपने वक्‍त की बेहद मशहूर किताब रही और हिंदी-उर्दू में इसको खूब सराहा गया। इस किस्‍म की किताबों से पाठकों को एक लेखक के व्‍यक्तित्‍व के अनेक पहलुओं का पता चलता है। इसी तरह उर्दू अदब में जोश मलीहाबादी की किताब ‘यादों की बारात’ अपने वक्‍त की सबसे मशहूर किताबों में शुमार की जाती है जिसमें जोश ने अपनी आत्‍मकथा लिखते हुए अपनी जबर्दस्‍त दोस्तियों का भी खासा जिक्र किया है। कुछ बरस पहले अली सरदार जाफरी की किताब ‘लखनउ की पांच रातें’ आई तो रातों रात मशहूर हो गई। इस किताब में सरदार ने अपने छात्र जीवन के प्रसंगों और उस दौर की अपनी दोस्तियों को लेकर बहुत ही खुबसूरत ढंग से संस्‍मरण लिखे हैं। जांनिसार अख्‍तर, कैफी आज़मी, सिब्‍ते हसन और मजाज लखनवी जैसे नामचीन शायर और अदीबों के उन दिनों का जबर्दस्‍त वर्णन है जब ये लोग अदब की दुनिया में दाखिल हो रहे थे। उर्दू में ऐसी ही एक और प्रसिद्ध किताब है मुज्‍तबा हुसैन की ‘चेहरा दर चेहरा’ जिसमें उर्दू साहित्‍य की महान हस्तियों के खाके यानी व्‍यक्तिचित्र देखने को मिलते हैं। इन खाकों में उन अदीबों के साथ गुजारे गए वक्‍त और उनकी लेखन प्रक्रिया आदि बातों को बेहद रोचक ढंग से लिखा गया है।
हिंदी साहित्‍य में माहन आलोचक रामविलास शर्मा और कवि केदारनाथ अग्रवाल की मित्रता चर्चित रही है। इन दोनों की दोस्‍ती को उनके पत्राचार की पुस्‍तक ‘मित्र संवाद’ से गहराई से जाना जा सकता है। इन पत्रों से इस बात का पता चलता है कि किस प्रकार एक आलोचक कवि को शक्ति प्रदान करता है और कैसे एक कवि अपने आलोचक मित्र की मदद करता है। इन पत्रों को पढते हुए एक पूरे युग की साहित्यिक बहसों और हलचलों का भी पता चलता है। इसी तरह प्रसिद्ध कहानीकार और नाटककार मोहन राकेश के पत्रों को पढा जा सकता है। हिंदी में पत्र साहित्‍य बहुत समृद्ध नहीं है और लेखकों के पत्राचार की किताबें भी कम ही छपती हैं, इसलिए दोस्‍ती के अनेक पहलू अज्ञात रह जाते हैं। लेकिन इधर हिंदी में संस्‍मरण विधा का जबर्दस्‍त विकास हो रहा है और कई बड़े लेखकों ने संस्‍मरण लिखकर अपनी मित्रता के संबंधों को उजागर किया है। इस लिहाज से रवींद्र कालिया की ‘ग़ालिब छुटी शराब’ ने एक इतिहास बनाया है। शराबनोशी के प्रसंगों के बहाने कालिया ने अपने मित्रों का बेहद रोचक वर्णन किया है। इस पर काफी हंगामा भी हुआ और कई लेखकों ने जवाबी हमले के अंदाज में संस्‍मरण लिखे। कवि नीलाभ ने कथाकार और ‘पहल’ के संपादक ज्ञानरंजन को लेकर एक लंबा संस्‍मरण लिखा जिसमें ज्ञानरंजन की याद को एक प्रेमिका की याद की तरह बताया है। कथाकार स्‍वयं प्रकाश ने कुछ दोस्‍तों और कुछ बड़े लेखकों को लेकर ‘हमसफरनामा’ लिखी, जिसमें उनके लेखन और अपनी दोस्‍ती को बहुत जिंदादिली के साथ याद किया है। मित्रता के प्रसंगों को लेकर काशीनाथ सिंह के संस्‍मरण भी खासी लोकप्रियता हासिल कर चुके हैं तो कांति कुमार जैन के संस्मरणों की बात ही निराली है। दोस्‍ती का यह सिसिला जारी है और मोबाइल-इंटरनेट के जमाने में अब पुराने दिनों को याद कर लेखक संस्‍मरण लिख रहे हैं।
पिछले साल जब लेखक-पत्रकार अशोक शास्‍त्री का निधन हुआ और उनकी याद में एक कार्यक्रम हुआ तो हिंदी की मशहूर लेखिका लवलीन ने अपने प्रिय साहित्‍यकार-पत्रकार मित्रों को याद करते हुए एक लंबी कविता मुझे दी कि इसे मंच से पढकर सुनाओ। लवलीन की संभवत: यह अंतिम कविताओं में से एक है और अभी तक कहीं प्रकाशित नहीं हुई। इस कविता से साहित्‍य में मित्रता के कई पहलुओं को देखा जा सकता है। इस कविता में राजस्‍थान के अनेक लेखक मित्रों का जिक्र है और मित्रों के बहाने खुद लवलीन अपने लिए जीने की ताकत ढूंढ रही थी।
दिवंगतों के लिए
मेरे दोस्‍तों, परिजनों, सखियों
देखो मैं वापस लौट आई हूं मैात के मुंह से
वापस आकर धरती पर पाया
मृत्‍यु ही मृत्‍यु का तांडव
तुम सब एक के बाद एक
दिंवगत हो रहे हो
जैसे इस बदसूरत
लहूलुहान धरती पर जीना मुहाल है
सच्‍चे, सुंदर, सह्रदय, ईमानदार बने रहकर जीना अभिशाप हो
चक्‍की के पाट में तुम्‍हें ही आना था मेरी पत्रकारिता के गुरू।
ओ रघुनंदन, ओ संजीव, ओ चारूमित्रा
ओ अशोक शास्‍त्री
ओए रब्‍बा तूने तो मुझे कंगाल कर दिया
ओ यूं खेल से अधबीच उठकर जाने वालों
तुम धरती पर छोड़ गए हो इतना विराट शून्‍य
जिसे भर नहीं सकता थार का मरूस्‍थल भी
और हमें इतना क्षुद्र भी बना दिया कि तुम्‍हारी स्‍मृतियां
स्‍मरण, आख्‍यान ही बटोर सकते हैं हम
जीवन अनंत संभावना है
तुम सब तो अभी उत्‍कर्ष पर थे
श्रेष्‍ठ अभी निसृत होना था
फिर कैसी चली हवा
दीया गया
हम मित्रों के सुरों की सरगम
तीस बरस पुरानी थी
‘भूमिका’ मेरा मायका है- रहेगा
घर तो पहले से नहीं था
मित्रों, द्विजजनों, सखियों से ही
एक कुनबा बसाया था
ज्‍यों कोई कम्‍यून
अब वह भी टूट गया
भस्‍मीभूत हो गया ।
भादानी जी, नंदकिशोर आचार्य, शास्‍त्री, सीमंतिनी
अंजू, संजीव, कल्पित, अजंता, सत्‍यनारायणजी
और ना जाने कितने जाने-अनजाने
वो गोष्ठियां-गप्‍पबाजियां
साहित्‍याकाश का सितारा बनने
के जुनून की शाब्दिक कसरतें और
मन को मथ मथ कर छोटा छोटा रचना और सुनना सुनाना
तुम्‍हारा विद्वता भरा बड़प्‍पन और बड़बोलापन
मैं शायद इसी शाप के साथ
लौट आई हूं कि
तुम सबकी स्मृतियों के एलबम से
एक एक चित्र निकाल कर
तुम सबको याद कर कर ताउम्र कलपती रहूं
तुम्हारी बरसी-श्रा’द्ध मनाती रहूं

अब मैं क्या करूं
विधवाओं की डबडब आंखें
दुख से कातर चेहरे
और चेहरों पर काली झाइ यां देखकर
मेरा दिल दिमाग जलता है
और ईष्वर को शाप देता है
देता है शाप कि तूने मुझे मिला या ही क्यों
मेरी सखियां-सुख-साथ-प्रेम के
सब रंगों का कोलाज बन जाने के
सुखद पलों का इतना बड़ा खजाना देकर
जिंदगी के अधबीच ही डोर तोड़ डाली।

मित्र, परिजनों मैं जानती हूं
तुम सब मेरे सपनों में आओगे
मेरी अंतरंग आत्मा से बतियाओगे
मैं तुम्हारी रचनाएं बार बार पढ़ूंगी
तुम्हें जीवित कर तुम्हारा
साक्षात साथ पाने के लिए
जैसे कोई रोज पूजा-अर्चना करता है
स्मृति दीप जलाना है
सुबह उठकर नित्य नियम की तरह

जिन संबंधों-साथ-मित्रताओं की
जड़ें होती हैं बरगद-सी
उनका उत्तान उनके जाने के बाद भी
आसमान के सितारों से जुड़ जाता है

ओ दिवंगतों एक बार लौट आओ
अब अगर कोई जवान मौत हुई
खिला फूल मसला गया
मैं अपनी तेज गरम गरम नेजों सी आंखें
ईश्‍वर की घात भरी नजर से लड़ाउंगी
ईश्‍वर मैं तुम्हारी हत्या कर दूंगी

अशोक शास्त्री की स्मृति में मैं
‘भूमिका’ से एक पौधा ले आई हूं
जो अब पनप गया है मेरी बगिया में
इस तरह ही सही
तुम मेरे निकट सदा रहोगे।
(जयपुर से प्रकाशित 'डेली न्यूज़' के रविवारीय 'हम लोग' में प्रकाशित.)