Sunday 25 April, 2010

कलम से खुदाई करने वाले शेमस हीनी

आयरलैंड के कवियों में शेमस हीनी ऐसे कवि हैं, जिनकी कविताओं ने देश-काल की सीमाओं को लांघते हुए हर काव्यप्रेमी का दिल जीता है। १३ अप्रेल, १९३९ को एक किसान परिवार में जन्मे शेमस हीनी ने अपने ग्रामीण परिवेश में जो कुछ बचपन से देखा-भोगा, उसे अपनी कवितओं में इस खूबसूरती के साथ रूपांतरित किया कि पर्यटन के नक्‍शों में दिखाए जाने वाले आयरलैंड के सुहावने दृश्‍यों से अलग वहां की धरती के नैसर्गिक सौंदर्य के दर्शन होते हैं। और इस सौंदर्य में आयरलैंड की खूबसूरत वादियां ही नहीं, वहां का समूचा प्राणिजगत और श्रमशील जनता भी दिखाई देती है। देहात में अपनी आरंभिक शिक्षा पूरी करने के बाद १९५७ में हीनी अंग्रेजी भाषा और साहित्य के अध्ययन के लिए बेलफास्ट के क्वींस विश्‍वविद्यालय चले गए। यहां वे उस समय के मशहूर अंग्रेजी कवि टेड ह्‌यूज की कविताओं के संपर्क में आए और समकालीन कविता की दुनिया से जुड़ते चले गए। १९६१ में स्नातक होने के बाद वे एक स्कूल में अध्यापन करने लगे। इस बीच कई कवि-साहित्यकारों के संपर्क में आने से हीनी की कविता समृद्ध होने लगी। १९६२ में उन्होंने कविताएं प्रकाशन के लिए भेजना शुरु किया और धीरे-धीरे उनकी कविताएं लोगों का ध्यान आकर्षित करने लगीं। कविताओं के साथ हीनी अखबारों के लिए लेख आदि भी लिखते रहे। क्वींस विश्‍वविद्यालय के प्राध्यापक फिलिप हॉब्सबाम ने युवा कवियों का एक समूह बनाया और शेमस हीनी को उसमें शामिल किया। अब हीनी कवियों की एक ऐसी वृहत्तर दुनिया से जुड गए, जिसके तार लंदन तक से जुडे हुए थे।
१९६५ में लेखिका मैरी डेवलिन से विवाह के साथ ही क्वींस विश्‍वविद्यालय के वार्षिक समारोह में उनकी ग्यारह कविताओं की पुस्तिका प्रकाशित हुई, जिसने लोगों को एक बार फिर शेमस हीनी की कविताओं पर गंभीरता से सोचने के लिए विवश किया। १९६७ में उनका पहला कविता संग्रह 'डैथ ऑफ ए नेचुरलिस्ट' प्रकाशित हुआ तो अंग्रेजी साहित्य की दुनिया में शेमस हीनी का जबर्दस्त स्वागत हुआ। भाषा, विषयवस्तु और शिल्प की दृष्टि से यह संग्रह अंग्रेजी काव्य संसार की एक नई और अनूठी आवाज के रूप में सामने आया। इस पर हीनी को कई सम्मान और पुरस्कार मिले। अगले साल हीनी माइकल लोंग्ली के साथ एक कविता यात्रा पर निकले तो कई जगह कविता पाठ के दौरान हीनी को व्यापक सराहना मिली। १९६९ में उनका दूसरा काव्य संग्रह 'डोर इन टू द डार्क' प्रकाशित हुआ। उनकी लोकप्रियता बढ़ती जा रही थी और हर तरफ से उनकी कविताओं की मांग थी। तीन साल बाद तीसरा संग्रह 'विंटरिंग आउट' आया और इसके साथ ही शेमस हीनी आयरलैंड, ब्रिटेन और अमेरिका में काव्यपाठ के लिए बुलाए जाने लगे। १९७५ में उनका चौथा और अत्यंत महत्वपूर्ण काव्य संकलन 'नॉर्थ' प्रकाशित हुआ। इसके साथ ही शेमस हीनी की कविताएं अंग्रेजी साहित्य की दुनिया से बाहर भी लोगों का ध्यान आकर्षित करने लगीं, क्यांकि अब लोग उनकी कविताओं का अपनी भाषाओं में अनुवाद करने लगे थे। १९७६ में 'फील्ड वर्क' के रूप में चौथा संग्रह प्रकाश में आया। अब शेमस हीनी इतने बडे कवि के रूप में स्थापित हो चुके थे कि उनकी कविताओं के संचयन प्रकाशित होने लगे थे।
आयरलैंड सरकार ने जब राष्ट्रीय कला परिषद का गठन किया तो शेमस हीनी को सर्वोच्च सम्मान देते हुए उसका सदस्य मनोनीत किया। स्कूल से कॉलेज और विश्‍वविद्यालयों में पढ़ाते हुए वे अमेरिकी विश्‍वविद्यालयों तक अध्यापन के लिए गए, लेकिन उनके भीतर का आयरिश मन अंततः आयरलैंड में ही रमा और वे वहीं के होकर रह गए। एक बार पेंग्विन ने समकालीन ब्रिटिश कविता के एक संचयन में उन्हें शामिल किया तो स्वाभिमानी शेमस हीनी ने चार पंक्तियों में इसका प्रतिरोध किया, 'ध्यान रहे, मेरा पासपोर्ट हरे रंग का है, हमारा कोई जाम, नहीं उठेगा महारानी के नाम।'
साहित्य के साथ हीनी का जुडाव रंगमंच की दुनिया से भी बना रहा और वे एक थियेटर कंपनी के संचालक मंडल में रहे। कविता के अलावा वे समसामयिक विषयों पर भी लगातार लिखते रहे। ऐसे लेखों का १९८८ में प्रकाशित एक संकलन 'द गवर्नमेंट ऑफ द टंग' बहुत लोकप्रिय हुआ। १९८९ में वे हार्वर्ड विश्‍वविद्यालय में पांच साल के लिए प्रोफेसर ऑफ पोएट्री चुने गए। रंगमंच के लिए लिखे उनके नाटक 'द क्योर एट ट्रॉय' और 'सीइंग थिंग्स' बेहद लोकप्रिय हुए।
इतने लोकप्रिय और महत्वपूर्ण रचनाकार को जब १९९५ में नोबल पुरस्कार दिया गया तो किसी को आश्‍चर्य नहीं हुआ क्योंकि वे इसके सच्चे हकदार थे। नोबल पुरस्कार देते हुए उनकी प्रशस्ति में कहा गया कि उनका काम गीतात्मक सौंदर्य और उच्च नैतिक मूल्यों की गहराई से लबरेज है, जो रोजमर्रा की जिंदगी के अचरजों और जीवित इतिहास को शक्ति प्रदान करता है। आलोचक ओला लार्समो के अनुसार शेमस हीनी की कविता में सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि वहां एक जबर्दस्त अनुभव उद्‌घाटित होता है। जो कुछ दृश्‍यमान है और इस दृश्‍यमान को जितना कुछ व्यक्त किया जा सकता है, इन दो स्थितियों के बीच जो फासला है, उसे शेमस हीनी की कविता अगर पाटती नहीं तो कम से कम नापती जरूर है। अपने पिता को गड्‌ढ़ा खोदते हुए देखकर लिखी शेमस हीनी की कविता 'डिगिंग' में इसे आरंभिक तौर पर पहचाना जा सकता है, हीनी लिखते हैं:-

भगवान कसम, वो बूढा बेलचा चला सकता है
अपने बूढे बाप की तरह
लेकिन मेरे पास उसका अनुकरण करने के लिए
कोई बेलचा नहीं हैं

मेरी अंगुली और अंगूठे के बीच
एक गोल-मटोल कलम है
मैं इसी से खुदाई करूंगा।

७१ वर्षीय शेमस हीनी इन दिनों डबलिन में रहते हैं। नोबल पुरस्कार के बाद उन्हें टी.एस. इलियट पुरस्कार सहित अनेक सम्मान-पुरस्कारों से नवाजा जा चुका है।
 
यह आलेख राजस्‍थान पत्रिका के रविवारीय संस्‍करण में 25 अप्रेल, 2010 को 'विश्‍व के साहित्‍यकार' शृंखला में प्रकाशित हुआ।

Sunday 18 April, 2010

मेरी कविताओं का लक्ष्‍य सामाजिक है - हेमंत शेष

के. के. बिरला फाउण्‍डेशन की ओर से इस वर्ष का बिहारी पुरस्कार हिंदी के विशिष्ट कवि हेमंत शेष को घोषित किया गया है। पिछले दिनों दैनिक हिंदुस्‍तान, दिल्‍ली से संदेश आया कि आप हेमंत जी पर लेख लिखें या उनसे बातचीत कर हमें भेजें। मैंने तय किया कि किताबें पढ़कर लिखने के बजाय बातचीत करना बेहतर रहेगा। हेमंत शेष जैसे कवि से बातें कर उनकी कविता और काव्‍य धारणाओं को लेकर बहुत से संशय लेखक समाज में हैं, शायद उनमें से कुछ का निराकरण हो। यही सोचकर मैं हेमंत शेष से बातचीत करने उनके घर चला गया। यहां प्रस्‍तुत बातचीत का एक हिस्‍सा दैनिक हिंदुस्‍तान के रविवारीय में 18 अप्रेल, 2010 को प्रकाशित हुआ है। टेपरिकॉर्डर से मैंने फिलहाल वही हिस्‍से चुने हैं जो अखबार के लिए उपयुक्‍त हो सकते थे। इस बातचीत को और विस्‍तार दिया जाएगा, यह मेरी ही नहीं खुद हेमंत जी की भी इच्‍छा है कि और मुद्दों पर उनसे बेबाक बातचीत की जाए। यहां प्रस्‍तुत इस साक्षात्‍कार में मैंने सायास अपने सवालों को छोटा रखा है, जब कवि खुद अपनी बात कह रहा हो तो बात करने वाले को मौन रहकर उसकी बात ध्‍यान से सुननी चाहिए। जब विस्‍तार से इस वार्तालाप को लिखूंगा, तब सवाल भी विस्‍तृत होंगे और उन पर अपनी राय इत्‍यादि भी। बहरहाल, प्रस्‍तुत है वार्तालाप के प्रमुख अंश।

बचपन में आपको रचनात्मकता के संस्कार किस रूप में मिले?

मेरा जन्म साहित्यिक संस्कारों वाले परिवार में हुआ। मेरी मां संस्कृत और समाजशास्त्र में एम.ए. हैं और कई वर्ष तक उन्होंने जयपुर के एल.बी.एस. कॉलेज में पढ़ाया भी है। मेरे पिता को कहानी आलोचना के लिए 'कहानी दर्शन' पुस्तक पर राज. साहित्य अकादमी का पहला पुरस्कार मिला। मेरा बचपन ननिहाल में बीता। मेरे मामा कलानाथ शास्त्री संस्कृत, हिंदी और कई भाषाओं के विद्वान हैं, उनसे मिलने बहुत से विद्वान रचनाकार आया करते थे। वहां हम बच्चों के खेल भी अंत्याक्षरी और समस्यापूर्ति जैसे होते थे। तो उस वातावरण में एक रचनात्मक आधार मिला।

लेकिन वह परिवार तो शास्त्रीय परंपराओं वाले साहित्य का परिवार रहा है। वहां से आप आधुनिक साहित्य की तरफ कैसे आए?

मैं सातवीं या आठवीं में पढ़ता था। उस वक्त हरीश भादानी जी ने 'वातायन' में मेरी पहली कहानी प्रकाद्गिात की थी, 'सलीब पर टंगा शहर'। उस वक्त लोगों ने कहा कि यह कैसी कहानी है, क्योंकि उस कहानी का शीर्षक ही नहीं, विषयवस्तु और शिल्प भी अलग था। फिर मैंने दो-चार कहानियां और लिखीं। मुझे लगा कि कहानी की जगह कविता पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए, तो १९६८ से १९७० तक मैंने अपने आपको पूरी तरह कविता के लिए समर्पित कर दिया। उस दौरान उत्साह बढाने वाली कई घटनाएं घटीं। मेरी पहली कविता 'अपरंच' शीर्षक से, १९७० में बद्री विशाल पित्ती के संपादन में 'कल्पना' में छपी। इसी साल मेरी तीन कविताएं धर्मवीर भारती जी ने 'धर्मयुग' में प्रकाद्गिात की। इसके बाद प्रकाश जैन ने 'लहर' में मेरी तीसरी कविता छापी। इन तीन पत्रिकाओं में छपने का सीधा मतलब था कि साहित्य की दुनिया में आपको प्रवेश मिल गया है। इसके बाद तो 'बिंदु' में नंद चतुर्वेदी ने छापा और उस समय की तमाम पत्र-पत्रिकाओं में कविताएं प्रकाशित होने लगीं। शुरु-शुरु में प्रकाशन को लेकर बहुत उत्साह था, जो क्रमश: कम होता गया। इस क्रम में किताबें भी प्रकाशित होती रहीं।

मैं भी आपकी तरह कहानी से कविता की ओर आया था। मुझे लगता था कि कहानी में कविता से ज्यादा मेहनत करनी पड ती है। अब तो लगता है दोनों में ही मेहनत बराबर लगती है। लेकिन कहानी से कविता की तरफ आने से आपकी कविताओं में एक चीज जो साफ दिखाई देती है, और खास तौर पर लंबी कविताओं में, वह यह कि यहां कथा तत्व प्रचुर मात्रा में हैं।
श्रम वाली आपकी बात सही है, दोनों समान श्रम मांगती हैं। लेकिन आप देखेंगे कि बहुत से श्रेष्ठ गद्यकारों के यहां आपको गद्य में काव्यात्मकता दिखाई देती है, जैसे निर्मल वर्मा, ज्ञानरंजन और विनोद कुमार शुक्ल के यहां। विधाओं में इस किस्म की आवाजाही चलती रहती है। लेकिन मुझे लगता है कि गद्य के लिए जैसा मन चाहिए, जैसी वस्तुगत निरपेक्ष दृष्टि चाहिए, वैज्ञानिक दृष्टि और तटस्थता चाहिए, अगर आपका मन वैसा नहीं है, जैसा गद्यकार का होता है तो आपको कविता लिखनी चाहिए। नंद चतुर्वेदी कहते हैं कि गद्य में विनोद होना चाहिए, सरसता होनी चाहिए, निरा शुष्क गद्य नहीं होना चाहिए। तो मुझे लगता है कि हम अच्छा गद्यकार बनना चाहते हैं, लेकिन बनते नहीं हैं क्योंकि वह हमारा रास्ता नहीं है। मुझे लगता है कि स्वभाव की अनुकूलता के कारण ही आप विधा का चुनाव करते हैं। कविता बहुत संश्लिष्ट विधा है, जबकि गद्य में बात अलग होती है। जैसा कि ऑक्टोविया पाज कहते हैं कि कविता दो पंक्तियों के बीच है, पंक्तियों में नहीं।

आप हिंदी में लंबी कविताएं लिखने वाले विरल कवियों में हैं। हमारे यहां विजेंद्र और सवाई सिंह शेखावत हैं, जो आपकी तरह लंबी कविताएं लिखते हैं। आपके यहां तो एक ही विषय पर केंद्रित कविता ही पूरी किताब की शक्ल में है।

जब आपको लगता है कि समाज के विभिन्न पहलुओं पर एक ही विषय के इर्द-गिर्द टिप्पणियां करनी हैं तभी लंबी कविता संभव होती है। 'जारी इतिहास के विरुद्ध' और 'कृपया अन्यथा न लें' कविताओं में आप देख सकते हैं कि भाषा के स्तर पर, शिल्प के स्तर पर बहुत सारे प्रयोग हैं, लेकिन वे सब विषय को गहराई देने के लिए, उसे घनीभूत करने के लिए हैं। लंबी कविता आपको चुनौती देती है कि आप कितने स्तरों पर रचाव कर सकते हैं और निरंतरता बना रख सकते हैं।

आपके पुरस्कृत संग्रह 'जगह जैसी जगह' में भी और इससे पूर्व के संग्रहों में भी एक चीज साफ दिखाई देती है और वो यह कि आपकी कविताओं में स्मृतियों का प्रत्याख्‍यान है।

सही कहा आपने, यह मेरी बरसों की सायास कोशिश का परिणाम है। एक रचनाकार का अपने देश-काल या समय के साथ क्या संबंध होना चाहिए। हम सब जानते हैं कि आप समय को पीछे नहीं ले जा सकते। तो दो-तीन तरह का संबंध आपकी भाषा से उस काल-चेतना का होता है। जो चला गया उसके ना लौट सकने का अवसाद और उसे पुनर्जीवित ना कर सकने की आपकी असामर्थ्य। जो कुछ हुआ, उसमें आपकी कितनी भूमिका है या नहीं, वह आप उस कालखण्ड से बाहर आकर ही देख पाते हैं। काल एक वृहत्तर सत्ता है, समय उसकी बहुत छोटी इकाई है। तत्व विज्ञान और खगोल भौतिकी के बहुत से ऐसे पहलू हैं, जो एक कवि को आकर्षित करते हैं। मेरी कविताओं में बहुधा स्मृतियां एक तरह की दार्शनिक प्रद्गनाकुलता को प्रस्तुत करती हैं। लेकिन मेरी कविताओं में आईं स्मृतियां कोई व्यतीत राग नहीं हैं, एक पूरा समाज और कालखण्ड उनके साथ जुड़ा है।

आपके इस पुरस्कृत संगह में एक शानदार कविता है 'एक चिड़िया का कंकाल', मेरे खयाल से आपकी सर्वश्रेष्ठ कविताओं में से एक।

हां, यह वास्तविक कविता है। उस वक्त मैं भरतपुर में था, तब घना में रोज जाना होता था। वो अद्‌भृत जगह है। मुझे लगता है कि जब १६ वर्ग किमी में इतनी तरह के पंखों वाले, इतनी तरह की विशेषताओं वाले, इतनी सारी प्रजातियों के पक्षी एक साथ रह सकते हैं तो मनुष्य क्यों नहीं रह सकते? इतनी तरह के धर्म-जाति और संप्रदायों में बंटा समाज एक साथ क्यों नहीं रह सकता। वहां रहकर मुझे लगा, मनुष्य समाज को बहुत कुछ सीखना है चिडियों के समाज से। मैंने उस चिडिया का कंकाल देखकर सोचा कि इस दृश्‍य को क्या तत्काल किसी वृहत्तर संदर्भ से जोडा जा सकता है। आम तौर पर लोगों की शिकायत रहती है कि आपकी कविता में समाज नहीं है, मुझे यह कहने का अवसर दीजिए कि जो है, उसे देखा जाना चाहिए, नहीं तो बहुत सी चीजें हो सकती हैं। संसार में किसी भाषा में कोई ऐसा कवि नहीं हुआ, जिसने शोषण, अत्याचार या पूंजीवाद के पक्ष में लिखा हो। स्वभावतः प्रत्येक कवि प्रगतिशील होता है क्योंकि कवि होना ही प्रगतिशील होना है।

आपकी कविता में कहीं-कहीं निरंतर धार्मिक पाखण्ड का एक विरोध या उपहास दिखाई देता है, 'नींद में मोहनजोदडो' में एक ऐसी ही कविता है 'क्या न होगा धर्मग्रंथों में?' आप धर्म के प्रति बेहद निर्मम दृष्टि रखते हुए उसकी आलोचना करते हैं?

धर्मग्रंथों या धर्म के प्रति आपकी अगर आलोचनात्मक दृष्टि हो तो आप दूसरी बहुत-सी चीजों से बच सकते हैं। धर्म एक बहुत बडी संस्था है और अपने समय के प्रति सजग कवि को उसकी रूढियों का विरोध करना ही चाहिए। मुझे लगता है कि इस बात पर ध्यान नहीं दिया गया, इसलिए मुझे कह देना चाहिए कि मेरी नितांत व्यक्तिगत कविताएं भी अंततः सामाजिक ही हैं और मेरी तमाम कविताओं का लक्ष्य सामाजिक ही है। मेरी प्रत्येक कविता समाज के किसी बडे सत्य पर ही जाकर समाप्त होती है।

आपने कविताओं के साथ चित्र भी बनाए हैं, संगीत में भी आपकी दिलचस्पी रही है, इस आवाजाही को क्या कहेंगे? आपकी कविताओं में लेकिन आपकी तरह के बहुआयामी रूचियों वो कवियों की तरह संगीत सुनते हुए या चित्र देखते हुए जैसी कविताएं नहीं मिलेंगी।

मैं समझता हूं कि जो कुछ अमूर्त है, शब्द के माध्यम से आप उसी का तो स्थापत्य कर रहे हैं। हमारे यहां कला में कैमरे के आविष्कार के बाद यथार्थवादी चित्रकला समाप्त हो गई है। चित्रकला में कहते हैं कि सबसे खराब चित्र वह है जिसमें बने फूल को देखकर तितली उस पर बैठ जाए। मैंने दौसा की चांद बावड़ी को जब पहली बार देखा तो वो अद्‌भुत अनुभव था, लेकिन मैं उस पर तत्काल कुछ नहीं कर सका। बहुत दिनों बाद उसको लेकर चित्र बनाए। उन चित्रों में आप एकदम नहीं कह सकते कि यह चांद बावडी है, लेकिन उसकी ज्यामितीय संरचना और मानसपटल पर पडे प्रभाव को आप उनमें देख सकते हैं। मुझे लगता है कि चित्रों के शीर्षक नहीं देने चाहिएं, क्योंकि वो प्रेक्षक की विचार दृष्टि को सीमित कर देते हैं। चित्रों में अमूर्तन प्रेक्षक के लिए ठीक है किंतु कविता में इतना अमूर्तन नहीं होना चाहिए कि जो कुछ आप कहना चाहते हैं वह पाठक तक पहुंचे ही नहीं। जब मैं कविता नहीं लिख रहा होता हूं तो चित्र बनाता हूं और फिर कविता में लौट आता हूं। मेरी रचनात्मकता के लिए कविता, चित्रकला और संगीत एक दूसरे का विस्तार ही है। ये सब आपने आप में एक संपूर्ण संसार है और इनमें खोना आनंददायक है। संगीत सुनने की और चित्र देखने की चीज है, उस पर कविता क्यों लिखी जाए, मौन क्यों न रहा जाए।

आपकी कविताओं में सचिवालय, विकास प्राधिकरण और प्रधानमंत्री आते हैं और एक राजनैतिक वक्तव्य भी आप इनके माध्यम से देते हैं।

सचिवालय अपने आप में एक चरित्र है और प्रधानमंत्री भी और नगर नियोजक संस्था भी। अब पता नहीं यह कविता कितनी कविता है लेकिन 'नाला अमानीशाह' कविता में आप देखेंगे कि कैसे एक शहर को नगर विकास प्राधिकरण नष्ट कर रहा है। अखबार में इसके प्रकाशन के बाद प्राधिकरण के आयुक्त मेरे पास आए और बोले आपने तो एक कविता में हम सबको लपेट लिया। मैं उस वक्त वहीं कार्यरत था, मैंने कहा, हां आप लोगों ने उस नाले को खत्म कर दिया है जो मेरे लिए इस नगर की शानदार विरासत है।

आप अपनी पीढ़ी के कवियों से अलग मिजाज की कविताएं लिखते रहे, समकालीनता के आतंक से लगभग मुक्त रह कर लिखना कैसे संभव हुआ?

यह बहुत मुश्किल होता है, लेकिन मुझे इसका फायदा भी हुआ कि मैं अपने मन की कविताएं लिख सका। धारा के विरुद्ध लिखना आसान नहीं होता, इसके नुकसान भी होते हैं, लेकिन अंततः आप अपना काम कर लेते हैं। मैं सबको बराबर पढता रहा हूं, लेकिन मेलजोल से बचता रहा हूं। मुझे लगता रहा कि कहीं जाकर समय खराब करने के बजाय अपने अध्ययन, मनन और सृजन पर समय लगाया जाए। मैं अपने समय के सभी लेखकों को बहुत आलोचनात्मक दृष्टि से गहराई से पढता हूं, हालांकि इसको जाहिर कम करता हूं, शायद लोग इस वजह से नाराज भी होते होंगे।

कविता के लिए आपको इससे पहले भी कोई सम्मान पुरस्कार मिला?

नहीं, मुझे तो आश्‍चर्य भी हुआ कि यह पुरस्‍कार  कैसे घोषित हुआ? हिंदी में आजकल इतने पुरस्कार हो गए हैं कि किसी को नहीं मिले तो अचरज होता है। लेकिन मुझे आज तक कोई पुरस्कार नहीं मिला। राज. साहित्य अकादमी का भी नहीं, खैर वो तो मुझे लेखक भी नहीं मानते।

प्रशासनिक सेवा के साथ कवि मन को बनाए रखना कैसे संभव कर पाए? लोगों के साथ आपका व्यवहार कैसा रहता है?

मुझे प्रशासनिक सेवा में आने का बहुत फायदा भी हुआ। इतनी तरह के झूठ, छल, छद्‌म, अदालतें, झूठी गवाहियां देखीं हैं कि समाज को व्यापक और बड़े रूप में देखना संभव हुआ। साधारण मनुष्य होकर आप यह सब नहीं देख सकते। कवि और प्रशासनिक अधिकारी होने का लाभ यह है कि किसी गरीब, वंचित, दलित, मजदूर, किसान या सर्वहारा की नियमों के अंतर्गत जितनी मदद कर सकते हैं, वो संहज ढंग से हो सकता है। कोई लाचार बडी दूर चलकर आपसे किसी आस में मिलने आता है, तो उसकी आप ठीक से बात सुन लें, इसी से वह संतुष्ट हो जाता है, नियमानुसार मदद कर दें तो हर्ज ही क्या है, आखिर आप इसी के लिए तो बैठे हैं। किसी अन्य सेवा में होता तो शायद मैं इतना कुछ नहीं कर पाता, जितना यथासंभव कर पाया हूं।

Monday 12 April, 2010

समाज के लिए समर्पित लेखिका - पर्ल. एस. बक

अमेरिकी साहित्य के इतिहास में पर्ल एस. बक पहली महिला रचनाकार हैं, जिन्हें साहित्य में १९३८ में नोबल पुरस्कार मिला। अमेरिका में ईसाई मिशनरी परिवार में १८९२ में जन्मी पर्ल के जीवन का अधिकांश चीन में बीता। जन्म के बाद ही वे माता-पिता के साथ चीन आ गईं थीं। घर पर साहित्य की शौकीन मां ने अंग्रेजी और चीनी शिक्षक ने चीनी भाषा सिखाई। उस वक्त के चीन में जबर्दस्त उथलपुथल का दौर चल रहा था, इसलिए पर्ल के परिवार को कई बार जान बचाने के लिए कई जगह शरण लेनी पड़ी। पंद्रह साल की उम्र में पर्ल को शंघाई के एक बोर्डिंग स्कूल में विधिवत शिक्षा के लिए दाखिल करा दिया गया। उच्च शिक्षा के लिए उन्हें अमेरिका भेज दिया गया, जहां पर्ल ने मनोविज्ञान का अध्ययन किया। १९१४ में पर्ल वापस चीन आईं और स्कूल में अंग्रेजी पढाने लगीं। कृषि विज्ञानी डा. जॉन लॉसिंग बक से विवाह के बाद वे पति के साथ चीन के सुदूर स्थलों की यात्रा करती रहीं, जो कालांतर में उनके साहित्य में बेहद खूबसूरत ढंग से रूपायित हुआ। १९२४ में पर्ल अपनी मंदबुद्धि बेटी के इलाज के लिए अमेरिका पहुंची और बेटी की देखभाल के साथ साहित्य में एम.ए. भी करने लगीं।
१९२७ में वो वापस चीन लौट आईं, लेकिन चीन के गृहयुद्ध के हालात में बक परिवार को भागकर जापान में शरण लेनी पड़ीं। इसके बाद पर्ल कभी वापस चीन नहीं गईं। पर्ल इस बीच एशियाई समाज के विभिन्न पहलुओं को लेकर पत्र-पत्रिकाओं में लिखती रहीं। उनका यह लेखन आत्मकथात्मक था, जिसमें वे अपने निजी अनुभवों को चीन के बाहर की दुनिया के लोगों के साथ साझा करती थीं। एशिया मैगजीन  में उनकी कहानी 'ए चाइनीज वूमैन स्पीक्स' को व्यापक सराहना मिली। पर्ल ने चीनी साहित्य का विशेष रूप से प्राचीन चीनी साहित्य का गहन अध्ययन किया था। इसीलिए जब उनका पहला उपन्यास 'ईस्ट विंड : वेस्ट विंड' प्रकाशित हुआ तो पाठकों और आलोचकों का उनकी ओर ध्यान गया। इस उपन्यास में पर्ल ने एक चीनी महिला क्वेन लाई के जीचन संघर्ष का मार्मिक विवरण प्रस्तुत किया। लेकिन जब १९३१ में 'गुड अर्थ' प्रकाशित हुआ तो पर्ल को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सराहना मिली। इस उपन्यास में पर्ल ने एक ऐसे चीनी किसान का जीवनवृत्त प्रस्तुत किया जो अपनी धरती से, अपने खेतों से, अपनी आबोहवा से गहरा प्रेम करता है। उसके पास पीढियों से संचित ज्ञान की संपदा है और वह अपनी ही दुनिया में मगन है और तमाम विपरीत परिस्थितियों में भी जीने के लिए संघर्ष करता रहता है। पर्ल ने चीनी साहित्य की वर्णनशैली और बाइबिल जैसी गद्यात्मकता से अपने पहले उपन्यास को इतनी खूबसूरती से रचा कि पूरी दुनिया का इस पर ध्यान गया। इस उपन्यास की लोकप्रियता को देखते हुए १९३७ में इरविंग टालबर्ग ने सिडनी फ्रेंकलिन के निर्देशन में इस पर अत्यंत विश्‍वसनीय फिल्म भी बनाई। फिल्म में अभिनेत्री लुई रेनर को मुख्‍य भूमिका के लिए ऑस्कर मिला। इस उपन्यास की प्रकाशन के पहले वर्ष में १८ लाख प्रतियां बिकीं और दुनिया की तीस से अधिक भाषाओं में इसका अनुवाद हुआ। १९३२ में इस उपन्यास पर पर्ल को पुलित्जर पुरस्कार मिला।
'गुड अर्थ' की अपार लोकप्रियता ने पर्ल को प्रेरित किया तो इसके दो और भाग लिखे गए। १९३२ में 'संस' और १९३५ में 'ए हाउस डिवाइडेड' प्रकाशित हुए। इन दोनों उपन्यासों में पर्ल ने किसान की अगली पीढ़ी का वृत्तांत प्रस्तुत किया। इस उपन्यास त्रयी के साथ लिखे गए 'मदर' उपन्यास में पर्ल ने चीनी मां के आत्मबलिदान और संघर्ष की अत्यंत करुण कथा लिखी है। इसे पर्ल के सर्वश्रेष्ठ उपन्यासों में गिना जाता है। पर्ल ने अपने पिता एब्सालोम की रचनात्मक जीवनी 'फाइटिंग एंजेल' में और मां कैरोलीन की जीवनी 'द एक्जाइल' में इतनी खूबसूरत किस्सागोई की शैली में प्रस्तुत की कि आलोचकों के मुताबिक ये क्लासिक जीवनियां हैं। पर्ल का १९३५ में अपने पति से तलाक हो गया और उन्होंने अपने प्रकाशक रिचर्ड वाल्श से विवाह कर लिया। १९३८ में नोबल पुरस्कार प्रदान करते समय पर्ल के साहित्य की प्रशंसा करते हुए कहा गया कि पर्ल के लेखन ने नस्ली सीमाओं के पार जाकर मानवीय संवेदनाओं और सहानुभूति का मार्ग प्रशस्त किया है। पर्ल एस. बक ने जीवन में करीब ८० पुस्तकें लिखीं, जिनमें कहानी, उपन्यास और जीवनी के अलावा आलोचना, संस्मरण, कविता, निबंध, बालसाहित्य की कई विधाओं की पुस्तकें शामिल हैं। पर्ल के लेखन के केंद्र में सिर्फ चीनी जनजीवन ही नहीं जापानी और अमेरिकी जनजीवन भी रहा। उन्होंने महिला अधिकार, एशियाई संस्कृति, मिशनरी जीवन, युद्ध, दत्तक और पारगमन नियमों को लेकर भी प्रचुर मात्रा में लिखा। १९४९ में पर्ल ने बच्चों को गोद लेने के तत्कालीन नियमों का विरोध किया और मिश्रित नस्ल के अनाथ बच्चों के लिए संघर्ष किया। पर्ल ने व्यक्तिगत प्रयासों से मिश्रित नस्ल के बच्चों को आश्रय देने के लिए दुनिया की पहली गोद लेने वाली संस्था 'वेलकम हाउस' प्रारंभ की। १९६४ में पर्ल ने एशियाई बच्चों की दयनीय दरिद्रता और असमानता को लेकर पर्ल एस. बक फाउण्डेशन की स्थापना की। इसके बाद विभिन्न एशियाई देशों में पर्ल ने अनाथालय और शिक्षण संस्थान खोले। समाज सेवा के साथ पर्ल का लेखन भी चलता रहा। पर्ल ने अनेक चीनी रचनाकारों की कृतियों का अंग्रेजी में अनुवाद भी किया। अपने अंतिम समय में पर्ल 'द गुड अर्थ' का चौथा खण्ड लिख रही थीं जो पूरा ना हो सका। ६ मार्च, १९७३ को ८० साल की उम्र में फेंफडों की बीमारी से पर्ल का निधन हुआ।

Tuesday 6 April, 2010

बातों का बाजार

बात करनी मुझे मुश्किल कभी ऐसी तो ना थी

जैसी अब है तेरी महफिल कभी ऐसी तो ना थी।

अहमद फराज के इस मशहूर शेर के पहले मिसरे में ‘मुश्किल’ की जगह ‘आसान’ कर लीजिए, क्योंकि हिंदुस्तान के टेलीकाम बाजार में काल रेट का युद्ध अब बेहद रोमांचक होता जा रहा है। वीडियोकान ने काल रेट को प्रति सैकण्ड एक पैसे से भी कम पर करने की घोषणा के साथ प्रवेश कर बाजार में तहलका मचा दिया है। पुराने मोबाइल उपभोक्ताओं को वो दौर भी याद होगा जब मोबाइल पर बात सुनने के भी पैसे लगते थे और घण्टी बजते ही पी.सी.ओ. या लैण्डलाइन की तरफ रूख करना पड़ता था। लेकिन भला हो ट्राई का जिसने आम उपभोक्ता के हितों के लिए निरंतर नई से नई योजनाएं और नियम-शर्तें लगाकर कंपनियों को विवश कर दिया कि वे अपना बाजार बनाए रखने और विस्तार करने के लिए लगातार आकर्षक योजनाएं पेश करती रहें ताकि उपभोक्ताओं को ज्यादा से ज्यादा फायदा हो। यूं वीडियोकान से पहले ही लगभग सभी कंपनियां इस किस्म की कई योजनाएं लागू कर चुकी हैं, जिनमें उपभोक्ताओं को प्रति सैकण्ड एक पैसे से भी कम पर बात करने की सुविधा उपलब्ध है। लेकिन यह सुविधा कुछ सीमित नंबरो या उसी कंपनी के नंबरों पर उपलब्ध होती है। इस प्राइस वार ने उपभोक्ता को लगातार आपरेटर बदलने की छूट दी तो तमाम कंपनियों को दूसरों के मुकाबले बेहतर काल रेट लागू करने के कलए मजबूर होना पड़ा। आज लगभग तमाम कंपनियां नित नई योजनाएं लागू कर अपने उपभोक्ता को कहीं और जाने नहीं देना चाहतीं।

बातूनी समाज के कई चेहरे
स्व. राजीव गांधी जब संचार क्रांति की जब शुरुआत कर रहे थे, तब किसी ने यह कल्पना भी नहीं की थी कि भारतीय समाज इतने बातूनी समाज के रूप में सामने आएगा। वो भी क्या जमाना था, जब एक फोन कनेक्शन के लिए सांसदों के चक्कर काटने पड़ते थे और भाग्यषाली लोगों को ही फोन कनेक्षन मिल पाता था। फोन की ललक के उस दौर में हम सोच भी नहीं सकते थे कि दूरसंचार विभाग में काम करने वाला हमारा कोई रिश्‍तेदार भविष्य में लगभग अप्रासंगिक हो जाएगा। पुराने लोगों को याद होगा कि एक वो भी जमाना था जब मोहल्ले में जिसके यहां फोन होता था, वो सुनने के भी पैसे लेता था, पी.सी.ओ. पर तो यह बाकायदा रिवाज था, जिसे हम आज भी पुरानी हिंदी फिल्मों में देख सकते हैं। आज लगभग प्रत्येक सामान्य भारतीय के पास किसी ना किसी रूप में मोबाइल फोन है और बहुत से ऐसे भी हैं जिनके पास एक से अधिक फोन हैं। जरा-जरा सी बात पर मोबाइल खटखटाना आम आदत है। बात बिना बात फोन करना एक खास भारतीय आदत में शुमार है। बीवी और कुछ नहीं तो आफिस से घर लौटते पति से सब्जी की पसंद ही पूछ लेती है। पतिदेव स्कूल से आए बच्चों के बारे में पूछते हैं। ससुराल में बिटिया से बात करना माताओं का प्रिय शगल है तो खाली वक्त में दोस्तों से गप्प लड़ाना भी आम है।

बात करने से बात बनती है
जी हां, एक लोकप्रिय मोबाइल कंपनी के विज्ञापन की यह पंक्ति हिंदुस्तानी समाज पर पूरी तरह लागू होती है। क्योंकि संचार क्रांति के बाद पारिवारिक और सामाजिक संबंधों में मधुरता बढ़ रही है। बात ना करना बुरा माना जाता है। आपके किसी से चाहे जितने विवाद हों, झगड़े हों, एक मोबाइल फोन की घण्टी आपके संबंधों को सहज बना सकती है। पर्व-उत्सव के अवसरों पर संबंध सामान्य करने में मोबाइल बेहद असरकारक है। पुराने जमाने की चिट्ठी की जगह अब मोबाइल ने पूरी तरह ले ली है। दूर बसे संबंधियों से निरंतर संवाद का सबसे सहज साधन मोबाइल ही है। बॉस हों या दोस्त अथवा रिश्‍तेदार, मोबाइल आपको उनके स्नेह का पात्र बनाता है। आजकल झूठ बोलने में भी मोबाइल आपका मददगार होता है, आप कोई ना कोई बहाना बनाकर डांट-फटकार से बच सकते हैं और सतर्क रहते हुए भविष्य में संबंधों को सुधारने की कोशिश कर सकते हैं।

संदेसे आते हैं संदेसे जाते हैं
चिट्ठी-पत्री का अपना महत्व है, लेकिन सामान्य तौर पर महंगी पड़ने वाली डाक और कूरियर व्यवस्था के दौर में मोबाइल पर संक्षिप्त संदेश भेजना सहज, सस्ता और सुलभ साधन है। आप देश-विदेश से कहीं भी कभी भी संदेश भेजकर अपनी भावनाएं और जानकारियां अपने लोगों के साथ बांट सकते हैं। अब तो मोबाइल और इंटरनेट की जोड़ी ने मिलकर संदेश भेजना मुफ्त कर दिया है। लेकिन मोबाइल कंपनियां भी इंटरनेट के दाखिले के बाद अपने ग्राहकों के लिए राष्ट्रीय व स्थानीय संदेश भेजने की दरों में आश्‍चर्यजनक रूप से कमी कर रही हैं। अब दस पैसे में एक संदेश का जमाना खत्म हुआ, आप चाहें तो देश में कहीं भी महीने भर रोजाना पांच सौ संदेश भेजने के लिए सिर्फ पचास-साठ रूपये खर्च करने होंगे। जल्द ही अंतर्राष्ट्रीय संदेश भी सस्ते हो सकते हैं, क्योंकि भारत की कई मोबाइल कंपनियां बहुराष्ट्रीय स्तर पर अपनी सेवाओं में विस्तार कर रही हैं।

सब कुछ मोबाइल पर
आज आप कहीं भी जाएं आपसे हर जगह मोबाइल नंबर लिखने के लिए कहा जाता है। देश के कई बड़े बैंक अपने ग्राहकों को मोबाइल बैंकिंग अपनाने के लिए कह रहे हैं। अगर आपका बैंक खाता आपके मोबाइल से संचालित होने लग जाए तो आपके लिए इससे बेहतर कुछ नहीं। आप बिना किसी परेशानी के अपने तमाम भुगता मोबाइल के जरिए सहज और सुरक्षित ढंग से कर सकते हैं। आप बिना बैंक गए अपने खाते से जुड़ी समस्त जानकारियां मोबाइल पर हासिल कर सकते हैं। अगर आप शेयर बाजार में रूचि रखते हैं तो मोबाइल के जरिए अपने पास रखे शेयरों की ताजा जानकारियां भी हासिल कर सकते हैं। दुनिया भर के समाचार जान सकते हैं, अपना ई-मेल अकाउंट चैक कर सकते हैं, दोस्तों से चैटिंग कर सकते हैं। टेलीफोन, बिजली और पानी के बिल भुगतान कर सकते हैं। रेल, बस या हवाई जहाज में आरक्षण करा सकते हैं। अपने बीमा प्रीमियम की किश्‍त चुकानी हो या खुद का या किसी का भी मोबाइल रिचार्ज करना हो या टेलीविजन का डी.टी.एच. रिचार्ज कराना हो, आप अपने बैंक खाते से बिल्कुल सुरक्षित ढ़ंग से ये सारे काम कहीं भी कर सकते हैं। बैंक फिलहाल इन सेवाओं का कोई शुल्क नहीं ले रहे हैं।

अगर मोबाइल पर इतना कुछ उपलब्ध है तो लोग इन सेवाओं का इस्तेमाल क्यों नहीं कर रहे? दरअसल, हम लोग बहुत भयभीत रहते हैं कि कहीं कोई हमारा मोबाइल चुराकर सब कुछ हजम ना कर जाए। आशंका निर्मूल नहीं है, लेकिन यह भी सच है कि मोबाइल बैंकिंग के लिए बैंकों ने सुरक्षा के पूरे मानक अपनाए हैं, फिर भी इस्तेमाल करने वालों को किंचित सावधानी से अपना पासवर्ड या पिन नंबर चुनना चाहिए और किसी अन्य को नहीं बताना चाहिए।