Sunday 31 October, 2010

दिवालिया देश में दीवाली

इन दिनों जब आम गरीब आदमी दीपावली और त्यौहारी मौसम में परिजनों के पास जाने की सेाच रहा है, प्रसिद्ध कहानीकार अरुण प्रकाष की कहानी ‘भैया एक्सप्रेस’ याद आती है। इस कहानी में पंजाब में मजदूरी करने आए बिहारी मजदूरों की रेल यात्रा के बहाने उनकी व्यथा कथा का भयावह चित्रण है कि कैसे गरीब आदमी जब तीज-त्यौंहार पर अपने गांव-घर वापस जाता है तो उनकी रेल को अभिजात समाज नाम बदल कर ‘भैया एक्सप्रेस’ कर देता है। यह भारतीय समाज की 21वीं सदी के पहले दषक के अवसान वाली दीपावली है, जब सरकारी आंकड़ों और घोषणाओं में स्वर्णिम भारत की बहुरंगी तस्वीर दिखाई जा रही है, लेकिन रेल-बसों में ठसाठस भरकर अपने मूल आषियाने की ओर जाने वाली आम लोगों की तादाद बता रही है कि यह एक ही देष में रहने वाले लोगों के दो देषों का चित्र है, जिसमें एक चमकदार भारत है, जिसके लिए हर तरफ ऑफरों की भरमार है, सजे-संवर-दमकतेे शॉपिंग मॉल हैं, नियॉन रोषनियों का जगमगाता समंदर है, बोनस की घोषणाएं हैं, दीवाली के तोहफे हैं, पटाखों की कानफोड़ू आवाजें हैं और नकली मावा के मुकाबले चॉकलेट और सूखे मेवों का बाजारी मुकाबला है। दूसरा भारत अपने मिट्टी के कोरे दीयों में खील-बताषों और नई फसल के साथ गोबर-गेरू से घर-आंगन लीपता राम-राम करता हुआ भारत है, जहां कई साल-बरसों बाद अपनों से गले मिलने का संतोष है, जिसे हफ्ते-दस दिन बाद फिर किसी ‘भैया एक्सप्रेस’ में चमकते भारत के संपन्न लोगों की हिकारत के बीच अपने खून-पसीने को बेचने जाना है।

दस फीसदी विकास दर की चकाचौंध रोषनी, सेंसेक्स के थर्मामीटर और प्रत्यक्ष विदेषी निवेष के ग्लूकोज से चलने वाले एक देष के लिए उस देष की दिवालिया दीवाली का कोई अर्थ नहीं है, जो नींव की ईंट बन कर चमक-दमक पैदा करने के लिए अपना श्रम और अपने संसाधन निछावर कर रहा है। गांव के गांव खाली हो रहे हैं, पारंपरिक रोजगार के अवसर समाप्त हो रहे हैं, लोग शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं, मानवीय श्रम भारतीय इतिहास में आज से पहले कभी इतना सस्ता नहीं था सो मजबूर लोग मामूली मजदूरी पर अपना पसीना बेचने को मजबूर हैं या चौराहों पर बीवी-बच्चों के साथ भीख मांगने के सिवा उनके पास आपराधिक तरीकों से काम चलाना ही अंतिम विकल्प बचा है। कहने को गांवों में महानरेगा है, जिसमें सौ दिन के रोजगार की गारंटी है, लेकिन पेट को तो 365 दिन भरना पड़ता है हुजूर और इस पर भी सितम यह कि नरेगा से लक्ष्मी को बंधक बनाकर घर में कैद करने वाले गांव के बड़े लोगों, पंच-सरपंच और सरकारी अफसरों का हिस्सा निकाल लो तो साल में दो हफ्ते का ही राषन जुटता है सौ दिन की नरेगा की मजदूरी से। लक्ष्मी जी को बंधक बनाकर चमकीले भारत के लोग ले गए हमारे लिए तो उनका वाहन ही छोड़ गए हैं जो अजीब निगाह से टुकुर-टुकुर देखता है हमारी तरफ, क्या करें उलूक महाषय का, हमारी अंधेरी रातों में तो उसकी एक जोड़ी टिमटिमाती आंखों की ही रोषनी है बस।

स्वर्ण चतुर्भुज जैसी मेगा सड़क परियोजनाएं देष के भूगोल का नक्षा बदल रही हैं और डेडिकेटेड फ्रेट कॉरिडोर सरीखी रेल पटरियां इक्कीसवीं सदी के वाणिज्यिक भारत का नया मानचित्र बनाने को बेताब हैं। लेकिन इस रोषन तस्वीर का दूसरा अंधेरा पहलू यह है कि इन सड़क और रेल मार्गों के किनारे बसे गांवों के ग्रामीणों की जिंदगियां आने वाले बरसों में हमेषा-हमेषा के लिए काली दीवाली लेकर आने वाली है। अगर केंद्र और राज्य सरकारों की भावी योजनाओं पर भरोसा किया जाए तो इन रेल-सड़क मार्गों के किनारे बसे गांवों की करोड़ों बीघा जमीन सरकारें अवाप्त कर पूंजीपति घरानों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों को देने जा रही हैं और इस जमीन पर कंपनियां खेती करेंगी, कृषि उत्पादों की प्रोसेसिंग करेंगी और रेल-सड़क मार्गों से तैयार माल सीधे देष-विदेष में बेचने के लिए भेज देंगी। फिर भविष्य में इन लाखों गांवों से मिट्टी के घर, गोबर के गोवर्धन और तमाम तीज त्यौहारों की रौनकें खत्म हो जाएंगी, बचेगा तो कंपनियों की चिमनियां का काला धुंआ और विषालकाय कृषि यंत्रों का अनंत शोरगुल, जिसमें ग्रामीण भारत की कृषि संस्कृति के सारे रंग खो जाएंगे। फिर कोई ‘भैया एक्सप्रेस’ इन रास्तों से गजरेगी तो बड़ेऋबूढ़े अपने बच्चों से कहेंगे कि यहीं कहीं हमारा गांव था, घर था, छोटा-सा खेत था, जहां हम होली-दीवाली और छठ मनाने आते थे।

शहरों की चकाचौंध भरी रोषन दीपावली के जगमग उजालों में भविष्य के अंधेरों की भयावह कल्पना के बीच हमें दिखाई देते हैं बड़े शहरों में बसे गरीबों के अंधियारे आषियाने, जहां ना बिजली है ना पानी, है तो बस दमघोंटू मलिन बस्तियों का मैला-कुचैला मेरा भारत महान। इस भारत के बारे में आम शहरी और नगर नियोजकों और नियंताओं का मानना है कि इक्कीसवीं सदी के चमकीले भारत के माथे पर ये बदनुमा दाग हैं। जबकि तथ्य यह है कि सिर्फ दिल्ली में सड़कों और सार्वजनिक स्थानों पर खड़ी होने वाली कारों ने दिल्ली की दस प्रतिषत जगह घेर रखी है और वहां की मलिन बस्तियों ने महज एक फीसद जगह।
(डेली न्यूज़, जयपुर में रविवार ३१ अक्टूबर, २०१० को प्रकाशित. )

Wednesday 13 October, 2010

जाना एक कॉमरेड कवि का

पिछले कुछ सालों से एक-एक कर हमारे अत्यंत प्रिय और महत्वपूर्ण संघर्षशील रचनाकार साथी विदा हो रहे हैं और यह बेहद दुखद है। इस अक्टूबर महीने की शुरुआत ही राजस्थान के लोकप्रिय, क्रांतिकारी और अजातशत्रु कॉमरेड कवि शिवराम के आकस्मिक निधन से हुई। उनका यूं अचानक चले जाना हमारे समय का ऐसा हादसा है, जिसकी भरपाई कभी नहीं हो सकेगी। शिवराम हाड़ौती अंचल की सबसे बुलंद आवाज थे। एक ऐसा इलाका, जो दक्षिणपंथियों का गढ़ है, जहां उद्योगपतियों का वर्चस्व है, वहां पिछले करीब चार दशक से शिवराम अकेले सिंह की तरह तमाम मोर्चों पर दहाड़ रहे थे और लोगों को एकजुट कर रहे थे। हाड़ोती के मजदूर, किसान, युवा, दलित, अल्पसंख्यक, वंचित, साहित्यकार, कलाकार और आम आदमी के  निर्द्वंद्व नेता शिवराम 01 अक्टूबर, 2010 को मौन हो गए। 
उनके निधन की सूचना से पूरे देश में शोक की लहर फैल गई। किसी के लिए यह कल्पना करना मुश्किल था कि शिवराम यूं अचानक भी जा सकते हैं। अभी तो उनके वास्तविक जननेता का काल शुरु हुआ था, जिसमें वे गांव-गांव, शहर-शहर घूम कर अपने ओजस्वी भाषणों, गहरे व्यंग्य और मर्मस्पर्शी कविताओं तथा चेतना से ओतप्रोत नाटकों के जरिए जन-जागरण का निरंतर काम कर रहे थे। तमाम वैचारिक मतभेदों के बावजूद वे सभी समान विचारधाराओं के लोगों को एक मंच पर लाने में जुटे हुए थे। राजस्थान में संयुक्त सांस्कृतिक मोर्चा के वे संयोजक थे और दिन-रात कई मोर्चों पर सक्रिय रहते थे। पता नहीं यह अति सक्रियता ही तो कहीं उन्हें हमसे दूर नहीं ले गई। 
23 दिसंबर, 1949 को करौली के गांव गढ़ी बांदुवा में जन्मे शिवराम का परिवार जातिगत पेशे से स्वर्णकार था। जिस परिवार में बात ही हमेशा सोना-चांदी की होती रही हो, वहां से संघर्षों की आंच में तप कर जो व्यक्तित्व निकला उसने मेहनत और पसीने की बूंदों को शब्द और संघर्ष की माला में पिरोकर जनता के सौंदर्य के गहने बनाने का बीड़ा उठाया। अजमेर से आई.टी.आई. की शिक्षा प्राप्त करने के बाद वे दूरसंचार विभाग में तकनीशियन के रूप में सेवाएं देने लगे। विवेकानंद से प्रभावित होकर वे मार्क्सवाद की तरफ आए और फिर अपने पूरे परिवार और समाज को ही इस धारा में शामिल करते चले गए। ऐसे मार्क्सवादी बहुत कम होते हैं, जो अपने परिवार को भी विचारधारा से जोड़कर जनता के संघर्षों के लिए दीक्षित करते हैं। पर शिवराम ऐसे ही थे। उनके साथ जो भी जुड़ता वो उनके सहज, आत्मीय, निर्मल और प्रेमिल व्यक्तित्व से प्रभावित होकर उनके विचारों का अनुषंगी हो जाता। हाड़ौती अंचल में शिवराम ने हजारों की संख्या मे लोगों को मार्क्सवाद की बुनियादी तालीम दी। सैंकड़ों कवि-लेखकों को प्रगतिशील-जनवादी सरोकारों से लैस होकर लिखने का पाठ पढ़ाया। 
मुझे याद नहीं कि उनसे मेरी पहली मुलाकात कब हुई थी, लेकिन उनके विचारों से, उनकी आयोजन क्षमता से, उनके मजदूर नेता वाले रूप से, उनके सृजनशील मन से, उनकी आत्मीयता से, उनकी सहज-सरल और मृदुल मुस्कान से मैं हमेशा प्रभावित हुआ। हमारे बीच कुछ बुनियादी वैचारिक सवालों पर मतभेद रहे, उन पर हम खुलकर चर्चा भी करते रहे, लेकिन यह उनके व्यक्तित्व का ही कमाल था कि मतभेद को उन्होंने कभी मनभेद नहीं बनने दिया। एक बार अजमेर में संयुक्त सांस्कृतिक मोर्चा की बैठक के बाद हम दोनों ने जयपुर तक की यात्रा में अपने संघर्षों के दौर के अनुभव आपस में बांटे। मुझे यह जानकर सुखद आश्‍चर्य हुआ कि स्वर्णकार परिवार में जन्म के बावजूद शिवराम जी ने बेहद संघर्ष किया और इसकी वजह यह थी कि वे बहुत स्वाभिमानी थे और पारिवारिक पेशे से अलग हटकर कुछ मन का काम करना चाहते थे, इसीलिए आई.टी.आई. में चले गए। उनकी औपचारिक शिक्षा बहुत ज्यादा नहीं थी, लेकिन स्वाध्याय से उन्होंने तमाम किस्म का ज्ञान अर्जित किया। हिंदी में मार्क्सवाद की छोटी-छोटी पुस्तिकाओं से उन्होंने अपना वैचारिक आधार तैयार किया, जो कुछ पढ़ते उसे साथियों के साथ सरल दैनंदिन उदाहरणों से समझाते और उनकी चेतना को नया रूप देते। लोगों के बीच अपनी बात पहुंचाने के लिए उन्होंने नाटक को खास तौर पर नुक्कड़ नाटक को अपनाया। हिंदी में जब मंच के लिए ही अच्छे नाटक नहीं हैं तो नुक्कड़ नाटकों का तो वैसे ही अकाल है। इस कमी को पूरा करने के लिए शिवराम ने खुद नाटक लिखना शुरु किया और कलाकारों की कमी के चलते खुद अभिनेता और निर्देशक भी हो गए। जनता की समस्याओं पर नुक्कड़ नाटक लिखने की प्रक्रिया में शिवराम सिद्धहस्त हो गए थे। उनका सर्वाधिक प्रसिद्ध नाटक है ‘जनता पागल हो गई है’, हिंदी में यह अब तक का सर्वाधिक मंचित नाटक है। नाटकों की उनकी पांच पुस्तकें प्रकाशित हैं। मेरे खयाल से हिंदी में शिवराम जनचेतना वाले नाटक लिखने वाले सबसे बड़े नाटककार हैं, शायद ही किसी अन्य नाटककार ने उनसे अधिक जन-नाटक लिखे हों। 
मूलतः कविर्मना शिवराम की कविताओं के तीन संग्रह हैं, ‘माटी मुळकेगी एक दिन’, ‘कुछ तो हाथ गहो’ और खुद साधो पतवार।’ कविताओं में वे आम आदमी से सीधा संवाद करते हैं और जगाने की बात करते हैं। उनकी कविताएं इसी जीवन और धरती पर रचे-बसे लोगों के सुख-दुख और निराशा से आशा की ओर ले जाने वाली कविताएं हैं। शिवराम मार्क्सवाद और अनवरत संघर्ष को ही जीवन का ध्येय मानने वाले सृजनशील, विचारक, जननायक थे। वे मानते थे कि जनसंघर्षों की सफलता मार्क्सवाद में ही संभव है, इसलिए अपनी एक कविता में वे कहते हैं, ‘उत्तर इधर है राहगीर, उत्तर इधर है।’ उनकी संघर्षषील और सृजनधर्मी स्मृति को नमन। 

यह स्‍मरणांजलि डेली न्‍यूज़, जयपुर के रविवारीय परिशिष्‍ट 'हम लोग' में 10 अक्‍टूबर, 2010 को प्रकाशित हुई।

Sunday 10 October, 2010

राम सजीवन की प्रेमकथा

यह जवाहर कला केंद्र की फ्राइडे थियेटर की हमेशा जैसी चहल-पहल भरी शाम थी। मेरे जैसे कई दर्शकों के मन में जिज्ञासा थी कि हिंदी के अद्भुत कथाकार उदय प्रकाश की चर्चित कहानी ‘राम सजीवन की प्रेमकथा’ को योग्य युवा रंगकर्मी अभिषेक गोस्वामी कैसे प्रस्तुत करेंगे? रंगायन सभागार में जब रोशनियां गुल हुईं तो अंधेरे में अभिषेक की आवाज में राम सजीवन के गांव से देश की राजधानी के सबसे महत्वपूर्ण विश्‍वविद्यालय तक पहुंचने की संक्षिप्त, पर रोचक कथा और राम सजीवन की पूरी सामाजिक-सांस्कृतिक पृष्ठभूमि जैसे-जैसे उजागर होती गई, मंच पर छाया अंधेरा भी छंटने लगा। कुर्ते-पायजामें में राम सजीवन राजधानी के विश्‍वविद्यालय में दाखिल हुए तो उनकी मित्र मंडली ने उनके आंरभिक अनुभवों और उनके बिहारी लहजे को लेकर उनकी मुश्किलों को एक एक कर बयान करना शुरु किया तो राम सजीवन की कथा रोचक ढंग से आगे बढने लगी। गंवई पृष्ठभूमि के राम सजीवन के लिए चीजों को देखने का गंवई अंदाज दर्शकों को गुदगुदाने लगा। किसी ने कितनी कीमत के जूते या कपड़े पहन रखे हैं इसे राम सजीवन क्विंटल धान या गेहूं में बयान करते तो दर्शकों के ठहाके लगते। इसी प्रक्रिया में राम सजीवन विश्‍वविद्यालय में सहपाठी छात्रों के कौतूहल का विषय बनते गए और विषमता और समाजवादी समाज की बहसों में वे वामपंथ के मार्ग पर चलते चले गए।

क्हानी में रोचक मोड़ तब आता है जब विश्‍वविद्यालय में लड़कियों को भी प्रवेश की अनुमति मिल जाती है और राम सजीवन होस्टल के जिस कमरे में रहते हैं उसकी बालकनी के ठीक सामने एक छात्रा अनिता चांदीवाला आ जाती है। बड़े बाप की बेटी अनिता लंदन से पढ़कर आई है। राम सजीवन उसे बालकनी में निसंकोच खड़ी देखते हैं तो उसके हाव-भाव से उन्हें लगने लगता है कि उन दोनों में प्रेम हो गया है और यह प्रेम मौन संवादों में मुखरित हो रहा है। वे अपने मित्रों से इस प्रसंग की चर्चा करते हैं और उपहास का पात्र बनते चले जाते हैं। इस इकतरफा प्रेमकथा का बुखार जब चरम पर पहुंचता है तो राम सजीवन देशी-विदेशी प्रेम कवितएं पत्रों में लिख कर अनिता को भेजने लगते हैं, जिसकी शिकायत वार्डन से की जाती है। अंततः मित्र लोग जबर्दस्ती राम सजीवन को गांव भेज देते हैं। एक साल बाद गांव से लौटने पर भी राम सजीवन सामान्य नहीं होते। लेकिन इस एक बरस में बहुत कुछ बदल जाता है, अनिता वापस लंदन चली जाती है और विश्‍वविद्यालय में माहौल बदल जाता है, उनका कमरा बदल दिया जाता है।

इकतरफा प्रेम की इस असाधारण प्रेमकथा को अभिषेक ने जिस रंगशैली में मंच पर प्रस्तुत किया वह बेहद प्रभावी और प्रयोगवादी है। आधुनिक कहानी को वायस ओवर, मादक संगीत और कई पात्रों के माध्यम से कहने में जो कमाल अभिषेक ने किया है वह काबिले तारीफ है। कलाकारों ने जिस तन्मयता से अभिनय किया, वह कहानी का प्रवाह टूटने नहीं देता और एक किरदार की कथा को कई किरदारों से कहलाने का नवाचार रंगमंच की असीम संभावनाओं भरी दुनिया को व्यक्त करत है। प्रकाश योजना और कई किस्म के रंग उपकरणों का जिस कुशलता के साथ अभिषेक इस्तेमाल करते हैं, वह कहानी को कई रूपों में व्यंजित और व्याख्यायित करता है। एक भोली-भाली मासूम प्रेमकथा राजधानी के आर्थिक विषमता भरे माहौल में कैसे उपहास का पात्र बन जाती है, भावनाएं जहां हर तरह से रौंद दी जाती है और व्यवस्था किसी मासूम प्रेमकथा को परवान नहीं चढ़ने देती। निश्‍चय ही एक विशिष्ट किस्म का रंग अनुभव है अभिषेक गोस्वामी की ‘राम सजीवन की प्रेमकथा।’

Monday 4 October, 2010

तुम्हारे शहर में

जब भी इस शहर में दाखिल होता हूँ


तुम्हारी याद आती है

वो तुम्हारा मोरपंखी नीला सूट

आँखों के आगे आसमान की तरह छा जाता है



वो दिन अब भी याद आते हैं

जब तुम्हारी मुस्कान में

चाँद का अक्स चमकता था

और हमारी बातों में परिन्दों का गान सुनाई देता था



वो तुम्हारा हरा कढ़ाईदार सूट

एक सरसब्ज बागीचा था

जो तुम्हारी देह-धरा को अलौकिक बनाता था



जब तुम झिड़कती थीं मुझे

मैं बच्चा हो जाता था

और तुम्हारी नाराज़गी पर

बुजुर्ग बनना पड़ता था मुझे



वो दिन अब नहीं लौटेंगे मम्मो

लेकिन मैं हूँ कि

बार-बार लौट आता हूँ इस शहर में

पता नहीं अब हम कभी मिलें न मिलें

पता नहीं इस विशाल शहर के किस कोने-अन्तरे में

तुम सम्भाल रही होंगी अपना घर

और एक मैं हूँ कि

हर फुरसत में सड़कों पर

खोजता फिरता हूँ

वही मोरपंखी नीला और हरा कढ़ाईदार सूट 

Sunday 26 September, 2010

दादी की खोज में

(आज बेटियों का दिन है यानी डॉटर्स डे, आज के दिन बेटियों को समर्पित है यह कविता। यह कविता मुझे बहुत प्रिय है, इसलिए इसे मैंने अपने संग्रह में सबसे पहली कविता के रूप में शामिल किया था। जब बरसों पहले यह कविता लिखी थी, तो लिखने के बाद कई दिनों तक बहुत रोया था और आज भी यह कविता मुझे रुला देती है।)

उस गुवाड़़ी में यूँ अचानक बिना सूचना दिये मेरा चले जाना
घर-भर की अफ़रा-तफ़री का बायस बना
नंग-धड़ंग बच्चों को लिये दो स्त्रियाँ झोंपड़ों में चली गईं
एक बूढ़ी स्त्री जो दूर के रिश्ते में
मेरी दादी की बहन थी
मुझे ग़ौर से देखने लगी
अपने जीवन का सारा अनुभव लगा कर उसने
बिना बताए ही पहचान लिया मुझे

‘तू गंगा को पोतो आ बेटा आ’

मेरे चरण-स्पर्श से आल्हादित हो उसने
अपने पीढे़ पर मेरे लिए जगह बनायी
बहुओं को मेरी शिनाख़्त की घोषणा की
और पूछने लगी मुझसे घर-भर के समाचार

थोड़ी देर में आयी एक स्त्री
पीतल के बड़े-से गिलास में मेरे लिए पानी लिये
मैं पानी पीता हुआ देखता रहा
उसके दूसरे हाथ में गुळी के लोटे को
एक पुरानी सभ्यता की तरह

थोड़ी देर बाद दूसरी स्त्री
टूटी डण्डी के कपों में चाय लिए आयी
उसके साथ आये
चार-बच्चे चड्डियाँ पहने
उनके पीछे एक लड़की और लड़का
स्कूल-यूनिफॉर्म में
कदाचित यह उनकी सर्वश्रेष्ठ पोशाक थी

मैं अपनी दादी की दूर के रिश्ते की बहन से मिला

मैंने तो क्या मेरे पिताजी ने भी
ठीक से नहीं देखी मेरी दादी
कहते हैं पिताजी
‘माँ सिर्फ़ सपने में ही दिखायी देती हैं वह भी कभी-कभी’

उस गुवाड़ी से निकलकर मैं जब बाहर आया
तो उस बूढ़ी स्त्री के चेहरे में
अपनी दादी को खोजते-खोजते
अपनी बेटी तक चला आया

जिन्होंने नहीं देखी हैं दादियाँ
उनके घर चली आती हैं दादियाँ
बेटियों की शक्ल में।

Sunday 12 September, 2010

भारतीय शासकीय मानसिकता और भाषा का सवाल

सितंबर का महीना मेरे लिए दो कारणों से महत्‍वपूर्ण है, जिसमें पहला कारण है इसे हिंदी माह के रूप में मनाना। कॉलेज की पढ़ाई तक कभी हिंदी माह के बारे में नहीं सुना था, क्‍योंकि एक तो मैं कॉमर्स का विद्यार्थी रहा और दूसरी तरफ साहित्‍य पढ़ने में ज्‍यादा मजा आता था, लिखना कम होता था और ऐसी कोई संगत नहीं थी जिसमें हिंदी माह के बारे में बातचीत या चर्चा हो। बैंक में नौकरी लगने के बाद इसकी जानकारी मिली। पूरे महीने ही नगर भर में हिंदी प्रतियोगिताओं की धूम मची रहती थी और हर जगह मुझे ही भेज दिया जाता था। पॉकेटबुक उपन्‍यासों से पीछा छूटने के बाद मैं कभी विमुख नहीं हुआ और ईमानदारी से कहता हूं कि शिवानी तक को मैं कभी नहीं पढ़ पाया। इसलिए गंभीर साहित्‍य की ओर ही मेरा झुकाव बना रहा। शुरुआत में इन प्रतियोगिताओं में भाग लेने का जो किंचित उत्‍साह था वह निर्णायकों ने धूमिल कर दिया। दरअसल निर्णायकों के नाम पर हिंदी के खराब अध्‍यापक या छिटपुट मंचीय किस्‍म के कवि और विभागों के हिंदी अधिकारी आते थे, जिनकी साहित्‍य की समझ पर मुझे बाद में शक होने लगा था। मैं जबर्दस्‍ती भेजा जाता था, लेकिन जब कविमित्र ही निर्णायक के रूप में आने लगे तो मैंने प्रतियोगिताओं में भाग लेना बंद कर दिया। बहरहाल, उस दौर में मैं सोचता था कि जिस भाषा के हम लोग हैं, वे अगर कुछ करें तो लोगों को हिंदी में काम करने की ओर प्रवृत किया जा सकता है। इस बारे में कुछ समय तो मैंने बड़े उत्‍साह से काम किया, लेकिन जब देखा कि लोगों की रूचि ही नहीं है तो यह भी छोड़ दिया।

लेकिन मुझे लगता है कि बैंक हो या अन्‍य कोई संस्‍थान, लगभग सब जगह यही स्थिति है। और इसके पीछे लोगों की मानसिकता से कहीं अधिक व्‍यवस्‍था की मूलभूत खामियां हैं। दरअसल, हमने जो व्‍यवस्‍था का तंत्र अंग्रेजों से विरासत में पाया है, वह बना ही अंग्रेजी मानसिकता और संस्‍कृति से है, जिसमें हिंदी और भारतीय भाषाएं कहीं फिट नहीं होतीं। भाषा के साथ उसकी संस्‍कृति और परंपराएं जुड़ी होती हैं, और वे अविच्छिन्‍न होती हैं। भाषा और संस्‍कृति मनुष्‍य की मानसिकता का निर्माण करती हैं। हम लोग घरों में अपने माता-पिता से अगर अपनी आंचलिक बोली-बानी में बात करते हैं तो वह हमारी सांस्‍कृतिक परंपरा है। हमारे माता-पिता को भले ही हिंदी या अंग्रेजी आती हो, हम उनसे बात अपनी प्रिय बोली में ही करते हैं, क्‍योंकि उसकी जो अपनी मिठास है वह दूसरी भाषा में नहीं। (रामचंद्र गुहा ने इसे द्विभाषी मानसिकता कहा है। कुछ महीनों पहले ई.पी.डब्‍लू. में उनका भाषाचिंतन पर शानदार लेख पढ़ा था, उसे हर लेखक को पढना चाहिए।) खैर, आजादी के बाद जो व्‍यवस्‍था चली आ रही है, उसमें ले देकर अंग्रेजियत वाली श्रेष्‍ठताबोध की मानसिकता ही हावी है। यह मानसिकता हिंदी और अन्‍य भारतीय भाषाओं और बोलियों को ही नहीं उपेक्षित समुदायों और स्त्रियों को भी प्रताडि़त करती है और उन्‍हें उनका वाजिब हक मिलने देने से रोकती है। इसे भारतीय शासकीय मानसिकता कहा जा सकता है।

इस मानसिकता का निर्माण आजादी के बाद नहीं बहुत पहले हो चुका था, जब देवभाषा संस्‍कृत को श्रेष्‍ठ माना जाता था। संस्‍कृत का पठन-पाठन एक खास जाति तक यानी स्‍वयं तक सीमित कर ब्राह्मणों ने जिस व्‍यवस्‍था को अपने बुद्धि-चातुर्य से स्‍थापित किया, उसने बाकी पूरे समाज को श्रेष्‍ठ भाषा से दूर रखा, कामगार-दस्‍तकार और दूसरी जातियों के साथ स्त्रियों को भी अपनी देवभाषा से बाहर रखा और उल्‍लंघन होने पर कानों में पिघलता शीशा डालने जैसी दण्‍ड व्‍यवस्‍था भी बनाई। अपने ईश्‍वरवादी कर्मकाण्‍डों के जरिए ब्राह्मणों ने पूरी शासन व्‍यवस्‍था को अपने चंगुल में जकड़ रखा था और क्षत्रिय-वैश्‍य जैसे कुछ समुदायों को कामगार-दस्‍तकार जातियों से बड़ा सिद्ध कर एक विषमतावादी समाज की रचना कर रखी थी। कर्मप्रधान समुदायों को अपने कामकाज से ही फुर्सत नहीं थी कि वे शासन व्‍यवस्‍था के दूसरे पहलुओं पर भी सोच सकें। इस तरह एक ऐसी शासकीय मानसिकता का निर्माण हुआ, जिसमें कुछ श्रेष्‍ठ जातियां सब पर हावी थीं और सारे अधिकार उन्‍हीं के पास थे। इसलिए जब अंग्रेज आए तो उनकी जी-हुजूरी में इसी शासकीय मानसिकता से ग्रस्‍त जातियों के लोग ही पहले गए और सारे ओहदे-मनसब अंग्रेजों की चाकरी में ले लिए। कामगार जातियों को तो शासकीय मानसिकता वालों ने लालच देकर मॉरीशस, सूरीनाम और ब्रिटिश गुयाना जैसे निर्जन द्वीपों पर जहाजों में लदवा कर भिजवा दिया था।

आजादी के बाद शासकीय मानसिकता वाली श्रेष्‍ठ जातियों के लोग ही प्रभावकारी स्थिति में थे। उन्‍होंने सबसे पहले हिंदी और भारतीय भाषाओं के मुकाबले में अंग्रेजी को सर्वोच्‍च स्‍थान देकर एक तरफ तो अपनी ब्रिटिश राजभक्ति को सिद्ध किया, दूसरी तरफ हिंदी और अन्‍य भाषाओं के प्रति अपनी हिकारत को सार्वजनिक कर सिद्ध किया कि वे ब्राह्मणों द्वारा पोषित व्‍यवस्‍था को ही आगे ले जाएंगे, जिसमें शासन की भाषा या तो अंग्रेजी रहेगी, अन्‍यथा दूसरी किसी भी भाषा को ऐसा बना दिया जाएगा कि वह आम आदमी से दूर रहे और शासन में आम आदमी के बजाय शासकीय मानसिकता वाले श्रेष्ठिवर्ग का ही बोलबाला रहे। इसलिए हिंदी को राजभाषा बनाने के साथ ही यह षड़यंत्र रचा जाने लगा था कि इसे जनविमुख सरकारी भाषा कैसे बनाया जाए। आजमाया हुआ प्राचीन नुस्‍खा देवभाषा संस्‍कृत के रूप में था ही। इसलिए पहले तो जानबूझकर हिंदी से हिंदुस्‍तानी और तत्‍सम शब्‍दों को अस्‍पृश्‍य और त्‍याज्‍य कह कर वैसे ही निकाला गया, जैसे संस्‍कृत से कामगार-दस्‍तकार जातियों और स्त्रियों को वंचित किया गया था। शब्‍दकोश और शब्‍दावली बनाने का जिम्‍मा भी शासकीय मानसिकता वाले श्रेष्ठिवर्ग के पास था, इसलिए उन्‍होंने देवभाषा से ऐसे-ऐसे शब्‍दों की सर्जना की कि आम आदमी उस हिंदी से भी दूर भाग जाए और उसके लिए यह हिंदी भी अंग्रेजी की तरह ही अत्‍यंत जटिल और दुर्बोध हो जाए, जो उसकी अपनी भाषा नहीं है। बोलचाल की हिंदी को अपदस्‍थ कर किताबी किस्‍म की हिंदी विकसित करने का श्रेय उसी समुदाय को दिया जा सकता है जो अंग्रेजी और अंग्रेजों की चाटुकारिता में कई पीढि़यों तक लगा रहा।

हमारी व्‍यवस्‍था में चूंकि अंग्रेजियत हावी रही इसलिए वहां हिंदी या भारतीय भाषाएं पूरी तरह स्‍थापित नहीं हो पातीं। जब तक समूची कार्यप्रणाली और कार्यसंस्‍कृति को भारतीयों के अनुकूल नहीं बनाया जाता, तब तक भारतीय भाषाएं व्‍यवस्‍था में आवेदन पत्रों तक ही सीमित रहेगी। इसलिए पूरी व्‍यवस्‍था इसी में लगी रहती है कि राजकाज में हिंदी का यथासंभव प्रयोग हो। हमारी व्‍यवस्‍था के तमाम दस्‍तावेज अंग्रेजों द्वारा बनाए गए हैं और उनका घटिया अनुवाद हिंदी और दूसरी भाषाओं में देखने को मिलता है। मौलिकता हमारी व्‍यवस्‍था में दुर्गुण माना जाता है, हर जगह अंग्रेजी में लिखे को ही प्रामाणिक माना जाता है। यही भारतीय शासकीय मानसिकता है, जिसका जातिगत श्रेष्‍ठता से गहरा संबंध उजागर हो चुका है।

सितंबर का मेरे लिए एक और तरीके से महत्‍व है और उसका संबंध भारतीय स्‍वाधीनता संग्राम की एक ऐसी घटना से है जो मुझे कहीं ना कहीं भाषा के सवाल को जाति से जोड़कर देखने के लिए विवश करती है, क्‍योंकि उस घटना में भी शासकीय मानसिकता के दर्शन होते हैं। यह घटना है सितंबर, 1932 में पूना पैक्‍ट की। जब ब्रिटिश सरकार पूरी तरह तय कर चुकी थी कि 'कम्‍यूनल अवार्ड' के तहत अस्‍पृश्‍य जातियों को अल्‍पसंख्‍यकों और अन्‍य समुदायों की तरह अलग से संविधान में पृथक निर्वाचन की व्‍यवस्‍था की जाएगी तब महात्‍मा गांधी ने इसे भारत की एकता को खंडित करने वाला कदम बता कर यरवदा जेल में 20 सितंबर, 1932 को आमरण अनशन शुरु कर दिया था। गांधी जी की तबियत इस अनशन से बहुत तेजी से खराब होने लगी थी। डॉ. अंबेडकर जानते थे कि अगर इस अनशन से गांधी जी की मृत्‍यु हो जाती है तो देश भर के सवर्ण अछूतों का नरसंहार कर देंगे। इसलिए बेहद मानसिक दबाव और तनाव में डॉ. अंबेडकर ने गांधी जी के साथ 24 सितंबर, 1932 को यरवदा जेल में पूना पैक्‍ट किया था। इस समझौते के तहत पृथक निर्वाचन के बजाय दलितों के लिए अलग से सीटें आरक्षित करने और नौकरियों में भी आरक्षण का प्रावधान था। इस पैक्‍ट को लेकर बहुत विवाद हैं, दलितों के एक तबके का मानना है कि डॉ. अंबेडकर को गांधी जी के आगे नहीं झुकना चाहिए था। लेकिन भारतीय समाज के इतिहास में यह बहुत बड़ी ऐतिहासिक घटना है जो दर्शाती है कि बहुसंख्‍यक समाज को हर दौर में अपने ही हितों की कुर्बानी देनी पड़ती है फिर वो चाहे देश का मामला हो या भाषा का। कल्‍पना कीजिए कि अगर दलितों के आत्‍म निर्णय और पृथक निर्वाचन को कानूनी दर्जा मिल जाता तो क्‍या होता। एक और विभाजित भारत बनता, जिसमें दलितों की अपनी सत्‍ता होती और यह देश विभाजित सोवियत संघ के छोटे-छोटे देशों की तरह होता। लेकिन, भारतीय शासकीय मानसिकता कभी नहीं चाहती कि कोई उनकी बराबरी करे। इसीलिए गांधीजी चाहते थे कि हरिजन सबके साथ रहें, उसके लिए आरक्षण दिया जा सकता है, लेकिन विशेष दरजा नहीं। हिंदी और भारतीय भाषाओं को भी राजकाज में आरक्षण तो दे सकते हैं पूरी सत्‍ता नहीं दी जा सकती। भाषा के साथ भारतीय शासक मानसिकता का यही जातिवादी व्‍यवहार है। वह हिंदी को भी संस्‍कृतनिष्‍ठ बना देगा, लेकिन वंचितों की भाषा से हिंदी को अशुद्ध होने से बचाता रहेगा, बल्कि लगातार कोशिश करेगा कि हिंदी को संस्‍कृत कैसे बनाया जाए। इसके लिए अंग्रेजी से निसंकोच शब्‍द ले लेगा, लेकिन कामगारों और दस्‍तकारों की बोली-बानी को हिंदी के पवित्र सरकारी आंगन में नहीं आने देगा। जिन कामगारों को शासकीय मानसिकता वालों ने गिरमिटिया मजदूर बनाकर देश निकाला दे दिया था, उनकी हिंदी भी हिंदी है, लेकिन उसमें हिंदी की बोली-बानियों की मिठास अब भी बची हुई है, जबकि हमारी हिंदी से हमने कुजात बोलियों के शब्‍द वैसे ही बाहर निकाल दिए हैं जैसे सदियों से अछूतों को गांव के बाहर बसाते आए हैं।



















Sunday 5 September, 2010

कोंकणी को गरिमा देने वाले केलकर

किसी भाषा में शायद ही रवींद्रबाब जैसे रचनाकार मिलते हैं, जो जिंदगी भर अपनी माटी की, अपनी जनता की और अपनी भाषा की सेवा करते रहें और उन्हें जनता का उतना ही प्यार और सम्मान मिले। आज यह कल्पना भी नहीं की जा सकती कि एक अकेला रचनाकार विशुद्ध गांधीवादी औजारों से एक तरफ तो उपनिवेशवादी सरकार से लोहा ले और दूसरी तरफ अपने ही देश में अपनी भाषा और प्रांतीय अस्मिता के लिए जीवन भर संघर्ष करता हुआ अपने जीवनकाल में विजय भी प्राप्त करे। लेकिन रवींद्रबाब ऐसे ही संघर्षशील और जुझारू कलम के योद्धा थे। गोवा और कोंकणी के इस महान सपूत ने अभी हाल ही में 85 वर्ष की आयु में 27 अगस्त, 2010 को अंतिम सांस ली। 25 मार्च, 1925 को दक्षिणी गोवा में प्रसिद्ध चिकित्सक डॉ. राजाराम केलकर के यहां उनका जन्म हुआ। राजाराम केलकर ने 'भगवद्गीता' का पुर्तगाली भाषा में पहला अनुवाद किया था। नाना लिंगुबाब दलवी ने कविगुरु रवींद्रनाथ टैगोर के नाम पर नाम रखा रवींद्र। उन दिनों गोवा पर पुर्तगाल का शासन था और पूरा गोवा मुक्ति के लिए छटपटा रहा था। पणजी में आरंभिक शिक्षा के दौरान ही 21 बरस की उम्र में रवींद्र केलकर गोवा मुक्ति संग्राम से जुड़ गए थे। कॉलेज में शिक्षाविद, लेखक और स्वतंत्रता सेनानी लक्ष्मण राव सरदेसाई ने उनके भीतर देशभक्ति और जनसेवा के पौधे को पल्लवित किया। उन्हीं दिनों स्वाधीनता सेनानी दोस्तों ने एक सरकारी स्कूल को जला डाला था और इसमें रवींद्र के पकड़े जाने की पूरी उम्मीद थी, इसलिए वो पुर्तगाली सरकार की निगाह से बचने के लिए भागकर मुंबई आ गए। यहां वे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के नेताओं और गांधीजी के संपर्क में आए। राम मनोहर लोहिया से उनकी पहली मुलाकात यहीं हुई और लोहिया से रवींद्र ने सीखा कि जनता को जगाने के लिए अपनी मातृभाषा को माध्यम बनाकर कैसे लड़ा जा सकता है। गांधीजी के दर्शन से प्रभावित होकर वे मुंबई से काका साहेब कालेलकर के साथ वर्धा चल दिए। यहां सेवाग्राम में रहते हुए युवा रवींद्र ने काका साहेब से बहुत कुछ सीखा। काका साहेब को वे मोबाइल यूनिवर्सिटी कहते थे, जाहिर है ऐसे महान व्यक्तित्व के सान्निध्य में रवींद्र के व्यक्तित्व में बहुत कुछ जुड़ना था। अध्ययन, मनन और जनसेवा के साथ एक पत्रिका का संपादन करते हुए रवींद्र केलकर ने छह साल वर्धा में गुजारे और 1949 में गांधी स्मारक संग्रहालय, नई दिल्‍ली में लाइब्रेरियन के रूप में काम करने लगे। देश आजाद हो चुका था, लेकिन गोवा पर अभी भी पुर्तगाली आधिपत्य था। रवींद्र केलकर ने एक साल में ही दिल्ली की नौकरी छोड़ दी, उन्हें गोवा का मुक्ति संग्राम पुकार रहा था।

गोवा पहुंचकर उन्होंने गांधीवादी अहिंसक रास्ते से गोवा की मुक्ति के लिए संघर्ष आरंभ किया। उन्होंने जन जागरण के लिए कलम को हथियार बना लिया और हिंदी, मराठी और कोंकणी में लेख लिखकर लोगों को गोवा की आजादी के लिए जगाने लगे। मुंबई से उन्होंने ‘गोमांतभारती’ साप्ताहिक पत्रिका निकाली, जो रोमन लिपि में कोंकणी में प्रकाशित होती थी। 1961 में जब भारतीय सेना ने गोवा को आजाद करा लिया तो रवींद्र केलकर का संघर्ष दूसरे रूप में आरंभ हुआ। कोंकणी भाषा और सांस्कृतिक अस्मिता को बचाने के लिए गोवा को महाराष्ट्र से अलग राज्य का दर्जा दिलाने के लिए। कोंकणी को मराठी की आंचलिक भाषा या बोली मानने का तर्क उन्हें स्वीकार नहीं था और इसी आधार पर वे गोवा को अलग राज्य का दर्जा दिलाना चाहते थे। उनके आंदोलन का ही परिणाम था कि भारत सरकार ने गोवा को महाराष्ट्र में शामिल करने के बजाय केंद्रशासित प्रदेश का दर्जा दिया। अब रवींद्र केलकर के लिए एक नया आंदोलन तैयार खड़ा था, कोंकणी को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने का और गोवा को पूर्ण राज्य बनाने का। कोंकणी भाषा के लिए उनका संघर्ष और योगदान अप्रतिम है। 1962 में प्रकाशित उनकी ‘आमची भास कोंकणिच’ अद्भुत पुस्तक है, जिसमें राह चलते लोगों से संवाद के माध्यम से वे कोंकणी भाषा की अस्मिता के लिए आह्वान करते हैं। ‘शालेंत कोंकणी कित्याक’ में उन्होंने कोंकणी का पूरा स्कूली पाठ्यक्रम बना दिया। ‘कोंकणी साहित्य की ग्रंथसूची’ को कोंकणी, हिंदी और कन्नड़ में प्रस्‍तुत कर उन्होंने सिद्ध कर दिया कि कोंकणी का महत्व अब हर हाल में स्वीकारा जाना चाहिए। उनकी संघर्षशीलता को गोवा के लोगों ने अपूर्व सम्मान दिया और स्नेह से उन्हें सब रवींद्रबाब पुकारने लगे। 1975 में साहित्य अकादमी ने कोंकणी को स्वतंत्र भाषा के रूप में मान्यता दी तो कोंकणी के आत्मसम्मान को राष्ट्रीय तौर पर स्वीकारा गया। दो साल बाद उनके यात्रा संस्मरणों की पुस्तक ‘हिमालयांत’ को साहित्य अकादमी पुरस्कार प्रदान किया गया। 1987 में जब गोवा को पृथक राज्य घोषित किया गया तो राज्य विधानसभा ने कोंकणी को राज्य की अधिकारिक भाषा स्वीकार किया। 1990 में रवींद्रबाब को दूसरी बार साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला, इस बार गुजराती निबंधकार झवेरचंद मेघानी की पुस्तक का कोंकणी में अनुवाद करने के लिए। केलकर का संघर्ष 1992 में फलीभूत हुआ जब कोंकणी को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल किया गया।

कोंकणी, हिंदी, अंग्रेजी और मराठी में रवींद्र केलकर की तीन दर्जन से अधिक पुस्‍तकें प्रकाशित हुई हैं। महात्मा बुद्ध, काका साहेब कालेलकर और महात्मा गांधी की जीवनियां तो बहुत ही दिलचस्प और पठनीय हैं। लेकिन कोंकणी में उन्होंने दो खण्डों में ‘महाभारत’ का जो अनुवाद किया है वो अद्भुत है। एक तटस्थ वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाते हुए उन्होंने महाभारत के चमत्कारिक प्रसंगों से इतर महाभारत की जो ‘अनुरचना’ की है, उसके सामने शायद नरेंद्र कोहली की ‘महासमर’ कुछ भी नहीं है। 2007 में उन्हें जीवनपर्यंत साहित्य सेवा के लिए साहित्य अकादमी फेलोशिप प्रदान की गई। 2006 में उन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार घोषित किया गया, जो उनकी अस्वस्थता के कारण उन्हें 2010 में दिया जा सका। इस अवसर पर उन्होंने अपने भाषण में बहुत सी महत्वपूर्ण बातें कही थीं, जिनमें से एक बात बहुत ध्यान देने की है। उन्होंने कहा था, ‘लोगों ने आजकल क्षेत्रीय भाषाओं का साहित्य पढ़ना बंद कर दिया है। और दूसरी तरफ अंग्रेजी के माध्यम से हमने बोन्साई बुद्धिजीवी पैदा कर दिए हैं। बोन्साई लेखक और बोन्साई पाठक।‘ शोभा डे और चेतन भगत जैसे अंग्रेजीदां बोन्साई लेखक और बुद्धिजीवियों के लिए यह बात रवींद्र केलकर जैसा गांधीवादी, प्रखर योद्धा रचनाकार ही कह सकता था। ऐसे महान रचनाकार को शत शत नमन, जिसने एक प्रांत और एक भाषा को महान गरिमा और आत्मसम्मान दिया।

यह आलेख डेली न्‍यूज़ के रविवारीय परिशिष्‍ट 'हम लोग' में 05 सितंबर, 2010 को प्रकाशित हुआ।

Thursday 2 September, 2010

मीरा की एक कविता

यह कविता मेरी नहीं है, यह मुझसे मीरा ने लिखवाई है।


क्‍यों कहा मां ने बचपन में कि
मेरा ब्‍याह तुमसे हो चुका है
मैं तुम्‍हारे ही सपने देखती बड़ी हुई मेरे श्‍याम
मेरी हर सांस तुम्‍हें ही पुकारती थी
हर ओर तुम्‍हारी ही मोहिनी मूरत दिखती थी

मैं नादान, मासूम बालिका थी श्‍याम
मुझे क्‍या मालूम था कि तुम्‍हारे नाम का पागलपन
कभी सचमुच ही पगली बना देगा

उन महलों में जहां औरतों का दम घुटता था
मैं तुम्‍हारे स्‍वप्‍नों की छांव में बड़ी हुई श्‍याम
तुम मेरे मुक्तिदाता बन गए थे
मैं सोचती थी इन महलों की कैद से निजात दिलाने
एक दिन जरुर आएगा मेरा श्‍याम
मैं नहीं जानती थी कि मेरा श्‍याम
मुझे अपनी ही कैद में एक दिन जकड़ लेगा
और सदियों तक मुझे बावली बना कर रख देगा

जब एक बार हो ही चुका था मेरा ब्‍याह तुम्‍हारे साथ
तो फिर क्‍यों ब्‍याहा मुझे राणाजी के साथ
क्षत्रियों में तो नहीं थी प्रथा दो पतियों की मेरे श्‍याम
मैं रोती कलपती रही पर किसी ने नहीं सुना मेरा रूदन
तुमने भी तो नहीं सुनी मेरी चीख पुकार मेरे श्‍याम

नहीं मैं कुछ नहीं कहूंगी राणाजी के लिए
वो भले मानस कैसे जानते कि मेरा पहले से ही एक पति है
वो संसारी आदमी कहां समझते तुम्‍हारा और मेरा संबंध
उन्‍हें कहां मालूम था कि
मेरा पति कहीं है
कि मैं उसी की सुहागन हूं

अगर मैं जानती होती कि
तुम्‍हारी हजारों रानियां हैं
असंख्‍य गोपियां तुम्‍हारी दीवानी हैं
तो मैं उनमें से ही एक हो जाती मेरे श्‍याम
वो जिनका कोई नहीं जानता नाम
तुम्‍हारी ही कृपा है मैं उनमें नहीं रही

पर तुम बड़े झूठे हो श्‍याम
मैं पुकारती रही अहोरात्र और तुम
बस अपनी मूरत में ही मुस्‍कुराते रहे
ढीठ कहीं के
तुमने कभी मुझे क्‍यों नहीं पुकारा
क्‍या राधा-रुक्मिणी ने रोक रखा था तुम्‍हें
या गोपियों के साथ रास रचा रहे थे कहीं
जब मैं मंदिर में सिर पीट-पीट कर चिल्‍ला रही थी
तुम्‍हारे ही गीत गा रही थी

सुनो मैं सच कहना चाहती हूं आज
कि मुझे तुमसे सच में गहरा प्रेम था
कि मैं तुम्‍हारी सुहागन बनकर भी खुश थी
और तुम्‍हारी विधवा के रूप में भी

पर सुनो श्‍याम
तुम्‍हारे कारण मेरी जग हंसाई तो हुई जो हुई
तुमने एक स्‍त्री का जीवन क्‍यों नष्‍ट किया श्‍याम
अरे तुमने मुझे एक सामान्‍य लड़की तो क्‍या
आम औरत का जीवन भी नहीं जीने दिया मेरे श्‍याम

सोचो अगर मेरे भी बच्‍चे होते तो क्‍या मैं इतनी पगली होती
तुम्‍हारे जैसा ही एक नटखट श्‍याम मेरे आंगन में भी खेलता
उस पर मैं अपना पूरा प्रेम लुटाती
उसके लिए हरपल चिंतित रहती
सुनो मेरे चंचल-वृत्ति श्‍याम
हर स्‍त्री की कामना होती है
तुम्‍हारे जैसी एक सुंदर संतान की
तुमने मुझे उससे वंचित कर दिया

खैर एक जनम तो तुमने मेरा छीन ही लिया
मुझे इस कदर बदनाम किया कि अब तो लोग
अपनी बेटियों का नाम मीरा रखने से डरते हैं
बस इतनी कृपा करना कि अगले जन्‍म में
मैं एक आम औरत की तरह रह सकूं

कुछ तुम्‍हारे गुण अवगुण भी आ जाएं मुझमें
मैं नहीं चाहती कि तुम्‍हारी तरह मेरे हजारों प्रेमी हों
पर प्रेम की कामना के बीज उगें तो उगने देना मेरे श्‍याम
जब तुम दो के साथ सहज स्‍वीकार्य हो
तो कोई स्‍त्री अन्‍य के प्रेम में ना मारी जाए श्‍याम
तुम्‍हारे जन्‍म दिन पर इतनी कामना तो कर ही सकती हूं
कि एक स्‍त्री को प्रेम का अधिकार दिला दो

तुम यदुवंशी मैं क्षत्राणी
फिर भी अपना प्रेम फला
इस भरतखण्‍ड में तुम्‍हारे युद्धक्षेत्र में
स्त्रियां प्रतिबंधित हैं प्रेम करने के लिए
वहां खाटों पर खांपें खाल खींच रही हैं प्रेमियों की
और तुम अपना जन्‍मदिन मना रहे हो
वाह मेरे श्‍याम वाह
मुबारक हो ऐसा जन्‍मदिन हजार बार।

चित्र कोमल नाडकर्णी की पेंटिंग है।

Sunday 29 August, 2010

अपनी ही धुन का कवि पाब्लो नेरूदा

भारतीय कविता पर जिन विदेशी साहित्यकारों का सबसे ज्यादा असर रहा है उनमें पाब्लो नेरूदा का नाम सबसे उपर है। नेरूदा उन गिने-चुने विदेशी लेखकों में हैं जिनकी जन्म शताब्दी भारत में व्यापक पैमाने पर मनाई गई और इस अवसर पर उन पर कई भाषाओं में केंद्रित पत्रिकाओं के विशेषांक और कई पुस्तकाकार प्रकाशन हुए। 12 जुलाई, 1904 को रेल्वे कर्मचारी पिता और अध्यापिका माता के यहां चिली में जन्मे पाब्लो नेरूदा की मां का जन्म के दो महीने बाद ही निमोनिया से निधन हो गया। पिता ने दूसरी शादी की और दो सौतेले भाई-बहनों के साथ नेरूदा का लालन-पालन हुआ। पिता नहीं चाहते थे कि उनका बेटा लेखक-कवि बने, इसलिए उन्होंने प्रारंभ में नेरूदा के इस रुझान का विरोध भी किया, क्योंकि वे चाहते थे कि बेटा दुनियादार आदमी बने और लेखक-कवि बनने का ख्वाब छोड़ दे। लेकिन चिली के जंगलों में बालसुलभ कौतूहल में घंटों घूमने वाले और कई किस्म के कीट-पतंगों और फूल-पत्तियों का संग्रह करने वाले नेरूदा अपनी धुन के पक्के थे। फिर आरंभिक शिक्षा के दौरान नेरूदा को गेब्रिएला मिस्त्राल जैसी कवयित्री शिक्षिका का सान्निध्य मिला, जिन्हें आगे चल कर नोबल पुरस्कार मिला। नेरूदा की पहली कविता अपनी दिवंगत मां की स्मृति में थी, जो कहीं विस्मृत हो गई। पहली रचना तेरह बरस की उम्र में ही एक स्थानीय अखबार में एक निबंध ‘उत्साह और उद्यमशीलता’ के रूप में प्रकाशित हुई। पाब्लो नेरूदा का मूल नाम रिकार्डो एलीज़र नेफ्टाली रीस वाय बेसाआल्टो था। लेकिन पिता के डर से उन्होंने अपना नाम पाब्लो नेरूदा रख लिया जो दो महान लेखकों जेन नेरूदा और पॉल वरलाइन के मिश्रण से बना था। सोलह साल की उम्र तक आते-आते उनके बदले हुए नाम से रचनाएं प्रचुर मात्रा में पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगी थीं। पढ़ने की नेरूदा को इतनी जबर्दस्त धुन थी कि कम उम्र में ही उन्होंने कस्बे की लाइब्रेरी की तमाम किताबें पढ़ डालीं।

सत्रह साल की आयु में वे चिली विश्‍वविद्यालय में फ्रेंच भाषा पढ़कर अध्यापक बनने का सपना लेकर गए। लेकिन जल्द ही यह सपना त्याग कर वे पूर्णकालिक कवि हो गए। उन्नीस की उम्र में पहला कविता संग्रह प्रकाशित हुआ ‘बुक ऑफ ट्वाइलाइट्स’। अगले साल ‘ट्वेंटी लव पोएम्स एण्ड ए सोंग ऑफ डिस्पेयर’ ने पाब्लो की ख्याति रातों-रात बढ़ा दी। इतनी कम उम्र में ऐसी खूबसूरत प्रेम कविताओं की वजह से पाब्लो को जबर्दस्त आलोचना और प्रशंसा समान रूप से मिली। उन्‍मुक्‍त प्रेम की उद्दाम भावनाओं की कविताओं के इस संग्रह का कालांतर में विश्‍व की कई भाषाओं में अनुवाद हुआ और आज भी ये उनकी सर्वाधिक बिक्री वाला संग्रह है। इस संग्रह में एक कविता में उन्होंने रवींद्रनाथ टैगोर की ‘गीतांजलि’ से उद्धृत करते हुए कविगुरू को सम्मान दिया था। भारत के साथ नेरूदा का रिश्‍ता कालांतर में और मजबूत होता गया। पाब्लों की प्रसिद्धि तो फैल रही थी, लेकिन गरीबी पिंड नहीं छोड़ रही थी। पैसा कमाने की कई योजनाएं बनाते और हर बार असफल हो जाते। इसलिए वे राजनयिक सेवा में एक नौकरी के लिए 1927 में नितांत अनजान जगह रंगून जा पहुंचे। इसके बाद वो कोलंबो, बटाविया और सिंगापुर भी रहे। बटाविया, जावा में पाब्लो की मुलाकात डच बैंककर्मी मैरिका से हुई, जिसके साथ उन्होंने पहला विवाह किया। राजनयिक सेवा के दौरान पाब्लो जहां भी रहे, वहां के साहित्य और सांस्कृतिक परंपराओं का अध्ययन कर अपनी कविताओं में निरंतर प्रयोग करते रहे और विभिन्न संस्कृतियों को अपने काव्य में रचते रहे।

चिली वापस लौटने के बाद उनकी नियुक्ति अर्जेंटीना और स्पेन में की गई। यहां उन्हें लोर्का और राफाएल जैसे कवि-साहित्यकारों से हुई। 1934 में पहली बेटी का जन्म हुआ, जो लगातार बीमारी के कारण जल्द ही चल बसी। इस बीच उनका पत्नी की तरफ से रुझान घटता गया और 1936 में तलाक हो गया। इसके बाद पाब्लो ने अर्जेंटाइन डेलिया से विवाह किया जो उनसे बीस साल छोटी थी। स्पेन में जब गृहयुद्ध छिड़ गया तो पाब्लो नेरूदा राजनैतिक तौर पर बेहद गंभीर हो गए और वामपंथी विचारों से प्रभावित हुए। स्पेन में जब लोर्का की हत्या की गई तो वे उग्र वामपंथी हो गए और परिणाम स्वरूप ‘स्पेन इन द हार्ट’ कविता संग्रह प्रकाश में आया। 1937 में स्वदेश वापसी के बाद पाब्लो नेरूदा की कविताएं पूरी तरह राजनीतिक रंग में रंग गईं, जिनमें आतताइयों का प्रखर विरोध और जनता का प्रबल समर्थन मुखरित हुआ।

राजनयिक सेवा के दौरान उनकी नियुक्ति मेक्सिको में हुई जहां वे ऑक्टोविया पाज जैसे महान कवि से मिले। अपने राजनैतिक विचारों के कारण नेरूदा को देश और नौकरी दोनों को छोड़ना पड़ा। लेकिन वे कभी भी अपने राजनैतिक विचारों से विमुख नहीं हुए और इसका आगे चलकर उन्हें फायदा भी मिला। उनके लिए कविता हमेशा मनुष्य की अंतरात्मा की आवाज रही। 1950 में उनका विराट कविता संग्रह ‘केंटो जनरल’ प्रकाशित हुआ, जिसमें उनकी सर्वाधिक प्रसिद्ध कविता ‘माचू पिच्चू के शिखर’ भी शामिल थी। इस कविता का हिंदी में कई कवियों ने अनुवाद किया है और भारतीय साहित्य में नेरूदा की यह सबसे लोकप्रिय कविताओं में से है। इंका सभ्यता के एक उजड़े हुए नगर के बहाने यह कविता सभ्यता और संस्कृति का विहंगम विमर्श प्रस्तुत करती है, जिसमें मनुष्य के प्रयत्नों की गंध और उसके स्वप्नों की बहुत सुंदर छवियां देखने को मिलती हैं। जब चिली में उनके विचारों की सरकार की स्थापना हुई तो वे स्वदेश लौट आए और 1958 में ‘एक्सट्रावैगारियो’ काव्य संग्रह प्रकाश में आया। उनकी ख्याति बतौर कवि और राजनेता चिली में चरम पर थी और उनके अनुवाद निरंतर प्रकाशित होते जा रहे थे। बतौर राजनेता वे सीनेटर चुने गए।

1971 में जब उन्हें नोबल पुरस्कार दिया गया तो वे स्वाभाविक तौर पर इसके हकदार माने गए। क्‍योंकि करीब दस साल से हर बार उनका नाम संभावितों की सूची में होता था और अंत में किसी अन्‍य लेखक को नोबल घोषित हो जाता था। बहरहाल, उन्होंने आपने नोबल भाषण में नोबल पुरस्कार उन तमाम लोगों को समर्पित किया जो उनकी कविता में किसी भी रूप में आए। पाब्लो नेरूदा के लिए कहा जाता है कि दुनिया की तमाम भाषाओं में वे बीसवीं सदी के महानतम कवि हैं। नेरूदा ने चार बार भारत की यात्रा की। पहली बार नवंबर, 1927 में वे मद्रास आए, जहां उन्होंने भारतीय महिलाओं पर बेहतरीन कविताएं लिखीं। इसके बाद दिसंबर, 1928 में वे कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में शामिल हुए, जहां मोतीलाल नेहरू, जवाहर लाल नेहरू और महात्मा गांधी आदि राष्ट्रीय नेताओं से मिले। भारतीय स्वाधीनता संग्राम से नेरूदा ने प्रभावित होकर लिखा कि यह पूरे एशिया का जागरण था। 1951 में वे विश्‍व शांति परिषद के प्रतिनिधि के तौर पर प्रधानमंत्री पंडित नेहरू से मिलने आए। यहीं उन्होंने ‘इंडिया 1951’ कविता लिखी, ‘धरती का गर्भ/एक बंद गलियारा जहां इतिहास के अंगूर पकते हैं/पुराने ग्रह-नक्षत्रों की प्राचीन बहन है भारत की धरती।’ अंतिम बार नेरूदा 1957 में बांग्ला कवि विष्णु डे के निमंत्रण पर भारत आए। 23 सितंबर 1973 को उनका निधन हुआ।
यह आलेख राजस्‍थान पत्रिका के रविवारीय संस्‍करण में 29 अगस्‍त, 2010 को 'विश्‍व के साहित्‍यकार' शृंखला में प्रकाशित हुआ।









Tuesday 24 August, 2010

बहन

बहन

मां की कोख से
पैदा हुई लड़की का ही नाम नहीं है
उस रिश्‍ते का भी नाम है
जो पुरुष को मां के बाद
पहली बार
नारी का सामीप्‍य और स्‍नेह देता है

बहन
कलाई पर राखी बांधने वाली
लड़की का ही नाम नहीं है
उस रिश्‍ते का भी नाम है
जो पीले धागे को पावन बनाता है
एक नया अर्थ देता है

मां
पुरुष की जननी है
और पत्‍नी जीवन-संगिनी
             पुरुष के नारी-संबंधों के
                इन दो छोरों के बीच
पावन गंगा की तरह बहती
नदी का नाम है
बहन

Sunday 22 August, 2010

महंगाई ने किया बेहाल

अब सिर्फ साढ़े चार साल बचे हैं और इतने कम समय में संपूर्ण भारत को शिक्षा, स्वास्थ्य, पर्यावरण, लैंगिक समानता, रोजगार, भोजन, स्वच्छ पेयजल, शिशु और मातृ मृत्यु दर में कमी जैसे क्षेत्रों में संयुक्त राष्ट्र संघ से किए गए वायदे के अनुसार बड़े लक्ष्य हासिल करने हैं। जी हां, सन 2000 में भारत सरकार ने संयुक्त राष्ट्र संघ के साथ जिस मसौदे पर हस्ताक्षर किए थे, उसके अनुसार सन् 2015 तक आठ विभिन्न क्षेत्रों में अंतर्राष्ट्रीय मानकों के अनुरूप लक्ष्य प्राप्त किए जाने हैं। इनमें सबसे महत्वपूर्ण है आधी आबादी की गरीबी दूर करना और भूख मिटाना। हालात ये हैं कि 23 जून, 2010 को जारी एक रिपोर्ट के अनुसार भारत की 70 प्रतिशत से भी अधिक जनता गरीबी की रेखा से नीचे रह रही है। क्या आगामी चार सालों में बीस प्रतिशत जनता को गरीबी रेखा से ऊपर लाया जा सकेगा? यह सवाल इसलिए भी गंभीर हो जाता है, क्योंकि माध्यमिक स्तर तक शिक्षा में लिंग भेद समाप्त करने और शत प्रतिशत लड़कियों को शिक्षा प्रदान करने का लक्ष्य 2205 तक निर्धारित किया गया था, लेकिन हासिल नहीं किया जा सका। 2015 तक गरीबी की दर को 24 प्रतिशत पर लाना है, जो अभी संभव नहीं दिख रहा है। पिछले दो सालों में हुई आर्थिक मंदी ने भुखमरी को 21 प्रतिशत तक बढ़ दिया है। यह स्थिति सिर्फ भारत की नहीं समूचे दक्षिण एशिया की है। उक्त रिपोर्ट के अनुसार पिछले दो सालों में खाद्यान्न और अन्य खाद्य वस्तुओं के दाम 80 प्रतिशत तक बढ़ गए हैं, जिसकी वजह से निर्धनतम लोगों के सामने भयानक भुखमरी का संकट खड़ा हो गया है। हाल ही पेट्रोलियम पदार्थों में की गई बढ़ोतरी इस संकट को और बढ़ाएगी। भुखमरी के लिहाज से मध्यप्रदेश और गुजरात की हालत दक्षिण अफ्रीका के सामालिया और कांगो जैसे देशों सी है। राजस्थान भी बहुत अच्छी दशा में नहीं है, लेकिन हालात तो यहां भी चिंताजनक ही हैं।

सहस्राब्दी विकास लक्ष्य यानी मिलेनियम डवलपमेंट गोल्स में युवाओं को अच्छा रोजगार उपलब्ध कराना भी शामिल है। इसीलिए नरेगा के बाद महानरेगा जैसी योजनाएं लाई गई हैं और सरकारी नौकरियों में जोरदार भर्ती के अभियान चल रहे हैं। इस दिशा में अगर दस साल पहले काम शुरु किया गया होता तो सोचिए कितने करोड़ बेरोजगारों को अब तक रोजगार मिल गया होता और उन हजारों नौजवानों की जान बच गई होती, जिन्होंने बेरोजगारी के कारण आत्महत्या का रास्ता चुना। दरअसल हमारी आदत ही हो गई है कि हम बिल्कुल आखिरी समय पर जाकर चेतते हैं, इसीलिए समय पर वांछित परिणाम हासिल नहीं हो पाते।

2015 तक देश के प्रत्येक बालक को प्राथमिक शिक्षा उपलब्ध कराई जानी है, लेकिन हालत यह है कि आज भी देश के हजारों गांवों में स्कूल तक नहीं हैं। ऐसे में इस लक्ष्य को हासिल करना खासा मुश्किल काम है। इसी तरह पंद्रह से चौबीस साल की आयु के सभी स्त्री-पुरुषों को साक्षर किया जाना है। इसके लिए साक्षर भारत योजना युद्धस्तर पर चल रही है। तमाम ग्राम पंचायतों को इसके लिए बैंकों के माध्यम से विशेष रूप से फण्ड उपलब्ध करवाया जा रहा है। शिक्षा के क्षेत्र में लैंगिक असमानता को समाप्त करने का लक्ष्य भी हासिल होता नहीं दिख रहा है। अभी भी देश की अधिकांश बालिकाएं शिक्षा से वंचित हैं और सरकार की तमाम योजनाओं के बावजूद स्थिति में अपेक्षित सुधार होता नहीं दिख रहा है।

समाज में विभिन्न स्तरों पर व्याप्त लैंगिक भेद को समाप्त करने और महिला सशक्तिकरण के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए ही संसद में महिलाओं के लिए तैंतीस प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था की गई। अब इसे समाज के अन्य हिस्सों में भी लागू करने की कवायद चल रही है। इसी तरह खेती के अलावा अन्य क्षेत्रों में भी महिलाओं को पुरुषों के समान रोजगार दिया जाना है। इतना ही नहीं रोजगार में महिलाओं को प्रबंधकीय तंत्र में भी शामिल करना है, जिससे उच्च प्रशासनिक स्तर पर महिला और पुरुष का अनुपात कम किया जा सके। अगर ऐसा होता है तो आने वाले समय में समाज में कई स्तरों पर व्यापक बदलाव देखने को मिलेंगे। सहस्राब्दी विकास के आठ लक्ष्यों में से तीन लक्ष्य पूरी तरह महिलाओं से संबंधित हैं। लिंग भेद समाप्त करने के अलावा शिशु और मातृ मृत्यु दर को कम करने के लक्ष्य प्राप्त करने में महिला जनप्रतिनिधियों की भूमिका अहम साबित हो सकती है। देश के अनेक गांवों में प्राथमिक चिकित्सा सेवाएं सुलभ नहीं हैं और करोड़ों बच्चे बेमौत मारे जाते हैं। राजस्थान के पंचायत चुनावों में इस बार साठ हजार से ज्यादा महिलाएं जीत कर आई हैं। ये महिला पंच, सरपंच, उप सरपंच और प्रधान चाहें तो हर गांव में एक प्राथमिक चिकित्सा केंद्र खुलवा कर अपने गांव में होने वाली शिशुओं की ही नहीं गर्भवती माताओं की भी अकाल मृत्यु रोक सकती हैं। शिशु और माता की मृत्यु का सीधा संबंध माता के स्वास्थ्य से है, इसलिए अगर माता को सही पोषण मिले और नियमित स्वास्थ्य जांच हो और समय पर दवाइयां आदि मिले तो इस लक्ष्य को हासिल करना असंभव नहीं है। महिला जनप्रतिनिधि अपने गांव की महिलाओं को परिवार नियोजन और स्वास्थ्य के बारे में जागरूक करें तो नेता होने के कारण महिलाएं उनकी बात आसानी से मानेंगी और इसके बहुत सकारात्मक परिणाम सामने आएंगे। महिलाओं पर आए दिन होने वाली हिंसा रोकने में भी महिला जनप्रतिनिधि बेहद कारगर सिद्ध हो सकती हैं। सहस्राब्दी विकास लक्ष्यों में एड्स, मलेरिया और अन्य बीमारियों से बचाव और चिकित्सा भी एक अहम मुद्दा है। इसे हासिल करने में पूरे समाज को ही योगदान करना होगा, फिर वो चाहे शिक्षक हों, स्वास्थ्यकर्मी हों या जनप्रतिनिधि।
पर्यावरण संरक्षण को लेकर अभी भी समाज में वैसी चेतना नहीं है, जिससे दिनोंदन बिगड़ते पर्यावरण को सुधारा जा सके। इसके लिए एक तरीका यह भी हो सकता है कि नरेगा के अंतर्गत होने वाले विभिन्न विकास कार्यों में पर्यावरण संरक्षण के कार्यों का दायरा बढ़ाया जाए। मसलन गांव में होने वाले विकास कार्यों में तीस प्रतिशत काम सिर्फ पर्यावरण संरक्षण के ही होना अनिवार्य कर दिया जाए तो कायापलट संभव है। इस काम में भी महिला जनप्रतिनिधियों की पहल प्रभावी हो सकती है। अगर प्रत्येक गांव में वाटरशेड डवलपमेंट योजना चलाई जाए तो जलसंकट से भी निजात मिल सकती है और पर्यावरण को भी संरक्षित किया जा सकता है। इससे गांव के पशुओं के लिए चारा भी उपलब्ध हो सकता है और गांवों में जलस्तर भी बढ़ाया जा सकता है।

सहस्राब्दी विकास लक्ष्य हासिल करना देखने में मुश्किल जरूर लगते हैं, लेकिन ये असंभव बिल्कुल नहीं हैं। यह जरूर हो सकता है कि हम 2015 तक इन लक्ष्यों को हासिल नहीं कर पाएं, लेकिन 2020 या 2025 तक तो कर ही सकते हैं। जरूरत इस बात की है कि प्रशासनिक मशीनरी और सभी स्तरों के जनप्रतिनिधियों के बीच तालमेल हो और सब मिलकर गंभीरतापूर्वक प्रयास करें।

















Sunday 15 August, 2010

63 साल की आज़ादी और 36 का आंकड़ा

मनुष्य मात्र के लिए किसी भी स्वतंत्र देश में आजादी का अर्थ और व्यावहारिक अभिप्राय बहुआयामी होता है। किसी विदेशी शासन का जुआ उतार फेंकने भर से देश के नागरिकों को आजादी नहीं मिलती, बल्कि आजादी का मतलब है स्वदेशी शासन में प्रत्येक नागरिक को जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में आगे बढ़ने के समान अवसर उपलब्ध हों, लिंग, धर्म, जाति, संप्रदाय और नस्ल आदि में से किसी भी आधार पर भेदभाव न तो समाज में हो और ना ही शासन या व्यवस्था के स्तर पर। देश में उपलब्ध प्राकृतिक और आर्थिक संसाधनों का सामुदायिक हित में प्रयोग किया जाए और प्रत्येक नागरिक को बिना भेदभाव के इन संसाधनों के समुचित प्रयोग का अधिकार हो। अगर भारत की आजादी के विगत 63 सालों का विश्‍लेषण करें तो पता चलेगा कि हम भारतीय आज भी बहुत से मामलों में एक स्वाधीन लोकतांत्रिक देश के सच में स्वाधीन नागरिक नहीं हैं। हमारी आजादी आज भी अधूरी है, क्योंकि हमारे यहां जाति, धर्म और लिंग के अलावा प्रांत और अंचल जैसे कई आधारों पर आज भी जबर्दस्त भेदभाव है, जिसके शोले कश्‍मीर से कन्याकुमारी और मुंबई से सुदूर उत्तर-पूर्व तक सुलगते देखे जा सकते हैं।
आजादी का मतलब है लोगों को स्वतंत्रतापूर्वक अपने आनंद से जीने का अधिकार हो और जनता सुरक्षा की भावना के साथ खुश होकर कहीं भी रह सके। इस आधार पर देखें तो हम कहीं भी आजाद नहीं हैं। आम आदमी ना तो घर में सुरक्षित है ना ही बाहर। कानून की पालना और व्यवस्था बनाए रखने के लिए जो संस्थाएं बनाई गई हैं वे नाकामयाब सिद्ध हो रही हैं। एक लोकतांत्रिक समाज में कानून और व्यवस्था का अर्थ यह होता है कि लोगों की सहमति से जीवन स्वातंत्र्य के लिए कायदे कानून बनाए जाएं और उनकी पालना के लिए माकूल इंतजाम इस तरह किए जाएं कि जनता को कम से कम असुविधा हो और सामान्य जनजीवन बाधित ना हो। लेकिन हम देख रहे हैं कि लोगों की सुविधा के नाम पर देश में बड़े रसूखदार और पूंजीपतियों के हित में नए से नए कानून बनाए जा रहे हैं। अकेले छत्तीसगढ़ राज्य में बहुराष्ट्रीय कंपनियों से दो हजार से अधिक करार राज्य सरकार द्वारा खनिज और वन संपदा के दोहन के लिए किए गए हैं। इसका प्रतिवाद करने वाले आदिवासियों का बुरी तरह दमन किया जा रहा है। अपना हक मांगने वाले लोगों का अगर सरकार गोली से जवाब देती है तो यह कहां की आजादी है? सन 1776 में अमेरिकी आजादी के घोषणा पत्र में इसे तत्कालीन ब्रिटिश सरकार सरकार द्वारा जनता को विद्रोह के लिए उकसाने वाला कृत्य कहा गया था। वस्तुतः स्वतंत्रता का सिद्धांत कहता है कि जनता को सहज जीवन जीने का अधिकार मिलना चाहिए। लेकिन व्यवहार में हम देखते हैं कि उपनिवेशवादी ब्रिटिश सरकार की तरह जनता के मूलभूत अधिकारों का राज्य द्वारा कदम-कदम पर हनन किया जा रहा है। इसीलिए महात्मा गांधी ने सौ बरस पहले ही कह दिया था कि अगर अंग्रेजी शासन को हटाकर वैसा ही शासन अगर भारत में स्थापित करना है तो यह दासता ही भली है। व्यवहार में हम देख ही रहे हैं कि सत्ता का चरित्र कमोबेश औपनिवेशिक ही है और हमारी राजनीति की दिशा निरंतर जनोन्मुखी होने के बजाय पूंजीपति रक्षक की हो गई है।
स्वाधीनता का तकाजा कहता है कि लोगों की निजता के अधिकार की रक्षा की जानी चाहिए और आम जीवन में सरकार का दखल कम से कम होना चाहिए। लेकिन बढ़ते अपराधों की रोकथाम में नाकाम सरकारें नए-नए थाने बनाकर हर कदम पर पुलिस और पहरेदार बिठाकर सोचती है कि इससे अपराध रुक जाएंगे। आजादी का मतलब होता है कि कम से कम सरकारी दखल हो और जितना भी दखल हो वह लोगों की अनुमति से होना चाहिए। एक स्वस्थ सुरक्षित लोकतांत्रिक समाज में व्यक्ति को निर्भय जीने का अधिकार होता है, लेकिन हमने एक ऐसी व्यवस्था बना रखी है, जो कहने को लोगों को समान अवसर देती है, लेकिन निरक्षता और गरीबी का मारा व्यक्ति या तो अपराध की राह पकड़ता है या भीख मांगने के लिए मजबूर होता है। लोकतंत्र में सरकारी अधिकारियों और कर्मचारियों को जनसेवक की भूमिका निभानी चाहिए, लेकिन प्रचलित व्यवहार में हम देखते हैं कि सरकारी कर्मचारी-अधिकारी जनता को सहयोग की बजाय परेशान करते हैं। जनता की सुरक्षा और स्वतंत्रता बनाए रखने के लिए शासन अनिवार्य है, लेकिन अतिशासन निजता का हनन करता है। इसीलिए महात्मा गांधी ने ‘हिंद स्वराज’ में अपने मन के शासन को स्वराज कहा था, जो आम आदमी के लिए आज भी एक सपना ही है।
लोकतंत्र में न्याय, शांति, स्वतंत्रता और समृद्धि को मनुष्य मात्र का प्राकृतिक अधिकार माना जाता है। राज्य का यह बुनियादी कर्तव्य है कि इन अधिकारों के लिए काम करे, क्योंकि स्वतंत्रचेता व्यक्ति का निर्माण भी राज्य का दायित्व है। अगर किसी समाज में लोगों को ये आधारभूत अधिकार मिलते हैं तो वह समाज तेजी से विकास करता है और राष्ट्र को आगे ले जाता है। इन अधिकारों की बहाली के लिए सरकार ने जो व्यवस्था कार्यपालिका और न्यापालिका के रूप में बनाई है उनके काम की गति देखकर सहज ही कहा जा सकता है कि जनता का क्या हाल होगा। लोग बरसों से न्याय की आशा में अदालतों और सरकारी दफ्तरों में भटकते रहते हैं और एक दिन संसार से कूच कर जाते हैं। उदाहरण के लिए आदिवासी बहुल राज्य छत्तीसगढ़ में जिस दिन टाटा के साथ खनिज दोहन के लिए मसौदे पर हस्ताक्षर हुए उससे अगले दिन ही यानी 05 जून, 2005 से राज्य में सलवा जुड़ूम शुरु हो गया। आनन-फानन में 644 गांवों का ‘पवित्रीकरण’ कर दिया गया, अर्थात् गांव जला दिए गए। छह सौ आदिवासी न्याय मांगने के लिए अदालत की शरण में गए, लेकिन एक भी आदिवासी को न्याय नहीं मिला। क्या इसी के लिए आजादी के आंदोलन में लाखों आदिवासियों ने अंग्रेजों से मरते दम तक लोहा लिया था? आदिवासी अंचलों में चल रही हिंसा के संदर्भ में गांधी जी का ‘हिंद स्वराज’ में लिखा यह कथन बहुत मानीखेज़ है। ‘अशांति असल में असंतुष्टि है। यह असंतुष्टि बड़े काम की चीज़ है। एक व्यक्ति जब तक अपने वर्तमान से संतुष्ट रहता है तब तक उसे उस अवस्था से बाहर निकालना बहुत मुश्किल होता है। इसलिए कोई भी सुधार असंतुष्टि से ही शुरु होता है। जब हम किसी चीज का इस्तेमाल बंद कर देते हैं तब हम उसे फेंक देते हैं।’
स्वतंत्र देश में समूची व्यवस्था में निर्णय का अधिकार जनता के पास होता है, जनप्रतिनिधि अपने सदनों में जनता की ओर से निर्णय लेते हैं। लेकिन अक्सर देखा गया है कि विभिन्न सदनों में लिए जाने वाले निर्णयों में से अधिकांश जनहित में नहीं होते, चाहे वे नए टैक्सों की शक्ल में हों या नए निर्माण कार्य अथवा कानून की शक्ल में। राजधानी जयपुर में खासा कोठी पर निर्मित पुल के बारे में अब सरकार खुद ही स्वीकार कर रही है कि यह गलत बना दिया गया। निश्चित रूप से ऐसे निर्णय जनहित के नाम पर जनता की सुविधा और सहूलियत के लिहाज से कलंक हैं, जिनके पीछे कुछ लोगों का निहित स्वार्थ छुपा होता है। ऐसे में जनप्रतिनिधियों और कार्यपालिका की भूमिका पर भी प्रश्‍नचिह्न लग जाता है। फिर गांधी जी का ब्रिटिश संसद के बारे में कहा गया कथन याद आता है, ‘‘प्रधानमंत्री संसद के कल्याण के बजाय अपनी शक्तियों के लिए ज्यादा चिंतित नजर आते हैं। उनकी पूरी ताकत अपनी पार्टी की सफलता सुनिश्चित करने पर केंद्रित रहती है। उनकी शाश्‍वत चिंता यह नहीं होती कि संसद ठीक से काम करे। कई किस्म के लाभ उठाने के लिए वे निश्चित रूप से कुछ लोगों को मान-सम्मान की घूस भी देते हैं।’’
आज हमारी आजादी का 63वां साल है, यह अवसर इस बात पर पुनर्विचार करने का है कि कैसे हर व्यक्ति को वास्तविक स्वतंत्रता मिले, जिससे वह स्वयं के साथ देश के विकास के बारे में सोचे और एक सरस, सरल, अपराधमुक्त, निर्भय, स्वस्थ और स्वतंत्र विचारशील समाज का निर्माण करने में अपना सर्वस्व लगा दे। मार्टिन लूथर किंग ने कहा था, ‘तुम मेरी जान ले सकते हो, लेकिन मेरे जीने का अधिकार नहीं छीन सकते। तुम मुझसे मेरी आजादी छीन सकते हो, लेकिन मेरी स्वतंत्रता का अधिकार नहीं छीन सकते। तुम मेरी आशाएं छीन सकते हो, तुम चाहो तो मुझसे खुशी की कामना भी छीन सकते हो, लेकिन तुम खुशी की खोज के अधिकार को नहीं छीन सकते।’’ मनुष्य के लिए आनंद और खुशी ही स्वतंत्रता है। आइये इसका जश्‍न मनाएं, लेकिन एक नागरिक की जिम्मेदारियों के साथ, क्योंकि स्वतंत्रता के साथ दायित्वबोध भी जुड़ा हुआ है।

यह आलेख डेली न्‍यूज़, जयपुर के स्‍वाधीनता दिवस परिशिष्‍ट 'देश मेरा रंगरेज' में प्रकाशित हुआ।





Friday 6 August, 2010

सावन गुलाबी नगरी में...

ऐसा हरियल सावन जयपुर में कई बरस बाद आया है, जिसमें पूरा शहर लबालब हो रहा है। आषाढ़ में तरसती आंखों को दिली सुकून मिल रहा है और हर बार बादल को देखकर लगता है यह हमीं पर मेहरबान होकर बरसने वाला है। बावजूद तमाम टूटी-फूटी व्यवस्था के अरावली की मटमैली पहाड़ियों पर लहराती हरी लूगड़ी हर बाशिंदे की आंखों में भी हरापन भर रही है। किसी चौपड़ से देख लो या किसी इमारत पर जाकर, नाहरगढ़ से झालाना तक ऐसा हरा भरा नजारा देखने को कब से आंखें तरस रही थीं। सागर, मावठा और बीसलपुर में पानी आया तो लाखों कण्ठों ने परमात्मा का शुकराना अदा किया। जय हो इंद्र देव की जो इस नगर पर अपने आशीर्वाद की वर्षा की।

कवियों की क्या कहें यहां तो हर बाशिंदा कवि हो गया है। जब एक तरफ के आकाश पर काली घटाएं उमड़ घुमड़ कर उठती हैं तो लोगों के चेहरे इस कदर उल्लसित होते हैं कि अगर उनकी धड़कनों और बुदबुदाहट को सुना जाए तो पता चलेगा वे किसी ना किसी ‘राग मल्हार’ में मदमस्त हुए जा रहे हैं। नौजवान अपने प्रेमिल स्वप्नों की इमारत खड़ी कर रहे हैं, जिसमें अपने प्रिय के साथ बारिश में नहाने का कोई रूमानी सिनेमाई दृश्‍य रह रह कर तैरता रहता है। नर्म नाजुक अहसास बारिश में भीगकर रूई के फाहों की तरह उड़ते हुए बादलों के साथ प्रतियोगिता में दौड़े जा रहे हैं। ‘रिमझिम के गीत सावन गाए, गाए...।’

उम्रदराज लोगों के लिए यह महंगाई से राहत देने का जरिया बन गया है। यूं मन-मयूर तो उनका भी नाच रहा है लेकिन वो आयु बंधन की वजह से मन मसोस कर रह जाते हैं। उन्हें संतोष होता है बस गर्मागर्म पकौड़ों के साथ चाय की चुस्कियों से। शहर के हर गली-नुक्कड़ पर नमकीन-कचौरी-पकौड़ियों की दुकानों पर भारी भीड़ है। घरों में गृहिणियां रसोई में व्यस्त हैं और खुश्‍बुओं का सागर हिलोरें ले रहा है। कोई चिंता नहीं कि गीले कपड़े सूख नहीं पा रहे या कि सीलन के मारे तकलीफ हो रही है। भले ही सावन के झूले अब सिर्फ कल्पना में रह गए हों, लेकिन गृहिणियों के लिए यह बरखा के गीत गाने का मौसम है, लहरिया ओढ़ने और गाने के दिन हैं। ‘म्हारै लहरिया रा नौ सौ रुपिया रोकड़ा सा, म्हानै ल्या द्यो ल्या द्यो लहरियो सा।’ जिनके लिए शादी के बाद का यह पहला सावन है, उनके लिए यह आग लगाने वाला मौसम है, क्योंकि जयपुर की रिवायत है कि शादी के बाद पहलें सावन पति-पत्नी अलग रहेंगे। यही तो प्रेम की परीक्षा की ऋतु है। बारिश में ही तो पकता है प्रेम का शाश्‍वत फल। ‘रिमझिम बरसे बदरा मैं तेरे सपने देखूँ, मैं तेरे सपने देखूं।'

हवा में सराबोर सौंधी सौंधी महक जयपुर के आकाश में यूं नाच रही है जैसे गुलाबो। कई बरस बाद जयपुर के नागरिकों को पांचों इंद्रियों से बारिश का अनुभव हो रहा है। बारिश में लगातार नहाकर नाहरगढ़ का किला और जवान दिखाई दे रहा है। धाराधार बरसते पानी को देखना एक अद्वितीय अनुभव की तरह हमारे मन मस्तिष्क पर अंकित हो रहा है। बारिश में भीगने का सुख लेने वाले मदहोश होकर बाइक-स्कूटर-साइकिल पर या पैदल ही दौड़े जा रहे हैं। बारिश में भीगते हुए अमृतजल पीने से बड़ा सुख मां के आंचल में दूध पीना ही है। देखना, भीगना और सूंघ कर बारिश का मजा ले रहे लोगों में उन शहरियों को कैसे छोड़ दें जो बारिश के संगीत का आनंद ले रहे हैं। खिड़की के पास या बालकनी में कुर्सी डाल कर सावन का बरसता संगीत सुनने वालों से पूछिए, वो कितनी स्वर लहरियां एक साथ कितने बरस बाद सुन रहे हैं। बादलों की घड़घड़ाहट ऐसे लगती है जैसे इंद्रदेव आकाश में लगे स्पीकरों पर माइक टेस्टिंग कर रहे हों। बारिश का पहला आलाप यूं लगता है जैसे किशोरी अमोणकर ने आलाप लिया हो। पूरी लय और ताल में बरसती बारिश ऐसे लगती है जैसे बेगम अख्तर गा रही हों। रिमझिम बरसती है तो मेहदी हसन गाने लगते हैं और हद बेहद में कुमार गंधर्व। ‘आइये बारिशों का मौसम है...आज फरमाइशों का मौसम है।’

दिन-रात, सुबह-शाम-दोपहर, हर वक्त बरसती बारिश जयपुर के बाशिंदों को पागल किए जा रही है। हर एक का दिमाग सातवें आसमान पर है। पाचं साल तक सरकारी खर्चे पर हुई पूजा-अर्चना से तो इंद्र खुश नहीं हुए, अलबत्ता जयपुरवासियों की गुहार जरूर सुन ली। शहर के हालात इतने नाजुक हैं कि ‘डर है ना मार डाले, सावन का क्या ठिकाना।’ तालकटोरा में नौका विहार अब अतीत का हिस्सा है, लेकिन ऊलजलूल विकास ने ये हालात जरूर पैदा कर दिए हैं कि इस बारिश में जौहरी बाजार में कभी नाव चलती देखी जा सकेगी। हर कोई गा रहा है... 'बरखा रानी जरा जमके बरसो, मेरा दिल अभी भीग ना पाया जरा जोर से बरसो।’

Wednesday 4 August, 2010

मूक संवादों का कवि-नाटककार-मॉरिस मैटरलिंक

यूरोप के छोटे-से देश बेल्जियम को साहित्य में एकमात्र नोबल पुरस्कार पूरी एक सदी पहले नाटककार, कवि और निबंधकार मॉरिस मैटरलिंक के रूप में मिला। बेहद दौलतमंद माता-पिता के घर में 29 अगस्त, 1862 को जन्मे मॉरिस को घर पर आरंभिक शिक्षा दी गई और बारह साल की उम्र में कठोर कैथोलिक ईसाई अनुशासन में पढ़ने के लिए जेसुइट कॉलेज भेज दिया गया। यहां का वातावरण मॉरिस को कालांतर में कैथोलिक चर्च से ही दूर ले गया। सात साल के इस कठोर धार्मिक वातावरण में मॉरिस को दो समान रूचि वाले मित्र मिले जो आगे चल कर अच्छे कवि के रूप में प्रसिद्ध हुए। इन कवियों के साथ मॉरिस ने ला ज्यून बेल्जिक पत्रिका में अपनी कविताएं प्रकाशन के लिए भेजना शुरु किया तो 21 साल की उम्र में पहली कविता प्रकाशित हुई ‘द रशेज।’ माता-पिता को पसदं नहीं था कि मॉरिस कविता और साहित्य की तरफ आगे बढ़े, इसलिए उन्होंने बेटे को कानून पढ़ने के लिए घेण्ट विश्‍वविद्यालय भेज दिया।

मॉरिस ने कानून की पढ़ाई के दौरान भी साहित्य से नाता नहीं तोड़ा और निरंतर लिखते रहे। कानून में स्नातक होने के बाद वे कुछ समय पेरिस रहे, जहां प्रतीकवादी कवि स्टीफन मलार्मे और डिवीलियर्स जैसे रहस्यवादी कवियों से मुलाकात की। लौटकर मॉरिस वापस घर आए और वकालत शुरु की, लेकिन साहित्य से रिश्‍ता बना रहा। 1889 में पहला कविता संग्रह प्रकाशित हुआ ‘हॉट हाउस ब्लूम्स।’ अत्यंत रहस्यमयी बिंबों और छवियों से समृद्ध कविताओं से परिपूर्ण संग्रह पर आलोचकों का ध्यान अवश्‍य गया। इसके बाद जल्दी ही मॉरिस का पहला नाटक ‘प्रिंसेस मेलिन’ प्रकाश में आया। नाटक को भी जनता की नहीं आलोचकों की खासी प्रशंसा मिली। प्रसिद्ध समीक्षक ऑक्टोव मीरब्यू ने शेक्सपीयर जैसे सौंदर्य से परिपूर्ण श्रेष्ठ नाटक करार दिया। इस प्रशंसा से मॉरिस की ख्याति साहित्य जगत में तेजी से फैल गई। इससे प्रेरित होकर मॉरिस लगातार मनुष्य की घातक परिस्थितियों और जीवन के अदृश्‍य रहस्यों को लेकर नाटक लिखते रहे। बेल्जियम और फ्रांस में उनके ‘इंट्रयूडर’ और ‘द ब्लाइंड’ जैसे नाटकों ने साहित्य और रंगमंच की दुनिया में पर्याप्त सराहना अर्जित की।

नाट्य लेखन के दौरान मॉरिस की मुलाकात गायिका और अभिनेत्री जार्जेट लिब्लांक से हुई जो आगे चलकर तेइस बरस तक चली। मॉरिस के लिए जार्जेट एक केंद्रबिंदु बन गई, जिसके इर्दगिर्द उन्होंने तेइस साल तक दर्जनों नाटकों की रचना की। इन नाटकों में मॉरिस ने मनुष्य जीवन के अनेक रहस्यमय और नियति के शिकार किरदार गढ़े, हर किरदार अनिवार्य और अंतिम रूप से जार्जेट की वजह से स्त्री का किरदार होता था। उन्होंने जो नाटक लिखे, उनकी आलोचकों और समीक्षकों ने अत्यंत सराहना की, इनमें रोम्यां रोलां जैसे भारतप्रेमी लेखक भी शामिल थे। कैथोलिक चर्च ने जार्जेट को उसके स्पेनिश पति से तलाक देने से मना कर दिया, इसलिए वे दोनों विवाह नहीं कर सके। उधर जार्जेट के साथ खुले आम रहने की वजह से मॉरिस के माता-पिता उनसे खफा हो गए तो दोनों ने 1895 में बेल्जियम छोड़ दिया और पेरिस चले गए। यहां आकर मॉरिस ने प्रतीकवाद की अतिनाटकीयता को छोड़कर किंचित यथार्थवादी तरीका अपनाया, जो दर्शकों और समीक्षकों सभी को पसंद आया। मॉरिस को मधुमक्खी पालन का शौक था और चींटियों और कीट-पतंगों के बारे में पढ़ने का जबर्दस्त शगल था। इसलिए उन्होंने कुछ नाटकों में मनुष्य के नियतिवाद को मधुमक्खियों आदि के माध्यम से भी संकेतित करने का जबर्दस्त काम किया। मॉरिस ने शॉपेनहावर के नकारवादी रवैये के बरक्स एक किस्म के विजयी आशावादी दृष्टिकोण को स्थापित किया। उनकी मान्यता थी कि इंसान चाहे तो भाग्य और नियति को बदल सकता है। 1903 में नाट्यसाहित्य में योगदान के लिए मॉरिस को बेल्जियम सरकार ने पुरस्कृत किया।

मॉरिस मैटरलिंक का सबसे मषहूर नाटक है ‘द ब्लू बर्ड’, जिसे दुनिया की कई भाषाओं में खेला गया है। रंगमंच के महान निर्देशक कोन्सतांतिन स्तानिस्लाव्सकी ने 1908 में जब इस नाटक को पहली बार मास्को में प्रस्तुत किया तो बच्चों की परीकथा वाले इस नाटक को इतनी जबर्दस्त लोकप्रियता हासिल हुई कि एक साल तक यह लगातार मंचित होता रहा। इस नाटक पर कई देशों में बेहद लोकप्रिय फिल्में भी बनीं। रूसी-अमेरिकी सहयोग से बनी एक फिल्म में तो एलिजाबेथ टेलर ने चार भूमिकाएं निभाईं। 1911 में मॉरिस मैटरलिंक को नाट्य साहित्य में असाधारण योगदान के लिए नोबल पुरस्कार प्रदान किया गया।

प्रथम विश्‍वयुद्ध ने मॉरिस को बेहद विचलित किया और जब जर्मनी ने बेल्जियम पर आक्रमण कर दिया तो उनके भीतर का देशभक्त लेखक जाग उठा और ‘द रैक ऑव स्टॉर्म’ जैसी विचारप्रधान पुस्तक सामने आई। 1919 में जार्जेट लिब्लांक के साथ उनका संबंध समाप्त हो गया और ‘द ब्लू बर्ड’ की नायिका रेनी देहोन से विवाह कर लिया। इसी के साथ वे रहस्य, प्रतीक और फंतासी की दुनिया से बाहर निकल कर प्रकृतिवादी मनोवैज्ञानिक विषयों पर लिखने लगे। पहले और दूसरे विश्‍वयुद्ध के बीच वे लगातार नाटक और निबंध लिखते रहे। द्वितीय विश्‍वयुद्ध में वे अपने देश के लिए लड़ना चाहते थे, किंतु उनकी आयु के कारण मना कर दिया गया और उनके देशभक्त विचारों और उनकी ख्याति को देखते हुए उनकी जान बचाने के लिए उन्हें पहले पुर्तगाल और फिर अमेरिका भेज दिया गया। प्रवास के ये दिन बहुत आर्थिक तंगी में गुजरे। 1947 में मॉरिस वापस घर लौटे।

उनके आलोचकों का मानना है कि मॉरिस ने मानव जीवन की परिस्थितियों के सबसे गूढ़ प्रश्‍न मृत्यु को कई कोणों से जांचा परखा है। उनके नाटकों में अलिखित या मूक संवाद, नियति से साक्षात्कार के भाव और रोजमर्रा के जीवन में छिपी हुई रहस्यात्मकता ने नाट्यसाहित्य में एक नई परंपरा का सूत्रपात किया, जो आगे चल कर हैरॉल्ड पिंटर जैसे महान नाटककार को जन्म देती है। 6 मई, 1949 को हार्ट अटैक से उनकी मृत्यु हुई। 2008 में बेल्जियम सरकार ने उनकी जन्मशती के मौके पर उनकी स्मृति में एक सिक्का जारी किया। मॉरिस का यह कहना बहुत ही खूबसूरत है, ‘‘रंगमंच ऐसी जगह है जहां कलात्मक काम नष्ट हो जाते हैं ... और .... कविता तब मर जाती है जब उसमें जिंदा लोग दाखिल हो जाते हैं।’’

Sunday 25 July, 2010

गांवों की कुरीतियां और ग्रामीण नेतृत्व

राजस्थान में आज भी अशिक्षा और अज्ञान के कारण सैंकड़ों किस्म की सामाजिक कुरीतियों और अंधविश्‍वासों की दुनिया शहर, कस्बों से लेकर गांवों तक महामारी की तरह फैली हुई हैं। दुर्भाग्य से इन सबका शिकार अंततः महिलाएं होती हैं। निजी स्वार्थों के लिए लोग किसी महिला को डायन करार दे देते हैं और दूध पीती बच्चियों का विवाह कर डालते हैं। जातिवादी घृणा की वजह से महिलाओं के साथ यौन उत्पीड़न और बलात्कार की घटनाएं होती हैं। जाति और परंपरा के नाम पर विधवाओं का जीवन नरक बना दिया जाता है। शराब और अफीम का नशा औरतों को हिंसा का शिकार बनाता है। किसी प्रकार के पारिवारिक संपत्ति विवाद में महिला का हिस्सा पुरुष हड़प लेते हैं। दहेज प्रताड़ना के समाचार आए दिन समाचार पत्रों में प्रकाशित होते ही रहते हैं। चिकित्सा सुविधाओं के अभाव में हर साल हजारों गर्भवती स्त्रियों को जान से हाथ धोना पड़ता है। कन्या भ्रूण हत्या और कई जातियों में जन्म के साथ ही कन्या को मार देने की परंपरा से मरने वाली बालिकाओं की तो गिनती ही नहीं है। कुपोषण के कारण महिलाएं अनेक खतरनाक बीमारियों से ग्रस्त हो जाती हैं, जिनके इलाज के लिए झाड़-फूंक और जादू-टोना ग्रामीण राजस्थान की पुरानी पहचान है, जिसमें अभी भी कोई खास बदलाव नहीं आया है। परिवार में किसी भी काम के लिए सबसे पहले महिला को ही जुटना पड़ता है और विपत्ति आने पर उसे ही सबसे पहले अपने अधिकार छोड़ने पड़ते हैं, मसलन अनाज नहीं है तो औरत ही निराहार रहेगी या उसे ही कम भोजन दिया जाएगा। अकेली और अनाश्रित महिला हो तो उसकी संपत्ति हथियाने के लिए हर कोई पीछे पड़ जाएगा। एक तरह से देखा जाए तो ग्रामीण समाज में स्त्री की हालत दुधारु पशु से भी गई बीती है।

स्त्री को लिंगभेद की क्रूर व्यवस्था के कारण कर्ह किस्म की हिंसा का शिकार होना पड़ता है। अभी तक की बहुप्रचारित शिक्षा का प्रसार भी ग्रामीण समुदाय में इस विचार को नहीं पैबस्त कर पाया है कि जैविक लिंग अलग होने के कारण स्त्री में पुरुष से अलग कोई विशेषता नहीं होती और प्रकृति ने जो भेद बनाए हैं, उसके सिवा सारे भेद मर्दवादी समाज ने बनाए हैं। दरअसल, हमारी शिक्षा को सबसे पहला काम ही यह करना चाहिए था कि लिंगभेद को समाप्त करे। दुर्भाग्य से यह नहीं हुआ, इसीलिए देश की आधी आबादी की शक्ति का इस्तेमाल ही नहीं हुआ। इसी का परिणाम है कि आजादी के छह दशक बीत जाने के बाद भी हम आर्थिक, वैचारिक, सामाजिक और राजनैतिक रूप से दुनिया के बहुत से देशों से पिछड़े हुए हैं। राजस्थान में स्थानीय निकायों में महिलाओं को पचास प्रतिशत आरक्षण ने एक महान अवसर दिया है कि स्त्रीशक्ति का नारी हित में इस प्रकार प्रयोग किया जाए कि पांच साल बाद एक नया राजस्थान देखने को मिले। इस काम में उन महिला जनप्रतिनिधियों की भूमिका बेहद प्रभावशाली हो सकती है जो इस बार के स्थानीय निकाय चुनावों में पचास प्रतिशत से अधिक सीटों पर जीत कर आई हैं।

राजस्थान में 14 जुलाई से ग्रामीण क्षेत्रों में लिंगभेद संबंधी मसलों को लेकर संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष के सहयोग से प्रिया संस्था की ओर से एक अभियान की शुरुआत हुई है। इस अभियान में ग्रामीण जनप्रतिनिधियों को विशेष प्रशिक्षण देकर कहा जाएगा कि वे अपने-अपने निर्वाचन क्षेत्र में बालिका शिक्षा, महिलाओं के प्रति हिंसा, बाल विवाह और महिलाओं से संबंधित विभिन्न मुद्दों पर जन जागरूकता फैलाएं, ताकि विभिन्न स्तरों पर व्याप्त लिंगभेद समाप्त किया जा सके। सन् 2013 तक चलने वाला यह अभियान दरअसल उस विराट अंतर्राष्ट्रीय परियोजना का हिस्सा है जिसके तहत सन् 2015 तक दुनिया भर में व्याप्त लैंगिक असमानता को खत्म किया जाना है। सहस्राब्दी विकास लक्ष्य नामक इस परियोजना के आठ बिंदुओं में सबसे अहम है गरीबी को पचास प्रतिशत तक कम करना और महिलाओं के साथ होने वाले भेदभावों को समूल नष्ट करना। बालिका शिक्षा के अंतर्गत दुनिया की सभी बालिकाओं को 2005 तक प्राथमिक शिक्षा प्रदान करने का लक्ष्य था, जिसे भारत पांच साल बाद भी हासिल नहीं कर सका है। अब इसके लिए युद्ध स्तर पर प्रयास किए जा रहे हैं और कई किस्म की बालिका शिक्षा प्रोत्साहन योजनाएं चल रही हैं।

ग्रामीण महिला जनप्रतिनिधियों के माध्यम से ग्रामीण समुदाय की सोच को बदला जा सकता है, क्योंकि पंचायतों में पिछले डेढ़ दशक से महिला आरक्षण की व्यवस्था ने महिला जनप्रतिनिधियों के प्रति समाज में एक नई और सकारात्मक छवि विकसित की है। इसलिए पंचायती राज व्यवस्था और ग्रामीण प्रशासन को महिलाओं के प्रति उत्तरदायी बनाने की पहल क्रांतिकारी परिणाम दे सकती है। महिला पंच-सरपंच की स्थानीय छवि और दायित्वपूर्ण भूमिका होने के कारण लोग उनकी बातों को गंभीरता से लेते हैं। उनकी नेतृत्वकारी छवि स्थानीय स्तर पर होने वाली लिंगभेद की मानसिकता को सहजता से बदल सकती है। सरकारी और गैर सरकारी स्तर पर चल रही विभिन्न महिला विकास योजनाओं के प्रभावी क्रियान्वयन और अधिकाधिक महिलाओं को लाभान्वित करवा कर ग्रामीण नेत्रियां करोड़ों बालिकाओं, युवतियों और महिलाओं का जीवन प्रगतिपथ पर ले जा सकती हैं। बाल विवाह रुकवाना, बालिकाओं की अनिवार्य शिक्षा के लिए पहल करना-लोगों को राजी करना, आंगनवाड़ी खुलवाना, स्त्री शिक्षा के लिए उपलब्ध संसाधनों की जानकारी देना, महिलाओं पर होने वाली हिंसा रोकना, विधवा और वृद्ध महिलाओं को पेंशन दिलवाना और स्वास्थ्य केंद्र खुलवाना जैसे बहुत से महिला सशक्तिकरण के काम महिला पंच-सरपंच के लिए सामान्य काम हैं। वे चाहें तो अपने क्षेत्र की महिलाओं का संगठन बना कर बहुत सी महिलाओं के लिए लोकतांत्रिक ढंग से लड़ाई भी लड़ सकती हैं। द हंगर प्रोजेक्ट जैसी कई गैर सरकारी संस्थाओं ने तो कई जिलों में महिला पंच सरपंच संगठन ही बना दिए हैं, जिनके माध्यम से महिला जनप्रतिनिधि सरकारी मशीनरी से अपने वाजिब हकों के लिए संघर्ष कर विजय हासिल करते हैं।

पंचायतों में महिला आरक्षण ने ग्रामीण महिलाओं को जो थोड़ा-बहुत आत्मविश्‍वास दिया है, उसे व्यापक बनाने की जरूरत है। अगर ग्रामीण समुदाय की सभी महिलाएं अपने पर होने वाले अत्याचारों के खिलाफ खुलकर बोलने लग जाएं, अधिकारों के लिए आवाज उठाएं, ग्रामीण विकास के बजट में महिलाओं के लिए उचित प्रावधानों की मांग करें, किसी भी प्रकार के भेदभाव का विरोध करें और इसमें महिला जनप्रतिनिधि नेतृत्व करें तो सहस्राब्दी विकास लक्ष्यों के अंतर्गत लिंगभेद समाप्त करने का लक्ष्य कहीं जल्दी हासिल किया जा सकता है।

यह आलेख 14 जुलाई, 2010 को दैनिक महका भारत, जयपुर में प्रकाशित हुआ।

Sunday 18 July, 2010

सत्‍ता के मानवीयकरण की हिमायत

नोबल पुरस्कार के इतिहास में साहित्य में सर्वाधिक पुरस्कार जर्मन भाषा के हिस्से में हैं, लेकिन बहुत-से ऐसे जर्मनभाषी लेखकों को भी मिले, जो जर्मनी मूल के नहीं थे या अपने मूल वतन से विस्थापित होकर किसी अन्य देश में रहे। दक्षिण-पूर्वी यूरोप के छोटे-से देश बल्गारिया को साहित्य में एक मात्र नोबल पुरस्कार 1981 में एलियास कैनेटी को 1981 में मिला। 25 जुलाई, 1905 को बल्गारिया के डेन्यूब नदी किनारे एक छोटे से नगर में कैनेटी का जन्म हुआ। सफल यहूदी व्यापारी माता-पिता के सबसे बड़े बेटे कैनेटी के बचपन के मात्र छह साल बल्गारिया में गुजरे और फिर परिवार इंग्लैंड चला गया। लेकिन यहां आते ही कैनेटी के पिता का अचानक निधन हो गया और मां परिवार को लेकर विएना चली आईं। यहीं से कैनेटी की आरंभिक शिक्षा प्रारंभ हुई। मां ने जर्मन भाषा पर जोर दिया, जो उस माहौल में अनिवार्य था। कुछ साल विएना में रहने के बाद परिवार ज्यूरिख चला गया और वहां से अंततः फ्रेंकफर्ट, जहां कैनेटी ने हाई स्कूल पास की। कैनेटी ने ग्यारह बरस की उम्र में लिखना आरंभ कर दिया था और 16 साल की उम्र में तो पहला काव्यनाटक ‘जूनियस ब्रूटस’ प्रकाशित भी हो गया था। उच्च अध्ययन के लिए कैनेटी एक बार फिर विएना गए, जहां उनके लेखन की नई शुरुआत हुई। हालांकि कैनेटी दर्शनशास्त्र और साहित्य पढना चाहते थे, किंतु दाखिला लिया रसायन विज्ञान में। विएना के साहित्यिक हलकों में उनका परिचय का सिलसिला आगे बढ़ता गया और वे लिखने लगे। राजनैतिक रूप से उनका झुकाव वामपंथ की तरफ था, इसीलिए 1927 के मशहूर जुलाई विद्रोह में भी कैनेटी ने सक्रिय भाग लिया और गिरफ्तार हुए। ब्लैक फ्राइडे के नाम से मशहूर इस विद्रोह का कैनेटी की मानसिकता पर गहरा प्रभाव पड़ा, इसी को आधार बनाकर कालांतर में जब कैनेटी ने अपने लेखन में मुख्य स्थान दिया तो उनकी ख्याति अंतर्राष्ट्रीय हो गई। राजनीति और लेखन के साथ पढ़ाई चलती रही और 1929 में उन्होंने रसायनशास्त्र में पी.एच.डी. की डिग्री लेकर विज्ञान को अलविदा कह दिया। इसके बाद अमेरिकी लेखक अप्टॉन सिंक्लेयर के उपन्यासों का अनुवाद करते हुए और रंगमंच के लिए हास्य और प्रयोगधर्मी एब्सर्ड नाटक लिखते हुए कैनेटी ने अपनी विराट रचनात्मकता को बरकरार रखा।

अपने विद्यार्थी जीवन में कैनेटी एक बार बर्लिन गए, जहां बर्तोल्त ब्रेख्त और आइजैक बाबेल जैसे कई मशहूर नाटककारों से मुलाकात हुई। तभी कैनेटी ने तय कर लिया था कि वे मनुष्य के हास्यास्पद पागलपन को केंद्र में रखकर उपन्यासों की शृंखला लिखेंगे। करीब सात साल बाद इस विचार को ‘डाई ब्लैंगडंग’ उपन्यास में कैनेटी ने मूर्त रूप दिया। किस तरह राष्ट्रवाद के नाम पर लोगों को बरगला कर बेवकूफ बनाया जाता है और जनता भी धर्म और सत्ता की चकाचौंध में पगला जाती है, इसे ऐतिहासिक घटनाक्रमों और काल्पनिक कथा के माध्यम से कैनेटी ने विलक्षण ढंग से दर्शाया। यह उपन्यास अपने समय से पहले प्रकाशित हुआ, इसलिए तत्काल इस पर ध्यान नहीं गया, लेकिन दूसरे विश्‍वयुद्ध की समाप्ति के बाद और खास तौर पर अंग्रेजी में अनुवाद के बाद इसकी ख्याति विश्‍वव्यापी हुई। नाजी सरकार ने उपन्यास को प्रतिबंधित कर दिया था। बाद में अनुवाद होने पर टॉमस मान और आइरिश मर्डोक जैसे आलोचक साहित्यकारों ने इस उपन्यास को ‘क्राउड सायक्लोजी’ का विश्‍वसाहित्य का बेहतरीन उपन्यास बताया था।

जब नाजी जर्मनी ने ऑस्ट्रिया को अपने कब्जे में ले लिया तो कैनेटी देश छोड़कर पहले पेरिस और फिर इंग्लैंड चले गए और वहीं रहने लगे। नाटक, डायरी, यात्रा विवरण और निबंध लिखते हुए कैनेटी ने 1960 में अपनी एक और अत्यंत महत्वपूर्ण पुस्तक पूरी की, ‘क्राउड्स एण्ड पावर।’ इस पुस्तक के आरंभ में वे यहां से अपना विश्‍लेषण शुरु करते हैं कि भीड़ की मानसिकता आदिकाल से ही बचे रहने के लिए संघर्ष की होती है और किसी के भी बचने का सबसे आसान उपाय है दूसरे की हत्या कर देना। कैनेटी विस्तार से बताते हैं कि भीड़ क्यों और कैसे हिटलर जैसे नेतृत्व के आदेशों की पालना करती है। उनकी मान्यता है कि अगर नेतृत्व को मानवीय बनाया जाए तो भीड़ द्वारा होने वाले नरसंहारों से बचा जा सकता है। लेकिन कैनेटी यह नहीं बता पाते कि नेतृत्व को कैसे मानवीय बनाया जाए।

दरअसल कैनेटी के लेखन की केंद्रीय चिंता यही है कि सत्ता को कैसे अत्यधिक मानवीय बनाया जाए, ताकि अवाम के बीच भेदभाव ना पनप सकें और लोग सामूहिक रूप से एक दूसरे को मारने पर उतारू ना हो जाएं। और अपनी इस चिंता को वे जिस कलात्मक सौंदर्य के साथ व्यक्त करते हैं, वह विश्‍वसाहित्य में दुर्लभ है। मृत्यु और मानवीय संवेदना से ओतप्रोत समाज की कल्पना करते हुए कैनेटी काफ्का के साहित्य का अनूठा विश्‍लेषण करते हैं, जो ‘काफ्का’ज अदर ट्रायल: द लैटर्स टू फेलिस’ में सामने आता है। पत्र शैली में लिखी इस किताब में कैनेटी काफ्का के दुतरफा संघर्ष को बताते हैं, जिसमें सिर्फ दो विकल्प हैं, या तो मध्यवर्गीय आरामतलब जिंदगी के मजे लो अन्यथा वैयक्तिक निर्वासन भोगो। काफ्का जीवन और रचना दोनों में कैसे यह संघर्ष कर रहे थे, इसे कैनेटी ने काफ्का की प्रेमिका फेलिस के नाम काल्पनिक पत्रों के माध्यम से बताने का सराहनीय काम किया। ‘द कंसाइंस ऑफ द वर्ड’ में कैनेटी कहते हैं कि इस दुनिया को बचाने, नया अर्थ देने और अधिक मानवीय बनाने में लेखक की बहुत बड़ी भूमिका होती है। कैनेटी को नोबल पुरस्कार के अलावा विश्‍व साहित्य में करीब दर्जन भर प्रतिष्ठित पुरस्कारों और सम्मानों से समादृत किया गया। 13 अगस्त, 1994 को ज्यूरिख में मृत्यु से पूर्व एलियास कैनेटी ने तीन खण्डों में अपनी वृहद् आत्मकथा और यात्रा संस्मरणों की एक पुस्तक भी लिखी।

Sunday 11 July, 2010

ऐसे कैसे चलेगी पंचायत

आज देश के अनेक राज्यों में असमान विकास के कारण आम आदमी का जीना इस कदर दूभर हो गया है कि भोले-भाले ग्रामीण किसान और आदिवासियों से लेकर खेत मजदूर और दूसरे दस्तकार तक गहरे असंतोष से भर गए हैं। आबादी के बहुत बड़े हिस्से को लगता है कि सरकार और सरकारी अधिकारी का उनसे कोई जुड़ाव या सरोकार नहीं है और सारी व्यवस्था उन्हें तिल-तिल कर मारने के लिए बनी है। इसीलिए कई राज्यों में नक्सलवाद की जड़ें मजबूत होती जा रही हैं। लोगों के आक्रोश को एक हद तक दमन से दबाया जा सकता है, लेकिन इसके नतीजे बहुत अच्छे नहीं होंगे। आखिर एक देश की सरकार अपने ही लोगों को कैसे मार सकती है, जबकि हिंसा की राह पर लोगों को ले जाने वाले नक्सलियों के मुकाबले देश के पास जमीनी स्तर पर लोगों की जरूरत और क्षमताओं के लिहाज से पर्याप्त संसाधन ही नहीं विकास योजनाएं और उन्हें क्रियान्वित करने वाली एक पूरी व्यवस्था भी है। आवश्‍यकता इस बात की है कि उस व्यवस्था को जल्द से जल्द और ज्यादा से ज्यादा मजबूत किया जाए, ताकि त्रस्त और हताश लोगों को राहत मिले। महात्मा गांधी का सपना था कि ग्रामीण भारत का तेजी से और समुचित विकास करने के लिए ग्राम पंचायतों के माध्यम से एक प्रभावशाली व्यवस्था विकसित की जाए जो अपने स्तर पर ग्रामीण भारत के सर्वांगीण विकास का दायित्व वहन करे।

नए भारत का निर्माण करेंगी महिलाएं
हम जानते हैं कि आम आदमी सामान्य तौर पर हथियार तभी उठाता है जब उसके अस्तित्व पर ही संकट आ जाए, अन्यथा वह सहज भाव से अभावों की जिंदगी भी जी लेता है और शिकायत भी नहीं करता। इसीलिए संविधान के 73वें संशोधन के अंतर्गत पंचायती राज व्यवस्था में महिलाओं के लिए कम से कम तैंतीस और राजस्थान जैसे कई राज्यों में तो पचास फीसद आरक्षण की व्यवस्था ने इस देश के लोकतांत्रिक इतिहास में अनूठा अवसर प्रदान किया है कि वे इस महादेश को अपने ममत्व, वात्सल्य और पारिवारिक दायित्व की भावना के साथ विकास की उस राह पर ले जाएं जहां हर भारतीय के पास एक सहज जीवन जीने के संसाधन उपलब्ध हों। अकेले राजस्थान में 2010 के पंचायत चुनावों में कुल एक लाख बीस हजार पंचायत जनप्रतिनिधियों में साठ हजार से अधिक महिलाएं चुनाव जीत कर आई हैं। सरकार की मंशा इन जनप्रतिनिधियों के माध्यम से एक नए ग्रामीण भारत का निर्माण करने की है। लेकिन पिछला अनुभव बताता है कि सरकार की नीतियों और कार्यप्रणाली में भारी अंतर्विरोध होने के कारण वांछित परिणाम प्राप्त होने में अभी बहुत समय लगना है। यह स्थिति इसलिए भी चिंताजनक है कि खुद भारत सरकार ने संयुक्त राष्ट्र संघ से लिखित में वादा किया है कि आने वाले पांच सालों में यानी सन् 2015 तक शिक्षा, स्वास्थ्य और भोजन के क्षेत्र में अंतर्राष्ट्रीय मानकों के अनुरूप न्यूनतम लक्ष्य प्राप्त कर लिए जाएंगे। ये लक्ष्य मूल रूप से गरीबी उन्मूलन और भुखमरी को समाप्त करने के लिए तय किए गए हैं और दुनिया के कई देशों ने भारत की तरह संयुक्त राष्ट्र संघ के साथ ऐसे वायदा पत्र पर हस्ताक्षर किए हैं। हम जानते हैं कि आंकड़ों के स्तर पर सरकारी लक्ष्य कैसे प्राप्त किए जाते हैं और वाहवाही लूटी जाती है। इसलिए उन रुकावटों की पहचान बहुत जरूरी है, जो हजारों करोड़ रुपये खर्च कर समग्र भारत के विकास का लक्ष्य हासिल करने के मकसद में दिक्कतें पैदा कर सकती हैं। इस मकसद को हासिल करने में महिला जनप्रतिनिधियों की भूमिका बहुत प्रभावी हो सकती है, बशर्ते सरकारें और स्वयं महिलाएं इस पर गंभीरतापूर्वक विचार कर इसे अमल में लाएं।

अबला को बनना होगा सबला
नई लोकतांत्रिक व्यवस्था में महिलाओं का चुनाव में जीत कर आना ही प्रमुख नहीं है, बल्कि उनके लिए सबसे जरूरी यह है कि उनकी क्षमताओं को अधिकाधिक विकसित किया जाए, जिससे वे लोक कल्याण में अपनी नेतृत्वकारी भूमिका सही ढंग से निभा सकें। फिलहाल स्थिति यह है कि महिला जनप्रतिनिधि अशिक्षा और पुरुषों पर निर्भरता की वजह से न तो अपनी क्षमताओं को पहचान पाती हैं और न ही विकसित कर पाती हैं। हाल ही में देखा गया कि राजस्थान के शिक्षा मंत्री भंवर लाल मेघवाल ने बस्सी तहसील की जिला परिषद सदस्य करमा देवी मीणा के साथ अभद्रता की। करमा देवी सिर्फ यही तो चाहती थी कि उनके गांव के स्कूल में अध्यापक की नियुक्ति की जाए। करमा देवी के साथ जो कुछ हुआ वह हमारे समाज की मर्दवादी मानसिकता का एक सबूत है। करमा देवी नहीं जानतीं कि एक महिला जनप्रतिनिधि के लिए इस लोकतंत्र में अभी कितने रास्ते हैं, जिनसे वे अपने अधिकारों की लड़ाई लड़ सकती हैं, मसलन वे अगर अपने साथ गांव के स्त्री-पुरुषों को साथ लेकर सामूहिकता के साथ अपनी बात मनवाने की कोशिश करतीं तो नजारा ही कुछ और होता। लेकिन इसी के साथ सच्चाई यह भी है कि इस बार के पंचायत चुनावों में बड़ी संख्या में शिक्षित महिलाएं जीत कर आई हैं जो अपनी यथासंभव क्षमता के साथ अपने गांवों को बदलते भारत के साथ कदमताल करने की दिशा में ले जाने के लिए काम कर रही हैं।

सरकारी स्तर पर पंचायती राज व्यवस्था को प्रभावी बनाने के लिए किए जाने वाले कार्यों में सबसे महत्वपूर्ण है, सभी स्तरों पर जन प्रतिनिधियों को सघन प्रशिक्षण प्रदान करना। लेकिन व्यवहार में देखा गया है कि सरकारी स्तर पर प्रशिक्षण को मात्र खानापूर्ति के लिए किया जाता है। दूसरी तरफ जनप्रतिनिधि भी प्रशिक्षण के प्रति उदासीन होते हैं। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 90 प्रतिशत जनप्रतिनिधियों को प्रशिक्षण दिया जाता है, लेकिन यह प्रतिशत उपस्थिति का है और वह भी अनिवार्यता के कारण। वास्तव में कितने जनप्रतिनिधि लाभान्वित होकर निकले और कितनों ने इसका व्यवहारिक जीवन में प्रयोग किया इसके कोई आंकड़े नहीं हैं। एक बार प्रशिक्षण के बाद सरकार अपना दायित्व पूर्ण मानती है और अगले चुनाव तक भूल जाती है। ग्रामीण जनप्रतिनिधियों के लिए एक बार के नहीं सतत प्रशिक्षण की आवश्‍यकता होती है, क्योंकि ऐसा करने से ही नेतृत्वकारी क्षमताओं और आत्मविश्‍वास का विकास होता है, पूरे तंत्र और व्यवस्था को समझने में सहायता मिलती है। महिला जनप्रतिनिधियों के साथ आरंभ से अंत तक काम करने और सहयोग करने के लिए द हंगर प्रोजेक्ट जैसी बहुत सी गैर सरकारी संस्थाएं हैं, जो पूरी गंभीरता के साथ ग्रामीण विकास में महिला नेतृत्व को प्रभावकारी बनाने में लगी हैं और इसके बहुत अच्छे परिणाम सामने आए हैं।

गरीबी की मार महिला पर भार
इस हकीकत को सभी मानते हैं कि गरीबी की मार ग्रामीण भारत को ज्यादा झेलनी पड़ती है। इसी के साथ यह भी सच है कि निर्धनता का पहला शिकार महिलाओं को ही होना पड़ता है, सबसे पहले उन्हीं पर होने वाले खर्च कम किए जाते हैं और परिवार की आय बढ़ाने के लिए उन्हीं को सबसे ज्यादा श्रम करना पड़ता है। स्त्री को दोयम मानने की मानसिकता भी हमारे यहां व्यापक है। इस धारणा के साथ ग्रामीण महिलाओं के हालात बदलने में महिला जनप्रतिनिधियों की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण हो सकती है। पंचायत का बजट बनाते समय अगर वे महिलाओं की प्राथमिकता वाले पहलुओं की पैरवी करें, विकास कार्यों में महिला आधारित मुद्दों को शामिल करवाने में सफल हों और महिलाओं पर होने वाली हिंसा रोकने की कोशिश करें तो परिदृश्‍य बदलने में देर नहीं लगेगी। लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति यह है कि हमारे समाज में स्वयं महिला जनप्रतिनिधियों के साथ ही आए दिन यौन दुराचरण के मामले सामने आते रहते हैं। इसमें सबसे चिंताजनक पहलू यह है कि महिला जनप्रतिनिधि को स्वयं पर होने वाली हिंसा या यौन दुराचरण के मामले में विशेष कानूनी संरक्षण नहीं है, उसके साथ सामान्य महिला जैसी ही स्थिति है।

बिना तालमेल कैसी पंचायत
पंचायती राज व्यवस्था का सांगठनिक ढांचा इस प्रकार का है कि वह ऊपर से नीचे एक दूसरे पर आश्रित है, लेकिन संकट यह है कि इस बहुस्तरीय प्रणाली को सहयोग करने वाली कोई व्यवस्था नहीं है। पंचायत स्तर पर पंच, सरपंच, उप सरपंच और ग्राम सेवक होते हैं, लेकिन इन सबमें कोई तालमेल नहीं होता। जाति, धर्म, लिंग, वर्ग और राजनैतिक दल जैसे भेद की वजह से आम तौर पर सामंजस्य नहीं हो पाता। जबकि पंचायती राज व्यवस्था एक किस्म की टीम भावना की मांग करती है, जो कहीं दिखाई नहीं देती। ग्राम सेवक और अन्य सरकारी कर्मचारी व अधिकारी अपनी नौकरी पक्की मान कर जनप्रतिनिधियों के साथ, खासकर महिलाओं के साथ मनमानी करते हैं। इसका नतीजा यह होता है कि लोगों के काम नहीं हो पाते और व्यवस्था के प्रति असंतोष पनपता है। सरकारी मशीनरी और जनप्रतिनिधियों में जिस प्रकार के संबंध होने चाहिएं, उसकी गैर मौजूदगी जमीनी लोकतंत्र को विकसित नहीं होने देती। मानसिकता में बदलाव से ही ये हालात बदल सकते हैं। इस बदलाव में पंचायती राज व्यवस्था की सबसे छोटी इकाई ग्रामसभा सर्वाधिक महत्वपूर्ण योगदान कर सकती है। लेकिन दुर्भाग्य की बात यह है कि ग्रामसभा प्रायः सब जगह बेहद कमजोर है। सन् 2010 को ग्रामसभा सशक्तिकरण वर्ष घोषित किया गया है, लेकिन राजस्थान में छह महीने गुजरने के बाद भी इसकी कोई सुगबुगाहट तक सुनाई नहीं देती। पिछली बार जब सी.पी. जोशी राजस्थान के पंचायत राज मंत्री बने थे, तो ग्रामसभा को मजबूत करने के लिए लगातार अखबारों में विज्ञापन छपे थे। अब जोशी केंद्रीय मंत्री हैं, लेकिन ग्राम सभा की मजबूती की आवाज कहीं नहीं है।

नरेगा ही करेगा हर मर्ज की दवा
राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारण्टी कानून लागू होने के बाद ग्रामीण भारत में गरीब लोगों को जीने का एक नया संबल मिला है। पहले नरेगा और अब महानरेगा दोनों ही पंचायती राज व्यवस्था के माध्यम से क्रियान्वित हो रहे हैं। हर पंचायत के पास इसके तहत सालाना एक करोड़ का बजट है, जो न केवल गांव के विकास कार्यों में इस्तेमाल हो रहा है, बल्कि इसी में से गरीबों को रोजगार भी मिल रहा है। इसमें भ्रष्टाचार की शिकायतें भी आ रही हैं, लेकिन फिर भी यह अकेली योजना ग्रामीण भारत में उपजे असंतोष को कम करने में सक्षम है, जरूरत भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने और अधिकाधिक लोगों तक पहुंचने की है। हमारे गृहमंत्री और कई दलों के नेता बारंबार नक्सलवाद से निपटने के लिए दमन की कार्यवाहियों की बात करते हैं, लेकिन एक छोटी सी बात समझ में नहीं आती कि लोगों को सही राह दिखाने के लिए जब हमारे पास पर्याप्त चीजें मौजूद हैं तो आप दवा की जगह बंदूक की गोली क्यों देना चाहते हैं? इस सवाल का जवाब किसी सरकार के पास नहीं है और सारी समस्याएं इसीलिए खड़ी हो रही हैं।

यह आलेख डेली न्‍यूज़ के रविवारीय परिशिष्‍ट 'हम लोग' में रविवार, 11 जुलाई, 2010 को कवर स्‍टोरी के रूप में प्रकाशित हुआ।

Sunday 4 July, 2010

जयपुर : अब दरख्तों की खैर नहीं...!

अपने ही पांवों पर कुल्हाड़ी मार रहा है शहर

इस शहर में कुछ सडक़ें ऐसी हैं, जो विकास और सुविधाओं के नाम पर नग्न कर दी गई हैं। पहले कभी इन सडक़ों पर हरे-भरे पेड़ों की लंबी कतारें हुआ करती थीं, जिनकी शीतल छांव में थके हारे लोग पसीना सुखाते थे, परिन्दे आशियाना बसाते थे और जिनके पत्ते जानवरों का भोजन बनते थे। आज इन सडक़ों पर दूर-दूर तक पेड़-पौधों के नामोनिशान नजर नहीं आते।

बढ़ते ट्रैफिक दबाव से निपटने का आसान उपाय था, सडक़ों को ज्यादा से ज्यादा चौड़ा करना। इसके लिए राह में आने वाले तमाम पेड़-पौधों की निर्ममतापूर्वक बलि दे दी गई। सीकर रोड पर बी.आर.टी.एस. के लिए सडक़ क्या चौड़ी हुई, बेजुबान दरख्तों को समूल नष्ट कर दिया गया। आज हरमाड़ा से लेकर चौमूं पुलिया, झोटवाड़ा ओवरब्रिज से चांदपोल, पानीपेच से रेलवे स्टेशन, चिंकारा कैंटीन से ट्रांसपोर्ट नगर, सांगानेरी गेट से लेकर जोरावर सिंह गेट, चांदपोल से गलता गेट, नारायण सिंह सर्किल से ट्रांसपोर्ट नगर, अजमेरी गेट से सीतापुरा, गवर्नमेंट हॉस्टल से पुरानी चुंगी, अम्बेडकर सर्किल से सोडाला थाना, समूचा बी-टू बाइपास, इंदिरा मार्केट से घाटगेट तक और समूची चारदीवारी में सिर्फ गिनती के पेड़ बचे हैं। इन रास्तों पर अगर कहीं हरे दरख्त दिखते भी हैं तो अधिकांश सडक़ किनारे की इमारतों की बाउंड्री में हैं। मुख्य सडक़ों पर हरियाली के नाम पर सजावटी पौधे हैं।

हाल ही में हुए एक अंतरराष्ट्रीय मानकीकरण में जयपुर सिर्फ इसलिए देश के श्रेष्ठ शहरों में पिछड़ गया, क्योंकि यहां बसावट की तुलना में हरियाली बेहद कम है। जहां दरख्त होने चाहिएं वहां अल्पायु सजावटी पौधे हैं। सार्वजनिक पार्कों में से अधिकांश में मंदिर बना दिए गए हैं, जो पूरी तरह गैर-कानूनी हैं। अखबारों में तस्वीरें छप रही हैं कि कैसे चोर दिन-दहाड़े ट्री-गार्ड उखाडक़र ले जा रहे हैं। हमारे शहर के पर्यावरण के साथ बरसों से यह खिलवाड़ हो रहा है और कोई कुछ नहीं बोलता। लोगों को याद होगा, कुछ ही बरस पहले बीसलपुर पाइप लाइन के लिए कैसे विशाल वृक्षों की बलि दी गई और जनता की गाढ़ी कमाई के करोड़ों रुपए पाइप लाइन में फूंक दिए गए। हमने पहले रामगढ़ को बर्बाद किया और अब बीसलपुर को। कूकस के बांध में तो पानी आए पच्चीस साल हो गए। इस बांध में पानी आने का जो रास्ता था उस पर बड़े-बड़े स्टार क्लास होटल और रिसोर्ट बन गए हैं। मावठे को सूखे कई बरस बीत गए। तालकटोरा क्रिकेट का मैदान है। सरस्वती कुण्ड के नदी एरिया से लेकर पहाड़ के साथ-साथ जलमहल तक चलते जाइए, पहाड़ तक पर कॉलोनियां बस गई हैं। कभी यहां का बरसाती पानी तालकटोरा और जलमहल तक जाता था। नाहरी का नाका के बांध में तो अब बंधा बस्ती ही बस गई है। कहां तक गिनें, एक अंतहीन सिलसिला है इस शहर की बर्बादी का।

एक दिन मैंने चिंकारा कैंटीन से सांगानेरी गेट आते हुए सडक़ पर लगे दरख्ïतों को गिनने की कोशिश की तो गिनती बीस-तीस से आगे नहीं जा सकी। इसमें भी आश्चर्य की बात यह कि बाईं तरफ यानी जी.पी.ओ. की तरफ वाले हिस्से में तो शायद पांच-सात पेड़ ही बचे हैं। अभी एक दिन पांच बत्ती पर देखा कि नरसिंह बाबा के मंदिर के बाहर का विशाल दरख्त काटा जा रहा था। यानी अब इस सडक़ पर बचे-खुचे दरख्तों की भी खैर नहीं।

यह उस शहर में हो रहा है जहां तीन सौ बरस से बगीची और बागों की परंपरा रही है। पुरोहित जी का बाग, हाथी बाबू का बाग, मां जी का बाग, नाटाणियों का बाग, सेठानी का बाग और विद्याधर का बाग जैसे बाग शहर की चारदीवारी से बाहर थे तो चारदीवारी में बगीचियों की भरमार थी। मसलन कायस्थों की बगीची, अमरनाथ की बगीची, सवाई पाव की बगीची, सिद्धेश्वर की बगीची, पतासी वालों की बगीची और लगभग हर रास्ते में ऐसी बगीचियां हुआ करती थीं। आज बगीचियों और बागों के बस नाम रह गए हैं, हर तरफ रिहाइशी और व्यावसायिक इमारतें बन गई हैं। इसीलिए इस शहर में जहां कभी दस-बीस फीट पर कुओं में पानी निकल आता था, आज पूरा शहर डार्क जोन में चला गया है। शहर में अब पानी सिर्फ विद्याधर नगर जैसे गिने-चुने इलाकों में बचा है, जहां सैंकड़ों ट्यूबवेलों से चौबीसों घण्टे पानी निकाला जा रहा है। इरादा साफ है, इन इलाकों को भी डार्क जोन में भेज दो। फिर लोग मजबूर होकर कोका कोला वालों का पानी खरीदेंगे, जो कालाडेरा को रसातल में ले जा रहा है।


हटा दिया रास्ते से हरा पेड़... : पांच बत्ती पर नरसिंह बाबा के मंदिर के पास इस हरे पेड़ को रातों रात उड़ा दिया गया। कहते हैं कि कुछ होटल, दुकान वालों के लिए बाधा पैदा करता यह पेड़ आंख की किरकिरी बना हुआ था, इसलिए इसका सफाया कर दिया गया।
फोटो: अशोक शर्मा