Sunday 29 August, 2010

अपनी ही धुन का कवि पाब्लो नेरूदा

भारतीय कविता पर जिन विदेशी साहित्यकारों का सबसे ज्यादा असर रहा है उनमें पाब्लो नेरूदा का नाम सबसे उपर है। नेरूदा उन गिने-चुने विदेशी लेखकों में हैं जिनकी जन्म शताब्दी भारत में व्यापक पैमाने पर मनाई गई और इस अवसर पर उन पर कई भाषाओं में केंद्रित पत्रिकाओं के विशेषांक और कई पुस्तकाकार प्रकाशन हुए। 12 जुलाई, 1904 को रेल्वे कर्मचारी पिता और अध्यापिका माता के यहां चिली में जन्मे पाब्लो नेरूदा की मां का जन्म के दो महीने बाद ही निमोनिया से निधन हो गया। पिता ने दूसरी शादी की और दो सौतेले भाई-बहनों के साथ नेरूदा का लालन-पालन हुआ। पिता नहीं चाहते थे कि उनका बेटा लेखक-कवि बने, इसलिए उन्होंने प्रारंभ में नेरूदा के इस रुझान का विरोध भी किया, क्योंकि वे चाहते थे कि बेटा दुनियादार आदमी बने और लेखक-कवि बनने का ख्वाब छोड़ दे। लेकिन चिली के जंगलों में बालसुलभ कौतूहल में घंटों घूमने वाले और कई किस्म के कीट-पतंगों और फूल-पत्तियों का संग्रह करने वाले नेरूदा अपनी धुन के पक्के थे। फिर आरंभिक शिक्षा के दौरान नेरूदा को गेब्रिएला मिस्त्राल जैसी कवयित्री शिक्षिका का सान्निध्य मिला, जिन्हें आगे चल कर नोबल पुरस्कार मिला। नेरूदा की पहली कविता अपनी दिवंगत मां की स्मृति में थी, जो कहीं विस्मृत हो गई। पहली रचना तेरह बरस की उम्र में ही एक स्थानीय अखबार में एक निबंध ‘उत्साह और उद्यमशीलता’ के रूप में प्रकाशित हुई। पाब्लो नेरूदा का मूल नाम रिकार्डो एलीज़र नेफ्टाली रीस वाय बेसाआल्टो था। लेकिन पिता के डर से उन्होंने अपना नाम पाब्लो नेरूदा रख लिया जो दो महान लेखकों जेन नेरूदा और पॉल वरलाइन के मिश्रण से बना था। सोलह साल की उम्र तक आते-आते उनके बदले हुए नाम से रचनाएं प्रचुर मात्रा में पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगी थीं। पढ़ने की नेरूदा को इतनी जबर्दस्त धुन थी कि कम उम्र में ही उन्होंने कस्बे की लाइब्रेरी की तमाम किताबें पढ़ डालीं।

सत्रह साल की आयु में वे चिली विश्‍वविद्यालय में फ्रेंच भाषा पढ़कर अध्यापक बनने का सपना लेकर गए। लेकिन जल्द ही यह सपना त्याग कर वे पूर्णकालिक कवि हो गए। उन्नीस की उम्र में पहला कविता संग्रह प्रकाशित हुआ ‘बुक ऑफ ट्वाइलाइट्स’। अगले साल ‘ट्वेंटी लव पोएम्स एण्ड ए सोंग ऑफ डिस्पेयर’ ने पाब्लो की ख्याति रातों-रात बढ़ा दी। इतनी कम उम्र में ऐसी खूबसूरत प्रेम कविताओं की वजह से पाब्लो को जबर्दस्त आलोचना और प्रशंसा समान रूप से मिली। उन्‍मुक्‍त प्रेम की उद्दाम भावनाओं की कविताओं के इस संग्रह का कालांतर में विश्‍व की कई भाषाओं में अनुवाद हुआ और आज भी ये उनकी सर्वाधिक बिक्री वाला संग्रह है। इस संग्रह में एक कविता में उन्होंने रवींद्रनाथ टैगोर की ‘गीतांजलि’ से उद्धृत करते हुए कविगुरू को सम्मान दिया था। भारत के साथ नेरूदा का रिश्‍ता कालांतर में और मजबूत होता गया। पाब्लों की प्रसिद्धि तो फैल रही थी, लेकिन गरीबी पिंड नहीं छोड़ रही थी। पैसा कमाने की कई योजनाएं बनाते और हर बार असफल हो जाते। इसलिए वे राजनयिक सेवा में एक नौकरी के लिए 1927 में नितांत अनजान जगह रंगून जा पहुंचे। इसके बाद वो कोलंबो, बटाविया और सिंगापुर भी रहे। बटाविया, जावा में पाब्लो की मुलाकात डच बैंककर्मी मैरिका से हुई, जिसके साथ उन्होंने पहला विवाह किया। राजनयिक सेवा के दौरान पाब्लो जहां भी रहे, वहां के साहित्य और सांस्कृतिक परंपराओं का अध्ययन कर अपनी कविताओं में निरंतर प्रयोग करते रहे और विभिन्न संस्कृतियों को अपने काव्य में रचते रहे।

चिली वापस लौटने के बाद उनकी नियुक्ति अर्जेंटीना और स्पेन में की गई। यहां उन्हें लोर्का और राफाएल जैसे कवि-साहित्यकारों से हुई। 1934 में पहली बेटी का जन्म हुआ, जो लगातार बीमारी के कारण जल्द ही चल बसी। इस बीच उनका पत्नी की तरफ से रुझान घटता गया और 1936 में तलाक हो गया। इसके बाद पाब्लो ने अर्जेंटाइन डेलिया से विवाह किया जो उनसे बीस साल छोटी थी। स्पेन में जब गृहयुद्ध छिड़ गया तो पाब्लो नेरूदा राजनैतिक तौर पर बेहद गंभीर हो गए और वामपंथी विचारों से प्रभावित हुए। स्पेन में जब लोर्का की हत्या की गई तो वे उग्र वामपंथी हो गए और परिणाम स्वरूप ‘स्पेन इन द हार्ट’ कविता संग्रह प्रकाश में आया। 1937 में स्वदेश वापसी के बाद पाब्लो नेरूदा की कविताएं पूरी तरह राजनीतिक रंग में रंग गईं, जिनमें आतताइयों का प्रखर विरोध और जनता का प्रबल समर्थन मुखरित हुआ।

राजनयिक सेवा के दौरान उनकी नियुक्ति मेक्सिको में हुई जहां वे ऑक्टोविया पाज जैसे महान कवि से मिले। अपने राजनैतिक विचारों के कारण नेरूदा को देश और नौकरी दोनों को छोड़ना पड़ा। लेकिन वे कभी भी अपने राजनैतिक विचारों से विमुख नहीं हुए और इसका आगे चलकर उन्हें फायदा भी मिला। उनके लिए कविता हमेशा मनुष्य की अंतरात्मा की आवाज रही। 1950 में उनका विराट कविता संग्रह ‘केंटो जनरल’ प्रकाशित हुआ, जिसमें उनकी सर्वाधिक प्रसिद्ध कविता ‘माचू पिच्चू के शिखर’ भी शामिल थी। इस कविता का हिंदी में कई कवियों ने अनुवाद किया है और भारतीय साहित्य में नेरूदा की यह सबसे लोकप्रिय कविताओं में से है। इंका सभ्यता के एक उजड़े हुए नगर के बहाने यह कविता सभ्यता और संस्कृति का विहंगम विमर्श प्रस्तुत करती है, जिसमें मनुष्य के प्रयत्नों की गंध और उसके स्वप्नों की बहुत सुंदर छवियां देखने को मिलती हैं। जब चिली में उनके विचारों की सरकार की स्थापना हुई तो वे स्वदेश लौट आए और 1958 में ‘एक्सट्रावैगारियो’ काव्य संग्रह प्रकाश में आया। उनकी ख्याति बतौर कवि और राजनेता चिली में चरम पर थी और उनके अनुवाद निरंतर प्रकाशित होते जा रहे थे। बतौर राजनेता वे सीनेटर चुने गए।

1971 में जब उन्हें नोबल पुरस्कार दिया गया तो वे स्वाभाविक तौर पर इसके हकदार माने गए। क्‍योंकि करीब दस साल से हर बार उनका नाम संभावितों की सूची में होता था और अंत में किसी अन्‍य लेखक को नोबल घोषित हो जाता था। बहरहाल, उन्होंने आपने नोबल भाषण में नोबल पुरस्कार उन तमाम लोगों को समर्पित किया जो उनकी कविता में किसी भी रूप में आए। पाब्लो नेरूदा के लिए कहा जाता है कि दुनिया की तमाम भाषाओं में वे बीसवीं सदी के महानतम कवि हैं। नेरूदा ने चार बार भारत की यात्रा की। पहली बार नवंबर, 1927 में वे मद्रास आए, जहां उन्होंने भारतीय महिलाओं पर बेहतरीन कविताएं लिखीं। इसके बाद दिसंबर, 1928 में वे कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में शामिल हुए, जहां मोतीलाल नेहरू, जवाहर लाल नेहरू और महात्मा गांधी आदि राष्ट्रीय नेताओं से मिले। भारतीय स्वाधीनता संग्राम से नेरूदा ने प्रभावित होकर लिखा कि यह पूरे एशिया का जागरण था। 1951 में वे विश्‍व शांति परिषद के प्रतिनिधि के तौर पर प्रधानमंत्री पंडित नेहरू से मिलने आए। यहीं उन्होंने ‘इंडिया 1951’ कविता लिखी, ‘धरती का गर्भ/एक बंद गलियारा जहां इतिहास के अंगूर पकते हैं/पुराने ग्रह-नक्षत्रों की प्राचीन बहन है भारत की धरती।’ अंतिम बार नेरूदा 1957 में बांग्ला कवि विष्णु डे के निमंत्रण पर भारत आए। 23 सितंबर 1973 को उनका निधन हुआ।
यह आलेख राजस्‍थान पत्रिका के रविवारीय संस्‍करण में 29 अगस्‍त, 2010 को 'विश्‍व के साहित्‍यकार' शृंखला में प्रकाशित हुआ।









Tuesday 24 August, 2010

बहन

बहन

मां की कोख से
पैदा हुई लड़की का ही नाम नहीं है
उस रिश्‍ते का भी नाम है
जो पुरुष को मां के बाद
पहली बार
नारी का सामीप्‍य और स्‍नेह देता है

बहन
कलाई पर राखी बांधने वाली
लड़की का ही नाम नहीं है
उस रिश्‍ते का भी नाम है
जो पीले धागे को पावन बनाता है
एक नया अर्थ देता है

मां
पुरुष की जननी है
और पत्‍नी जीवन-संगिनी
             पुरुष के नारी-संबंधों के
                इन दो छोरों के बीच
पावन गंगा की तरह बहती
नदी का नाम है
बहन

Sunday 22 August, 2010

महंगाई ने किया बेहाल

अब सिर्फ साढ़े चार साल बचे हैं और इतने कम समय में संपूर्ण भारत को शिक्षा, स्वास्थ्य, पर्यावरण, लैंगिक समानता, रोजगार, भोजन, स्वच्छ पेयजल, शिशु और मातृ मृत्यु दर में कमी जैसे क्षेत्रों में संयुक्त राष्ट्र संघ से किए गए वायदे के अनुसार बड़े लक्ष्य हासिल करने हैं। जी हां, सन 2000 में भारत सरकार ने संयुक्त राष्ट्र संघ के साथ जिस मसौदे पर हस्ताक्षर किए थे, उसके अनुसार सन् 2015 तक आठ विभिन्न क्षेत्रों में अंतर्राष्ट्रीय मानकों के अनुरूप लक्ष्य प्राप्त किए जाने हैं। इनमें सबसे महत्वपूर्ण है आधी आबादी की गरीबी दूर करना और भूख मिटाना। हालात ये हैं कि 23 जून, 2010 को जारी एक रिपोर्ट के अनुसार भारत की 70 प्रतिशत से भी अधिक जनता गरीबी की रेखा से नीचे रह रही है। क्या आगामी चार सालों में बीस प्रतिशत जनता को गरीबी रेखा से ऊपर लाया जा सकेगा? यह सवाल इसलिए भी गंभीर हो जाता है, क्योंकि माध्यमिक स्तर तक शिक्षा में लिंग भेद समाप्त करने और शत प्रतिशत लड़कियों को शिक्षा प्रदान करने का लक्ष्य 2205 तक निर्धारित किया गया था, लेकिन हासिल नहीं किया जा सका। 2015 तक गरीबी की दर को 24 प्रतिशत पर लाना है, जो अभी संभव नहीं दिख रहा है। पिछले दो सालों में हुई आर्थिक मंदी ने भुखमरी को 21 प्रतिशत तक बढ़ दिया है। यह स्थिति सिर्फ भारत की नहीं समूचे दक्षिण एशिया की है। उक्त रिपोर्ट के अनुसार पिछले दो सालों में खाद्यान्न और अन्य खाद्य वस्तुओं के दाम 80 प्रतिशत तक बढ़ गए हैं, जिसकी वजह से निर्धनतम लोगों के सामने भयानक भुखमरी का संकट खड़ा हो गया है। हाल ही पेट्रोलियम पदार्थों में की गई बढ़ोतरी इस संकट को और बढ़ाएगी। भुखमरी के लिहाज से मध्यप्रदेश और गुजरात की हालत दक्षिण अफ्रीका के सामालिया और कांगो जैसे देशों सी है। राजस्थान भी बहुत अच्छी दशा में नहीं है, लेकिन हालात तो यहां भी चिंताजनक ही हैं।

सहस्राब्दी विकास लक्ष्य यानी मिलेनियम डवलपमेंट गोल्स में युवाओं को अच्छा रोजगार उपलब्ध कराना भी शामिल है। इसीलिए नरेगा के बाद महानरेगा जैसी योजनाएं लाई गई हैं और सरकारी नौकरियों में जोरदार भर्ती के अभियान चल रहे हैं। इस दिशा में अगर दस साल पहले काम शुरु किया गया होता तो सोचिए कितने करोड़ बेरोजगारों को अब तक रोजगार मिल गया होता और उन हजारों नौजवानों की जान बच गई होती, जिन्होंने बेरोजगारी के कारण आत्महत्या का रास्ता चुना। दरअसल हमारी आदत ही हो गई है कि हम बिल्कुल आखिरी समय पर जाकर चेतते हैं, इसीलिए समय पर वांछित परिणाम हासिल नहीं हो पाते।

2015 तक देश के प्रत्येक बालक को प्राथमिक शिक्षा उपलब्ध कराई जानी है, लेकिन हालत यह है कि आज भी देश के हजारों गांवों में स्कूल तक नहीं हैं। ऐसे में इस लक्ष्य को हासिल करना खासा मुश्किल काम है। इसी तरह पंद्रह से चौबीस साल की आयु के सभी स्त्री-पुरुषों को साक्षर किया जाना है। इसके लिए साक्षर भारत योजना युद्धस्तर पर चल रही है। तमाम ग्राम पंचायतों को इसके लिए बैंकों के माध्यम से विशेष रूप से फण्ड उपलब्ध करवाया जा रहा है। शिक्षा के क्षेत्र में लैंगिक असमानता को समाप्त करने का लक्ष्य भी हासिल होता नहीं दिख रहा है। अभी भी देश की अधिकांश बालिकाएं शिक्षा से वंचित हैं और सरकार की तमाम योजनाओं के बावजूद स्थिति में अपेक्षित सुधार होता नहीं दिख रहा है।

समाज में विभिन्न स्तरों पर व्याप्त लैंगिक भेद को समाप्त करने और महिला सशक्तिकरण के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए ही संसद में महिलाओं के लिए तैंतीस प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था की गई। अब इसे समाज के अन्य हिस्सों में भी लागू करने की कवायद चल रही है। इसी तरह खेती के अलावा अन्य क्षेत्रों में भी महिलाओं को पुरुषों के समान रोजगार दिया जाना है। इतना ही नहीं रोजगार में महिलाओं को प्रबंधकीय तंत्र में भी शामिल करना है, जिससे उच्च प्रशासनिक स्तर पर महिला और पुरुष का अनुपात कम किया जा सके। अगर ऐसा होता है तो आने वाले समय में समाज में कई स्तरों पर व्यापक बदलाव देखने को मिलेंगे। सहस्राब्दी विकास के आठ लक्ष्यों में से तीन लक्ष्य पूरी तरह महिलाओं से संबंधित हैं। लिंग भेद समाप्त करने के अलावा शिशु और मातृ मृत्यु दर को कम करने के लक्ष्य प्राप्त करने में महिला जनप्रतिनिधियों की भूमिका अहम साबित हो सकती है। देश के अनेक गांवों में प्राथमिक चिकित्सा सेवाएं सुलभ नहीं हैं और करोड़ों बच्चे बेमौत मारे जाते हैं। राजस्थान के पंचायत चुनावों में इस बार साठ हजार से ज्यादा महिलाएं जीत कर आई हैं। ये महिला पंच, सरपंच, उप सरपंच और प्रधान चाहें तो हर गांव में एक प्राथमिक चिकित्सा केंद्र खुलवा कर अपने गांव में होने वाली शिशुओं की ही नहीं गर्भवती माताओं की भी अकाल मृत्यु रोक सकती हैं। शिशु और माता की मृत्यु का सीधा संबंध माता के स्वास्थ्य से है, इसलिए अगर माता को सही पोषण मिले और नियमित स्वास्थ्य जांच हो और समय पर दवाइयां आदि मिले तो इस लक्ष्य को हासिल करना असंभव नहीं है। महिला जनप्रतिनिधि अपने गांव की महिलाओं को परिवार नियोजन और स्वास्थ्य के बारे में जागरूक करें तो नेता होने के कारण महिलाएं उनकी बात आसानी से मानेंगी और इसके बहुत सकारात्मक परिणाम सामने आएंगे। महिलाओं पर आए दिन होने वाली हिंसा रोकने में भी महिला जनप्रतिनिधि बेहद कारगर सिद्ध हो सकती हैं। सहस्राब्दी विकास लक्ष्यों में एड्स, मलेरिया और अन्य बीमारियों से बचाव और चिकित्सा भी एक अहम मुद्दा है। इसे हासिल करने में पूरे समाज को ही योगदान करना होगा, फिर वो चाहे शिक्षक हों, स्वास्थ्यकर्मी हों या जनप्रतिनिधि।
पर्यावरण संरक्षण को लेकर अभी भी समाज में वैसी चेतना नहीं है, जिससे दिनोंदन बिगड़ते पर्यावरण को सुधारा जा सके। इसके लिए एक तरीका यह भी हो सकता है कि नरेगा के अंतर्गत होने वाले विभिन्न विकास कार्यों में पर्यावरण संरक्षण के कार्यों का दायरा बढ़ाया जाए। मसलन गांव में होने वाले विकास कार्यों में तीस प्रतिशत काम सिर्फ पर्यावरण संरक्षण के ही होना अनिवार्य कर दिया जाए तो कायापलट संभव है। इस काम में भी महिला जनप्रतिनिधियों की पहल प्रभावी हो सकती है। अगर प्रत्येक गांव में वाटरशेड डवलपमेंट योजना चलाई जाए तो जलसंकट से भी निजात मिल सकती है और पर्यावरण को भी संरक्षित किया जा सकता है। इससे गांव के पशुओं के लिए चारा भी उपलब्ध हो सकता है और गांवों में जलस्तर भी बढ़ाया जा सकता है।

सहस्राब्दी विकास लक्ष्य हासिल करना देखने में मुश्किल जरूर लगते हैं, लेकिन ये असंभव बिल्कुल नहीं हैं। यह जरूर हो सकता है कि हम 2015 तक इन लक्ष्यों को हासिल नहीं कर पाएं, लेकिन 2020 या 2025 तक तो कर ही सकते हैं। जरूरत इस बात की है कि प्रशासनिक मशीनरी और सभी स्तरों के जनप्रतिनिधियों के बीच तालमेल हो और सब मिलकर गंभीरतापूर्वक प्रयास करें।

















Sunday 15 August, 2010

63 साल की आज़ादी और 36 का आंकड़ा

मनुष्य मात्र के लिए किसी भी स्वतंत्र देश में आजादी का अर्थ और व्यावहारिक अभिप्राय बहुआयामी होता है। किसी विदेशी शासन का जुआ उतार फेंकने भर से देश के नागरिकों को आजादी नहीं मिलती, बल्कि आजादी का मतलब है स्वदेशी शासन में प्रत्येक नागरिक को जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में आगे बढ़ने के समान अवसर उपलब्ध हों, लिंग, धर्म, जाति, संप्रदाय और नस्ल आदि में से किसी भी आधार पर भेदभाव न तो समाज में हो और ना ही शासन या व्यवस्था के स्तर पर। देश में उपलब्ध प्राकृतिक और आर्थिक संसाधनों का सामुदायिक हित में प्रयोग किया जाए और प्रत्येक नागरिक को बिना भेदभाव के इन संसाधनों के समुचित प्रयोग का अधिकार हो। अगर भारत की आजादी के विगत 63 सालों का विश्‍लेषण करें तो पता चलेगा कि हम भारतीय आज भी बहुत से मामलों में एक स्वाधीन लोकतांत्रिक देश के सच में स्वाधीन नागरिक नहीं हैं। हमारी आजादी आज भी अधूरी है, क्योंकि हमारे यहां जाति, धर्म और लिंग के अलावा प्रांत और अंचल जैसे कई आधारों पर आज भी जबर्दस्त भेदभाव है, जिसके शोले कश्‍मीर से कन्याकुमारी और मुंबई से सुदूर उत्तर-पूर्व तक सुलगते देखे जा सकते हैं।
आजादी का मतलब है लोगों को स्वतंत्रतापूर्वक अपने आनंद से जीने का अधिकार हो और जनता सुरक्षा की भावना के साथ खुश होकर कहीं भी रह सके। इस आधार पर देखें तो हम कहीं भी आजाद नहीं हैं। आम आदमी ना तो घर में सुरक्षित है ना ही बाहर। कानून की पालना और व्यवस्था बनाए रखने के लिए जो संस्थाएं बनाई गई हैं वे नाकामयाब सिद्ध हो रही हैं। एक लोकतांत्रिक समाज में कानून और व्यवस्था का अर्थ यह होता है कि लोगों की सहमति से जीवन स्वातंत्र्य के लिए कायदे कानून बनाए जाएं और उनकी पालना के लिए माकूल इंतजाम इस तरह किए जाएं कि जनता को कम से कम असुविधा हो और सामान्य जनजीवन बाधित ना हो। लेकिन हम देख रहे हैं कि लोगों की सुविधा के नाम पर देश में बड़े रसूखदार और पूंजीपतियों के हित में नए से नए कानून बनाए जा रहे हैं। अकेले छत्तीसगढ़ राज्य में बहुराष्ट्रीय कंपनियों से दो हजार से अधिक करार राज्य सरकार द्वारा खनिज और वन संपदा के दोहन के लिए किए गए हैं। इसका प्रतिवाद करने वाले आदिवासियों का बुरी तरह दमन किया जा रहा है। अपना हक मांगने वाले लोगों का अगर सरकार गोली से जवाब देती है तो यह कहां की आजादी है? सन 1776 में अमेरिकी आजादी के घोषणा पत्र में इसे तत्कालीन ब्रिटिश सरकार सरकार द्वारा जनता को विद्रोह के लिए उकसाने वाला कृत्य कहा गया था। वस्तुतः स्वतंत्रता का सिद्धांत कहता है कि जनता को सहज जीवन जीने का अधिकार मिलना चाहिए। लेकिन व्यवहार में हम देखते हैं कि उपनिवेशवादी ब्रिटिश सरकार की तरह जनता के मूलभूत अधिकारों का राज्य द्वारा कदम-कदम पर हनन किया जा रहा है। इसीलिए महात्मा गांधी ने सौ बरस पहले ही कह दिया था कि अगर अंग्रेजी शासन को हटाकर वैसा ही शासन अगर भारत में स्थापित करना है तो यह दासता ही भली है। व्यवहार में हम देख ही रहे हैं कि सत्ता का चरित्र कमोबेश औपनिवेशिक ही है और हमारी राजनीति की दिशा निरंतर जनोन्मुखी होने के बजाय पूंजीपति रक्षक की हो गई है।
स्वाधीनता का तकाजा कहता है कि लोगों की निजता के अधिकार की रक्षा की जानी चाहिए और आम जीवन में सरकार का दखल कम से कम होना चाहिए। लेकिन बढ़ते अपराधों की रोकथाम में नाकाम सरकारें नए-नए थाने बनाकर हर कदम पर पुलिस और पहरेदार बिठाकर सोचती है कि इससे अपराध रुक जाएंगे। आजादी का मतलब होता है कि कम से कम सरकारी दखल हो और जितना भी दखल हो वह लोगों की अनुमति से होना चाहिए। एक स्वस्थ सुरक्षित लोकतांत्रिक समाज में व्यक्ति को निर्भय जीने का अधिकार होता है, लेकिन हमने एक ऐसी व्यवस्था बना रखी है, जो कहने को लोगों को समान अवसर देती है, लेकिन निरक्षता और गरीबी का मारा व्यक्ति या तो अपराध की राह पकड़ता है या भीख मांगने के लिए मजबूर होता है। लोकतंत्र में सरकारी अधिकारियों और कर्मचारियों को जनसेवक की भूमिका निभानी चाहिए, लेकिन प्रचलित व्यवहार में हम देखते हैं कि सरकारी कर्मचारी-अधिकारी जनता को सहयोग की बजाय परेशान करते हैं। जनता की सुरक्षा और स्वतंत्रता बनाए रखने के लिए शासन अनिवार्य है, लेकिन अतिशासन निजता का हनन करता है। इसीलिए महात्मा गांधी ने ‘हिंद स्वराज’ में अपने मन के शासन को स्वराज कहा था, जो आम आदमी के लिए आज भी एक सपना ही है।
लोकतंत्र में न्याय, शांति, स्वतंत्रता और समृद्धि को मनुष्य मात्र का प्राकृतिक अधिकार माना जाता है। राज्य का यह बुनियादी कर्तव्य है कि इन अधिकारों के लिए काम करे, क्योंकि स्वतंत्रचेता व्यक्ति का निर्माण भी राज्य का दायित्व है। अगर किसी समाज में लोगों को ये आधारभूत अधिकार मिलते हैं तो वह समाज तेजी से विकास करता है और राष्ट्र को आगे ले जाता है। इन अधिकारों की बहाली के लिए सरकार ने जो व्यवस्था कार्यपालिका और न्यापालिका के रूप में बनाई है उनके काम की गति देखकर सहज ही कहा जा सकता है कि जनता का क्या हाल होगा। लोग बरसों से न्याय की आशा में अदालतों और सरकारी दफ्तरों में भटकते रहते हैं और एक दिन संसार से कूच कर जाते हैं। उदाहरण के लिए आदिवासी बहुल राज्य छत्तीसगढ़ में जिस दिन टाटा के साथ खनिज दोहन के लिए मसौदे पर हस्ताक्षर हुए उससे अगले दिन ही यानी 05 जून, 2005 से राज्य में सलवा जुड़ूम शुरु हो गया। आनन-फानन में 644 गांवों का ‘पवित्रीकरण’ कर दिया गया, अर्थात् गांव जला दिए गए। छह सौ आदिवासी न्याय मांगने के लिए अदालत की शरण में गए, लेकिन एक भी आदिवासी को न्याय नहीं मिला। क्या इसी के लिए आजादी के आंदोलन में लाखों आदिवासियों ने अंग्रेजों से मरते दम तक लोहा लिया था? आदिवासी अंचलों में चल रही हिंसा के संदर्भ में गांधी जी का ‘हिंद स्वराज’ में लिखा यह कथन बहुत मानीखेज़ है। ‘अशांति असल में असंतुष्टि है। यह असंतुष्टि बड़े काम की चीज़ है। एक व्यक्ति जब तक अपने वर्तमान से संतुष्ट रहता है तब तक उसे उस अवस्था से बाहर निकालना बहुत मुश्किल होता है। इसलिए कोई भी सुधार असंतुष्टि से ही शुरु होता है। जब हम किसी चीज का इस्तेमाल बंद कर देते हैं तब हम उसे फेंक देते हैं।’
स्वतंत्र देश में समूची व्यवस्था में निर्णय का अधिकार जनता के पास होता है, जनप्रतिनिधि अपने सदनों में जनता की ओर से निर्णय लेते हैं। लेकिन अक्सर देखा गया है कि विभिन्न सदनों में लिए जाने वाले निर्णयों में से अधिकांश जनहित में नहीं होते, चाहे वे नए टैक्सों की शक्ल में हों या नए निर्माण कार्य अथवा कानून की शक्ल में। राजधानी जयपुर में खासा कोठी पर निर्मित पुल के बारे में अब सरकार खुद ही स्वीकार कर रही है कि यह गलत बना दिया गया। निश्चित रूप से ऐसे निर्णय जनहित के नाम पर जनता की सुविधा और सहूलियत के लिहाज से कलंक हैं, जिनके पीछे कुछ लोगों का निहित स्वार्थ छुपा होता है। ऐसे में जनप्रतिनिधियों और कार्यपालिका की भूमिका पर भी प्रश्‍नचिह्न लग जाता है। फिर गांधी जी का ब्रिटिश संसद के बारे में कहा गया कथन याद आता है, ‘‘प्रधानमंत्री संसद के कल्याण के बजाय अपनी शक्तियों के लिए ज्यादा चिंतित नजर आते हैं। उनकी पूरी ताकत अपनी पार्टी की सफलता सुनिश्चित करने पर केंद्रित रहती है। उनकी शाश्‍वत चिंता यह नहीं होती कि संसद ठीक से काम करे। कई किस्म के लाभ उठाने के लिए वे निश्चित रूप से कुछ लोगों को मान-सम्मान की घूस भी देते हैं।’’
आज हमारी आजादी का 63वां साल है, यह अवसर इस बात पर पुनर्विचार करने का है कि कैसे हर व्यक्ति को वास्तविक स्वतंत्रता मिले, जिससे वह स्वयं के साथ देश के विकास के बारे में सोचे और एक सरस, सरल, अपराधमुक्त, निर्भय, स्वस्थ और स्वतंत्र विचारशील समाज का निर्माण करने में अपना सर्वस्व लगा दे। मार्टिन लूथर किंग ने कहा था, ‘तुम मेरी जान ले सकते हो, लेकिन मेरे जीने का अधिकार नहीं छीन सकते। तुम मुझसे मेरी आजादी छीन सकते हो, लेकिन मेरी स्वतंत्रता का अधिकार नहीं छीन सकते। तुम मेरी आशाएं छीन सकते हो, तुम चाहो तो मुझसे खुशी की कामना भी छीन सकते हो, लेकिन तुम खुशी की खोज के अधिकार को नहीं छीन सकते।’’ मनुष्य के लिए आनंद और खुशी ही स्वतंत्रता है। आइये इसका जश्‍न मनाएं, लेकिन एक नागरिक की जिम्मेदारियों के साथ, क्योंकि स्वतंत्रता के साथ दायित्वबोध भी जुड़ा हुआ है।

यह आलेख डेली न्‍यूज़, जयपुर के स्‍वाधीनता दिवस परिशिष्‍ट 'देश मेरा रंगरेज' में प्रकाशित हुआ।





Friday 6 August, 2010

सावन गुलाबी नगरी में...

ऐसा हरियल सावन जयपुर में कई बरस बाद आया है, जिसमें पूरा शहर लबालब हो रहा है। आषाढ़ में तरसती आंखों को दिली सुकून मिल रहा है और हर बार बादल को देखकर लगता है यह हमीं पर मेहरबान होकर बरसने वाला है। बावजूद तमाम टूटी-फूटी व्यवस्था के अरावली की मटमैली पहाड़ियों पर लहराती हरी लूगड़ी हर बाशिंदे की आंखों में भी हरापन भर रही है। किसी चौपड़ से देख लो या किसी इमारत पर जाकर, नाहरगढ़ से झालाना तक ऐसा हरा भरा नजारा देखने को कब से आंखें तरस रही थीं। सागर, मावठा और बीसलपुर में पानी आया तो लाखों कण्ठों ने परमात्मा का शुकराना अदा किया। जय हो इंद्र देव की जो इस नगर पर अपने आशीर्वाद की वर्षा की।

कवियों की क्या कहें यहां तो हर बाशिंदा कवि हो गया है। जब एक तरफ के आकाश पर काली घटाएं उमड़ घुमड़ कर उठती हैं तो लोगों के चेहरे इस कदर उल्लसित होते हैं कि अगर उनकी धड़कनों और बुदबुदाहट को सुना जाए तो पता चलेगा वे किसी ना किसी ‘राग मल्हार’ में मदमस्त हुए जा रहे हैं। नौजवान अपने प्रेमिल स्वप्नों की इमारत खड़ी कर रहे हैं, जिसमें अपने प्रिय के साथ बारिश में नहाने का कोई रूमानी सिनेमाई दृश्‍य रह रह कर तैरता रहता है। नर्म नाजुक अहसास बारिश में भीगकर रूई के फाहों की तरह उड़ते हुए बादलों के साथ प्रतियोगिता में दौड़े जा रहे हैं। ‘रिमझिम के गीत सावन गाए, गाए...।’

उम्रदराज लोगों के लिए यह महंगाई से राहत देने का जरिया बन गया है। यूं मन-मयूर तो उनका भी नाच रहा है लेकिन वो आयु बंधन की वजह से मन मसोस कर रह जाते हैं। उन्हें संतोष होता है बस गर्मागर्म पकौड़ों के साथ चाय की चुस्कियों से। शहर के हर गली-नुक्कड़ पर नमकीन-कचौरी-पकौड़ियों की दुकानों पर भारी भीड़ है। घरों में गृहिणियां रसोई में व्यस्त हैं और खुश्‍बुओं का सागर हिलोरें ले रहा है। कोई चिंता नहीं कि गीले कपड़े सूख नहीं पा रहे या कि सीलन के मारे तकलीफ हो रही है। भले ही सावन के झूले अब सिर्फ कल्पना में रह गए हों, लेकिन गृहिणियों के लिए यह बरखा के गीत गाने का मौसम है, लहरिया ओढ़ने और गाने के दिन हैं। ‘म्हारै लहरिया रा नौ सौ रुपिया रोकड़ा सा, म्हानै ल्या द्यो ल्या द्यो लहरियो सा।’ जिनके लिए शादी के बाद का यह पहला सावन है, उनके लिए यह आग लगाने वाला मौसम है, क्योंकि जयपुर की रिवायत है कि शादी के बाद पहलें सावन पति-पत्नी अलग रहेंगे। यही तो प्रेम की परीक्षा की ऋतु है। बारिश में ही तो पकता है प्रेम का शाश्‍वत फल। ‘रिमझिम बरसे बदरा मैं तेरे सपने देखूँ, मैं तेरे सपने देखूं।'

हवा में सराबोर सौंधी सौंधी महक जयपुर के आकाश में यूं नाच रही है जैसे गुलाबो। कई बरस बाद जयपुर के नागरिकों को पांचों इंद्रियों से बारिश का अनुभव हो रहा है। बारिश में लगातार नहाकर नाहरगढ़ का किला और जवान दिखाई दे रहा है। धाराधार बरसते पानी को देखना एक अद्वितीय अनुभव की तरह हमारे मन मस्तिष्क पर अंकित हो रहा है। बारिश में भीगने का सुख लेने वाले मदहोश होकर बाइक-स्कूटर-साइकिल पर या पैदल ही दौड़े जा रहे हैं। बारिश में भीगते हुए अमृतजल पीने से बड़ा सुख मां के आंचल में दूध पीना ही है। देखना, भीगना और सूंघ कर बारिश का मजा ले रहे लोगों में उन शहरियों को कैसे छोड़ दें जो बारिश के संगीत का आनंद ले रहे हैं। खिड़की के पास या बालकनी में कुर्सी डाल कर सावन का बरसता संगीत सुनने वालों से पूछिए, वो कितनी स्वर लहरियां एक साथ कितने बरस बाद सुन रहे हैं। बादलों की घड़घड़ाहट ऐसे लगती है जैसे इंद्रदेव आकाश में लगे स्पीकरों पर माइक टेस्टिंग कर रहे हों। बारिश का पहला आलाप यूं लगता है जैसे किशोरी अमोणकर ने आलाप लिया हो। पूरी लय और ताल में बरसती बारिश ऐसे लगती है जैसे बेगम अख्तर गा रही हों। रिमझिम बरसती है तो मेहदी हसन गाने लगते हैं और हद बेहद में कुमार गंधर्व। ‘आइये बारिशों का मौसम है...आज फरमाइशों का मौसम है।’

दिन-रात, सुबह-शाम-दोपहर, हर वक्त बरसती बारिश जयपुर के बाशिंदों को पागल किए जा रही है। हर एक का दिमाग सातवें आसमान पर है। पाचं साल तक सरकारी खर्चे पर हुई पूजा-अर्चना से तो इंद्र खुश नहीं हुए, अलबत्ता जयपुरवासियों की गुहार जरूर सुन ली। शहर के हालात इतने नाजुक हैं कि ‘डर है ना मार डाले, सावन का क्या ठिकाना।’ तालकटोरा में नौका विहार अब अतीत का हिस्सा है, लेकिन ऊलजलूल विकास ने ये हालात जरूर पैदा कर दिए हैं कि इस बारिश में जौहरी बाजार में कभी नाव चलती देखी जा सकेगी। हर कोई गा रहा है... 'बरखा रानी जरा जमके बरसो, मेरा दिल अभी भीग ना पाया जरा जोर से बरसो।’

Wednesday 4 August, 2010

मूक संवादों का कवि-नाटककार-मॉरिस मैटरलिंक

यूरोप के छोटे-से देश बेल्जियम को साहित्य में एकमात्र नोबल पुरस्कार पूरी एक सदी पहले नाटककार, कवि और निबंधकार मॉरिस मैटरलिंक के रूप में मिला। बेहद दौलतमंद माता-पिता के घर में 29 अगस्त, 1862 को जन्मे मॉरिस को घर पर आरंभिक शिक्षा दी गई और बारह साल की उम्र में कठोर कैथोलिक ईसाई अनुशासन में पढ़ने के लिए जेसुइट कॉलेज भेज दिया गया। यहां का वातावरण मॉरिस को कालांतर में कैथोलिक चर्च से ही दूर ले गया। सात साल के इस कठोर धार्मिक वातावरण में मॉरिस को दो समान रूचि वाले मित्र मिले जो आगे चल कर अच्छे कवि के रूप में प्रसिद्ध हुए। इन कवियों के साथ मॉरिस ने ला ज्यून बेल्जिक पत्रिका में अपनी कविताएं प्रकाशन के लिए भेजना शुरु किया तो 21 साल की उम्र में पहली कविता प्रकाशित हुई ‘द रशेज।’ माता-पिता को पसदं नहीं था कि मॉरिस कविता और साहित्य की तरफ आगे बढ़े, इसलिए उन्होंने बेटे को कानून पढ़ने के लिए घेण्ट विश्‍वविद्यालय भेज दिया।

मॉरिस ने कानून की पढ़ाई के दौरान भी साहित्य से नाता नहीं तोड़ा और निरंतर लिखते रहे। कानून में स्नातक होने के बाद वे कुछ समय पेरिस रहे, जहां प्रतीकवादी कवि स्टीफन मलार्मे और डिवीलियर्स जैसे रहस्यवादी कवियों से मुलाकात की। लौटकर मॉरिस वापस घर आए और वकालत शुरु की, लेकिन साहित्य से रिश्‍ता बना रहा। 1889 में पहला कविता संग्रह प्रकाशित हुआ ‘हॉट हाउस ब्लूम्स।’ अत्यंत रहस्यमयी बिंबों और छवियों से समृद्ध कविताओं से परिपूर्ण संग्रह पर आलोचकों का ध्यान अवश्‍य गया। इसके बाद जल्दी ही मॉरिस का पहला नाटक ‘प्रिंसेस मेलिन’ प्रकाश में आया। नाटक को भी जनता की नहीं आलोचकों की खासी प्रशंसा मिली। प्रसिद्ध समीक्षक ऑक्टोव मीरब्यू ने शेक्सपीयर जैसे सौंदर्य से परिपूर्ण श्रेष्ठ नाटक करार दिया। इस प्रशंसा से मॉरिस की ख्याति साहित्य जगत में तेजी से फैल गई। इससे प्रेरित होकर मॉरिस लगातार मनुष्य की घातक परिस्थितियों और जीवन के अदृश्‍य रहस्यों को लेकर नाटक लिखते रहे। बेल्जियम और फ्रांस में उनके ‘इंट्रयूडर’ और ‘द ब्लाइंड’ जैसे नाटकों ने साहित्य और रंगमंच की दुनिया में पर्याप्त सराहना अर्जित की।

नाट्य लेखन के दौरान मॉरिस की मुलाकात गायिका और अभिनेत्री जार्जेट लिब्लांक से हुई जो आगे चलकर तेइस बरस तक चली। मॉरिस के लिए जार्जेट एक केंद्रबिंदु बन गई, जिसके इर्दगिर्द उन्होंने तेइस साल तक दर्जनों नाटकों की रचना की। इन नाटकों में मॉरिस ने मनुष्य जीवन के अनेक रहस्यमय और नियति के शिकार किरदार गढ़े, हर किरदार अनिवार्य और अंतिम रूप से जार्जेट की वजह से स्त्री का किरदार होता था। उन्होंने जो नाटक लिखे, उनकी आलोचकों और समीक्षकों ने अत्यंत सराहना की, इनमें रोम्यां रोलां जैसे भारतप्रेमी लेखक भी शामिल थे। कैथोलिक चर्च ने जार्जेट को उसके स्पेनिश पति से तलाक देने से मना कर दिया, इसलिए वे दोनों विवाह नहीं कर सके। उधर जार्जेट के साथ खुले आम रहने की वजह से मॉरिस के माता-पिता उनसे खफा हो गए तो दोनों ने 1895 में बेल्जियम छोड़ दिया और पेरिस चले गए। यहां आकर मॉरिस ने प्रतीकवाद की अतिनाटकीयता को छोड़कर किंचित यथार्थवादी तरीका अपनाया, जो दर्शकों और समीक्षकों सभी को पसंद आया। मॉरिस को मधुमक्खी पालन का शौक था और चींटियों और कीट-पतंगों के बारे में पढ़ने का जबर्दस्त शगल था। इसलिए उन्होंने कुछ नाटकों में मनुष्य के नियतिवाद को मधुमक्खियों आदि के माध्यम से भी संकेतित करने का जबर्दस्त काम किया। मॉरिस ने शॉपेनहावर के नकारवादी रवैये के बरक्स एक किस्म के विजयी आशावादी दृष्टिकोण को स्थापित किया। उनकी मान्यता थी कि इंसान चाहे तो भाग्य और नियति को बदल सकता है। 1903 में नाट्यसाहित्य में योगदान के लिए मॉरिस को बेल्जियम सरकार ने पुरस्कृत किया।

मॉरिस मैटरलिंक का सबसे मषहूर नाटक है ‘द ब्लू बर्ड’, जिसे दुनिया की कई भाषाओं में खेला गया है। रंगमंच के महान निर्देशक कोन्सतांतिन स्तानिस्लाव्सकी ने 1908 में जब इस नाटक को पहली बार मास्को में प्रस्तुत किया तो बच्चों की परीकथा वाले इस नाटक को इतनी जबर्दस्त लोकप्रियता हासिल हुई कि एक साल तक यह लगातार मंचित होता रहा। इस नाटक पर कई देशों में बेहद लोकप्रिय फिल्में भी बनीं। रूसी-अमेरिकी सहयोग से बनी एक फिल्म में तो एलिजाबेथ टेलर ने चार भूमिकाएं निभाईं। 1911 में मॉरिस मैटरलिंक को नाट्य साहित्य में असाधारण योगदान के लिए नोबल पुरस्कार प्रदान किया गया।

प्रथम विश्‍वयुद्ध ने मॉरिस को बेहद विचलित किया और जब जर्मनी ने बेल्जियम पर आक्रमण कर दिया तो उनके भीतर का देशभक्त लेखक जाग उठा और ‘द रैक ऑव स्टॉर्म’ जैसी विचारप्रधान पुस्तक सामने आई। 1919 में जार्जेट लिब्लांक के साथ उनका संबंध समाप्त हो गया और ‘द ब्लू बर्ड’ की नायिका रेनी देहोन से विवाह कर लिया। इसी के साथ वे रहस्य, प्रतीक और फंतासी की दुनिया से बाहर निकल कर प्रकृतिवादी मनोवैज्ञानिक विषयों पर लिखने लगे। पहले और दूसरे विश्‍वयुद्ध के बीच वे लगातार नाटक और निबंध लिखते रहे। द्वितीय विश्‍वयुद्ध में वे अपने देश के लिए लड़ना चाहते थे, किंतु उनकी आयु के कारण मना कर दिया गया और उनके देशभक्त विचारों और उनकी ख्याति को देखते हुए उनकी जान बचाने के लिए उन्हें पहले पुर्तगाल और फिर अमेरिका भेज दिया गया। प्रवास के ये दिन बहुत आर्थिक तंगी में गुजरे। 1947 में मॉरिस वापस घर लौटे।

उनके आलोचकों का मानना है कि मॉरिस ने मानव जीवन की परिस्थितियों के सबसे गूढ़ प्रश्‍न मृत्यु को कई कोणों से जांचा परखा है। उनके नाटकों में अलिखित या मूक संवाद, नियति से साक्षात्कार के भाव और रोजमर्रा के जीवन में छिपी हुई रहस्यात्मकता ने नाट्यसाहित्य में एक नई परंपरा का सूत्रपात किया, जो आगे चल कर हैरॉल्ड पिंटर जैसे महान नाटककार को जन्म देती है। 6 मई, 1949 को हार्ट अटैक से उनकी मृत्यु हुई। 2008 में बेल्जियम सरकार ने उनकी जन्मशती के मौके पर उनकी स्मृति में एक सिक्का जारी किया। मॉरिस का यह कहना बहुत ही खूबसूरत है, ‘‘रंगमंच ऐसी जगह है जहां कलात्मक काम नष्ट हो जाते हैं ... और .... कविता तब मर जाती है जब उसमें जिंदा लोग दाखिल हो जाते हैं।’’