Monday 23 February, 2009

मेरे दादा पिकासो: मेरीना पिकासो

पाब्लो पिकासो की पोती मरीना पिकासो की किताब 'पिकासो माय ग्रैंड फादर' मुझे कुछ दिन पहले एक किताब मेले में यूँ ही मिल गयी। किताब को पढने के बाद ज़बरदस्त रोमांच का अनुभव हुआ। मुझे लगा इसका अनुवाद किया जाना चाहिए। आनंद भाव से जो अनुवाद किया तो खुदी को बहुत अच्छा लगा। यह पोस्ट अपने अनुभव साझा करने की एक छोटी-सी ख़बर है। मेरे पास इसके कोई कोपी राइट नहीं हैं, लेकिन मैं इसे प्रकाशित कर रहा हूँ।
मैं जानती हूँ कि पिकासो से बचकर मैं कहीं नहीं भाग सकती। मुझे इसमें कभी कामयाबी नहीं मिली। जब सब कुछ दुनिया के सामने आ चुका है, पिकासो मेरा पीछा नहीं छोड़ रहा।
दोपहर का एक बजा है। मैं जिनेवा में हूँ, हमेशा की तरह बहते यातायात में मैं ‘गुस्ताव अडोर’ की ड्राइविंग सीट पर बैठी गाड़ी चला रही हूँ। मैं अपने बच्चों, गेल और फ्लोर को स्कूल लेकर जा रही हूँ। मेरे दांयी तरफ लेक जिनेवा और इसका मशहूर गीजर जेट डियू है। झील, कार और गीजर... अचानक मुझे भयानक दर्द के साथ तीव्र आघात लगता है। मेरी अंगुलियों में भयानक जकड़न हो रही है। मुझे छाती में बहुत तेज जलन के साथ दौरा पड़ता है। मेरा दिल तेजी से धड़क रहा है। मेरा दम घुट रहा है। मैं मरने वाली हूँ। मेरे पास सिर्फ इतना ही समय बचा है कि मैं अपने बच्चों को यह कह सकूँ कि वे स्टीयरिंग व्हील पर मेरा सिर गिरने तक चुपचाप बैठे रहें। मुझे लकवा मार गया है। क्या मैं पागल हो गई हूँ?
मैं सड़क के बीचोंबीच कार रोक देती हूँ। आगे पीछे और साथ चलने वाली कारों के हार्न चीखते हैं और सब मुझे आगे बढ़ने के लिए कहते हैं। मेरे लिए कोई नहीं रुकता, सब चलते जाते हैं। दर्द और भय के आधे घण्टे बाद मैं किसी तरह वापस कार स्टार्ट करती हूँ। सड़क के मुहाने पर कार खड़ी कर पास के गैसोलीन पंप पर खुद को लगभग घसीटते हुए ले जाती हूँ। मुझे किसी को मदद के लिए बुलाना चाहिए। मैं अभी मरना नहीं चाहती। मेरे पीछे मेरे बच्चों का क्या होगा?
‘तुम्हें गहन जांच से गुजरना होगा।’ मेरा चिकित्सक कहता है। इस बिंदु पर मेरे पास खोने के लिए कुछ भी नहीं है। और मैं जांच के लिए तैयार हो जाती हूँ-जांच जो चौदह बरस तक चलने वाली है।
मैंने चौदह साल के ये दिन बेकाबू आंसुओं, रूदन और विस्मृति में बिताये हैं। जब मैं अपने पिछले दिनों को याद करती हूँ तो सिहरन होने लगती है। वो सब चीजे याद आती हैं जिनकी वजह से मेरी जिंदगी बर्बाद हुई। पहले चुपचाप और फिर किसी हथौड़े की तरह अतीत मुझ पर टूट पड़ता है। सब कुछ साफ होने लगता है कि किन चीजों ने एक छोटी बच्ची, किशोरी और युवती को बुरी तरह जिंदा ही चबा डाला। एक बदकिस्मत जिंदगी को ठीकठाक करने के लिए मुझे चैदह बरस विपत्तियों से गुजरना पड़ा।
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परम-चरम को पाने की पिकासो की प्यास के पीछे ताकत हासिल करने की जबर्दस्त इच्छा थी। उनका अदभुत काम इंसानों की बलि मांगता था। उन्होंने उस हरेक shakhs को दूर भगा दिया जो उनके नजदीक गया, वे उसे हताष करते और निगल जाते। मेरे परिवार में से कोई भी सदस्य उस अदभुत महान प्रतिभावान कलाकार के पाष से नहीं बच सका। पिकासो को अपनी हर कलाकृति पर हस्ताक्षर करने के लिए लहू चाहिए था, मेरे पिता का, मेरे भाई का, मेरी मां का, मेरी दादी का और मेरा यानी हम सबका लहू। उन्हें उन सबका खून चाहिए था, जो उन्हें प्यार करते थे। लोग यह सोचते थे कि वे एक इंसान को प्यार करते हैं, जबकि सच्चाई यह है कि वे पिकासो को प्यार करते थे।
मेरे पिता पिकासो की तानाषाही के बंधन में पैदा हुए और इसी से पलायन करते, बचते, निराष होते, बर्बाद होते, अपनी हस्ती को खोते हुए एक दिन मर गये।
मेरा भाई पाब्लितो, मेरे दादा की परपीड़ा और अन्याय का खिलौना, चैबीस बरस की आयु में ब्लीच की प्राणघातक मात्रा पीकर खुदकुषी कर बैठा। मैंने उसे अपने ही खून में लिथड़ा हुआ पाया। उसकी आंतें जल गई थीं, उसका पेट फट गया था, उसका दिल अजीब तरीके से धड़क रहा था। मैंने एंटीबीस के ला फोन्टोन अस्पताल में उसका हाथ आखिरी बार थामा था, जहां वह धीरे धीरे मौत की नींद सो रहा था। इस भयानक कृत्य से वह उन दुखों और खतरों को खत्म करना चाहता था, जो उसके और मेरे रास्ते में आने वाले थे। क्योंकि हम पिकासो के नवजात वारिस थे, जिन पर नकली उम्मीदों का सांप कुण्डली मारे बैठा था।
मेरी दादी ओल्गा का जीवन भी अपमान, कलंक और पलायन के एक अंतहीन सिलसिले के बाद लकवाग्रस्त होकर गुजरा। मेरे दादा एक बार भी उन्हें देखने नहीं आये, जब वो पूरी तरह बिस्तर से ही चिपक गई थीं और बेहद कष्ट से गुजर रही थी। जबकि दादी ने उनके लिए सब कुछ छोड़ दिया था, अपना देष, अपना कैरियर, अपने सपने और अपना स्वाभिमान छोड़कर वो उनके साथ चली आई थीं।
जहां तक मेरी मां की बात है, उसे भी किसी बिल्ले यानी बैज की तरह पिकासो नाम मिला था, एक ऐसा बिल्ला जिसने उसे मानसिक संभ्रम की उच्चतम अवस्था यानी पैरानोइया की मरीज बना दिया था। मां के लिए मेरे पिता से शादी करने का मतलब था पिकासो नाम से षादी करना। भीषण उन्माद के क्षणों में मां यह स्वीकार करने को ही तैयार नहीं होती थी कि दादाजी उन्हें एक वांछित सम्मानपूर्ण जीवन देने के लिए कहीं से भी उत्सुक और तत्पर हैं। कमजोर, खोई खोई और असंतुलित मानस की मां को उस मामूली साप्ताहिक भत्ते से ही हमारा घर चलाना पडता था, जो दादाजी उन्हें अपने बेटे और पोते पोती को अपने नियंत्रण में रखने और गरीबी के मुहाने पर जीने के लिए देते थे।
मैं उम्मीद करती हूँ कि एक दिन मैं इस अतीत के बिना भी जिंदा रह सकूंगी।
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नवंबर, 1956। यह गुरुवार का दिन है और मेरे पिता मेरा हाथ थामे आगे चल रहे हैं। वे चुपचाप हमारे सामने खड़े दरवाजे उस दरवाजे तक चलकर जाते हैं, जो ला कैलीफोर्नी को सुरक्षा देता है, यानी हमारे दादाजी का कैन्स स्थित घर। मेरा भाई पाब्लितो हमारे पीछे चल रहा है, उसने अपने हाथ पीछे बांध रखे हैं। मैं अभी छह साल की हुई हूँ और पाब्लितो सात बरस का है।
मेरे पिता धातु के बने दरवाजे पर घण्टी बजाते हैं। मैं डरी हुई हूँ, हम जब भी यहां आते हैं, मेरे साथ ऐसा ही होता है। हमें पदचाप सुनाई देती है, फिर दरवाजे में चाबी धुमाने की आवाज आती है। ला कैलीफोर्नी का बुजुर्ग इतालवी केयरटेकर अधखुले दरवाजे से नमूदार होता है। वो हमारी तरफ देखकर पिताजी से पूछता है, ‘पाॅल साहब, क्या आपने मुलाकात के लिए समय ले रखा है?’
‘हां’, पिता हकलाते हुए जवाब देते हैं। वे मेरे हाथ से अपना हाथ छूट जाने देते हैं, जिससे मुझे यह नहीं पता चलता कि उनकी हथेली में कितना पसीना है।
‘ठीक है,’ कहते हुए वो जोड़ता है, ‘मैं देखता हूँ कि क्या मालिक मिलना चाहते हैं या नहीं।’
दरवाजा फिर से बंद हो जाता है। बारिष हो रही है। यूक्लेप्टिस के दरख्तों की उस कतार से आती गंध हवा में तैर रही है, जहां हमें मालिक के आदेषों की प्रतीक्षा में खड़ा कर दिया गया है। पिछले षनिवार या गुजरे हुए गुरुवारों की तरह हम इंतजार में खड़े हैं।
दूर एक कुत्ता भौंक रहा है। यह जरूर से लुम्प ही होगा, दादाजी का डैषहुण्ड कुत्ता। वो मुझे और पाब्लितो को पसंद करता है। वो हमें उसे पुचकारने देता है। हम अंतहीन प्रतीक्षा करते हैं। पाब्लितो कुछ तो आराम के लिए और कुछ अपना अकेलापन कम करने के लिए मुझसे और चिपक जाता है। पिताजी अपनी सिगरेट खत्म कर चुके हैं। वे उसे फेंक कर दूसरी सिगरेट जलाते हैं। उनकी अंगुलियों पर निकोटीन के गहरे निषान पड़ गये हैं।
‘तुम लोगों को कार में बैठकर इंतजार करना चाहिए,’ पिताजी धीरे से इस तरह फुसफुसाते हैं, जैसे उन्हें किसी के द्वारा सुन लिए जाने का डर लग रहा हो।
‘नहीं,’ हम दोनों एक साथ कहते हैं, ‘ हम आपके साथ ही रहेंगे।’
हमारे सिरों पर बर्फबारी के कारण चादर सी जम गई है। हमें अपराधबोघ महसूस होता है।
एक बार फिर दरवाजे में चाबी लगने और दरवाजा खुलने की आवाज आती है। बूढ़ा इतालवी प्रकट होता है। उसकी नजरें झुकी हुई हैं। निराष स्वर में वह वही पाठ दोहराता है, जो उसे दोहराने के लिए याद कराया गया है।
‘मालिक आज आपसे नहीं मिल सकते। मैडम जैकेलीन ने आपसे यह बताने के लिए कहा है कि मालिक इस वक्त काम कर रहे हैं।’
द्वारपाल को भी बेवकूफ नहीं बनाया जा सकता। वो षर्मिंदा है।
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कितने गुरुवारों को हमने ला कैलीफोर्नी के किले की तरह सुरक्षित दरवाजे पर ये वाक्य सुने हैं-कि मालिक काम कर रहे हैं-कि मालिक सा रहे हैं-या मालिक इस वक्त घर पर नहीं हैं। कभी कभार जैकेलीन रोक, यानी भविष्य उर्फ समर्पित मैडम पिकासो यह भी कहती है, ‘सूरज अपनी षांति भंग नहीं करना चाहता।’
जब वो दादाजी को ‘सूरज’ नहीं कहती तो ‘महाषय’ या ‘महान मालिक’ कहती है। हम उसके सामने अपनी निराषा और अपमानबोध और पीड़ा कभी नहीं प्रदर्षित करते।
जिस दिन हमारे लिए दरवाजे खुले रहते हैं, हम पिता के पीछे पीछे बजरी वाले रास्ते से अहाता पार करते हुए घर के मुख्य प्रवेष द्वार तक जाते हैं। मैं माला जपने की तरह हर कदम को गिनती हूँ। गिनती में मेरे कदमों की संख्या पूरी साठ आती है, झिझक और अपराधबोध के साठ कदम।
सूर्यदेव के महल में-अलीबाबा की खजाने वाली गुफा में-हर तरफ अव्यवस्था का सम्राज्य है। वहां ईजल्स पर और फर्ष पर पेंटिंग्स के ढेर लगे हुए हैं। चारों ओर मूर्तिषिल्प बिखरे पड़े हैं। टोकरों में बेतरतीबी से अफ्रीकी मुखौटे, कार्डबोर्ड पैकिंग के बक्से, पराने अखबार, काम में नहीं आये कैनवस के चैखटे, टिन के कैन, सिरेमिक टाइल, आरामकुर्सी के पाये, संगीत वाद्य, साइकिल के हत्थे, धातु की चादरों के टुकड़े और ना जाने कई तरह के सामान भरे पड़े हैं। दीवार पर सांडों की लड़ाई के पोस्टर, चित्रों का जखीरा, जैकेलीन का पोर्टेªट और सांडों के सिर टंगे हुए हैं।
इन सब के बीच पैर घसीटकर हम पहुंचते हैं, हमें यहीं उनका इंतजार करना है। हमें महसूस होता है कि हम यहां अवांछित हैं। मेरे पिता खुद को सामान्य करने के लिए व्हिस्की का एक गिलास बनाते हैं और एक ही सांस में गटक जाते हैं। शायद इसी से उनको ताकत मिलती है और साहस भी। पाब्लितो एक कुर्सी पर बैठ जाता है और उस सैनिक का नेतृत्व करने के खेल का बहाना बनाता है, जिसे उसने अभी अपनी जेब से बाहर निकाला है।
‘बिल्कुल भी षोर नहीं करना और किसी चीज को हाथ मत लगाना!’ कमरे में दाखिल होकर जैकलीन चीखती है। ‘सूर्यदेव किसी भी क्षण सीढियों से उतरकर नीचे आ सकते हैं।’
एसमेराल्डा, हमारे दादा की बकरी भी चुपचाप हमारा अनुसरण करती है। वैसे वो अपनी मर्जी से कुछ भी कर सकती है-पूरे घर में उछलकूद कर सकती है, फर्नीचर से अपने सींगों की ताकत जांच सकती है, फर्ष पर बिखरी पड़ी पिकासो की पेंटिंग्स और कैनवस के ढेर पर मींगणियां कर सकती है। एसमेराल्डा अपने घर पर है और हम यहां घुसपैठिये हैं।
हमें ठहाकों और चीखों की गूंज सुनाई देती है। दादाजी नाटकीय अंदाज में गर्जना के साथ किसी नायक की तरह प्रकट होते हैं।
मैं कहती हूँ, ‘दादाजी’, लेकिन हमें इस तरह उन्हें पुकारने की इजाजत नहीं है, ऐसा करने की मनाही है यहां। हमसे अपेक्षा की जाती है कि हम सब लोगों की तरह उन्हें पाब्लो कहकर पुकारें। सीमाएं तोड़ने की जगह यह ‘पाब्लो’ हमें अपरिचय की हद में बांध देता है, इससे हमारे और एक देवता सरीखे अगम्य महान व्यक्ति के बीच एक दूसरी दीवार खड़ी हो जाती है।
‘हैलो, पाब्लो,’ मेरे पिता दादाजी के पास पहुंचकर कहते हैं। ‘क्या आप ठीक तरह से सोये?’
मेरे पिता को भी उन्हें ‘पाब्लो’ ही कहने की इजाजत है।
पाब्लितो और मैं दौडकर दादाजी के पास पहुंचते हैं और उनको अपनी बांहों में घेर लेते हैं। हम बच्चे हैं। हमें दादाजी की जरूरत है।
दादाजी हमारे सिर पर हाथ से थपकियां देते हैं, जैसे कोई घोड़े की गर्दन थपकाता है।
‘तो मेरीना, नया क्या चल रहा है? क्या तुम एक अच्छी लड़की हो? और तुम पाब्लितो, तुम्हारी पढ़ाई कैसी चल रही है।’
ऐसे खाली और खोखले सवाल जिनका जवाब देने की कोई जरुरत नहीं है। हमें पालतू बनाने का एक तरीका, जो उनके मन को आम तौर पर अच्छा लगता है।
दादाजी हमें उस कमरे में ले जाते हैं, जहां वे चित्र बना रहे होते हैं। कोई भी कमरा, जिसे उन्होंने अपने स्टूडियो के लिए चुन लिया है। एक सप्ताह या महीना, किसी नये कमरे का उद्घाटन करने तक वे अपने निष्चित कमरे में ही काम करते हैं। दादाजी अपनी मर्जी, प्रेरणा या मौज के वष अपना स्टूडियो चुनते हैं। यहां हमें किसी चीज की मनाही नहीं है। हमें ब्रष छूने की इजाजत है, उनकी नोटबुक में चित्र बनाने की इजाजत है और अपने चेहरों पर रंग लगाने की भी खुली छूट है। इससे उनको मजा आता है।
‘मैं तुम्हें एक मजेदार चीज बनाकर दिखाता हूँ।’, हंसते हुए दादाजी कहते हैं।
वे अपनी नोटबुक में से एक पन्ना फाड़ते हैं, बहुत तेज गति से इसे कई बार मोड़ते हैं और जादुई ढंग से उनके बलषाली हाथों से एक छोटा सा कुत्ता, कोई फूल या चूजा बनकर सामने आ जाता है।
‘क्या यह तुम्हें पसंद है?’ वे अपनी भर्राई आवाज में पूछते हैं।
पाब्लितो कुछ नहीं कहता जबकि मैं हकलाते हुए कहती हूँ, ‘यह तो बहुत सुंदर है।’
हम इसे अपने साथ घर ले जाना चाहते हैं, लेकिन हमें इसकी इजाजत नहीं है। आखिर यह पिकासो का काम है, उनकी एक नायाब कलाकृति है।
कागज की बनी ये आकृतियां, कार्डबोर्ड या माचिस के डिब्बों से बनी चीजें, ऐसे तमाम भ्रम जो दादाजी ने किसी जादूगर की तरह बनाये, वो सब उस महत्वाकांक्षा का ही एक रूप था, जिसके तहत वे हमें, मुझे अब महसूस होता है, दैत्याकार लगते थे, वे हमें यह जताना चाहते थे और हमारे भीतर तक यह बात भर देना चाहते थे कि वे सर्वषक्तिमान हैं और हम कुछ भी नहीं हैं। उन्हें सिर्फ इतना करना होता था कि वे कोई कागज अपने नाखूनों से फाड़ें, कैंची से कार्डबोर्ड का कोई टुकड़ा काटें या किसी मोड़ पर रंग फेला दें। इसके बाद जो कुछ भी सामने आता, उससे एक हिंसक और काफिर किस्म की तस्वीर उभरती जिससे हमारा जीवन बर्बाद हो जाता।
लेकिन मैं इस बात से भी पूरी तरह संतुष्ट हूँ कि पिकासो को अकेलापन बहुत सताता था और वो वापस बचपन के दिनों में लौटना चाहते थे। हमारे नहीं, बल्कि अपने बचपन में जाना चाहते थे। वे दक्षिणी स्पेन में मालगा में लौटना चाहते थे, जहां वे पेंसिल के एक स्ट्रोक से अपनी चचेरी बहनों मारिया और कोंचा को काल्पनिक प्राणियों के चित्र बनाकर चकित कर दिया करते थे। दर्षक के रूप में मारिया और कोंचा की तरह मैं और पाब्लितो भी पिकासो के लिए एक किस्म के ‘आॅडियंस मैटेरियल’ ही थे, जिन्हें वे अपनी मनमर्जी से बुद्धू बना सकते थे या अपना जादू दिखाकर चकित कर सकते थे। उन्होंने अपने बेटे पाउलो के साथ भी यही बर्ताव किया। पाउलो सीरिज की उनकी पेंटिंग्स-पाउलो आॅन हिज डंकी, पाउलो होल्डिंग ए लैम्ब, पाउलो विद ए स्लाइस आॅव ब्रेड, पाउलो ड्रेस्ड एज ए टोरेरो, पाउलो ड्रेस्ड एज ए हार्लेक्वीन आदि में यह सब देखा जा सकता है। यह उस वक्त की बात है जब मेरे पिता उनकी नजरों में मेरे अयोग्य पिता सिद्ध हुए।
हम जब भी ला कैलीफोर्नी जाते पिता हमेषा हमारे साथ ही रहते, उनकी हिम्मत नहीं होती कि वे जरा भी उन विषेष क्षणों में कोई व्यवधान पैदा करें, जो हम दादाजी के साथ गुजार रहे होते। पिताजी अपनी आंखों में बीमारी के लक्षण लिए, चिंतित मुद्रा में स्टूडियो से रसोई के बीच चक्कर पर चक्कर लगाते रहते। वो खुद के लिए व्हिस्की का एक और गिलास बनाते या रसोई से वाइन का गिलास लेकर चले आते। वो बहुत ज्यादा पी रहे हैं। थोड़ी ही देर में उन्हें दादाजी का समना करना होगा और उनसे हमारे और मां के लिए पैसे मांगने होंगे। पैसे, जो पिताजी के पिकासो पर बकाया हैं। वो शब्द मेरे कानों में गूंजते हैं-‘काम करने के बदले में पैसे।’ वो पिकासो के शाॅफर हैं, जिसे हर सप्ताह पैसा दिया जाना है, एक ऐसा मजदूर-श्रमिक जो सब काम करता है, लेकिन जिसकी अपनी कोई जिंदगी नहीं है, एक ऐसी कठपुतली जिसकी डोर हिलाते हुए पिकासो को आनंद आता है, उनके इषारों पर नाचने वाला लड़का।
‘कहो, पाउलो, तुम्हारे बच्चे तो बिल्कुल भी मजाक नहीं करते। इन्हें खेलने-कूदने की थोड़ी ढील देनी चाहिए।’
हमें अपनी बारी का इंतजार करना चाहिए, बेहतर यही है कि हम सब चीजों को ठीक से हो जाने दें। मेरे पिता और मां की बेहतरी के लिए यही ठीक है कि हम पिकासो के साथ खेलें और उनका मनोरंजन करें।
पिकासो एक कुर्सी पर पड़े एक हैट को उठाते हैं और खूंटी पर टंगे कोट की जेब से टोपी निकालकर दोनों को अपने कंधों पर रखकर किसी टूटी हुई पुतली की तरह उछलने कूदने लग जाते हैं। अनवरत और पूरी ताकत लगाकर वे चीखते जाते है और तालियां बजाते रहते हैं।
‘चलो आओ, आ जाओ’, उनकी आंखों में चमक बढ़ जाती है, ‘आओ जैसा मैं करता हूँ, वैसा ही करो और खुषी में झूम जाओ।’
हम ताली बजाकर उनके विदूषक रूप की प्रषंसा करते हैं। मेरे पिता भी शामिल हो जाते हैं। वे अपने पिता के मुंह के एक कोने में दबी सिगरेट को हटाना चाहते हैं, जिसके धुंए से उनकी आंखों से पानी बहने लगा है।
‘अण्दा, पाब्लो! अण्दा, अण्दा!’ स्पेनिष यानी पिकासो की भाषा में पिकासो की जयजयकार। सर्वषक्तिमान पिता और पुत्र के बचपन के दिनों के बीच का बचा हुआ एक मात्र जुड़ाव।
उत्साह से भरे दादाजी लकड़ी की एक चम्मच और मेज पर से एक तौलिया उठाते हैं, उनकी तलवार और ढाल। आंखों में एक चमकदार और बर्बर दृष्टि व्याप गई है। वे हमारे सामने हमारे पिता और मेरे द्वारा निरंतर ‘ओले’ की लय पर लगातार कई चीजें एक साथ पेष करते जाते हैं-मेनोलेटिनाज, चिक्वेलिनाज, वेरोनिकाज और मेरीपोसाज।
पाब्लितो चुपचाप बैठा कहीं दूर देख रहा है। उसके चेहरे पर मौत जैसा पीलापन छाया हुआ है। मेरी तरह वह भी एक सामान्य परिवार से जुड़ना चाहता है, जिसमें एक जिम्मेदार पिता हो, मृदुभाषी मां हो, प्यार करने वाले एक दादाजी हों। पाब्लितो और मेरी किस्मत में यह सब नहीं लिखा है।
आप खुद की कोई पहचान कैसे बना सकते हैं और कैसे शांति के साथ बैठ सकते हैं, जब आपके दादाजी आपके लिए उपलब्ध पूरे का पूरा स्पेस घेर लेते हैं और आपके पिता उनके सामने सिर्फ दण्डवत होकर बिछे पड़े रहते हैं। और आपकी मां ‘सदी की मुलाकात’ के बाद आप पर सवालों की बौछार कर देती है, जिस मुलाकात के लिए किसी ने उसे बुलाने की जरूरत नहीं समझी।
पूरब से आती हवा बादलों के पीछे भाग रही है और कातर सूरज का प्रकाष कमरे में दिव्य रोषनी पैदा कर रहा है। मेरे पिता कीे अभी भी दादाजी के सामने पैसे का सवाल पेष करने की हिम्मत नहीं हो रही है। उन्हें क्यों परेषान किया जाये? वे आज बहुत ही अच्छे मूड में हैं।
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सन् 1961, दादाजी ने नोत्र-देम-दी-वाई की वादियों में एक फार्महाउस खरीदा। दादाजी ला केलिफोर्नी से दूर जाना चाहते थे, क्योंकि रीयल एस्टेट व्यापारियों ने वहां आवासीय फ्लैट्स की एक पूरी कालोनी बनाकर माहौल का सारा मजा किरकिरा कर दिया था। इन फ्लैट्स के कारण समुद्र और प्राकृतिक दृष्यावली का नजारा ही गुम हो गया था।
नोत्र-देम-दी-वाई एक अद्भुत रूप से सुरक्षित किला था, जिसके चारों तरफ बिजली का करंट दौड़ती रेलिंग और कांटेदार तारबंदी की गई थी। आगंतुकों के बारे में प्रवेष द्वार पर ही एक इंटरकाॅम के माध्यम से पूरी जानकारी ले ली जाती थी और आक्रमण के लिए पूर्ण प्रषिक्षित अफगानी षिकारी कुत्ते रात-दिन पूरे परिसर में घूमते रहते थे। वहां हमारा आना-जाना लगभग अधिकारिक किस्म के मुलाकाती साक्षात्कार-भेंटवार्ताओं जैसा हुआ करता था, जिसमें वहां की कठोर गार्जियन जैकेलीन का समय को लेकर पूरा दखल रहता था, वो इस बात का बहुत खयाल रखती थी कि हम दादाजी का ज्यादा समय नहीं खराब करें।
क्या पिकासो यह जानते थे कि जैकेलीन ने उनके और हमारे बीच कोई दीवार खड़ी कर रखी थी? मुझे डर है कि वे यह जानते थे। खुद दादाजी के पास ही जैकेलीन को ऐसी ताकत देने का अधिकार था, जिसमें वह नेपध्य में रहती थी।
फ्रेंकोइस गिलोट की 1964 में प्रकाषित पुस्तक ‘लाइफ विद पिकासो’ से बुरी तरह आहत और नाराज दादाजी ने उसके बाद क्लाउड व पालोमा ही नहीं उनकी बेटी माया और मेरी थेरेस वाल्टर सेे अनेकानेक कारणों से कभी नहीं मिले। केवल मेरे पिता को ही उस दुर्ग में दाखिल होने की इजाजत थी, और पिताजी चाहते थे कि मैं और भाई पाब्लितो भी दादाजी से मिल सकें, ताकि वे यह जता सकें कि वे हमारा बहुत खयाल रखते हैं। पता नहीं, पिताजी ने कभी क्यों नहीं हमें दादाजी से एक बार भी अपने बिना अकेले मिलने दिया? हम दादाजी को यह बता सकते थे कि हम सिर्फ पिता के पुछल्ले नहीं हैं। हम उन्हें दिल खोलकर अपनी सब बातें बता सकते थे, अपने बचपन के रहस्य उनके साथ बांट सकते थे और शायद तब दादाजी भी ठीक से समझ पाते कि हम उनसे क्या अपेक्षाएं रखते हैं।
हाय रे बदकिस्मती, दादाजी और हमारे बीच लोहे का जो परदा गिरा हुआ था, वो इतना भारी था और हमारे सवालों, हमारी इच्छाओं और हमारी यातनाओं से हमेषा के लिए बेखबर और बंद था। ला कैलीफोर्नी की रोषनियां कहां गुम हो गईं मेरे मौला? नोत्र-देम-दी-वाई में सब कुछ धुंधला-धुंधला और निराषाजनक था। किसी जनाजे में आये हुए लोगों जैसे साइप्रस के शोकाकुल दरख्त, भयानक रूप से गमजदा जैतून के पेड़, एक अपराजेय किस्म का वातावरण और इंटरकाॅम की किसी भीमकाय दैत्य की तरह गूंजती आवाज, ये सब मिल कर अजीब सी सिहरन पैदा करते थे।
छठे दषक के आखिरी वर्षों में नोत्र-देम-दी-वाई में एक बार फिर जाना हुआ। हमारे पिता ने हम भाई-बहन को कैन्स और वैलाॅरिस के कहीं बीच से अपने साथ लिया था। ‘जल्दी से अंदर आ जाओ,’ अपनी कार की खिड़की के शीषे उतारते हुए उन्होंने कहा, ‘हमें देर हो रही है।’ दादाजी के दिव्य दर्षनों के लिए देरी, जिसके लिए उन्होंने बड़ी कृपा करके अपने बेटे और पोते-पोती को थोड़ा-सा वक्त दिया है। नोत्र-देम-दी-वाई का दरवाजा किसी एकांतवास की तरह बंद था। मेरे पिता घंटी बजाते हैं, पहले दो छोटी घंटी, फिर एक बड़ी घंटी। हमें इंटरकाॅम पर जैकेलीन की आवाज सुनाई पड़ती है, ‘कौन है?’
वे जानती है कि ये हमारे पिताजी हैं और इनके साथ हम भी हैं। सिर्फ पिताजी ही इस तरह अपने आने का संकेत देने के लिए इस दरवाजे पर घंटी बजा सकते हैं। वो हमें हमारे भीतर दाखिल होने से पहले ही यह साफ जता देना चाहती है कि हम इस दुर्ग में अवांछित हैं। वो हमें चिढ़ाना चाहती है। पिकासो सिर्फ और सिर्फ उस अकेली के ही हैं। किसी को भी उस जाल से छेड़छाड़ करने या उसके पार जाने की इजाजत नहीं है, जो उसने अपने मालिक के इर्दगिर्द बुन रखा है।
‘कौन है?’ वह अपना सवाल दोहराती जाती है, उसे जवाब चाहिए। ‘मैं पाउलो हूं।’ बिजली का ताला आक्रमण की मुद्रा में खुलता है। निर्दयी ढंग से हमें दुत्कारने की मुद्रा में तुरंत ही अफगानी षिकारी कुत्ते दांत दिखाते हुए हम पर गुर्राने लगते हैं। हम जिस अंधकार भरे इलाके में दाखिल होने जा रहे हैं वहां के सुरक्षा प्रहरी हैं ये भयानक खूंखार कुत्ते, जो लगातार चैकन्ने रहकर हमारे पीछे-पीछे चले आ रहे हैं।
बिना जल्दी मचाये हम चुपचाप साइप्रस के दरख्तों के साये में चले जा रहे हैं। जैकेलीन घर के दरवाजे पर हमारा इंतजार कर रही है। उसने काले कपड़े पहन रखे हैं। उसकी कमर पर और चर्बी चढ़ गई है और उसका चेहरा उतरा हुआ है। ‘मालिक छोटे ड्राइंग रूम में बैठे हैं। वो अभी बस एक झपकी लेने ही जा रहे थे।’ उसने पिताजी से यह कहा, इसका मतलब ज्यादा देर मत लगाना।
एक आराम कुर्सी पर बैठे दादाजी हमारा स्वागत करते हैं। उनके सामने एक प्याले से भाप निकल रही है और उसी के पास एक फ्लास्क रखा है, जिसमें कोई तरल पदार्थ है, जो जैकेलीन ने उन्हें पीने के लिए दिया है। पिताजी ने हमें रास्ते में बताया था कि दादाजी कुछ समय से बीमार हैं और वे खुद अपने स्वास्थ्य को लेकर चिंतित हैं। सच्चाई यह है और सब जानते हैं कि वे बीमार नहीं हैं और न कभी रहे। उनका डाॅक्टर, जो मातिस (चित्रकार) का भी डाॅक्टर था, कभी-कभार सिर्फ हाजिरी पूरी करने आता है, क्योंकि वो जानता है कि उसके रोगी की पीड़ाएं उसकी बढती उम्र के कारण हैं। हालांकि पिकासो को एक चीज जरूर सांत्वना देती है और वो यह कि उनके आसपास के सारे दोस्त आज की तारीख में मृत्यु का ग्रास बन चुके हैं, लेकिन वो खुद जिंदा बचे हुए हैं।
दादाजी अमर हैं। यह मैं और पाब्लितो ही जानते हैं। वे दुनिया के सबसे ताकतवर इंसान हैं। उनके पास तमाम किस्म की षक्तियां हैं, वो कभी नहीं मर सकते।... हम शर्माते हुए उनके पास जाते हैं। वे हाल ही में पहनना षुरु किये चष्मे के पीछे से झांकती अपनी चमकदार आंखों से हमें देखते हुए बमुष्किल मुस्कुरा पाते हैं। ‘तो स्कूल कैसा चल रहा है?’ दादाजी पाब्लितो से पूछते हैं। और फिर विचार कर पूछते हैं, ‘और तुम्हारी मां कैसी है मेरीना?’ हम सिर्फ सिर हिला पाते हैं, इन सवालों के हमारे पास क्या जवाब होंगे? वे बिना हमारी तरफ देखे हमसे पूछते हैं, ‘ क्या तुम लोग इस बार छुट्टियों में कहीं जा रहे हो?’
‘नहीं।’ दबी आवाज में पाब्लितो कहता है। वे अनिष्चय में कहते हैं, ‘अच्छा, बहुत अच्छे।’ उन्हें हमारी छुट्टियों की या हमारी पढ़ाई की क्या चिंता है? वो तो सिवाय खुद के और किसी चीज में रूचि नहीं लेते।... जैकेलीन एक छाया की तरह कमरे में आती है। वो मेरे पिता के पास आती है और उनके कान में कुछ फुसफुसाती है। पिताजी सिर हिलाते हैं और हमसे मुखातिब होकर कहते हैं, ‘मेरीना, पाब्लितो। अब चलने का वक्त हो गया, अब दादाजी के आराम का वक्त है, तुम लोगों ने उनको बहुत थका दिया है, वो अब आराम चाहते हैं।’ हम भी उनसे थक चुके हैं, क्योंकि उन्होंने हम पर एक सैकण्ड के लिए भी ध्यान नहीं दिया।
दिव्य दर्षनों का समय समाप्त हुआ। हम जैकेलीन के पीछे-पीछे वापस निकलते हैं। वो दरवाजे की सीढियों पर खड़ी होकर हमे यूं हाथ हिलाती है जैसे हमसे नाराजगी का रिष्ता निभा रही हा और फिर तुरंत भीतर चली जाती है। वो भीतर जाते हुए चिल्लाती है, ‘मैं आ रही हूं मालिक मैं आ रही हूं।’ वो अपने मालिक से एक सैकण्ड के लिए भी दूर रहना नहीं सहन कर सकती। दादाजी के बिना वो एक जलबिन मछली की तरह है।
मैं इस बदनसीबी में कुछ नहीं कर सकती। मैं इस किस्म की हिंसा, दूसरों की कमजोरियों और मेंरे साथ पाब्लितो के जीवन पर किसी के नियंत्रण से आजादी चाहती हूं। मुझे इस परिवार से मुक्ति चाहिए। मैं भाई से कहती हूं, ‘पाब्लितो हमें कुछ करना चाहिए।’ भाई कहता है, ‘क्यों? किस लिए? हम कभी अलग नहीं हो सकते। हम पिकासो परिवार के लोग हैं बहना।’ संक्षेप में हमारी नियति है यातना से गुजरना। मैंने तय कर लिया है कि अब मैं और यातना नहीं सहन करूंगी। अब मैं मुक्त होना चाहती हूं और अपनी मंजिल खुद तय करना चाहती हूं।
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मेरे दादाजी ने कभी भी अपने निकटतम लोगों के भविष्य के बारे में सोचना बन्द नहीं किया था। वो सिर्फ एक ही चीज को लेकर ज्यादा सोचते थे, सिर्फ चित्र और चित्रों से मिलने वाली पीड़ा और खुषी। जैसे ही उन्होंने इस पर मास्टरी कर ली, वो किसी भी कला फार्मूले को स्वीकार या अस्वीकार कर देते थे। जैसे ही वेे अपने रंगों भरे ब्रष के माध्यम से रंगों की अंतर्निहित भावनाओं को अभिव्यक्त करने के लिए रंग फेलाते तो इस प्रक्रिया में वे उन लोगों के प्रति भी निर्मम हो उठते जो उन पर ताना कसते या आरोप लगाते।
दादाजी बच्चों को मासूमियत के कारण और स्त्रियों को यौन भावनाओं की वजह से बहुत प्रेम करते थे। वे अपने चित्रों में स्त्रियों के प्रति अपनी चरम भावनाओं को पूरी मुखरता से अभिव्यक्त करते थे। उन्हें स्त्रियां मृत्युदूत लगती थीं। अंधेरे के शहंषाह की तरह वे उन पर रात के अंधेरे में अपने स्टूडियो में काम करते थे। स्त्रियां उनके निषाने पर थीं और वे उनके लिए ग्रीक मिथक चरित्र के विषाल वृषभ के सिर वाले दैत्य थे। उनके लिए सब कुछ इस कला संग्राम में ही निहित था। किसी की कोई वकत नहीं थी, फिर वो चाहे जीवित या मृत दोस्त हों या रिष्तेदार या बच्चे-नाती-पोते। उनकी कला के सामने सबको बलिदान होना ही था।
वो पिकासो थे। एक महान प्रतिभावान कलाकार।
महान प्रतिभा किसी पर दया नहीं दिखाती, क्योंकि उसका गौरव और उसकी महिमा इसी पर निर्भर करती है।
रिवरहैड बुक्स द्वारा प्रकाषित पुस्तक ‘पिकासो माइ ग्राण्डफादर’ से साभार।
परिचय: मेरीना पिकासो
वियतनाम में अनेक दानदाता संस्थाओं की संस्थापक मेरीना पिकासो विषेष रूप से निराश्रित और निर्धन बच्चों की सहायता के लिए काम करती हंै। उनके पांच बच्चे हैं, जिनमें से तीन वियतनामी बच्चे गोद लिए हुए हैं। वे दक्षिणी फ्रांस के उस विला में रहती हैं, जो उन्हें अपने दादा की विरासत में मिला था।

Sunday 22 February, 2009

खाद्यान्न संकट के कई रूप




इस बात को अभी ज्यादा दिन नहीं हुए, जब दुनिया के तमाम अखबारों में हैती के बाजारों में नमक-मिट्टी के बने बिस्किट बिकने की तस्वीरें छपी थीं। हैती में गरीबी और भूख से मारे लोगों के जून में हुए एक प्रदर्शन के दौरान एक प्रदर्शनकारी ने कहा, ‘अगर सरकार खाद्य पदार्थों की कीमतें कम नहीं कर सकती तो इसे चले जाना चाहिए। अगर पुलिस और संयुक्त राष्ट्रसंघ हम पर गोली चलाना चाहे तो चला दे, क्योंकि आखिरकार हम गोली से नहीं तो एक दिन भूख से मर जायेंगे।’ बरसों से हम दक्षिण अफ्रीका के कुछ देशों में भुखमरी से ग्रस्त कंकाल-पिंजर बच्चों की तस्वीरें देखते आ रहे हैं। आज विश्व के सैंतीस विकासशील देश भयानक खाद्य संकट से जूझ रहे हैं और इनमें से बीस देश तो अल्पविकसित देशों की श्रेणी में आते हैं।जरा गौर से सोचें तो यह दिनों-दिन गहराते उस खाद्यान्न संकट का एक पहलू है, जिसके बारे में बहुत गम्भीरता और विस्तार से चर्चा-विमर्श दुनिया के ज्यादातर देशों में नहीं हो रहा है। जिस भयानक आर्थिक मन्दी से अमेरिका और यूरोप के कई मुल्क आज गुजर रहे हैं, वह उस वक्त किस कदर खौफनाक होगी, जब दुनिया में आबादी के हिसाब से खाने को अन्न ही उपलब्ध नहीं होगा। बहुत सम्भव है आज की मन्दी का दौर जल्द ही खत्म हो जाये, लेकिन सोना, चांदी या पैसा कभी भी भोजन का विकल्प नहीं हो सकता। आज दुनिया खाद्यान्न के मामले में दूसरे विश्व युद्ध से भी पीछे चली गई है। एक समय में उपजे खाद्यान्न संकट के दौर में त्वरित उपाय के रूप में अधिक पैदावार देने वाली फसलों का जो विकल्प अपनाया गया था, वह आज कई मायनों में दुनिया के लिए घातक सिद्ध हो रहा है। दूसरी तरफ कनाडा जैसे देश में केन्द्र सरकार सूअरपालकों को एक सूअर मारने के लिए 250 डालर दे रही है, क्योंकि वहां सूअरों का उत्पादन बहुत तेजी से बढ़ गया है और कीमतें जबर्दस्त रूप से कम हो गई हैं, यह सूअरपालक के लिए घाटे का सौदा है जिसे सरकार पूरा कर रही है, वजह यह कि सुअरपालन में आने वाली लागत बढ़ गई है। कैसा विचित्र विरोधाभास है कि एक तरफ लोग भूख से मर रहे हैं और दूसरी तरफ उपलब्ध भोजन को नष्ट किया जा रहा है।
यह सब उन यूरो-अमेरिकी नीतियों का नतीजा है जो ‘विश्व ग्राम’ के नाम पर पूरी दुनिया पर थोपी जा रही हैं। विश्व बैंक, मुद्रा कोष और तमाम अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाएं ही नहीं बहुराष्ट्रीय कम्पनियां भी इन्हीं नीतियों पर अमल करते हुए दुनिया को जरा से मुनाफे के लिए बर्बाद करने को आमादा हैं। आज खुद अमेरिकी नागरिक, अर्थशास्त्री, समाजशास्त्री और राजनेता दुनिया पर छाये इस खाद्यान्न संकट को लेकर बेहद चिंतित हैं और उन पुरानी किसानी पद्धतियों की ओर लौटने की बात करने लगे हैं, जिन्हें एक समय में अवैज्ञानिक, रूढिबद्ध और निरर्थक कहकर नकार दिया गया था। जिस अमोनियम नाइटेªट से बम और उर्वरक दोनों बनाये जा सकते हैं, उसका पहले हथियार बनाने में और बाद में खाद बनाने के लिए इस्तेमाल किया जाने लगा। आज इसके जो परिणाम पूरी दुनिया को भोगने पड़ रहे हैं, उनके बारे में अगर पहले सोचा जाता तो हालात इतने भयावह नहीं होते।
कहां गये वो खेत खलिहान
आज आप किसी भी बड़े शहर से बाहर निकलें तो सौ-पचास किमी तक आपको वो पुराने खेत-खलिहान नजर नहीं आयेंगे, जिन्हें आप बचपन से देखते आये हैं। बड़े नगरों का जिस कदर बेतहाशा विस्तार हो रहा है और टाउनशिप, सेज और औद्योगीकरण के नाम पर शहरों के नजदीकी खेत-खलिहान नष्ट हो रहे हैं, यह एक भयानक परिदृश्य को प्रतिबिम्बित करता है। आने वाले वर्षों में इन शहरों में पर्यावरण की दृष्टि से भयानक हादसे हो सकते हैं, क्योंकि महानगरों के नजदीक के खेत-खलिहान ही इनके चारों तरफ एक हरित पट्टी की संरचना करते थे, जो खत्म कर दी गई है। इतना ही नहीं इन बड़े नगरों के बाशिंदों के लिए अनाज, सब्जियों और दुग्धोत्पाद से लेकर पीने के पानी तक का संकट भी दिनोंदिन गहराता जायेगा। कारखाने जमीन को बंजर कर देंगे और भूजल का स्तर निरंतर घटता जायेगा, खाने-पीने की चीजें दूर-दराज से आयेंगी और आम आदमी की पहुंच से बाहर होती जायेंगी। खेत-खलिहान की जगह इमारतों का जंगल एक बड़ा-सा बायलर होगा, जिसमें इन्सान सिर्फ एयरकन्दीशनर के कारण ही आराम से रह पायेगा, एयरकन्डीषनर यानी ओजोन परत को भेदने का मानवीय आविष्कार। खाने-पीने के लिए बड़े बाजार होंगे जिनमें वो सब उपलब्ध होगा, जिससे कुछ लोग मुनाफा कमायेंगे और आम आदमी हर तरह से ठगा जायेगा। सुगम और तीव्र परिवहन के नाम पर और वह भी खाद्यान्न आदि की आपूर्ति के लिए जो बड़े हाइवे बनाये जा रहे हैं वे प्रदूषण ही नहीं फैला रहे, बल्कि ग्रीनहाउस गैसों को भी बढा रहे हैं। आज आप किसी भी हाइवे पर चले जायें, वहां निर्दयी ढंग से हरे दरख्तों को काट दिया गया है और वहां चारों तरफ सीमेन्ट-कोलतार की तपती सड़कें सिर्फ और सिर्फ आग उगलती नजर आती हैं।
नकदी फसलों का जंजाल
नकदी फसलों का मतलब है अपनी आवश्यकता के बजाय बाजार की जरुरत के हिसाबसे ऐसी फसलों का उत्पादन जो अधिक मुनाफा ही नहीं दें, बल्कि विदेशों को निर्यात भी की जा सकें। तीसरी दुनिया के देशों में भारत कृषि उत्पाद निर्यात करने वाले देशों में नम्बर एक है, जहां दो करोड़ लोग रोज भूखे सोते हैं। निर्यात की जाने वाली ऐसी फसलों में देशी जरुरत का ध्यान नहीं रखा जाता और अनाज के बजाय तिलहन, दलहन और फलों के उत्पादन पर जोर दिया जाता है। दुनिया के तमाम देशों में किसान प्राकृतिक रूप से सूरज की रोशनी, प्राकृतिक खाद और बारिश या नहर के पानी से सदियों से खेती करते आये हैं। लेकिन आधुनिक कृषि तकनीकों के आविष्कार ने पिछले पचास बरसों में खेती-किसानी का पारम्परिक स्वरूप ही बदल कर रख दिया है। बीसवीं शताब्दी के तीसरे दशक की महामन्दी और दूसरे विश्व युद्ध के बाद उपजे खाद्यान्न संकट के दौर में कृषि के आधुनिकीकरण की जबरदस्त वकालत की गई। नतीजतन रासायनिक खाद और उन्नत बीजों के माध्यम से कम समय में अधिकाधिक फसल पैदा करने और मुनाफा कमाने के लिए नकदी फसलों के अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार पर बल दिया गया। जिन खेतों में साल में अलग-अलग किस्म की तीन-चार फसलें होती थीं, उनमें एक ही जिन्स की इस कदर अन्धाधुन्ध खेती की गई कि कुछ ही बरसों में सोना उगलने वाली धरती सीमेन्ट के फर्श की तरह कठोर और बंजर हो गई। हजारों-लाखों एकड़ जमीन हमने अपने ही हाथों बर्बाद कर दी। आज फिर से सोचा जा रहा है कि इन्सानी तरीकों से बंजर हुई जमीन को पशु-पक्षियों की प्राकृतिक खाद से वापस उपजाऊ बनाने की कोशिश की जाये और खेती के पारम्परिक तरीकों की ओर लौटा जाये।
खेती और पशुपालन में अलगाव
पहले किसान और पशुपालक की कोटि अलग-अलग नहीं थी। जो खेती करता था वही मवेशी भी पालता था। जानवर किसान के लिए दूध ही नहीं खाद भी पैदा करते थे। आधुनिक कृषि ने पशुपालन और खेती को अलग कर दिया। परिणाम यह हुआ कि कृषिभूमि से जानवरों के गायब होते ही जमीन की प्राकृतिक उर्वरता खत्म होने लगी और विशाल डेयरियों में पशुओं से अधिक दुग्धोत्पाद और मांस की प्राप्ति के लिए अन्धाधुन्ध प्रयोग किये जाने लगे। कई तरह के इंजेक्षन देकर और प्रोटीन खिलाकर जानवरों को इस कदर बीमार कर दिया गया कि आज वो ‘मैड काउ’ और ‘एन्थ्रेक्स’ से लेकर गम्भीर त्वचा रोगों और कैंसर जैसी जानलेवा बीमारियों के वाहक बन गये हैं। जो जानवर प्राकृतिक वातावरण में फलफूल रहे थे, वे कारखानों जैसी विशालकाय डेयरियों में न केवल बीमार होने लगे, बल्कि ग्रीनहाउस गैसों का भी बड़ी मात्रा में उत्पादन करने लगे। एक अमेरिकी अध्ययन के अनुसार दुनिया में 18 प्रतिशत ग्रीनहाउस गैसें सिर्फ पशुओं की वजह से पैदा होती हैं। अगर ये जानवर खुले खेत-चरागाहों में होते तो हालात दूसरे होते, एक तरफ तो खुद स्वस्थ रहते और दूसरी तरफ धरती की उर्वराशक्ति को बढाते। एक अन्य अध्ययन के अनुसार एक पाउण्ड मांस को तैयार करने में 5000 गैलन पानी अलग खर्च होता है। इन जानवरों के लिए चारा पैदा करने में भी भारी खर्च होता है, अगर वे खेतों में रहें तो उन पर होने वाला खर्च भी बहुत कम किया जा सकता है।
तत्वहीन अन्न का क्या करोगे
दुनिया में अधिक उत्पादन वाली फसलें अब गुणवत्ता की दृष्टि से बेकार सिद्ध हो रही हैं। एक तरफ तो बिना धूप-बारिश की अतिउत्पादक फसलें, कारखाना किस्म के कृषि उत्पादन, आधुनिक खाद्य-प्रसंस्करण प्रविधियों, रासायनिक खाद, कीटनाषक, कृषि-यांत्रिकी, पैकेजिंग और परिवहन के कारण खाद्य उत्पादों की गुणवत्ता प्रभावित हो रही है तो दूसरी तरफ पेट्रोलियम उर्जा के प्रयोग से प्राकृतिक उर्जा संसाधनों की खपत बेतहाशा बढ़ गई है। आज से सत्तर बरस पहले एक कैलोरी उर्जा से 2.3 कैलोरी खाद्य-शक्ति प्राप्त होती थी, और आज दस कैलोरी उर्जा से महज एक कैलोरी खाद्य-शक्ति प्राप्त होती है। इतना ही नहीं कम गुणवत्ता और रासायनिक प्रक्रिया से निकलने वाले खाद्य पदार्थों के कारण हृदय रोग, मधुमेह और कैंसर जैसी जानलेवा बीमारियां तेजी से बढ़ रही हैं। अधिक मात्रा में पैदा होने वाला खाद्यान्न कई कारणों से स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होता है। जब मात्रात्मक दृष्टिकोण से अधिक उत्पादन पर जोर दिया जाता है तो सबसे पहले गुणवत्ता प्रभावित होती है। वजह यह कि प्राकृतिक रूप से होने वाले उत्पादन में समय, मौसम और उर्वरकों की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। रासायनिक प्रक्रिया और तकनीकी तरीके से की गई पैदावार बेमौसम और प्रकृतिविरुद्ध होती है, जिसमें मनुष्य का बेवजह दखल ज्यादा होता है। इसीलिए आप हर मौसम में आम तो खा सकते हैं, लेकिन स्वाद और सेहत के हिसाब से हो सकता है कि फलों का राजा आपके लिए कोई गम्भीर बीमारी लेकर आ जाये। अवशीतन गृहों में संरक्षित खाद्य पदार्थ प्रक्रियागत कारणों के चलते अगर अखाद्य नहीं भी होते तो भी उतने ताजा तो नहीं रहते जितने पड़ोस के खेत से आये खाद्यान्न होते हैं। बाजार में मिलने वाले फास्ट फूड में से ज्यादातर में कहने भर को भरपूर कैलोरी होती हैं, असलियत में तो कैलोरी के नाम पर वसा और कार्बोहाइड्रेट्स ही ज्यादा होते हैं, जो एक समय बाद गम्भीर बीमारियों के कारण बन जाते हैं।
इथोपिया से क्या सीखें
अपनी महान प्राचीन संस्कृति से पहचाने जाने वाला इथोपिया आज अकाल और भुखमरी के कारण हमेशा सुर्खियों में रहता है। यह सब 1970 के बाद हुआ। लेकिन कैसे, यह जानने के लिए थोड़ा पीछे चलें। इथोपिया की सबसे बड़ी नदी अवाश पर बड़े बांध बनाने के लिए विश्व बैंक-मुद्रा कोष ने सरकार को समझाया और कहा कि इसके बाद देश के दिन फिर जायेंगे। सिंचाई के लिए पानी होगा, बिजली होगी और हर तरफ समृद्धि होगी। सरकार ने सुझाव मान लिया। लेकिन बांधों के लिए जमीन साफ करने के लिए जंगल, खेत, खलिहान, चरागाह और गांव के गांव पानी में डुबोने पड़े। 50 लाख लोग काश्तकार से भिखारी हो गये। बांधों से नदी की उपजाऊ मिट्टी खेतों में नहीं पहुंची और खेत बंजर होने लगे। विष्व बैंक-मुद्रा कोष ने रासायनिक उर्वरकों के प्रयोग की सलाह दी तो बहुराष्ट्रीय कम्पनियों से महंगे उर्वरक खरीदे गये। उर्वरकों के कारण पर्यावरण सन्तुलन बिगड़ गया तो कीटनाशक भी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों से आयात करने पड़े। अत्यधिक आयात के कारण अर्थव्यवस्था और गड़बड़ा गई। बड़े बांधों के कारण उपजाऊ भूमि नष्ट हो गई और रासायनिक उर्वरक और कीटनाशकों ने जमीन के भीतर जाकर जमीन को विषाक्त और जहरीला बना दिया। खाद्यान्न उत्पादन घट गया और सरकार को अनाज आयात करने के लिए वापस विश्व बैंक और मुद्रा कोष की शरण में जाना पड़ा। दोनों ने सलाह दी कि नकदी फसलें उगाओ यानी कपास और गन्ना। इथोपिया ने अमीर देशों के लिए सस्ती कपास और सस्ता गन्ना उगाना प्रारम्भ किया तो खुद के देश में खाद्यान्न का संकट गहरा गया। अकाल देश का स्थायी भाव हो गया और विश्व व्यवस्था के नियंत्रकों ने कड़ी से कड़ी शर्तों पर कर्जे दिये। आज इथोपिया भयानक ऋण-दुष्चक्र में फंसा हुआ है, जिसकी पहचान है हड्डियों के ढांचे वाले बालक और नागरिक।
और यह हाल सिर्फ इथोपिया का ही नहीं हुआ। साइप्रस, कोलम्बिया, मोरक्को, जमैका, बोलिविया, जाम्बिया, बांग्लादेश, अर्जेन्टीना, जायरे, पेरू, ब्राजील, केन्या, तन्जानिया, फिलीपीन्स और मेक्सिको जैसे अनेक देशों के साथ भी लगभग यही हुआ। भारत के साथ भी ऐसा हो सकता है अगर हम नहीं चेते तो वह दिन दूर नहीं होगा।
एक पहलू यह भी...
एक तरफ जहां विश्व खाद्यान्न संकट का बोलबाला है, वहीं इन्स्टीट्यूट फार फूड एण्ड डवलपमेंट का मानना है कि दुनिया में खाद्यान्न का कोई संकट नहीं है, अगर संकट है तो वह है असमान वितरण और उचित नीतियों के इस्तेमाल नहीं करने का। इस संस्थान का कहना है कि पृथ्वी पर आज इतना अन्न पैदा होता है कि प्रत्येक इंसान को 3500 कैलोरी भोजन दिया जा सकता है, यानी मोटापा बढाने लायक। एक अमेरिकी अध्ययन के मुताबिक दुनिया के 78 प्रतिशत कुपोषित बच्चे उन देशों में रहते हैं, जहां खाद्यान्न का अतिरेक है। जिन देशों में हमेशा खाद्यान्न संकट रहता है वहां कुल उपलब्ध सिंचाई योग्य भूमि के महज दस से पैंतीस फीसद हिस्से में खेती की जाती है। उदाहरण के लिए चाड में सिर्फ दस प्रतिशत भूमि पर ही खेती होती है। भारत में भी लगभग यही स्थिति है, जहां अरबों एकड़ जमीन बेकार पड़ी है, इसे अगर गरीब भूमिहीन किसानों में निशुल्क बांट दिया जाये तो कोई खाद्यान्न संकट कभी सिर नहीं उठायेगा। दरअसल सारा झगड़ा इस बात का है कि औद्योगिक उत्पादन के रास्ते त्वरित विकास का सपना लेकर हमने कई दशकों तक खेती किसानी को हेय बना दिया और रसातल में जाने दिया। आज अगर हम फिर चेत जायें तो सारे संकट हल हो सकते हैं।

Thursday 19 February, 2009

मेरा छोटा सा परिचय

प्रेमचन्द गाँधी
जन्मः 26 मार्च, 1967 जयपुर


शिक्षा - बी कोम एम.ए. (हिन्दी)। सभी महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित और आकाशवाणी -दूरदर्शन से प्रसारित।
स्तम्भ- लेखन : राजस्थान पत्रिका , जयपुर- कला- समीक्षा । दैनिक नवज्योति , जयपुर- विश्वप्रसिद्ध उपन्यासों का सार-संक्षेप ‘पुनर्पाठ’ शीर्षक से।डेली न्यूज, जयपुर- विश्वसाहित्य से प्रेम कहानियों का अनुवाद ‘हमन हैं इश्क मस्ताना’ स्तम्भ में और इन दिनों प्रसिद्ध व महत्वपूर्ण पुस्तकों पर स्तम्भ ‘पोथीखाना’।महका भारत, जयपुर- सामाजिक-सांस्कृतिक विषयों पर स्तम्भ लेखन ‘संस्कृति क्षेत्रे’ शीर्षक से।समय माजरा, जयपुर- मीडिया की प्रवृतियों पर समालोचनात्मक स्तम्भ।, 'हमशहरी' लाहौर, पाकिस्तान- दक्षिण एशिया के सामाजिक-सांस्कृतिक मुद्दों पर लेखन।
नाटक‘सीता नहीं’ - रामकथा का स्त्री-पाठ।‘महाकवि’ - बिहारी के जीवन पर रांगेय राघव के उपन्यास का नाट्य रूपान्तर।‘एक अनूठी प्रेम कहानी’ - हरिशंकर परसाई के उपन्यास ‘रानी नागफनी की कहानी’ का रूपान्तर।‘रोशनी की आवाज’ - लघु नाटक।
विविध- दृश्य -मीडिया लेखनजयपुर दूरदर्शन के लिए दो वर्ष तक ‘आसपास’ कार्यक्रम का लेखन।‘मेकिंग आॅफ ए म्यूरल’ - सुरेन्द्र जोशी के काष्ठ -म्यूरल पर डॉक्यूमेंट्री फिल्म का लेखन।‘मिर्ज़ा ग़ालिब’ - भास्कर टीवी, जयपुर द्वारा निर्मित फिल्म के लिए शोध एवं लेखन।
पुस्तकें - ‘इस सिम्फनी में’ कविता संग्रह। ‘संस्कृति का समकाल’ - निबन्ध-संग्रह।
पुरस्कार-सम्मान पं. गोकुलचन्द्र राव सम्मान - सांस्कृतिक लेखन के लिए - 2005। जवाहर कला केन्द्र, जयपुर द्वारा लघु नाटक ‘रोशनी की आवाज’ पुरस्कृत - 2004। राजेन्द्र बोहरा स्मृति काव्य पुरस्कार ‘इस सिम्फनी में’ के लिए - 2007। लक्ष्मण प्रसाद मण्डलोई सम्मान ‘इस सिम्फनी में’ के लिए - 2007।
विदेश यात्रा 2005 और 2007 में पाकिस्तान की सांस्कृतिक-यात्रा।
सम्प्रति - महासचिव, राजस्थान प्रगतिशील लेखक संघ।
सम्पर्क - 220ए रामा हेरिटेज, सेन्ट्रल स्पाइन, निकट सिने स्टार, विद्याधर नगर, जयपुर 302 023 फोन-98291.90626

Tuesday 17 February, 2009

विदेशी स्वर में ‘जय भीम!’


भारतीय धर्म, संस्कृति, परंपरा, इतिहास और महापुरूषों का जीवन दुनिया भर के लिए आकर्षण का केंद्र रहे हैं। भारत में रूचि रखने वाले विद्वान लेखक-बुद्धिजीवियों की एक समृद्ध परंपरा भी रही है। लेकिन इनके पीछे प्रायः कोई महान विभूति रही है, जिसके कारण विदेशी लोग दीवाने होकर भारतमय हो गये । ऐसे ही एक भारत प्रेमी हैं ब्रिटिश नागरिक टैरी पिलचिक। हम जानते ही हैं कि बौद्ध धर्म के प्रभाव में मुल्क के मुल्क महात्मा बुद्ध के अनुयायी हो गये। हालांकि भारत में बौद्ध मतावलंबियों की संख्या शताब्दियों में घटते-घटते 1950 के आसपास महज पचास हजार रह गई थी। अक्टूबर, 1956 में संविधान निर्माता डा. भीमराव अंबेडकर ने जब मुंबई में एक साथ लाखों लोगों के साथ हिंदू धर्म त्यागकर बौद्ध धर्म अपनाया तो लगा कि जैसे बौद्ध धर्म की घर वापसी हो रही है। डा. अंबेडकर के इस निर्णय से भारत में बौद्ध मतावलंबियों की संख्या में जबर्दस्त इजाफा हुआ और देखते ही देखते भारत में बौद्धों की जनसंख्या साठ लाख से भी ज्यादा हो गई।
टैरी पिलचिक उस अद्भुत ऐतिहासिक घटना के गवाह थे, जब सदियों से हिंदू धर्म की नारकीय जाति व्यवस्था से पीड़ित दलित-शोषित जन एक समतावादी धर्म को अंगीकार करने जा रहे थे। बाबा साहेब अंबेडकर ने जिस भारतीय संविधान की रचना की थी, वह, शताब्दियों पुरानी व्यवस्था का कुचक्र धर्मांतरण की आजादी से लाखों लोगों को मुक्त करने जा रहा था। टैरी पिलचिक इस घटना से दस वर्ष पूर्व ही ईसाई से बौद्ध हो चुके थे। अब उनका नाम भी बदल चुका था और वे धम्माचारी नागबोधि के रूप में बौद्ध धर्म की षिक्षाओं का प्रचार-प्रसार करने में लगे थे। इस प्रक्रिया में उन्होंने दो बार भारत की यात्रा की, जिसका जीवंत दस्तावेज है ‘जय भीम! डिस्पेचेज फ्राम ए पीसफुल रिवोल्यूशन’। बीस साल पहले छपी यह किताब दुनिया भर के उन बौद्ध मतावलंबियों के बीच खासी चर्चित रही है, जो भारत में ही नहीं विदेशों में भी बौद्ध धर्म को वंचितों, शोषितों और पीडितों की एक अंतिम शरण स्थली के रूप में मानते हैं।
इस पुस्तक की खास बात यह है कि इसमें भारत के उन शहरी और ग्रामीण इलाकों की दुर्गम यात्राओं के अनुभवों का जिक्र है, जहां डा. अंबेडकर की प्रेरणा से बौद्ध बने दलित रहते हैं। उनके मुश्किल हालात और बाबा साहेब के प्रति उनकी अगाध श्रद्धा ऐसी है कि उसमें बौद्ध धर्म से अधिक एक नया धर्म दिखाई देता है, जिसका मुख्य उद्घोष ‘नमो बुद्धाय’ के समानांतर ‘जय भीम!’ हो गया है। यहां लोग महात्मा बुद्ध और बाबा साहेब के बीच कोई फर्क नहीं करते, उनके लिए दोनों एक हैं, जिन्होंने उनके जीवन को बेहतरी की ओर ले जाने का मार्ग दिखाया है। टैरी यानी नागबोधि इन निर्धन-वंचित बौद्ध मतावलंबियों के बीच दस वर्ष तक रहकर देखते हैं कि किस प्रकार बौद्ध धर्म और बाबा साहेब की शिक्षाएं एक शांतिपूर्ण ढंग से क्रांतिकारी परिवर्तन को अंजाम दे रही हैं।
यह किताब बाबा साहेब अंबेडकर के उन स्वप्नों को भी दिखाती है, जो भारतीय संविधान ने देश के दलित-गरीब-अल्पसंख्यक समुदायों के उत्थान के लिए दिखाए हैं और लोकतंत्र के माध्यम से आज देश उन्हें पूरा करने को कृतसंकल्प है। बौद्ध धर्म, दलित और बाबा साहेब के कार्यों में रूचि रखने वाले लोगों के लिए एक अनिवार्य और पठनीय पुस्तक है धम्माचारी नागबोधि उर्फ टैरी पिलचिक की यह किताब ‘जय भीम!’।

Monday 16 February, 2009

लैपटॉप को हिन्दी में क्या कहेंगे श्रीमान?



एक दिन जयपुर के जवाहर कला केन्द्र के कॉफी हॉउस में राजस्थान पत्रिका के पत्रकार मित्र भाई रामकुमार सिंह के साथ बैठे बैठे गप्पें हो रही थी। उन्होंने नया नया लैपटॉप खरीदा था, जिसे साथ लिए ही वे आए थे. बातों बातों में ख़याल आया कि लैपटॉप का कोई हिन्दी नामकरण किया जाना चाहिए. अब शुरू हुई हमारी मगजपच्ची और कई विकल्पों पर सोचते हुए आखिरकार हमें एक ऐसा नया नाम मिल गया जिसे, बाकायदा लैपटॉप का पूर्ण भारतीय अनुवाद या हिन्दी तर्जुमा कहा जा सकता है. तो दोस्तों हम दो भाइयों ने मिलकर हिन्दी में लैपटॉप को 'गोद गणक' नाम दिया है. इस पर हम दोनों का यानी भाई रामकुमार सिंह और प्रेम चंद गांधी का इतना ही मालिकाना हक है कि कोई इसका व्यावसायिक इस्तेमाल ना करे, और कहीं नीम-आंवले की तरह कोई बद-दिमाग व्यापारिक बुद्धि का व्यक्ति इसे पेटेंट ना करा ले। इसलिए सब भाइयों, मित्र, मित्राणियों से निवेदन है कि लैपटॉप को प्यार से 'गोद गणक' कहें और इस नाम को लोकप्रिय बनाएं। बोलो 'गोद गणक महाराज की जय...जुग जुग जिए हम सबका प्रिय गोद गणक... वायरसों से बचा रहे...हमारा प्यारा गोद गणक...

कल्हण की राजतरंगिणी



यूं तो सस्कृत साहित्य की विशद परंपरा में सैंकड़ों ऐसे ग्रंथ हैं, जिन पर किसी भी भारतीय को गर्व हो सकता है, लेकिन बारहवीं शताब्दी में कश्मीर के कवि कल्हण की लिखी ‘राजतरंगिणी’ एकमात्र ऐसी कृति है, जिसे आधुनिक दृष्टिकोण से निर्विवाद रूप से संस्कृत साहित्य में पहली और अंतिम लिखित इतिहास पुस्तक का दर्जा दिया जा सकता है। कहने को संस्कृत साहित्य में हजारों ग्रंथ हैं, जिनमें अपने समय का इतिहास झलकता है, किंतु उन सब कृतियों में इतिहास, मिथक और किंवदंतियों का इतना मिश्रण है कि उनमें से इतिहास को निकाल कर अलग करना बेहद मुश्किल है सिर्फ और सिर्फ कल्हण की ‘राजतरंगिणी’ ही इतिहास को उसकी पूरी सच्चाइयों के साथ प्रस्तुत करती है।

यह माना जाता है कि ‘राजतरंगिणी’ 1147 से 1149 ईस्वी के बीच लिखी गई। बारहवीं शताब्दी का यह काल कश्मीर के इतिहास का एक ऐसा काल है जिसे यूं भी कहा जा सकता है कि आज वही इतिहास अपने आपको फिर से दोहरा रहा है। कल्हण के समय कश्मीर राजनैतिक अस्थिरता और उठापटक के दौर से गुजर रहा था। इतिहास का मतलब सिर्फ यह नहीं होता कि किसने कब राज किया, बल्कि यह होता है कि काल विशेष में क्या राजनैतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक परिस्थितियां थीं और आम जनता की क्या स्थिति थी। कल्हण ने कश्मीर के इतिहास की सबसे शक्तिशाली महिला शासक दिद्दा का उल्लेख किया है, जो 950-958 ईस्वी में राजा क्षेमगुप्त की पत्नी थी और शारीरिक रूप से कमजोर पति के कारण उसी ने सत्ता पूरी तरह उपयोग किया। वह पति की मृत्यु के बाद सिंहासन पर बैठी और उसने एक साफ सुथरा शासन देने की कोशिश करते हुए भ्रष्ट मंत्रियों और यहां तक कि अपने प्रधानमंत्री को भी बर्खास्त कर दिया। लेकिन दिद्दा को सत्ता और सेक्स की ऐसी भूख थी, जिसके चलते उसने अपने ही पुत्रों को मरवा दिया। वह पुंछ के एक ग्वाले तुंगा से प्रेम करती थी, जिसे उसने प्रधानमंत्री बना दिया। इतिहास का ऐसा वर्णन सिवा कल्हण के किसी और संस्कृत कवि ने नहीं किया।

कल्हण की ‘राजतरंगिणी’ से ही हमें कश्मीर के वास्तविक इतिहास का पता मिलता है। कल्हण एक शिक्षित ब्राह्मण कवि थे और राजनीति के गलियारों में उनकी अच्छी पैठ थी। कारण यह कि उनके पिता चंपक, कश्मीर के राजा हर्ष के दरबार मे मंत्री थे। 120 छंदों में लिखित ‘राजतरंगिणी’ में यूं तो कश्मीर का आरम्भ से यानी ‘महाभारत’ काल से लेकर कल्हण के काल तक का इतिहास है, लेकिन मुख्य रूप से इसमें राजा अनंत देव के पुत्र राजा कैलाश के कुशासन का वर्णन है। कल्हण बताते हैं कि कश्मीर घाटी पहले एक विशाल झील थी जिसे कश्यप ऋषि ने बारामुला की पहाड़िया काटकर खाली किया। श्रीनगर शहर सम्राट अशोक महान ने बसाया था और यहीं से बौद्ध धर्म पहले कश्मीर घाटी में और फिर मध्य एशिया, तिब्बत और चीन पहुंचा।

कल्हण की ‘राजतरंगिणी’ मुख्य रूप से इस इच्छा के साथ लिखी गई प्रतीत होती है कि किस प्रकार एक महान सभ्यता और सांस्कृतिक रूप से समृद्ध विरासत का कश्मीर राजनैतिक रूप से दुष्चक्रों, कुचक्रों और साजिशों का शिकार होकर एक बर्बर समय में जा पहुंचता है, जिसके बाद उस पर हर तरफ से आक्रमण होते हैं और धरती का स्वर्ग नष्ट हो जाता है। आज भी ‘राजतरंगिणी’ को पढ़ते हुए कष्मीर की दुर्दशा को लेकर मन विचलित हो जाता है।

Sunday 15 February, 2009

झरोखों से झांकता इतिहास




जैसलमेर एक ऐसा ऐतिहासिक शहर है, जिसका इतिहास और स्थापत्य सदा से ही रचनाकारों को आकर्षित करता आया है। यहां की रूठी रानी को लेकर मुंशी प्रेमचंद ने अपनी प्रसिद्ध कहानी लिखी। आचार्य चतुरसेन ने ‘राजकुमारी रत्नावली की कहानी’ लिखी तो हरिकृष्ण प्रेमी ने ‘मित्र’ नाटक लिखा। महान फिल्मकार-साहित्यकार सत्यजित राय ने जैसलमेर को केंद्र में रखकर ‘सोनार किला’ उपन्यास लिखा। इसी नगर के बाशिंदे और राजस्थान के अत्यंत महत्वपूर्ण कथाकार ओमप्रकाश भाटिया ने पांच वर्ष के गहन शोध एवं अनुसंधान के बाद सन् 2002 में ‘दीवान सालम सिंह’ उपन्यास लिखा, जो दुर्भाग्य से हिंदी साह्रित्य जगत में लगभग उपेक्षित और अलक्षित ही रहा। इतिहास को गल्प में ढालना बेहद चुनौतीपूर्ण होता है और इसमें सबसे बड़ी चुनौती यह होती है कि लेखक अपने समय के परिप्रेक्ष्य में इतिहास को किस प्रकार देखता है। क्या इतिहास के एक विशेष कालखण्ड से पाठक को आज भी कुछ नया मिलता है? अथवा सिर्फ इतिहास की एक झलक ही देखने को मिलती है? कहना न होगा कि ओमप्रकाश भाटिया का उपन्यास इन सवालों के मुकम्मिल जवाब भी देता है और उनसे टकराते हुए आज के जालियों और झरोखों से इतिहास को एक युगीन दृष्टि से देखता है।
इतिहास में कई अवसरों पर देखा गया है कि राजा से महत्वपूर्ण उसके दरबारी या मंत्री अथवा कोई और सामान्य व्यक्ति भी हो जाते हैं। जैसलमेर के इतिहास में भी दीवान सालमसिंह अपने राजा से कहीं अधिक महत्वपूर्ण चरित्र रहा है। वह राज्य का ऐसा दीवान था, जिसने राजा न होते हुए भी सत्ता का निरंकुश इस्तेमाल किया और अपने हाथ में सत्ता रखने के लिए आजीवन तमाम किस्म के षड़यंत्र रचे। लेकिन सालमसिंह ने ग्यारह बरस की उम्र में देखा था कि उसके पिता दीवान स्वरूप सिंह का दिन दहाड़े जैसलमेर के दरबार में युवराज रायसिंह ने सर कलम कर दिया था। बालक मन पर यह दृश्य इस तरह अंकित हो गया कि इसकी परिणति आगे चलकर हिंसक, विलासी और षड़यंत्रकारी दीवान सालमसिंह में हुई। दीवान सालमसिंह का काल सन् 1773 से 1824 के मध्य रहा और यह काल भारतीय इतिहास में राजाओं की आपसी लड़ाई और सामंतशाही के पतन का आरंभिक काल भी है। इसी काल में भारत के विभिन्न राजा ईस्ट इंडिया कंपनी से समझौते कर अंग्रेजों की गुलामी स्वीकार कर रहे थे। उस समय के राजपूताना में मराठों के आक्रमण हो रहे थे और इन हमलों से बचने का एकमात्र उपाय अंग्रेजों से संधि करना ही रह गया था। ऐसे समय में ही दीवान सालमसिंह जैसे चरित्र राजा से अधिक महत्वपूर्ण हो जाते हैं और सत्ता पर अपनी पकड़ स्थापित कर लेते हैं।
दीवान सालमसिंह को जैसलमेर की परंपरा के अनुसार विरासत में दीवानी मिली और उसने अपने पिता की मृत्यु का प्रतिशोध लेते हुए उसने पहले एक-एक कर पूरे राजपरिवार को खत्म किया और नाम मात्र के राजपरिवार के बहाने जैसलमेर की संपूर्ण राजसत्ता पर अपना दबदबा कायम किया। दीवान सालमसिंह एक ऐसा ऐतिहासिक चरित्र है, जिसमें तत्कालीन राजशाही और सामंती शासन के तमाम दुर्गुणों को एक साथ देखा जा सकता है। उसे सिर्फ अपने पिता की हत्या के प्रतिशोध से ही शांति नहीं मिलती, बल्कि वह तो पूरी सत्ता अपने हाथ में लेकर अपनी मनमर्जी से राज चलाता है। उसे जहां कहीं कोई सुंदर स्त्री, युवती या बालिका भी दिख जाये तो वह हर कीमत पर उसे हासिल करना चाहता है। इसके लिए वह उस परंपरा को भी बदलवा देता है, जिसमें एक माहेश्वरी जाति का दीवान एक से अधिक विवाह नहीं कर सकता। ताकत और पैसे के जोर पर सब कुछ बदला जा सकता है और दीवान सालमसिंह यही करता है। ओम प्रकाश भाटिया के इस उपन्यास से ही हमें पहली बार एक कथा के रूप में यह जानकारी मिलती है कि कैसे जैलमेर का ऐतिहासिक कुलधरा नामक गांव एक ही रात में खाली हो गया था।
दरअसल हुआ यह था कि दीवान सालमसिंह को पालीवाल ब्राह्मणों की एक किशोरी बेहद भा गई थी और वह उससे शादी करने पर आमादा था। पालीवालों ने पचास बरस के दीवान से चौदह बरस की लड़की का विवाह करने से इन्कार कर दिया। इससे क्रुद्ध दीवान ने पूरी पालीवाल बिरादरी पर पांच सौ रूपये प्रति घर 'कर' लगा दिया। पालीवालों को जैसलमेर राज्य की तरफ से पांच सौ बरस से यह छूट मिली हुई थी कि उनसे कभी कर या लगान नहीं लिया जायेगा। दीवान के फैसले से नाराज पालीवालों ने दीवान के आगे घुटने टेकने से मना कर दिया और एक सामूहिक फैसला लिया कि एक वे एक रात में गांव खाली कर देंगे और फिर कभी लौटकर जैसलमेर राज्य की सीमा में नहीं आयेंगे। ऐसे ही एक पालीवाल परिवार का एक वंशज सन् 2005 में मुझे कराची में मिला था, जिसने बताया था कि उनका परिवार कई पीढ़ियों पहले जैसलमेर के किसी गांव से यहां आ गया था और वापस जैसलमेर की तरफ लौटकर न जाने के प्रण के कारण विभाजन के बाद भी वहीं रह गया। ओम प्रकाश भाटिया का उपन्यास निश्चित रूप से इतिहास नहीं, इतिहास का साहित्यिक प्रतिफलन है। लेकिन इसमें ऐतिहासिक तथ्यों, किंवदंतियों और लोक गीतों के साथ लोक कथाओं का भी भरपूर इस्तेमाल किया गया है, जिससे उपन्यास की घटनाओं को एक किस्म की विश्वसनीयता मिलती है और तथ्यों की पुष्टि होती है। आज भी जैसलमेर में खड़ी सालमसिंह की हवेली उसकी चरम विलासिता का जीता जागता प्रमाण प्रस्तुत करती है। आजीवन दूसरों के लिए षड़यंत्र रचने वाले दीवान सालमसिंह का अंत उसी की कामुकता की शिकार सातवीं पत्नी के हाथों जहर दिये जाने से होता है।

वो पहला प्यार...



आधुनिक विश्व साहित्य में युवा मन के प्रेम को लेकर कथा-कहानी लिखने की परंपरा कम से कम ढाई सौ बरस पुरानी है। इस क्रम में सबसे पहली कृति सैम्युअल रिचर्ड्सन की ‘पामेला’ उर्फ ‘वर्च्यू रिवार्डेड’ है, जो 1740 में प्रकाशित हुई थी। इसके बाद तो यूरोप में प्रेम और रोमांस को लेकर अफसाने लिखने की एक ऐसी परंपरा चल पड़ी कि आगे चलकर तो ऐसे किस्से-कहानियों के लिए ‘मिल्स एण्ड बून’ जैसे प्रकाशन गृह ही खुल गये। लेकिन यूरोप और दूसरे महाद्वीपों की अथाह प्रेमकथाओं के सागर में रूस के महान् कवि-कथाकार-उपन्यासकार इवान तुर्गनेव की सन् 1860 में prakaashit उपन्यासिका ‘प्रथम प्रेम’ अर्थात् ‘फर्स्ट लव’ एक ऐसी कृति है, जिसने दुनिया भर के नौजवानों के दिलों में जबर्दस्त उथल-पुथल मचाई है। सदा से माना जाता रहा है कि प्रत्येक प्रेमकथा अगर एक त्रासदी में खत्म होती है तो अमर होती है और शायद ही कोई प्रेमकथा हो जो सफल होने के कारण अमर हुई हो, यह तो सिर्फ हमारी भारतीय व्रत कथाओं में ही होता आया है, जहां एकनिष्ठ प्रेम और एकव्रती सफल दाम्पत्य जीवन को ही महानता का दर्जा प्राप्त है। लेकिन तुर्गनेव की उपन्यासिका एक ऐसी दर्दीली दास्तान है, जिसे पढ़ने के बाद उसके तमाम पात्रों से पाठक को गहरी सहानुभूति होती है, क्योंकि वे अपने समय के ऐसे पात्र हैं, जो प्रेम में दिलो-जान से डूबने के बाद भी कुछ हासिल नहीं कर पाते, उनका जीवन तो बस ’दुख ही जीवन की कथा रही’ में समाप्त हो जाता है।
यह कहानी सोलह साल के किशोर प्रेमी व्लादिमिर पेत्रोविच और इक्कीस बरस की जिनैदा अलेक्सान्द्रोव्ना के अद्भुत प्रेम की कथा है, जो अपनी राजकुमारी सदृश्य मां के साथ रूस के देहात में रहती है। व्लादिमिर अपने पिता के साथ रहता है। जिनैदा के परिवार को पुराने विरसे के कारण बस कहने भर के लिए इज्जत हासिल है, वरना उनकी हालत बिल्कुल गरीबों जैसी है। कच्ची उमर का व्लादिमिर अपने से थोड़ी पकी उमर की जिनैदा के प्यार में गिरफ्तार हो जाता है। व्लादिमिर के किशोर मन में जिनैदा की एक बहुत ही पवित्र और प्रेमिल छवि है, उसे जिनैदा के साथ बैठना, ढेर सारी बातें करना और उसे एकटक देखते रहना बहुत अच्छा लगता है। जिनैदा के व्लादिमिर जैसे और उससे भी बेहतर कई चाहने वाले खूबसूरत नौजवान पहले से ही मौजूद हैं। जिनैदा जाने-अनजाने व्लादिमिर से प्रेम का खेल उसी तरह खेलती है जैसे दूसरे लड़कों के साथ खेलती है। वह व्लादिमिर को प्रेम में छकाते हुए उसे अपने मोहजाल में फांस लेती है। बहुत दिनों बाद व्लादिमिर को पता चलता है कि जिनैदा उसे इसलिए चाहती है, क्योंकि असलियत में तो वह उसके पिता प्योत्र वसील्येविच को प्रेम करती है। एक किशोर-नौजवान के लिए यह कितनी अजीब बात है कि उसकी प्रेमिका उसके पिता से ही प्रेम करती है। बेचारा व्लादिमिर इसी चिंता में खोखला हुआ जाता है, और एक दिन तो वह खुद अपनी आंखों से अपने पिता को जिनैदा से प्रेमवार्ता करते हुए देख लेता है। उसके पिता जिनैदा के घर की खिड़की के बाहर खड़े बतिया रहे हैं और एक नाजुक डाली से उसके हाथ को सहला रहे हैं। जिनैदा डाली का सिरा चूम लेती है और पिता खिड़की से घर के भीतर कूद जाते हैं। व्लादिमिर को एक झटका लगता है और वह निराश हो वहां से चला जाता है।
व्लादिमिर की मां को किसी तरह इस बात का पता चल जाता है और वह अपने पति को अपनी नाराजगी जताती है। प्योत्र वसील्येविच लगभग रोते-गिड़गिड़ाते हुए पत्नी से माफी मांगते हैं। कुछ समय बाद व्लादिमिर के पिता की ह्रदयाघात से मृत्यु हो जाती है और व्लादिमिर भी मास्को आ जाता है। तीन-चार साल बाद व्लादिमिर को पता चलता है कि जिनैदा ने डोल्स्की नामक एक नौजवान जागीरदार से शादी कर ली थी, लेकिन बच्चे को जन्म देने के दौरान उसकी मृत्यु हो गई। व्लादिमिर बरसों बाद डाइनिंग टेबल पर अपने दोस्तों के साथ अपने प्रथम प्रेम की कहानी सुना रहा है और सारी कहानी फ्लैश बैक में चलती है।
तुर्गनेव की यह कृति रूसी साहित्य में ही नहीं, विश्व साहित्य में भी क्लासिक मानी जाती है, जिसमें किशोर मन की प्रेमिल भावनाओं और उन्नीसवीं शताब्दी के रूसी समाज में स्त्री-पुरुष संबंधों का एक यथार्थवादी चित्रण देखने को मिलता है। व्लादिमिर के पिता उस दौर के विलासी और लम्पट पुरुषों का प्रतिनिधि चरित्र है, तो जिनैदा के रूप में सौंदर्य के बल पर मर्दों को छकाने वाली उस दौर की युवा नारी है, जो गरीब होते हुए भी महज खानदानी विरासती तमगे के कारण सबकी चहेती है। युवा और कैशोर्य दिलों को छू लेने वाली यह उपन्यासिका दुनिया की तमाम भाषाओं में अनूदित होकर अद्भुत लोकप्रियता हासिल कर चुकी है। रूसी स्कूलों में तो ‘प्रथम प्रेम’ वहां के पाठ्यक्रम का अनिवार्य हिस्सा है। हम भारतीय शायद ही कभी यह कल्पना कर पायें कि हमारे यहां इस किस्म की प्रेमकथाएं कभी स्कूलों में पढ़ाई जाएंगी। हमारे यहां तो नैतिकता की दुहाई देने वालों और संस्कृति की रक्षा में लगे सिपाहियों की पूरी फौजें तैयार हैं, जो प्रेम के नाम से ही बिदकती हैं। ऐसे लोगों को भी कम से कम एक बार तुर्गनेव का ‘प्रथम प्रेम’ जरूर पढ़ना चाहिए।
(यह 'डेली न्यूज़' के रविवारी परिशिष्ट 'हम लोग' के ८ फरवरी, २००९ के 'प्रेम अंक' में प्रकाशित हुआ।)

कमलेश्वर की आंखों से देखो पाकिस्तान



नवंबर में मुंबई पर हुए आतंकी हमलों के बाद भारत-पाक संबंध एक अजीब तनाव और रस्साकशी के दौर से गुजर रहे हैं। इस माहौल में जब सब तरफ पाकिस्तान को लेकर गुस्सा है, एक लेखक-कलाकार समुदाय ही ऐसा है, जो मुश्किल हालात में भी अपना धैर्य नहीं खोता और ऐसे वक्त में हमें हिंदी के महान लेखक कमलेश्वर की किताब ‘आंखों देखा पाकिस्तान’ की याद आती है। यह किताब कमलेश्वर की पाकिस्तान यात्राओं के संस्मरणों और पाकिस्तान को लेकर लिखे गये विभिन्न पत्रकारी आलेखों का एक शानदार संकलन है, जिसके भीतर से गुजरते हुए एक अलग तरह का भावनात्मक और सांझी सांस्कृतिक विरासत के वारिस होने का अहसास होता है। इस किताब को पढ़ना एक प्रकार से अपने अड़ोस-पड़ोस को नितांत नये ढंग से देखना भी है। और इस देखने की प्रक्रिया में आप पायेंगे कि हम भारतीय हों या पाकिस्तानी, अंततः हम सदियों पुरानी एक दक्षिण एशियाई कौम हैं, जिसकी एक जैसी आबो-हवा है, जहां के मौसम एक हैं, जहां सागर, पहाड़ या जमीन से हमारी सरहदें मिलती हैं और एक होने का अहसास जगाती है।
दरअसल कमलेश्वर की इस किताब से पाकिस्तान को लेकर आम भारतीय में गहरे बैठी वो सारी गलतफहमियां दूर हो जाती हैं, जिसमें पाकिस्तान देश और पाकिस्तानी जनता को पूरी तरह एक मुस्लिम कट्टरपंथी और बंद समाज के तौर पर देखा जाता है। मशहूर लेखक अहमद नदीम कासमी से हुई एक मुलाकात में कमलेश्वर को पाकिस्तानी अवाम की आवाज सुनाई पड़ती है, जब कासमी साहब उनसे कहते हैं, ‘मजहब जो कर सकता था, उसने कर दिखाया, अब मजहबी पहचान से ज्यादा इंसानी पहचान की जरूरत है, जो अदब हमेशा से पैदा करता रहा है।... हमारे यहां तो बस छावनी कल्चर बची है और फौजी ब्यूराक्रेसी। यह अंग्रेजों की देन है। पाकिस्तानी फौज चार बार पाकिस्तान को जीत चुकी है... पर वो बुल्लेशाह, वारिसशाह और नानक के खानदानों को नहीं जीत पाई है... अपने सियासी हिंदू हुक्मरानों से कहिएगा कि वे यह गलती न करें। वे तुलसीदास, मीराबाई, रसखान और अमीर खुसरो के खानदान को नहीं जीत पायेंगे।’
ये बसंत के दिन हैं और पूरे दक्षिण एशिया में इसके अलग-अलग रंग और त्यौहार हैं, लेकिन पाकिस्तानी पंजाब में इसकी अलग ही छटा है। वहां इन दिनों पतंगें उड़ाई जाती हैं, जिसे लेकर कई सालों से कट्टरपंथी हंगामा मचाते रहे हैं लेकिन आम जनता उनकी परवाह किये बिना बसंत का त्यौहार मनाती है और तमाम फतवों के बावजूद लाहौर-मुल्तान में अवाम की इच्छाओं की प्रतीक पतंगें आसमानों में परवाज करती रहती हैं। बकौल कमलेश्वर, ‘आज के पाकिस्तान में बसंतोत्सव एक प्रगतिशील विचार का ही नहीं बल्कि आम जनता के विद्रोह और कट्टरपंथ के प्रतिकार का भी उत्सव बन गया है।... पंजाब का किसान इस्लामी तिथियों और तारीखों के कैलेण्डर के हिसाब से नहीं चलता, वह आज भी भारतीय मौसमों के आधार पर चलता है। पाकिस्तानी किसान आज भी मौसमों को चैत, बैसाख, जेठ, अषाढ़ आदि नामों से जानता और याद करता है।’
इस पुस्तक में पाकिस्तान के यात्रा संस्मरणों के अलावा एक खण्ड में भारत-पाक के बीच फैली कट्टरपंथियों की जमात को लेकर कुछ आलेख हैं, जो हर वक्त माहौल बिगाड़ने का खेल खेलते रहते हैं और कभी संबंधों को सामान्य नहीं होने देना चाहते। किताब में उन हिंदुस्तानी-पाकिस्तानी कैदियों के पत्र भी हैं, जो भारतीय और पाकिस्तानी जेलों में बंद रहे और कमलेश्वर को रिहाई की उम्मीद में खत लिखते रहे। कमलेश्वर ने उन कैदियों की आवाज सुनी और उनकी रिहाई के लिए काफी प्रयास भी किये। किताब के इस खंड से पता चलता है कि सरहद के दोनों तरफ किस प्रकार अफसर शाही हावी है, जो बेगुनाह लोगों को अमानवीयता की हद तक जाकर एक आजाद जिंदगी जीने में बाधक बनती है। भारत-पाक संबंधों को एक वृहद सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य में जानने के लिए एक बार पाकिस्तान को कमलेश्वर की आंखों से जरूर देखना चाहिए।

(यह आलेख १ फरवरी, २००९ को प्रकाशित हुआ।)

'पोथीखाना' शीर्षक से नया स्तम्भ

इस नए बरस में मैंने जयपुर से प्रकाशित होने वाले हिन्दी अखबार "डेली न्यूज़" में 'पोथीखाना' शीर्षक से एक नया स्तम्भ शुरू किया है। इस स्तम्भ में किताबों की चर्चा होती है, हर रविवार के दिन। दोस्त-पाठकों के लिए यह चीज़ें ब्लॉग पर भी पोस्ट कर रहा हूँ।