Thursday 27 September, 2012

नास्तिकों की भाषा : काव्‍य शृंखला

हिंदुस्‍तान के सबसे बड़े और महानतम नास्तिक अमर शहीद भगत सिंह को समर्पित हैं ये कविताएं। भगत सिंह जो हमें हर समय मनुष्‍य की अपराजेय कर्मशीलता की याद दिलाते रहते हैं। मुझे तो हर मुश्किल में भगत सिंह का रास्‍ता ही दिशा दिखाता है। उसी महान प्रेरक को लाल सलाम कहते हुए प्रस्‍तुत हैं ये कविताएं। 


एक
हमारी भाषा में बहुत कम हैं
सांत्वना के शब्द
किसी भी दिवंगत के परिजनों को
हम सिर्फ मौन से ही बंधाते हैं ढाढ़स
शोकसभा के मौनकाल में हम
नहीं बुदबुदाते किसी र्इश्वर का नाम।

दो

बहुधा कम पड़ जाते हैं हमारे तर्क
एक सामान्य आस्थावान व्यकित के सामने
यह हमारी भाषा की लाचारी है


तीन

दुनिया की तमाम
ताकतवर चीजों से
लड़ती आर्इ है हमारी भाषा
जैसे हिंसक पशुओं से जंगलों में
शताब्दियों से कुलांचे भर-भर कर
जिंदा बचते आए हैं
शक्तिशाली हिरणों के वंशज

खून से लथपथ होकर भी
हार नहीं मानी जिस भाषा ने
जिसने नहीं डाले हथियार
किसी अंतिम सत्ता के सामने
हम उसी भाषा में गाते हैं

हम उस जुबान के गायक हैं
जो इंसान और कायनात की जुगलबंदी में
हर वक्त
हवा-सी सरपट दौड़ी जाती है।

चार

प्रार्थना जैसा कोर्इ शब्द
हमारी भाषा में नहीं समा सका
मौन ही हमारा ध्येय वाक्य रहा

दुनिया की सबसे सरल सभ्यताओं की तरह
हमारे पास भी थे सबसे कम शब्द
मनुष्य को किसी का दास बनाने के लिए ही
र्इजाद की जाती है लंबी-चौड़ी शब्दावली
हमने दासता से मुक्ति की राह चुनी
जहां कुछ ही शब्दों की ज़रूरत थी
जैसे 'संघर्ष।

पांच

सबसे बुरे दिनों में भी
नहीं लड़खड़ार्इ हमारी जुबान

विशाल पर्वतमाला हो या
चौड़े पाट वाली नदियां
रेत का समंदर हो या
पानी का महासागर

किसी को पार करते हुए
हमने नहीं बुदबुदाया
किसी अलौकिक सत्ता का नाम

पीढि़यों से जानते हैं हम
जैसे पृथ्वी के दूसरे जीव
पार कर लेते हैं प्राकृतिक बाधाएं
बिना किसी र्इश्वर को याद किए
मनुष्य भी कर लेगा।

छह
नहीं हमने कभी नहीं कहा कि
मर गया है र्इश्वर

जो जन्मा ही नहीं
उसे मरा हुआ कैसे मान लें हम

हमारी भाषा में नहीं थीं
अंत, पराभव, मृत्यु और पतन की कामनाएं
हमने नहीं की ऐसी घोषणाएं

हमारे पास हमेशा ही रहा
मनुष्य का जयगान

सात
बहुत छोटा है हमारा शब्दकोश
उतनी ही कम है हमारी आबादी
बावजूद इसके हम निराश नहीं होते
आस्तिकों को ही सताती है निराशा
हमारी भाषा में सबसे बड़ा शब्द है उम्मीद
जैसे रेगिस्तान में बारिश।

आठ
हमेशा ही देखा गया हमें
शक की निगाहों से
यूं कहने को निर्भय लोगों को
कहा जाता है वीर और बहादुर
लेकिन हम नहीं नवाजे गए

हमारे लिए
दुनिया ने सिर्फ इतना कहा
जिन्हें न र्इश्वर का भय है
न धर्म की चिंता
उन पर कैसे किया जा सकता है विश्वास
इन पर ऐतबार करने का मतलब है
नरक कुण्ड में जाना
जबकि हमारे यहां नहीं था
नरक जैसा कोर्इ शब्द
हम स्वर्ग को कथा-किंवदंतियों से बाहर लाकर
यथार्थ में रचना चाहते थे
बिना चमत्कार और अंतिम सत्ता के।

नौ

झूठ जैसा शब्द
नहीं है हमारे पास
सहस्रों दिशाएं हैं
सत्य की राह में जाने वाली
सारी की सारी शुभ
अपशकुन जैसी कोर्इ धारणा
नहीं रही हमारे यहां
अशुभ और अपशकुन तो हमें माना गया।

दस

हमने नहीं किया अपना प्रचार
बस खामोश रहे
इसीलिए गैलीलियो और कॉपरनिकस की तरह
मारे जाते रहे हैं सदा ही

हमने नहीं दिए उपदेश
नहीं जमा की भक्तों की भीड़
क्योंकि हमारे पास नहीं है
धार्मिक नौटंकी वाली शब्दावली।

ग्यारह

क्या मिश्र क्या यूनान
क्या फारस क्या चीन
क्या भारत क्या माया
क्या अरब क्या अफ्रीका

सहस्रों बरसों में सब जगह
मर गए हजारों देवता सैंकड़ों धर्म
नहीं रहा कोर्इ नामलेवा

हमारे पास नहीं है
मजहब और देवता जैसे लफ्ज
इसीलिए बचे हुए हैं हम और हमारी जुबान।

बारह

याचना और प्रार्थना के गीत
नहीं संभव हमारे यहां
हम नहीं रच सकते
जीवन से विरक्ति के गीत

इसलिए हमारे कवियों ने रचे
उत्कट और उद्दाम आकांक्षाओं के गीत
जैसे सृष्टि ने रचा
समुद्र का अट्टहास
हवा का संगीत।

तेरह

भले ही नहीं हों हमारे पास
पूजा और प्रार्थना जैसे शब्द
इनकी जगह हमने रखे
प्रेम और सम्मान जैसे शब्द

इस सृष्टि में
पृथ्वी और मनुष्य को बचाने के लिए
बहुत जरूरी हैं ये दो शब्द।

चौदह

हमें कभी जरूरत नहीं हुर्इ
दूसरी जुबानों से शब्द उधार लेने की
औरों ने हमारे ही शब्दों से बना लिए
नए-नए शब्द और पद

दुनिया की सबसे छोटी और पुरानी
हमारी भाषा
और क्या दे सकती थी इस दुनिया को
सिवाय कुछ शब्दों के
जैसे सत्य, मानवता और परिवर्तन।

पंद्रह

दुनिया में सबसे सरल है हमारी भाषा
एक निरक्षर भी कर सकता है
इसके पूरे शब्दकोश का अनुवाद
जिंदगी से जुड़ी हो जो जुबान
उसे कहां जरूरत है अनुवाद की

सोलह

मछली को शार्क से
परिंदे को बाज से
हिरण को बाघ से
और इंसान को लालच से
बचाने वाली हमारी भाषा
सृष्टि के अंत तक बची रहेगी।



इस काव्‍य शृंखला के कुछ अंश सबसे पहले 'कथन' त्रैमासिक में प्रकाशित हुए थे। इसके बाद 'समालोचन' पर भी इसके कुछ अंश प्रकाशित हुए। अब यह पूरी शृंखला यहां प्रस्‍तुत है।

Sunday 5 August, 2012

नमक इश्क का : मोपासां की कहानी


दरख्तों से सरसब्ज पहाड़ी पर पुराने फैशन की एक हवेली थी। ऊंचे और लंबे छायादार पेड़ों की हरियाली उसे घेरे हुए थी। एक विशाल बाग था, जिसके आगे घना जंगल और फिर एक खुला मैदान था। हवेली के सामने की तरफ पत्थर का एक विशालकाय जलकुंड था, जिसमें संगमरमर में तराशी हुई परियां नहा रही थीं। ढलान पर एक के बाद एक कई कुंड थे, जिनमें से पानी की एक धारा अदृश्य फव्वारे की तरह नाचती हुई एक जलप्रपात का आभास देती थी।
इस सामंती आवास में एक नाजुक मिजाजी और नफासत को करीने से सहेजा गया था। शंख और सीपियों से सजी एक गुफा में पुराने जमाने की प्रेमकथाएं सोई हुई थीं। एक तरह से कहें तो पूरी हवेली में पुराने वक्त को सहेजकर रखा गया था। ऐसा लगता था जैसे कोई भी चीज अभी बस बोल ही पड़ेगी। बैठक की दीवारों पर पुरातन शैली की पेंटिंग्स थीं, जिनमें सम्राट लुई-15 के साथ भेड़ें चराते चरवाहे और घने घेरदार लहंगों में सुंदरियों के साथ विग पहने जांबाज आशिक चित्रित किए गए थे। एक लंबी आराम कुर्सी में एक बहुत ही बूढ़ी औरत बैठी थी। अगर वह हिलती-डुलती नहीं तो उसके मृत होने का आभास होता। उसके अनावृत पतले हाथों की चमड़ी बिल्कुल मिस्र की ममियों जैसी लगती थी।
उसकी निगाहें दूर क्षितिज में कुछ खोज रही थीं। ऐसा लगता था जैसे वह बाग में अपनी जवानी के दिन याद कर रही हो। खिड़कियों से हरियाली और फूलों में नहाकर आई हुई खुशबूदार हवा उसके झुर्रियों भरे माथे को छूकर उसे यादों के समंदर में लिए जा रही थी। उसके पास ही सुंदर परदे से ढंकी स्टूल पर एक युवती बैठी थी जिसके बाल हवा में उड़ रहे थे। वह एक कपड़े पर कढ़ाई कर रही थी। उसकी आंखों में कुछ तनाव और माथे पर चिंता की लकीरें दिख रही थीं। लग रहा था वह कढ़ाई तो कर रही है लेकिन उसका दिलो-दिमाग कहीं और खोया हुआ है। बुढिय़ा ने तुरंत ही लड़की को अपनी तरफ देखने के लिए विवश कर दिया।
'बेर्थे, अखबार में से कुछ पढ़कर सुनाओ ना। ताकि मुझे भी तो पता चला कि दुनिया में क्या हो रहा है?'
 लड़की ने अखबार उठाया और तेजी से मुआयना करते हुए कहा, 'इसमें राजनीति की एक बड़ी खबर है, इसे तो छोड़ दूं ना दादी मां?'
'हां बेटी, हां। क्या कहीं कोई प्रेम-प्रसंग की खबर नहीं है? क्या फ्रांस में आशिक मिजाजी और प्यार-मोहब्बत मर चुकी है, जो अब हमारे जमाने जैसी प्रेम-प्रसंगों की चर्चा ही बंद हो गई है?'
लड़की देर तक अखबार के पन्नों के कोने-कोने तलाश करने के बाद बोली, 'यह मिल गई एक खबर। इसका हैडिंग है 'एक प्रेम प्रसंग।'
बुढिय़ा के झुर्रियों भरे चेहरे पर मुस्कान खेलने लगी, 'हां मुझे यह खबर सुनाओ।'
यह तेजाब फेंकने की एक घटना थी, जिसमें एक स्त्री ने अपने पति की प्रेमिका से बदला लेने के लिए उस पर तेजाब फेंक दिया था। प्रेमिका की आंखें जल गई थीं। अदालत ने उस स्त्री को बाइज्जत बरी कर दिया था और लोगों ने फैसले की तारीफ की थी।
सुनकर दादी मां उत्तेजना में चिल्लाईं, 'यह तो भयानक है बेहद खौफनाक! देखो बेटी, शायद तुम्हें मेरे मतलब की कोई खबर मिले?' 
लड़की ने वापस अखबार को खंगाला तो अपराध के समाचारों में से पढ़कर सुनाने लगी।
'उदास नाटक- दुकान पर काम करने वाली एक लड़की, जो ज्यादा जवान नहीं थी। उसने एक नौजवान के प्यार में डूबकर खुद को समर्पित कर दिया लेकिन प्रेमी बेवफा निकला। लड़की ने बदला लेने के लिए अपने प्रेमी को गोलियों से भून दिया। लड़का जिंदगी भर के लिए अपाहिज हो गया। अदालत ने लड़की को बरी कर दिया और जनता ने फैसले की तारीफ की।'
खबर सुनकर दादी मां को गहरा धक्का लगा और वे कांपते हुए कहने लगीं, 'क्यों आजकल के लोग पागल हो गए हैं? तुम लोग पागल हो! ईश्वर ने जीवन के लिए सबसे बड़ा वरदान इंसान को प्रेम के रूप में दिया है। मनुष्य ने इसमें शिष्टता और रसिकता जोड़ी है। हमारे नीरस क्षणों को आल्हादित करने वाली चीज है प्रेम, जिसे तुम्हारी पीढ़ी के लोग तेजाब और बंदूकों से ऐसे खराब कर रहे हैं, जैसे उम्दा शराब में मिट्टी डाल दी जाए।'
लड़की दादी के क्रोध और झुंझलाहट को नहीं समझ पाई। कहने लगी, 'दादी मां उस औरत ने बिल्कुल सही किया। वह शादीशुदा थी और उसका पति उसे धोखा दे रहा था।'
दादी मां बोलीं, 'पता नहीं ये लोग आजकल की लड़कियों के दिमाग में कैसे-कैसे विचार ठूंस रहे हैं?' 
लड़की ने जवाब दिया, 'लेकिन दादी मां, शादी एक पवित्र बंधन है।'
दादी मां का जन्म पराक्रम और आशिक मिजाजी के दौर में हुआ था। वह अपने दौर में डूबकर दिल से कहने लगी, 'सुनो बेटा, मैंने तीन पीढिय़ां देखी हैं। शादी और प्यार में कोई समानता नहीं है। हम परिवार के लिए शादी करते हैं और शादी को खारिज नहीं कर सकते। अगर समाज एक जंजीर है तो हर परिवार उसकी एक कड़ी है। इन कडिय़ों को जोडऩे के लिए हम वैसी ही चीजें ढूंढते हैं जिनसे यह जंजीर बनी रहे। हम शादी करते हैं तो कई चीजें मिलाते हैं जाति, समाज, धन-दौलत, भविष्य, रुचियां आदि-आदि। दुनिया हमें मजबूर करती है इसलिए हम एक बार शादी करते हैं लेकिन जिंदगी में हम बीसियों बार प्रेम कर सकते हैं क्योंकि कुदरत ने हमें ऐसा ही बनाया है। तुम जानती हो बेटी, शादी एक कानून है और प्यार करना इंसान की फितरत। यह फितरत ही हमें कभी सीधे तो कभी टेढ़े-मेढ़े रास्तों पर चलने के लिए मजबूर करती है। दुनिया ने कानून इसलिए बनाए हैं कि इनसे इंसान की मूल प्रवृत्तियों को काबू में किया जा सके। ऐसा करना जरूरी भी था लेकिन हमारी मूल प्रवृत्तियां ज्यादा शक्तिशाली हैं, हमें इनका विरोध नहीं करना चाहिए क्योंकि ये हमें ईश्वर ने दी हैं जबकि कानून इंसान ने बनाए हैं। अगर हम जीवन में प्यार की खुशबू नहीं भरेंगे तो जिंदगी बेकार हो जाएगी। यह ऐसा ही है जैसे बच्चे की दवा में चीनी मिलाकर देना।'
बेर्थे की आंखें आश्चर्य से खुली रह गईं। वह बड़बड़ाई, 'ओह, दादी मां, हम प्यार सिर्फ एक बार कर सकते हैं।'
दादी मां ने आसमान की ओर अपने कांपते हाथों को ऐसे उठाया जैसे कामदेव का आवाहन कर रही हों। फिर उत्तेजना में कहने लगीं, 'तुम लोग बिल्कुल गुलामों जैसे हो गए हो, बिल्कुल सामान्य। तुम लोगों ने हर काम को भारी-भरकम शब्दों में बांध दिया है और हर जगह कठिन कर्तव्यों के बंधन बांध दिए हैं। तुम लोग समता और शाश्वत लगाव में यकीन रखते हो। तुम्हें यह बताने के लिए कि कइयों ने प्यार में जान कुर्बान की है, अनेक कवियों ने कविताएं लिखी हैं। हमारे जमाने में कविता का मतलब होता था पुरुष को स्त्री से प्रेम करना सिखाना। प्रत्येक स्त्री से प्रेम करना और हम! जब हमें कोई भा जाता था तो हम उसे संदेश पहुंचाती थीं। जब नए प्रेम की उमंग हमारे मन में जागती थी तो हम पिछले प्रेमी से किनारा करने में भी देर नहीं लगाती थीं। हम दोनों से भी प्रेम कर सकती थीं।'
बुढिय़ा एक रहस्यमयी ढंग से मुस्कुराई। उसकी बूढ़ी-भूरी आंखों में एक ऐसी चमक थी और चेहरे पर ऐसे भाव थे जैसे वह किसी और ही मिट्टी की बनी हो। जैसे कोई शासक हो, सारे नियम और कायदे-कानूनों से ऊपर। लड़की का रंग पीला पड़ गया था। वह बड़बड़ाते हुए बोली, 'इसका मतलब उस जमाने में औरतें मर्यादाहीन आचरण करती थीं?'
दादी मां ने मुस्कुराना बंद किया। ऐसा लगता था जैसे उसके दिल में वाल्‍तेयर की विडंबना और रूसो की दार्शनिकता गहरे समाई हुई हो। 'इसलिए कि हम प्यार करके उसे स्वीकारने की हिम्मत रखती थीं, यहां तक कि गर्व से बताती थीं। मेरी बच्ची अगर उस जमाने में किसी स्त्री का प्रेमी नहीं होता था तो लोग उसका मजाक उड़ाते थे। तुम्हें  लगता है कि तुम्हारा पति जिंदगी भर सिर्फ तुमसे ही प्यार करता रहेगा, यह हो भी सकता है। मैं तुमसे कहती हूं कि शादी समाज के अस्तित्व के लिए बहुत जरूरी है लेकिन यह मनुष्य जाति की मूल प्रवृति नहीं है। कुछ समझीं क्या तुम? जीवन में एकमात्र खूबसूरत चीज है प्रेम और सिर्फ प्रेम। तुम इसे कैसे गलत समझ सकती हो? कैसे खराब कर और कह सकते हो? तुम इसे किसी रस्म-रिवाज या संस्कार की तरह क्यों समझते हो? जैसे कि कोई कपड़ा खरीदकर लाना हो।'
लड़की ने बुढिय़ा के कांपते हाथों को अपने हाथों में थामते हुए कहा, 'चुप करो दादी मां। मैं तुमसे प्रार्थना करती हूं अब और नहीं... बस करो।'
वह अपने घुटनों के बल झुककर, आंखों में आंसू भरकर प्रार्थना करने लगी कि ईश्वर उसे एक सघन, गहन और अमर प्रेम का आशीर्वाद दे। एक ऐसा प्रेम जो आधुनिक कवियों का स्वप्न है। जबकि दादी मां ने बड़े प्‍यार से उसका माथा चूमा। अठारहवीं शताब्दी के दार्शनिकों के उस तर्क पर विश्वास और आस्था जताते हुए, जिसने जिंदगी को अपने वक्त में इश्क के नमक से जायकेदार बना दिया था, दादी मां ने कहा, 'सावधान! मेरी प्यारी बच्ची। अगर तुम इन मूर्खतापूर्ण बातों पर विश्वास करोगी तो जिंदगी में कभी सुखी नहीं रह पाओगी।'
*कहानी का अनुवाद मेरा है।*

Thursday 5 July, 2012

फिर मिलेंगे बारिश में


जिंदगी की किताब स्त्री पुरुष के एक बाग में मिलने से शुरू होती है और ईश्वरीय ज्ञान पर खत्म हो जाती है। - ऑस्कर वाइल्ड

जी हां, बहुत से लोगों की जिंदगी की किताब भी उसी अध्याय से शुरू होती है जिसमें स्त्री का प्रवेश होता है। मेरे साथ भी यही हुआ। वह मेरी जिंदगी में तब आई, जब मैं कॉलेज में पढ़ रहा था। सच में अगर ठीक से विचार कर कहूं तो वह मेरी कल्पनाओं जैसी तो कहीं से भी नहीं थी। बल्कि आज के लिहाज से कहूं तो उसके सिन्दूरी गाल सच्‍चाई से कोसों दूर के लगते थे यानी कुल जमा में वह अप्रतिम सौन्दर्य की धनी थी। मैं उससे बेपनाह मोहब्बत करता था और गंभीरतापूर्वक कानूनी तौर पर उससे शादी करने के बारे में सोचने लगा था। किस्मत से उसने पड़ौस के एक कसाई के कारण मुझे छोड़ दिया। उस वक्त मुझे बहुत तकलीफ हुई जिसने मुझे स्त्री जाति के प्रति शर्मीला बना दिया। उन दिनों में तंगहाली में जी रहा था। गरीब के दुख को कौन समझता है। यदा-कदा मिलने वाली स्त्रियां भी मुझे हिकारत से देखकर झिड़क देती थीं। सच तो यह है कि मैं दूसरी तरह का अमीर था। मेरी रुचियां बहुत सामान्य थीं और किसी से मेरे संबंध खराब नहीं थे। कुछ समय बाद स्त्रियां मुझमें रुचि दिखाने लगीं। मेरा खयाल है कि जब स्त्रियों का भरपूर सान्निध्‍य मिले तो आपको उस नकली पूंजी से मुक्ति पाने में बहुत सहूलियत होती है, जैसे मैं समझता रहा कि मेरे पास उसकी चाहत की पूंजी थी। मेरे आसपास जो महिलाएं थीं, उन्‍हें मेरी सादगी में कुछ विशेष लगने लगा, जबकि पहले वे सादगी को बेहूदगी समझती थीं। मेरे दोस्‍त हार्डिंग ने बताया कि मेरे बारे में उसकी बहन ने ऐसा ही कुछ कहा था। उसकी बहन बहुत तेज-तर्रार चालाक लड़की थी। ख़ैर, घर में इकलौती संतान होने के कारण मुझे स्त्री को उस रूप में देखने का मौका नहीं मिला जैसा भरे-पूरे घर में होता है। स्त्रियों की सामान्‍य चीजें भी मेरे लिए बहुत पवित्र हुआ करती थीं। इसलिए मैं किताबों में डूब गया, जहां नायिका के रूप में स्त्री होती थी। मेरा खयाल था कि औरतों के बारे में मेरी युवकोचित जिज्ञासाएं उन किताबों से ही शांत होंगी और उनके बीच गहरे उतरने से पहले मुझे उनके बारे में ठीक से जाने लेना चाहिए। कह नहीं सकता कि इससे मुझे कितना फायदा हुआ, बस इतना जानता हूं कि स्‍त्री जाति के बारे में इतनी विभिन्‍न प्रकार की जानकारियां हासिल हुईं कि जैसे मैं सालमन मछलियों की एक पूरी प्रजाति के बारे में जान गया होउं। 

मेरे दोस्‍त स्मिथ ने मुझे बताया कि सालमन मछली चार तरह की होती हैं, बाकी सब उसकी विविध उपजातियां और किस्‍में होती हैं। इसी तरह कुछ लेखक मित्रों ने बताया कि स्त्रियों में बस अच्‍छी और बुरी दो ही तरह की महिलाएं होती हैं। लेकिन मेरे जैसे सत्‍यान्‍वेषी के लिए तमाम जानकारियां पहेलियों जैसी थीं, क्‍योंकि वहां कई किस्‍मों का मिश्रण मिलता था मुझे। इसलिए एक दिन मैंने किताबें छोड़ दीं और वैज्ञानिक शोधकर्ता की तरह स्‍त्री जाति के अन्‍वेषण के लिए अपनी ही राह पर चल निकला। मेरे लिहाज से फ्रेंच, जर्मन, स्‍पेनिश और घरेलू ब्रिटिश तो महिलाओं की चार मूल प्रजातियां थी हीं। मैंने सबसे युवा से लेकर तीन बार की तलाकशुदा और विधवा सबका ठीक से अध्‍ययन किया। मैंने उनके बारे में जितना जाना, वही मुझे हमेशा कम लगता था। लेकिन लगता है कि वे मुझे समझ जाती थीं। उन्‍होंने मुझे सीरियसली लेने से ही जैसे मना कर दिया था। इसलिए मैंने भी एक दिन ये सब छोड़ दिया और बंदूक उठाकर शिकार करने निकल गया। मैंने धरती पर कोई जगह नहीं छोड़ी, हर उस जंगल में गया, जहां शायद ही कोई अंग्रेज कभी गया हो। इस दुनिया में आवारा घूमने से बेहतर कोई जिंदगी नहीं और कुदरत को पढ़ने से बड़ी कोई किताब नहीं है।

ख़ैर, बारह बरस तक मेरी भटकती आत्मा मुझे दुनिया भर में घुमाती रही। मैंने हर जगह शिकार किया, मछली की असंख्‍य किस्‍में खोजीं और पकड़ीं। दुनिया के हसीनतर नज़ारों का आनंद लिया। लेकिन औरत की छाया से भी मुझे शर्म आती थी। पिछले साल मैं जिस फर्म के लिए काम कर रहा था, उसने केन्ट के नजदीक एक सराय में मुझे कुछ दिन के लिए रुकने को कहा। वहां मछली की एक नई प्रजाति का पता लगाना था। मैंने सराय का सालभर का किराया चुकाया और काम में जुट गया। 

मैं जिस मेज पर लिख रहा हूं, वहां एक दस्‍ताना रखा है। इसकी देह भूरे रंग की है। इसके चारों ओर चांदी जैसी सफेद धारियां हैं और गहरे भूरे रंग का रेशमी लैस है, जिससे बांधा जा सके। इससे एक प्‍यारी सी खुश्‍बू आ रही है जो शायद कीट-पतंगों को दूर रखने के लिए है। इसके साथ ही मेज पर और भी सामान रखा है। मैं आश्‍वस्‍त हूं कि यह सब इस सराय की मालकिन का तो नहीं ही है। मुझे पता नहीं क्‍यों लगता है कि कुछ होने वाला है। ऐसा मेरे साथ कई बार होता है, अचानक कोई अप्रत्‍याशित खतरा भांप कर या कि किसी और कारण से। मुझे लगता है किसी ने मुझे पीछे से देखा है और हल्‍की पदचाप सीढि़यां चढ़कर ऊपर जाती सुनाई देती हैं। मैं मेज पर दस्‍ताने के साथ रखी कैंची, धागे, लैस, रिबन, सुई आदि चीजों को छूने से अपने हाथ रोक लेता हूं।

यहां चारों ओर बहुत ही खूबसूरत नज़ारे हैं, बिल्‍कुल मन मोह लेने वाले। सराय के नजदीक ही नदी है और यहां से नदी का खूबसूरत दृश्य दिखता है। प्राकृतिक दृश्यावली, खेलते बच्चे, काम करते मजदूर और यहां के एकांत से मुझे फिर लगता है कि कुछ होने वाला है। शाम को खाने के बाद मैं नदी पर गया। बहुत ही सुहानी शाम। चांदी सी चमक लिए भूरी मटमैली संध्‍या। आसमान पर पीले-सुनहरी रंगों के जैसे आखिरी करतब नाच रहे हों। हल्की बारिश हुई थी, इसलिए हवा में सौंधी-सौंधी गंध फैली थी। मैं बचपन की ऐसी ही यादों में खो गया। बारिश के बाद कितना स्‍वर्गिक हो जाता है धरती का रूप। पागल कर देने वाली मिट्टी की महक। धुले-धुले पौधे और दरख्‍त। चमचमाती पत्तियां। हवा के संग नाचती हुई कुदरत जैसे इंसान को भी नचाने वाली हो। मैंने सड़क से अलग रास्ता लिया और धारा की तरफ चलने लगा। वाह! मुझसे पहले ही यहां कोई मौजूद है? वह आकृति एक झाड़ी के पीछे है, लेकिन मैं उसे खूबसूरती से पानी में कांटा डालते देख रहा हूं। मैं तेज चलता हूं और उसके नजदीक जाता हूं। अचानक मेरे कानों में सुनाई पड़ती है 'श्श्श शÓ की आवाज और मैं चीख पड़ता हूं। 'हेÓ सलेटी कपड़ों में एक स्त्री कांटा-वंशी पकड़े मुझ तक आती है। माफ कीजिए, लेकिन इस तरह मेरे पीछे आना बहुत भी मूर्खतापूर्ण हरकत थी आपकी। वह खुशनुमा शाम जैसी आवाज में बोली। मैंने अपना तर्क दिया और उसने अपना। उसने कैंची मांगी, मैंने चाकू सौंप दिया। चाकू देते हुए मुझे उसके हाथ देखकर लगा मैं एक सुखद स्पर्श के अहसास से वंचित रह गया हूं। किसी बात पर हम दोनों हंस पड़े। मैंने देखा उसका मस्तक बिल्कुल दूधिया रंग का था। सलेटी कैप के नीचे सलेटी आंखें। मुंह ऐसा जिसे एक पुरुष जिंदगी भर चूमना चाहे। बच्चों जैसा कोमल चेहरा, नुकीली ठुड्डी यानी धूसर प्रकाश में भी बहुत ही खूबसूरत चेहरा। हल्की-फुल्की बातचीत करते हुए वापस चल पड़े। मैंने खूबसूरत मछलियों से भरी उसकी डलिया थाम ली। उसका सामीप्य एक सुखद अहसास दे रहा था। हवा में तैरती फूलों की खुश्बू उसकी देहगंध से मिलकर अभूतपूर्व खुशी जगा रही थी।
जब उसके कदम सराय के बगीचे की ओर मुड़े तो मुझे थोड़ा आश्चर्य हुआ। फिर लगा कि अरे यह तो वही है। मेरे हाथों से डलिया लेकर वह रसोई में चली गई। ... मैं बैठक में उसी के ख्यालों में गुम हूं और उसकी पदचाप सुनने के लिए कान लगाए खिड़की के सहारे खड़ा हूं। उसके आते ही मैं सब कुछ भूल जाता हूं। उसके हाथ गजब के सुन्दर हैं। इन्हें देखकर मुझे आर्किड के फूल याद आते हैं। वह बातचीत शुरू करती है और मैं उसकी आंखों की चमक में खो जाता हूं।
आप जानते हैं? जिप्सियों की मान्यता है कि रिबन और स्त्री को चांदनी रात या शमा की रोशनी में देखकर फैसला नहीं करना चाहिए।वह उठ खड़ी होती है और मैं उसके हाथ देखना चाहता हूं। वह सिर्फ किताब और टोकरी उठाकर हल्के से सिर झुकाते हुए 'गुडनाइटकहती है। मैं उसकी खाली कुर्सी के पास खड़ा होकर अपना हाथ वहां रख देता हूं, जहां उसका सिर टिका हुआ था। अगर वह यहां होती तो कैसी दिखती।
अगली सुबह मैं हर्ष और उन्माद में देर से उठा। तैयार होते वक्त दिल ने हल्की सीटियां बजाई। नीचे आकर देखा तो मालकिन नाश्ते की मेज साफ कर रही थी। मैं निराश था। मैंने भविष्य में जल्दी उठने की ठानी। उसके बारे में पूछना अच्छा नहीं लगा और यह भी कि इससे कहीं बुरा मान गई तो। शाम मैंने नदी पर गुजारी।  कल वह मुझे जिस जगह मिली थी, वहां बैठकर मैनें पाइप पिया। मैं आंखें बंद करता तो धुएं में उसका चेहरा नजर आता। थोड़ी देर बाद मैंने सोचा, शायद वह चली गई है। यह ख्याल आते ही मुझे कंपकंपी होने लगी। 
मैंने देखा खिड़की में रोशनी है। वह खिड़की पर झुकी है। मैंने हल्का सा खंखारा। वह तेजी से मुड़ी और हल्के से सिर झुकाकर मुस्कुराई। मेज पर दस्ताने, फीते और बहुत से कागज फैले पड़े थे। मुझे डर लगा, वह जा रही है। मैंने कहा, प्लीज, मुझे अपने से दूर मत कीजिए। अभी कितना सा तो वक्त बीता है? 
कुछ भी तो अच्छा नहीं लग रहा। उसकी आवाज में आंसू तैर रहे थे। मैं कस्बे की तरफ गई थी। कितनी गर्मी और धूल थी। मैं बुरी तरह थक गई हूं। नौकरानी ने लैम्प के साथ ट्रे में नींबू पानी लाकर रख दिया। मैंने उसके लिए नीबूं पानी बनाया। 
खैर! दस दिन गुजर गए। हम कभी खाने पर तो कभी नाश्ते पर मिलते। साथ बैठ मछलियां पकड़ते या बगीचे में बैठकर बातें करते। उसमें एक बच्चे और औरत का गजब का मिश्रण है। वह कोई पत्र आने पर या कस्बे की तरफ जाती हुई एक लड़की जैसी दिखती है और कस्बे से लौटते हुए पैंतीस साल की औरत। 
रसोई के पास से गुजरते हुए मालकिन ने कहा- मुझे दुख है तुम उसे खो दोगे! क्या मतलब? उसके बिना तो मैं जिंदगी की, भविष्य की कल्पना भी नहीं कर सकता और मुझे तो यह भी पता नहीं कि वह आजाद है या नहीं। ...शाम को मैंने उसे बगीचे में देखा तो उसके पीछे चल दिया। हम नदी किनारे साथ बैठे। उसके बाएं हाथ में दस्ताना नहीं है और वह घास पर उसे रखे बैठी है।
आपको बुरा तो नहीं लगेगा अगर मैं कोई खास सवाल पूछूं? मेरे सवाल के जवाब में उसने कहा, नहीं। मैंने उसका नंगा हाथ पकड़कर उसकी अंगूठी छूते हुए पूछा, क्या यह अंगूठी आपको किसी से बांधे हुए है? उसकी आवाज कांप रही थी, कानूनी रूप से तो किसी से नहीं। लेकिन आप क्यों पूछ रहे हैं? मैं खुद कुछ बताना चाहती थी। चलिए चलते हैं। खाने के बाद बैठक में मिलते हैं।
आप काफी समय से बाहर हैं और शायद अखबार नहीं पढ़ते हैं। मुझे नहीं पता आपने क्यों पूछा कि मैं आजाद हूं या नहीं। मैं कोई खूबसूरत औरत नहीं हूं। लेकिन कुछ है मेरे भीतर जो पुरुषों को लुभाता है। आज आपकी आंखों में जो देखा वह पहले भी बहुतों में देखा है मैंने। आज (सुबकते हुए) मैं कह सकती हूं कि मैं आजाद हूं। कल नहीं कह सकती थी। कल मेरे पति केस जीत गए। उन्होंने मुझे तलाक दे दिया। 
मुझे उस अतीत से कोई लेना-देना नहीं। मैं जिस दिन से आपसे मिला वहीं से मैं आपको जानते हुए पूछता हूं कि आप मुझसे शादी करेंगी?
सुनिए मुझे कुछ कहना है। मैंने मुकदमा लड़े बिना हार मान ली। मेरे पति ने चालाकी और धूर्तता से केस जीता। अखबारों ने मुझे व्यभिचारिणी कहा। पिछले सप्ताह एक अखबार में मेरा रेखाचित्र छपा। कितना अजीब है आप अपनी ही तस्वीर वाला अखबार खरीद रहे हैं। फिर भी जो कुछ हुआ उससे मैं खुश हूं। मैं बहुत अकेली पड़ गई हूं और आपका मेरी तरफ ध्यान देना मुझे अच्छा लग रहा है। लेकिन मैं आपसे पे्रम नहीं करती। आपको बहुत इंतजार करना पड़ेगा। ... मुझे पहले तो यह सीखना होगा मैं फिर से एक आजाद स्त्री हूं।  क्या आप मेरी इस वक्त की भावनाओं को समझ सकते हैं। 
मैंने इंकार में सिर हिलाया।
अगली बार हम दोनों के इरादे मजबूत होंगे। कहते हुए उसने मेरे होठों पर उंगली रख दी। आपके पास सोचने के लिए एक साल है। आप तब भी आज की बात ही कहेंगे तो मैं जवाब दूंगी। मुझे ढूंढऩा मत। जिंदा रही तो आऊंगी। मर गई तो खबर हो जाएगी।

 
मैंने हल्के से उसका हाथ चूमते हुए कहा- जैसी आपकी मर्जी। मैं यहीं मिलूंगा। दस बजे तक हम ऐसे ही बैठे रहे। फिर वह चली गई। ... अगले दिन नौकरानी ने आकर उसका दिया एक लिफाफा थमाया। इसमें एक सफेद दस्ताना था। इसलिए मैं इसे हर जगह साथ लिए रहता हूं। एक हफ्ते से ज्यादा सराय नहीं छोड़ता। मैं सपनों में उसको आता हुआ देख रहा हूं। वह पहले की तरह लम्बी घास को चीरते हुए आएगी। बारिश में चमकती चांदी जैसी पानी की बूंदों की तरह नाचती हुई आएगी। महकती धरती की सौंधी गंध लिये आएगी। उसकी सलेटी आंखों में चमक होगी और वह इस सलेटी दस्ताने के बदले वह चमक मुझे दे देगी। 
मूल कहानी जॉर्ज इगर्टन की है। पुनर्कथन प्रेम चंद गांधी। यह कहानी पत्रिका समूह के 'परिवार' परिशिष्‍ट में बुधवार, 04 जुलाई, 2012 को प्रकाशित हुई थी।  

Sunday 13 May, 2012


मां की ममता पर सदियों से कविता, कहानी और उपन्‍यास लिखे जा रहे हैं। गोर्की का उपन्‍यास 'मां' तो अपने में क्‍लासिक है ही। आज मातृ-दिवस यानी मदर्स डे पर पश्चिमी साहित्‍य की ये तीन क्‍लासिक कहानियां हिंदी पाठकों के लिए विशेष रूप से प्रस्‍तुत हैं। इनमें से शुरु की दो कहानियां बुधवार, मई, 2012 को राजस्‍थान 'पत्रिका' के 'परिवार' परिशिष्‍ट में प्रकाशित हुई हैं। 
मां का सफ़र : टेम्‍पल बैली

उस युवा मां ने अपनी जिंदगी की राह चुन ली थी। उसने पूछा, क्‍या यह रास्‍ता बहुत लंबा होगा?’ और गुरु ने कहा, हां, और मुश्किलों भरा भी। तुम इसके आखिरी छोर तक पहुंचते-पहुंचते बूढ़ी हो जाओगी, लेकिन तुम्‍हारी यात्रा का अंत, शुरुआत से कहीं बेहतर होगा। लेकिन वह बहुत खुश थी। रास्‍ते में वह बच्‍चों के साथ खेलती रही, उन्‍हें खाना-पानी देती रही और ताज़ा झरनों के पानी में उसने बच्‍चों को नहलाया। सूरज उन पर अपनी धूप की किरणें बरसाता रहा और मां खुशी के मारे चिल्‍ला कर बोली, इससे अधिक सुंदर कभी कुछ नहीं हो सकता।
इसके बाद फिर रातें आईं, तूफान आए और कई बार तो रास्‍ते में गहरा अंधेरा मिला। बच्‍चे डर और सर्दी के मारे कांपने लगे। मां ने सबको अपने पास बुलाया और आंचल में छुपा लिया। बच्‍चों ने कहा, ओह मां, क्‍योंकि तुम हमारे पास हो इसलिये हमें डर नहीं लग रहा और अब हमें कुछ नहीं होगा। और मां ने कहा, यह तो दिन के उजाले से भी अच्‍छा वक्‍त है, क्‍योंकि मैंने अपने बच्‍चों को साहस का पाठ पढ़ाया है।
फिर सुबह हुई और सामने एक पहाड़ी थी, मां और बच्‍चे उस पर चढ़ते गये और बुरी तरह थके हुए दिखने लगे। मां उन्‍हें बार-बार कहती रही, अपने ऊपर भरोसा रखो, हम बस पहुंचने ही वाले हैं। इसलिये बच्‍चे आगे बढ़ते रहे और जब वे शिखर पर पहुंच गये तो मां से कहने लगे, ओह मां, हम तुम्‍हारे बिना यहां कभी भी नहीं पहुंच सकते थे।   
रात में जब मां लेटी होती और चांद-तारों को ताक रही होती तो वह खुद से कहती, कल के मुकाबले आज का दिन बेहतर रहा, क्‍योंकि आज मेरे बच्‍चों ने विपरीत परिस्थितियों में भी हार नहीं मान कर आत्‍मविश्‍वास बनाये रखना सीखा है। कल मैंने उन्‍हें हौंसले की सीख दी थी, आज सामर्थ्‍य दी है।
अगले दिन अजीबोगरीब बादलों ने आकर पूरी धरती को अपने अंधकार में डुबो दिया... युद्ध, घृणा और बुराइयों के बादल। उस भयानक अंधकार में जब बच्‍चों को कुछ नहीं सूझ रहा थ और वे हाथ-पैर मारकर टटोलते हुए रास्‍ता खोज रहे थे, मां ने कहा, ऊपर देखो, अपनी आंखों से वह रोशनी देखो। बच्‍चों ने ऊपर देखा, वहां बादलों के पार एक कभी न खत्‍म होने वाली रोशनी की कौंध थी, जिसके प्रकाश में बच्‍चों ने अंधकार भरा रास्‍ता पूरा किया। उस रात मां ने कहा, आज का दिन सब दिनो से अच्‍छा था, क्‍योंकि आज मैंने अपने बच्‍चों को ईश्‍वर के दर्शन कराए।
और दिन गुजरते रहे, सप्‍ताह, महीने और साल गुजरते चले गये। मां बूढ़ी होने लगी और उसकी काया झुक कर दोहरी हो गई। लेकिन उसके बच्‍चे लंबे-तगड़े और मजबूत थे, उसके साथ हिम्‍मत के साथ चलते जा रहे थे। और जहां कहीं रास्‍ता मुश्किल होता तो वे मां को गोद में उठा लेते, जो पंख जैसी हल्‍की हो गई थी। आखिरकार वे सब एक पहाड़ी पर पहुंचे, जहां से उन्‍हें एक चमकती हुई राह दिखी, जिसके सुनहरी दरवाजे पूरी तरह खुले हुए थे। इस दृश्‍य को देखकर मां ने कहा, मैं अपने सफ़र की मंजिल तक आ पहुंची हूं। और अब मैं जान गई हूं कि अंत शुरुआत से बेहतर होता है। क्‍योंकि मेरे बच्‍चे अब अकेले चल सकते हैं अपने सफर पर और इनके बाद इनके होने वाले बच्‍चे भी। बच्‍चों ने मां से कहा, मां, तुम हमेशा हमारे साथ चलती रहोगी, जब तुम उन दरवाजों के पार चली जाओगी तब भी हमारे साथ ही रहोगी।
बच्‍चे उठकर खड़े हो गये और मां को अकेले जाता हुआ देखते रहे। उसके जाते ही दरवाजे बंद हो गये। बच्‍चों ने कहा, हम मां को नहीं देख सकते, लेकिन वह हमारे साथ है। हमारी मां जैसी मां किसी भी याद से कहीं बढ़कर है। वह हमारे लिए एक जीवंत उ‍पस्थिति है। हमारी मां हमेशा हमारे साथ है। हम जिस राह पर चलते हैं वहां की पांव के नीचे पत्तियों की सरसराहट में वो मौजूद है। वह हमारे ताजे धुले कपड़ों की खुश्‍बू में हमारे साथ है। जब हम ठीक महसूस नहीं कर रहे होते तो हमारे माथे पर शीतल हाथ की तरह वह होती है। हमारी मां हमारे ठहाकों में मौजूद रहती है। हमारी आंखों से गिरने वाली आंसू की हर बूंद में वह नुमायां होती है। मां उस जगह का नाम है, जहां से चलकर हम आये हैं...हमारा पहला घर है वो। मां वो नक्‍शा है जिसके मुताबिक हमारा हर एक कदम उठता है। मां हमारा पहला प्‍यार है...वही है जिसे हम अपना दिल दे बैठे थे... उससे दुनिया में हमें कोई अलग नहीं कर सकता...ना समय और न ही कोई दिशा...यहां तक कि मृत्‍यु भी हमें मां से अलग नहीं कर सकती... 

कोर्नेलिया के रतन : जेम्‍स बॉल्‍डविन
सैंकड़ों साल पहले प्राचीन रोम शहर की एक सुहानी सुबह की बात है। एक खूबसूरत बाग में लताओं से घिरे ग्रीष्‍मावास में दो लड़के खड़े थे। दोनों अपनी मां और उसकी सहेली को देख रहे थे, जो बगीचे में घूम रही थीं। 
क्‍या तुमने कभी कोई ऐसी सुंदर महिला देखी है जैसी अपनी मां की सहेली है। छोटे भाई ने बड़े भाई का हाथ थामते हुए कहा, वो तो एक रानी की तरह लगती है।
फिर भी वो हमारी मां जितनी सुंदर नहीं है। बड़े लड़के ने कहा, यह सही है कि उसके कपड़े बहुत सुंदर हैं, लेकिन उसका चेहरा सुसभ्‍य और दयाभाव से भरा हुआ नहीं लगता। अगर कोई रानी है तो हमारी मां ही है।
हां, बिल्‍कुल सही कहा। दूसरा भाई बोला, पूरे रोम में हमारी प्‍यारी मां जैसी कोई और स्‍त्री नहीं जो रानी कही जा सकती हो।
जल्‍दी ही उनकी मां कोर्नेलिया घूमते हुए उनसे बात करने आ पहुंची। उसने एक सादा सफेद गाउन पहन रखा था। उन दिनों के चलन के हिसाब से उसके हाथ और पांव बिल्‍कुल नंगे थे और कोई चैन या अंगूठी उसके हाथों और अंगुलियों में नहीं थी। उसके सिर पर एक ही ताज था, उसके लंबे, नर्म, रेशमी बालों को बंधा हुआ जूड़ा। उसके चेहरे पर एक प्‍यारी सी मुस्‍कान तैर रही थी जब उसने अपने बेटों को देखा।
बच्‍चों, उसने दोनों से कहा, मैं तुम्‍हें कुछ बताना चाहती हूं।
दोनों पुराने रोमन रिवाज के मुताबिक मां के सामने झुक गये और बोले, हां, मां बताइये।
आज हम यहीं इस बगीचे में खाना खाएंगे और इसके बाद मेरी सहेली हमें हीरे-जवाहरात और रत्‍नों का वो आश्‍चर्यजनक संदूक दिखाएंगी, जिसके बारे में तुम बहुत कुछ सुन चुके हो।
दोनों भाई अपनी मां की सहेली की ओर देखते हुए मारे शर्म के झेंप गये। वे सोच रहे थे कि क्‍या यह संभव है कि उसकी अंगुलियों में जितनी अंगूठियां हैं, उससे भी ज्‍यादा उसके पास और हैं? क्‍या उसके पास गले में पहनी हुई चैन और हारों में चमकने वाले मोती-माणिक से भी कहीं अधिक और जवाहरात हैं?
जब उनका संक्षिप्‍त भोजन समाप्‍त हुआ तो एक नौकर घर के भीतर से एक संदूक लेकर आया। मां की सहेली ने संदूक खोला। ओह, चमकते रत्‍न, मोती, माणिक और आभूषणों की दमक से दोनों बच्‍चों की आंखें आश्‍चर्य से फटी की फटी रह गईं। वहां दूध जैसी सफेद मोतियों की अनगिनत लडि़यां थीं, जलते हुए लाल कोयले जैसे चमकते माणिक के ढेर थे, उस गर्मी के दिन के आसमान की तरह चमकते नीलम थे और सूरज की रोशनी की तरह चमचमाते हीरे थे।
दोनों भाई देर तक उन रत्‍नाभूषणों की ओर देर तक देखते रहे। आह, छोटे वाले भाई ने कहा, काश, हमारी मां के पास भी ऐसी खूबसूरत चीजें होतीं।
आखिरकार संदूक बंद कर दिया गया और सावधानी से अंदर ले जाया गया।
कोर्नेलिया, क्‍या यह सच है कि तुम्‍हारे पास कोई रत्‍न नहीं है?’ सहेली ने पूछा, क्‍या सच में जैसा मैंने फुसफुसाहटों में सुना है कि तुम गरीब हो, यह सच है?’
नहीं, मैं गरीब नहीं हूं। कोर्नेलिया ने अपने दोनों बेटों को उसके सामने जवाब की तरह पेश करते हुए कहा, ये रहे मेरे रतन। ये तुम्‍हारे सारे जवाहरातों से कहीं अधिक मूल्‍यवान हैं।
दोनों लड़के अपनी मां के गर्व, प्रेम और पोषण को फिर जीवन में कभी नहीं भूले। और बरसों बाद जब वे दोनों रोम के महान लोगों में गिने जाने लगे, वे बगीचे के इस दृश्‍य को अक्‍सर याद किया करते थे। और दुनिया का क्‍या कहें, वो तो आज भी कोर्नेलिया के रत्‍नों की कहानी सुनना चाहती है।  

वादा : टी.एस. ऑर्थर

वह खूबसूरत नौजवान मां घर से बाजार की ओर जाने ही वाली थी कि उसका प्‍यारा-सा बेटा आया और मां से लिपट कर कहने लगा, ममा, मेरी प्‍यारी मां, क्‍या तुम मुझे एक पिक्‍चर बुक नहीं लाकर दोगी..जैसी ऐडी के पास है। मां ने कहा, अगर तुम एक अच्‍छे बच्‍चे की तरह ठीक से रहे और ममा के आने तक आया की बात मानोगे तो जरूर लाकर दूंगी। बच्‍चे ने अच्‍छे बच्‍चे की तरह वादा करते हुए कह, बिल्‍कुल, मैं बहुत अच्‍छे से रहूंगा, आप आकर चाहे तो आया से पूछ लेना। मां ने अपने प्‍यारे बेटे के गालों को चूमा और घर से चल दी।
उधर बेटा अपने कमरे में जाकर मां से किये गये वादे के मुताबिक अच्‍छा बच्‍चा बने रहने की कोशिश करने में जुट गया। उसने आया से लिपटते हुए कहा, मेरी मम्‍मी कितनी अच्‍छी और सुंदर है जो मेरे लिए एक प्‍यारी-सी पिक्‍चर बुक लेकर आएंगी। कितना अच्‍छा लगेगा मुझे वो बुक मिलने से... ऐडी जैसी सुंदर पिक्‍चर बुक...वाह खूब मजा आएगा। मैं कब से उस बुक के बारे में सोच रहा था। मेरी मां कितनी प्‍यारी है ना आंटी...। आया ने कहा, हां बेटा, तुम्‍हारी मम्‍मी बहुत प्‍यारी है और कितना प्‍यार करती है तुम्‍हें... तुम जो भी कहते हो वही करती है। और फिर वो बच्‍चा अपने खिलौनों से खेलने लग गया, लेकिन उसके दिमाग में पिक्‍चर बुक ही घूम रही थी। थोड़ी देर बाद उसने आया से पूछा कि क्‍यों अब तक तो मम्‍मी को आ जाना चाहिये ना..। आया ने कहा, हां, उन्‍हें आने में ज्‍यादा देर नहीं लगेगी। और तभी दरवाजे पर घंटी बजी तो बच्‍चा ताली बजा कर दौड़ते हुए खुशी से चिल्‍लाकर बोला,ओह मम्‍मी आ गई। आया कुछ कहती उससे पहले ही वह दरवाजे से निराश लौट आया, कोई झाड़ू बेचने वाला आया था। आया ने कहा, बेटा तुम्‍हारी मम्‍मी को लगता है आज आने में बहुत देर लगेगी, इसलिये तुम जाकर अपने कमरे में ब्‍लॉक्‍स से घर बनाओ। बच्‍चे ने कहा, नहीं, मैं घर बनाने के खेल से बोर हो गया हूं। और अब तो मम्‍मी ने पिक्‍चर बुक का वादा किया है इसलिए मैं और किसी चीज के बारे में सोच भी नहीं सकता। आया ने कहा, अच्‍छा ठीक है, लेकिन किताब के बारे में सोचने से तो मम्‍मी जल्‍दी नहीं आएंगी ना। बच्‍चे ने कहा, अब मैं किताब के अलावा और सोच भी क्‍या सकता हूं। कुछ देर बच्‍चा और खेलों में लग गया और आया ने पूरी कोशिश की कि वो उसे खुश रखे और किताब से उसका ध्‍यान बंटाकर रखे। लेकिन बच्‍चा तो बार-बार खिड़की-दरवाजें पर जाकर देखता रहा कि मम्‍मी आई है कि नहीं।
लेकिन पाठकों को भी लगेगा कि कितने आश्‍चर्य की बात है कि घर से निकलते ही मां भूल गई कि उसने अपने बेटे से कोई वादा भी किया है। ऐसा नहीं कि उसे अपने बच्‍चे की खुशी का खयाल नहीं था या कि वो अपने बच्‍चे को प्‍यार नहीं करती थी, ऐसा कुछ नहीं था। उसके दिमाग में इतनी सारी चीज़ें थीं कि उसे बच्‍चे की ऐसी गहरी उत्‍सुकता का कोई अंदाज़ नहीं था। उसे लगा होगा कि बेटे ने बस यूं ही कह दिया है तो पिक्‍चर बुक तो कभी भी लाई जा सकती है। उसने कभी अपने बच्‍चे को ना नहीं कहा, इसलिये उसकी हर बात पर हां कहने वाली मां को सच में अपने कामधाम में बिल्‍कुल खयाल नहीं रहा।
जब वो घर के दरवाजे पर आई तो बेटे का चेहरा देख उसे याद आया और बेटे ने पूछा, मम्‍मी, कहां है मेरी पिक्‍चर बुक...मैं कब से इंतजार कर रहा हूं आपके आने का। अचकचाते हुए और अपनी भूल पर पछताते हुए मां ने कहा, सुनो बेटा, मेरी बात तो सुनो। और अब क्‍या था, बच्‍चा समझ गया कि मम्‍मी के जिस वादे पर वह दिन भर विश्‍वास किये हुए था, वह टूट गया है। उसका चेहरा मायूस हो गया और आंखों में आंसू भर आए। मां उसके पास बैठी लेकिन उसका चेहरा देख उस पर जितना प्‍यार आया उससे ज्‍यादा अचानक उसे चिढ़ हुई और कहने लगी, तुमने अच्‍छा बच्‍चा बने रहने का वादा किया था ना बेटा...। बच्‍चे ने कहा, हां तो मैं रहा ना, चाहो तो आंटी से पूछ लो। उसकी आंखों से आंसू बहने लगे थे। मां ने कहा, सुनो, रोने से कुछ नहीं होगा। मैं नहीं ला सकी, उसका कारण है...बहुत सारे काम थे...मैंने वादा किया है तो ला दूंगी, अब चुप हो जाओ वरना मैं... वो कुछ कहने वाली थी कि उसका मन भर आया। कैसे इस मासूम को सजा देने की बात सोची। बच्‍चे का रोना बढ़ता ही जा रहा था और मां का गुस्‍सा भी। तो तुम नहीं मानोगे, है ना..., कहकर मां ने उसका हाथ सख्‍ती से पकड़ा और ठीक इसी वक्‍त दरवाजा खुलने की आहट हुई, बच्‍चे के पिता आ चुके थे।
ईश्‍वर हम पर दया करे, क्‍यों भाई क्‍या चल रहा है...कोई परेशानी लगती है यहां तो। कहते हुए पिता कुर्सी पर बैठे। मां ने कहा, परेशानी यह है कि मैंने एक किताब इसके लिए खरीदने का वादा किया था और आज भूल गई। पिता ने कहा, ओह इतनी सी बात है बस...यह तो अभी ठीक कर देते हैं.. इधर आओ बेटा, देखो तुम्‍हारे लिये मैं क्‍या कर सकता हूं। और उन्‍होंने एक पैकेट निकाला और उसे खोलने लगे। बच्‍चे का रोना एकदम बंद हो गया और उसके आंसुओं में एक इंद्रधनुषी चमक कौंध गई। एक खूबसूरत पिक्‍चर बुक निकली, जिसे पिता ने सुबह ही बच्‍चे का खुश चेहरा देखने के लिए एक दुकान पर देखकर खरीद लिया था। किताब देखते ही बच्‍चा खुशी से उछल पड़ा और पापा से लिपट गया। आप कितने अच्‍छे पापा हैं, आई लव यू पापा। मां चुपचाप कमरे से निकल गईं।
रात के खाने पर तीनों डाइनिंग टेबल पर बैठे थे। मां की आंखों में आंसुओं के गहरे निशान थे। उस वक्‍त वो क्‍या सोच रही होगी, कोई भी मां समझ सकती है। बच्‍चे से किया गया चाहे कितना भी छोटे से छोटा वादा हो, अगर नहीं निभाया गया तो उसका गहर असर होता है। 
चयन, अनुवाद एवं प्रस्‍तुति : प्रेमचंद गांधी, सभी पेंटिंग्‍स पाब्‍लो पिकासो की हैं।  

Sunday 29 January, 2012

कार्टूनिस्‍ट-कलाकार अभिनेता-अभय... खा गया समय...


अभी-अभी उस अभय वाजपेयी को आखिरी सलाम कहकर आया हूं, जो हरदिल अजीज था। राजस्‍थान पत्रिका के पॉकेट कार्टून झरोखा  के विख्‍यात त्रिशंकु, जिसे लाखों पाठकों की बेपनाह मोहब्‍बत हासिल थी... जिसने अपने मुंह से कभी नहीं कहा कि मैं ही त्रिशंकु हूं और मैं ही कलाकार, रंगकर्मी, निर्देशक अभय वाजपेयी। अजीब मस्‍तमौला और बिंदास आदमी था। किसी के बारे में था कहना-लिखना कितना मुश्किल होता है... जिंदादिल लोग आपको बहुतेरे मिल जायेंगे, लेकिन अभय वाजपेयी जैसे शख्‍स बहुत दुर्लभ होते हैं...हर फिक्र को धुंए में उड़ाते चला गया... ऐसी बेफिक्री कि बावजूद डॉक्‍टरों और मित्रों की चेतावनियों के, बीपी की दवा ही नहीं ली... उनका शाम के वक्‍त तकियाकलाम होता था, शाम के वक्‍त चाय पीने से मुंह से बदबू आती है.. लोग क्‍या कहेंगे...अभय वाजपेयी के इतने बुरे दिन आ गये हैं कि शाम 6 बजे बाद चाय पीता है... सरकार ने नौकरी से निकाल दिया है या कि राजस्‍थान पत्रिका ने कार्टून के पैसे देना बंद कर दिया है...यार दोस्‍तों की मंडली को अपनी लाजवाब चुटकियों और किस्‍सों की कभी ना खत्‍म होने वाली पोटली से गुलजार करने वाला वो अप्रतिम कलाकार...
मैं उनसे इस बात के लिये बहुत झगड़ता था कि अपने कार्टूनों की एक पुस्‍तक प्रकाशित की जानी चाहिए... वे इस पर तैयार भी हो गये थे... लेकिन अपनी मस्‍ती में भूल ही जाते थे... उन्‍होंने कभी अपने कार्टून प्रकाशित होने के बाद प्रेस से शायद ही वापस मांगे हों... अखबार के दफ्तर की रद्दी में ना जाने कहां गुम हो गये हजारों कार्टून... बाद के दिनों में उन्‍होंने शायद उन्‍हें सहेजना शुरु कर दिया था... मैंने उन्‍हें चुनिंदा कार्टून्‍स की प्रदर्शनी लगाने की भी सलाह दी थी... लेकिन उनके पास ऐसे फालतू कामों के लिए शायद वक्‍त ही नहीं था... जिस जमाने में लोग अपनी मार्केटिंग खुद ही करते रहते हैं, उन्‍होंने खुद के लिए कोई वक्‍त नहीं रखा... इसीलिए 2002 की शुरुआत में उन पर जबर्दस्‍त अटैक हुआ और वे लंबे समय तक कोमा में रहने के बाद जब ठीक हुए तो जुबान चली गई. और साथ ही चला गया हाथों का कौशल...  फिर भी अपनी जिंदादिली से उन्‍होंने दो-तीन साल में बहुत कुछ अर्जित कर लिया था. कुछ बोलने लगे थे और उन पर कार्टून का जुनून सवार था... मैं बनाउंगा, फिर से कार्टून... इतना अदम्‍य विश्‍वास था उन्‍हें... और साबित कर दिया कि वे बेजोड़ हैं। कुछ दिन दैनिक नवज्‍योति में उनके कार्टून छपे थे, जिनमें से एक की याद आज पत्रिका के अभिषेक तिवारी जी ने याद दिलाई। वर्तमान अशोक गहलोत सरकार की नई-नई ताजपोशी हुई थी और मीडिया में सब कह रहे थे कि कर्मचारियों ने इस बार अशोक गहलोत की वापसी में बड़ा काम किया है..लेकिन कुछ ही दिनों में कर्मचारियों के किसी आंदोलन के संबंध में सरकार ने सख्‍ती की थी, उस पर उनके कार्टून का कैप्‍शन था दिल दिया, दर्द लिया। वे एक लाइन में इतनी बड़ी बात कह देते थे, जो कई पेज के लेख में नहीं कही जा सकती। उनके पास फिल्‍मी गीतों की एकाध पंक्ति पर कार्टून बना देने की अद्भुत कला थी। अपनी मौज में खूब पैरोडियां बनाते थे और अपनी अभिनय कला से उसका ऐसा वाचन करते थे कि सुनने वालों के पेट में बल पड़ जायें। धीरे-धीरे प्‍यार को बढना है गीत में वे मुखड़े के तुरंत बाद दो सिंधी शब्‍द डालकर और हद को बंगाली में हौद करके वे अपने अंदाज में गाते थे, धीरे-धीरे प्‍यार को बढाना है, अरे वरी हद से गुजर जाना है.. धीरे-धीरे प्‍यार को बढाना है, अरे सांई हौद से गुजर जाना है. इसी तरह उन्‍होंने कुछ कुछ होता है की पैरोडी बनाई थी। तुम पास आये, हम हिनहिनाए, यूं मुस्‍कुराये, तुमने ना जाने क्‍या सपने दिखाये, अब तो मेरा दिल जागे ना सोता है, क्‍या करूं हाय, कुछ नहीं होता है...
वे रंगमंच के मंजे हुए कलाकार थे और कई धारावाहिकों और फिल्‍मों में भी उन्‍होंने अभिनय किया। उनके पास गजब का विट और ह्यूमर था, जिसे उन्‍होंन खुद के बनाये अजब गजब जैसे दूरदर्शन धारावाहिकों में बखूबी इस्‍तेमाल किया. अपने साथी कलाकारों में वे बेहद लोकप्रिय थे और सभी उन्‍हें बेहद सम्‍मान से देखते थे। बहुत से फिल्‍म कलाकार उनके जिगरी दोस्‍त हैं, जिनमें रघुवीर यादव की बात मुझे इसलिए याद है कि एक शाम मैंने भी दोनों के साथ गुजारी थी।
उनके कार्टून आज भी लोगों की स्‍मृति में जिंदा हैं। मुझे कर्मचारी हड़ताल के दौरान बनाया एक कार्टून याद आता है, जिसमें घर पर खाना खाने के बाद कर्मचारी पत्‍नी से कहता है कि अब लंच हो गया, तुम मेज कुर्सी लगा दो, मैं सोने जा रहा हूं। एक बार आर.एस.एस. का कोई कार्यक्रम था, जिसमें स्‍वयंसेवकों के पास गणवेश ना होने की खबर छपी थी। कार्यक्रम से ऐन पहले उनका कार्टून था, जिसमें पति टांड पर सामान के बीच गणवेश खोज रहा है और पत्‍नी से कह रहा है, कहीं तुमने बर्तनों के बदले में तो नहीं बेच दिया... उनका आम आदमी राजस्‍थानी पगड़ी वाला साधारण किसान-मजदूर था, जिससे दूर-दराज का पाठक भी अपना संबंध बना लेता था। मुझे एक बार किसी मित्र ने बताया था कि उनके निरक्षर दादाजी अखबार से खबरें सुनने के साथ कार्टून भी सुना करते थे।

अभी इतना ही... अगर आपको उनके कार्टून याद आयें तो जरूर बतायें...


Thursday 12 January, 2012

दो नई कविताएं

शुक्रवार की साहित्‍य वार्षिकी-2012 में ये दो नई कविताएं प्रकाशित हुई हैं। मेरे मित्र और पाठक जानते हैं कि इधर मेरी कविताओं का स्‍वर बहुत बदला है और ये कविताएं इसे बताती हैं। कुछ मित्रों ने इन कविताओं को पहले सुना भी है और शायद एकाध ने पढ़ा भी है। आज मैं अपने तमाम दोस्‍तों के नाम ये कविताएं इस उम्‍मीद के साथ प्रस्‍तुत कर रहा हूं कि शायद आप सबको इनसे कुछ कहने को मिले, जो मेरी काव्‍य यात्रा में सहायक हो।


मृत्‍यु और प्रमाण पत्र



एक

वो नहीं रहे
इसका सबूत क्‍या है

मैंने कहा
जैसे वे गए
वसंत भी चला गया
उन्‍होंने कहा
सबूत पेश करो
शरद, शिशिर, हेमंत और वर्षा भी नहीं रहे

हमें सबका मृत्‍यु प्रमाणपत्र चाहिए।

दो

उन्‍हें चाहिए
हर जगह मूल मृत्‍यु प्रमाणपत्र
कोई प्रतिलिपि नहीं चलेगी

बैंक, बीमा, पेंशन, पानी, बिजली, टेलीफोन
नगर पालिका, आवासन मण्‍डल
सभी को चाहिए
मूल मृत्‍यु प्रमाणपत्र

मैं कहना चाहता हूं कि
पहली बार वे तब मरे थे
जब उन्‍हें स्‍कूल में दाखिला नहीं दिया गया था
उनकी जाति के कारण

इस पहली मृत्‍यु के निशान
जीवन भर रहे उनकी आत्‍मा पर

दूसरी बार उनकी मौत तब हुई
जब सबसे अच्‍छे अंकों से
प्रथम श्रेणी में उत्‍तीर्ण होने के बावजूद
उन्‍हें गांव भर में अपमानित किया गया
दूसरी मौत उन्‍हें शहर ले आई
शहर में उन्‍हें धीरे-धीरे मारा गया

सबसे पहले अच्‍छी कॉलोनी में
किराए के मकान से वंचित रखकर मारा गया
दफ्तर में पानी का अलग
मटका रखकर मारा गया
ज्‍यादा काम करने के बावजूद
औरों के हिस्‍से का काम लाद कर मारा गया

उन्‍होंने धार्मिक जुलूस के लिए चंदा नहीं दिया तो
उनकी दराजों-अलमारियों में
अदृश्‍य रंग में डूबे
रुपये रखकर मारा गया

उन्‍हें पदोन्‍नति में
नाकाबिल कहकर मारा गया
बच्‍चों की पढ़ाई
और मकान के लिए
उन्‍हें कर्जे के लिए अपात्र मानकर मारा गया

सेवानिवृति से ऐन पहले
उनके खिलाफ जांच बिठाकर मारा गया
कचहरी में झूठी गवाहियों से मारा गया
घाघ वकीलों की जिरह में
उन्‍हें लांछनों से मारा गया

आए दिन पल-पल की इस मौत से
सुकून दिलाने वाली
उनकी थोड़ी-सी शराब को
गांधीवाद और मद्यनिषेध के नाम पर
महंगी कर-करके उन्‍हें मारा गया 

वे अपनी बमुश्किल सत्‍तर-साला जिंदगी में
दस हजार बार मरे
क्‍या करें हुजूर
इन मौतों का कोई प्रमाण नहीं

यह उनकी आखिरी मौत थी प्राकृतिक
बस इसी का पंजीकरण हुआ है
जिसका दस्‍तावेज है
यह मूल मृत्‍यु प्रमाणपत्र।


अंतिम कुछ भी नहीं होता

कोई दिन नहीं अंतिम
न कोई पल अंतिम
झूठी और भ्रामक हैं
अंतिम की सारी अवधारणाएं
जैसे सृष्टि के अंत की घोषणाएं

किसी के अंत या अंतिम होने की बात
लोभ और लालच की संस्‍कृति में
व्‍यापार की नई कला है
बिक्री और छूट का आखिरी दिन
बचे हुए माल को बेचने का तरीका
आवेदन की अंतिम तिथि
गलाकाट प्रतियोगिता का पैंतरा
कमजोर को बाहर करने का हथियार अंतिम

अंतिम आदमी तमाम सूचियों से बाहर
अन्‍न के आखिरी दाने गोदामों में सड़ते
अंतिम पायदान पर लोग तरसते
पानी की आखिरी बूंद पर कंपनियां काबिज
हर अंतिम सत्‍य को झुठलाती संसद

कौन देता है अंतिम रूप उन नीतियों को
जो पहले से त्रस्‍त लोगों को
धकेलती अंत की ओर
समस्‍याओं का आखिरी समाधान
क्‍यों होता है सिर्फ व्‍हाइट हाउस के पास

दरिद्रता के अंतिम मुहाने पर खड़े
आदिवासियों के पास
कहां से आता है आखिरी हथियार
क्‍यों अपनी ही जनता को
गोलियों से भून देने का
बचा रह जाता है आखिरी उपाय

कहीं नहीं कोई अंतिम सत्‍ता
इस अनंत सृष्टि में
हमने मंगल तक जाकर देख लिया

अंतिम कुछ भी नहीं होता
आखिरी सांस के बारे में
सिर्फ मृतक जानते थे
हमारे पास तो सिर्फ इरादे हैं
इनमें से कोई अंतिम नहीं।