Friday 26 March, 2010

अपने जन्मदिन पर

एक

न जाने कितने बीहड़ों को पार कर आया हूँ मैं
जिसे बचपन में मास्टरजी
कप-प्लेट धोने से ज़्यादा योग्य नहीं समझते थे

कितने ही जन्मदिन आये-गये
ख़याल ही नहीं रहा
कुछ तो सिर्फ़ मजूरी करते हुए काटे
आज भी याद नहीं रहता
घर वाले ही याद दिलाते हैं अक़सर
या कुछ सबसे अच्छे दोस्त


इस जन्म-तारीख़ में कुछ भी तो नहीं उल्लेखनीय
सिवा इसके कि इसी दिन जन्मी थीं महादेवी
और मैं भी करता हूं कविताई

दो

बढ़ती जा रही है बालों मे सफे़दी
कम होते जा रहे हैं आकर्षण
स्मृति से लुप्त होते जा रहे हैं
सहपाठियों के नाम और चेहरे


संघर्ष भरे दिन
आज भी दहला देते हैं दिल
शायद अब न लड़ सकूँ पहले की तरह

तीन

आखि़री नहीं है यह जन्म-दिन
और लड़ाई के लिए है पूरा मैदान


आज के दिन मैं लौटाना चाहता हूँ
एक उदास बच्चे की हँसी


आज के दिन मैं
घूमना चाहता हूँ पूरी पृथ्वी पर
एक निश्शंक मनुष्य की तरह


नियाग्रा फाल्स के कनाडाई छोर से
मैं आवाज़ देना चाहता हूँ अमरीका को कि
सृष्टि के इस अप्रतिम सौन्दर्य को निहारो
हथियारों की राजनीति से बेहतर है
यहाँ की लहरों में भीगना


आज के दिन मैं धरती को
बाँहों में भर लेना चाहता हूँ प्रेमिका की तरह

Tuesday 23 March, 2010

शहीदों के नाम माफ़ीनामा

शहीदो

मैं पूरे देश की ओर से

आपसे क्षमा चाहता हूँ



हमें माफ़ करना

हमारे भीतर आप जैसा

देश प्रेम का जज़्बा नहीं रहा

हमारे लिए देश

रगों में दौड़ने वाला लहू नहीं रहा

अंतराष्ट्रीय सीमाओं से आबद्ध

भूमि का एक टुकड़ा मात्र है देश



हमें माफ़ करना

हम भूल गये हैं

जन-गण-मन और

वंदे मातरम् का फ़र्क

नहीं जानते हम

किसने लिखा था कौनसा गीत

किसके लिए



हमें माफ़ करना

हमारे स्कूल-घर-दफ़्तरों में

आपकी तस्वीरों की जगह

संुदर द्दश्यावलियों

आधुनिक चित्रों और

फ़िल्मी चरित्रों ने ले ली है

हमें माफ़ करना

‘ऐ मेरे वतन के लोगों’ गाते हुए

भले ही रुँध जाता होगा

लता मंगेशकर का गला

हमारी आँखों में तो कम्पन भी नहीं होता



हमें माफ़ करना

हम देशभक्ति के तराने

साल में सिर्फ़ दो बार सुनते हैं



हम पाँव पकड़कर क्षमा चाहतेे हैं

आपने जिन्हें विदेशी आक्रांता कहकर

भगा दिया था सात समुंदरों पार

उन्हीं के आगमन पर हमने

समुद्र से संसद तक

बिछा दिये हैं पलक-पाँवड़े



हमें माफ़ करना

हम परजीवी हो गये हैं

अपने पैरों पर खड़े रहने का

हमारे भीतर माद्दा नहीं रहा

हमारे घुटनों ने चूम ली है ज़मीन

और हाथ उठ गये हैं निराशा में आसमान की ओर



हमें माफ़ करना

आने वाली पीढ़ियों को

हम नहीं बता पायेंगे

बिस्मिल, भगतसिंह, अशफ़ाक़ उल्ला का नाम

हमें माफ़ करना

हमारे इरादे नेक नहीं हैं



हमें माफ़ करना

हम नहीं जानते

हम क्या कर रहे हैं

हमें माफ़ करना

हम यह देश

नहीं सँभाल पा रहे हैं

Sunday 21 March, 2010

विंदा हुए विदा...

भारतीय भाषाओं में ऐसे कवि कम ही हुए हैं, जिन्हे अखिल भारतीय स्तर पर साहित्य और आम जनता के बीच खासी लोकप्रियता हासिल हो। विंदा करंदीकर ऐसे ही विरल रचनाकार थे, जिन्हें मराठी के अलावा हिंदी, अंग्रेजी और समस्त भारतीय भाषाओं में बेहद सम्मान मिला। विंदा के इस आदर की वजह है उनकी अद्भुत पठनीयता। आधुनिक भारतीय कविता में जितने प्रयोग विंदा करंदीकर ने किए, शायद ही किसी अन्य कवि ने किए हों। शब्द, शिल्प, शैली, बिंब, रूपविधान आदि तमाम चीजों को लेकर विंदा करंदीकर अत्यंत प्रयोगधर्मी होते हुए भी पाठक के लिए कभी दुर्बोध नहीं हुए, यह उनकी अद्भुत काव्यमेधा का ही कमाल है। और संभवतः इसके पीछे उनकी रचनाशीलता का वह दुर्लभ पक्ष छिपा है, जिसमें विंदा बाल कविताओं के महान रचनाकार के तौर पर सामने आते हैं। बच्चों के लिए लिखना बेहद मुश्किल होता है और विंदा इस विधा के उस्ताद थे। मानवीय संवेदनाओं से सराबोर विंदा की कविता आधुनिक भारतीय कविता की इसलिए भी अमूल्य धरोहर है कि उनकी कविता में भारतीय समाज, प्रकृति, मिथक, लोक जीवन और प्राणी जगत भी अपनी पूरी अर्थवत्ता और सौंदर्य के साथ नमूदार होता है। मात्रात्मक रूप से कम लेकिन उत्कृष्ट लेखन करने वाले विंदा करंदीकर ने कविता के अलावा आलोचना भी लिखी। उन्होंने अरस्तू के काव्यशास्त्र का मराठी में अनुवाद भी किया। विंदा करंदीकर ने मराठी के अलावा अंग्रेजी में भी कविताएं लिखीं। विंदा के विराट रचनाकार स्वरूप को ज्ञानपीठ, सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार, कबीर सम्मान, साहित्य अकादमी फेलोशिप, केशवसुत पुरस्कार आदि कई विशिष्ट सम्मानों से नवाजा गया। उनका निधन आधुनिक भारतीय कविता के लिए एक युग का समाप्त होना है। हिंदी में चंद्रकांत बांदिवडेकर ने उनकी अधिकांश कविताओं का अनुवाद किया है। मुझे उनकी कविता ‘झपताल’ बेहद पसंद है।

झपताल

पल्लू बाँध कर भोर जागती है...
तभी से झप. झप विचरती रहती हो
...कुर कुर करने वाले पालने में दो अंखियाँ खिलने लगती हैं 
और फिर नन्ही. नन्ही मोदक मुट्ठी से
तुम्हारे स्तनों पर आता है गलफुल्लापन,
सादा पहन कर विचरती हो 
तुम्हारे पोतने से
बूढ़ा चूल्हा फिर से एक बार लाल हो जाता है 
और उसके बाद उगता सूर्य रस्सी पर लटकाए
तीन गंडतरों को सुखाने लगता है
इसीलिए तुम उसे चाहती हो!

बीच. बीच में तुम्हारे पैरों में
मेरे सपने बिल्ली की भाँति चुलबुलाते रहते हैं 
उनकी गर्दनें चुटकी में पकड़ तुम उन्हें दूर करती हो 
फिर भी चिड़िया . कौए के नाम से खिलाये खाने में
बचा .खुचा एकाध निवाला उन्हे भी मिलता है।

तुम घर भर में चक्कर काटती रहती हो
छोटी बड़ी चीजों में तुम्हारी परछाई रेंगती रहती है
...स्वागत के लिए सुहासिनी होती हो
परोसते समय यक्षिणी 
खिलाते समय पक्षिणी
संचय करते समय संहिता
और भविष्य के लिए स्वप्नसती

गृहस्थी की दस फुटी खोली में
दिन की चौबीस मात्राएँ ठीकठाक बिठानेवाली तुम्हारी कीमिया
मुझे अभी तक समझ में नही आई।

Sunday 14 March, 2010

साहसी और प्रतिभावान लेखक: वोले शोयिंका

नाइजीरिया जैसे छोटे से देश को विश्‍व साहित्य में एकमात्र नोबल पुरस्कार दिलाने का श्रेय महान अश्‍वेत कवि, नाटककार और उपन्यासकार वोले शोयिंका को जाता है। शोयिंका पहले अश्‍वेत अफ्रीकी रचनाकार हैं, जिन्हें 1986 में नोबल पुरस्कार मिला। कई बार भारत आ चुके शोयिंका हाल ही में जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में भी आए थे। 13 जुलाई, 1934 को नाइजीरिया की योरूबा जनजाति के एक प्रतिष्ठित परिवार में वोले शोयिंका का जन्म हुआ। इनका परिवार आदिम जनजातीय परंपराओं और मिथकीय ज्ञान को सहेज कर रखने वाला परिवार था। बचपन से ही शोयिंका को अपनी इस पैतृक संपदा को गहराई से जानने-समझने का अवसर मिला, जो आगे चलकर उनके रचनाकर्म का एक विशिष्ट पक्ष बन गया। अश्‍वेत अफ्रीकी जनजातियों में लोकनाट्य, कला और संगीत की समृद्ध परंपरा रही है, जो भारतीय लोक परंपराओं की भांति लोकजीवन में अभिव्यक्ति का प्रमुख माध्यम है। अभिव्यक्ति की इसी परंपरा ने शोयिंका को विशिष्ट बनाया। यही वजह है कि नाइजीरिया में कालेज में पढ़ाई के दौरान शोयिंका ने भ्रष्टाचार विरोधी और न्यायप्रिय छात्रों का एक संगठन बनाया और जनसंघर्ष की राजनीति में कूद पड़े। 1954 में वे उच्च शिक्षा के लिए इंग्लैंड चले गए। लीड्स विश्‍वविद्यालय में शिक्षा प्राप्त करते हुए शोयिंका ने यूरोपीय साहित्य का विशद् अध्ययन किया। इसी बीच उन्होंने दो महत्वपूर्ण नाटक लिखे, ‘द स्वैम्प ड्वैलर्स’ और ‘द लायन एण्ड द ज्वैल’। दोनों ही नाटक लंदन में मंचित हुए और खासे मशहूर हुए। इन नाटकों में खुद शोयिंका नाटककार होने के साथ अभिनेता भी रहे।

शोयिंका के जन्म के समय नाइजीरिया एक ब्रिटिश उपनिवेश था। 1960 में वापसी के वक्त आजादी की फिजा में लौटे और अफ्रीकी नाटकों के अध्ययन में जुट गए। नौजवानों के लिए उन्होंने एक नाट्य संस्था का भी गठन किया और रंगमंच के अलावा, रेडियो, टेलीविजन के लिए भी लिखने लगे। वतन की आजादी को लेकर लिखा गया उनका नाटक ‘ए डांस आफ द फोरेस्ट’ बहुत मकबूल हुआ। 1962 में वे इफे विश्‍वविद्यालय में अंग्रेजी के व्याख्याता नियुक्त हुए और 1965 में लागोस विश्‍वविद्यालय में वरिष्ठ व्याख्याता के रूप में अध्यापन करने लगे। इसी वर्ष एक नाइजीरियाई प्रांत के चुनावों में सरकार की धांधली को लेकर शोयिंका एक रेडियो स्टेशन पर बंदूक लेकर पहुंचे और विजयी नेता के भाषण की जगह अपनी तीखी प्रतिक्रिया प्रसारित की, जिसकी वजह से सरकार ने उस रेडियो स्टेशन को जब्त कर लिया। उन्हें गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया और दो साल बाद रिहा किया गया। 1967 में गृहयुद्ध के दौरान शोयिंका को तानाशाह सरकार ने फिर से एकांत कारावास में डाल दिया, जहां से उन्हें 1969 में रिहाई मिली। जेल में शोयिंका ने टिश्‍यू पेपर पर कविताएं लिखीं। अपने जेल अनुभव उन्होंने ‘द मैन डाइड- प्रिजन नोट्स आफ वोले शोयिंका’ पुस्तक में प्रकाशित किए। वे सिर्फ नाइजीरियाई तानाशाही का ही नहीं, दुनिया की तमाम तानाशाह सरकारों का विरोध करते रहे हैं। इसी कारण उन पर समय-समय पर हमले भी होते रहे हैं। जनरल सानी अबाचा ने तो शोयिंका के लिए मौत का फरमान ही जारी कर दिया था। शोयिंका को मोटर साइकिल पर चोरी छिपे देश छोड़के भागना पड़ा। वे अमेरिका और कई देशों में गए और विश्‍व के नेताओं से मिलकर अपने देश को तानाशाही से मुक्ति दिलाने के लिए विमर्श करते रहे। उनके प्रयासों से ही नाइजीरिया में नागरिक प्रशासन की स्थापना हो सकी। वापसी में जनता ने उनका नायकों की तरह स्वागत किया।

उनकी रचनाओं में 1965 में प्रकाशित उपन्यास ‘द इंटरप्रेटर्स’ अत्यंत महत्वपूर्ण माना जाता है। इस उपन्यास में शोयिंका ने नाइजीरिया के दो शहरों इबाडान और लागोस के क्लबों में मिलने वाले बुद्धिजीवियों का वृतांत लिखा है, जो लगातार इस बात पर अपने-अपने ढंग से विचार करते हैं कि नाइजीरियाई वास्तविकता क्या है?  इस जटिल उपन्यास को विश्‍वसाहित्य में जेम्स जायस और विलियम फाकनर के सृजन के समकक्ष माना जाता है। शोयिंका के नाटकों में अफ्रीकी लोक कला रूपों की प्रचुरता के साथ पश्चिमी व यूरोपीय आधुनिकता का गजब का संगम मिलता है। उनकी कविताओं में आदिम अफ्रीकी लोकविश्‍वास और मनुष्य के अंतर्संबंधों का बेहद खूबसूरत वर्णन मिलता है। उन्होंने पाश्‍चात्य साहित्य के अध्ययन से जो दृष्टि प्राप्त की, उसके माध्यम से उन्होंने अपनी योरूब जनजाति के देवताओं को नए रूप में देखते हुए विलक्षण कविताएं लिखीं। दुनिया भर में चल रहे जनसंघर्षों के प्रबल प्रवक्ता वोले शोयिंका ने नेल्सन मंडेला से लेकर आम आदमी तक के लिए सैंकडों कविताएं लिखी हैं, जिसने दुनिया भर के संघर्षरत लोग प्रेरित होते हैं और उनकी रचनाओं के माध्यम से अपने सतत संघर्षों को धार देते हैं। शोयिंका की कविताओं का एक पूरा संग्रह हिंदी के वरिष्‍ठ कवि वीरेंद्र कुमार बरनवाल ने करीब दो दशक पूर्व किया था, जिसे ज्ञानपीठ ने 'विश्‍व भारती' शृंखला में प्रकाशित किया था।

हिंदी में उनकी कविताओं का काफी अनुवाद हुआ है। वरिष्ठ कवि वीरेंद्र कुमार बरनवाल ने तो एक पूरा संग्रह ही शोयिंका की कविताओं का अनुवाद कर दिया, जिसे भारतीय ज्ञानपीठ ने ‘विष्व भारती’ शृंखला में दो दषक पहले प्रकाषित किया था। वोले शोयिंका आज भी निरंतर लिख रहे हैं, लेकिन संयोग से उनकी गद्य रचनाएं हिंदी में कम ही प्रकाषित हुई हैं।
यह आलेख संपादित रूप में राजस्‍थान पत्रिका के रविवारीय संस्‍करण में 14 मार्च, 2010 को प्रकाशित हुआ।



























Monday 8 March, 2010

मख्मूर साहब के बिना

उर्दू के मशहूर शाइर मख्‍मूर सईदी साहब का पिछले दिनों यानी 2 मार्च, 2010 को जयपुर में निधन हो गया। 31 दिसंबर, 1934 को टोंक में जन्‍मे मख्मूर साहब ने उर्दू शायरी में राजस्थान का परचम इस बुलंदी के साथ फहराया कि इस रेगिस्तानी सरजमीं की तमाम रंगतें उनकी शायरी में नुमायां हो गईं। टोंक के अदबी घराने से आपका शेरी सफर शुरु हुआ और हिंदुस्तान-पाकिस्तान ही नहीं दुनिया के तमाम उर्दू जुबां के मुरीद मुल्कों में अपनी सादाबयानी और दिलकश जज्बात की वजह से नई बुलंदियों पे पहुंचा। उनकी शायरी में उर्दू अदब की क्लासिकल, तरक्कीपसंद और जदीदियत तीनों दौर की शायरी के रंग मिलते हैं। मखमूर साहब हर दौर की शायरी से वाबस्ता रहे लेकिन अपने उपर किसी किस्म का ठप्पा नहीं लगने दिया और हर दौर की बेहतरीन चीजों का वे अपनी शायरी में इस्तेमाल करते हुए अपनी बात जुदा ढंग से कहते रहे। वे उस जदीदियत से दूर रहे जिसमें आम-अवाम के रंजो-गम की बात नहीं होती, लेकिन उनकी जदीद शायरी में कुदरत की खूबसूरती और इंसानियत के तमामतर रंगो-बू भी शामिल है। जब उर्दू शायरी में लोगों ने रूबाई कहना लगभग छोड़ दिया, मख्मूर साहब ने एक मरती हुई विधा को बचाने के लिए रूबाई को नई पहचान दी। वे सिर्फ ग़ज़ल के ही शायर नहीं थे, उन्होंने बड़ी तादाद में बेहतरीन नज्में भी कहीं। उर्दू आलोचना में भी उनका बड़ा योगदान है और उर्दू की साहित्यिक पत्रकारिता में भी उन्होंने नए आयाम स्थापित किए। यूं उनके हजारों शेरों में से सैंकड़ों शेर ऐसे हैं जो लंबे समय तक लोगों की जुबान पर गूंजते रहेंगे, लेकिन मुझे लगता है कि भविष्य में उनका यह शेर आज के दौर को देखते हुए हमेशा मौजूं बना रहेगा,

इतनी दीवारें उठी हैं एक घर के दरमियां
घर कहीं गुम हो गया, दीवारो दर के दरमियां।

यह बहुत दुखद है कि जब मख्मूर साहब अपनी शायरी के उरूज पे थे, जब हिंदुस्तानी उर्दू अदब ने साहित्य एकेडमी और ग़ालिब अवार्ड से उनकी शायरी का एहतराम किया, कुदरत ने उन्हें हमसे छीन लिया। पेश हैं उनकी नायाब शायरी से चुनिंदा शेर-

खेल समझा न तेरे प्यार को हम ने वरना ,
हम कोई खेल जो खेले हैं तो हारे कम हैं.

सबसे झुक कर मिलना अपनी आदत है,
कद अपना हम सबके बराबर रखते हैं.

सिर्फ एक ख्वाब था मैं अपने ज़माने के लिए,
जिस ने पाया है मुझे उस ने गंवाया है मुझे.

अपने ख्वाब पलकों से झटक दो
मुकद्दर खुश्‍क  पत्तों का है शाखों से जुदा होना

अजाब क्या है मखमूर तुम पर यूं रिसे गम है
हवाओं की तो आदत है चरागों से खफा रहना.
हमारे     बाद    की   नस्‍लें    उतारे
सुखन का कर्ज़ जो हम पर रहा है