Sunday 13 November, 2011

प्रेम का अंकशास्‍त्र


नौ ग्रहों में सबसे चमकीले शुक्र जैसी है उसकी आभा
आवाज़ जैसे पंचम में बजती बांसुरी
तीन लोकों में सबसे अलग वह
दूसरा कोई नहीं उसके जैसा

नवचंद्रमा-सी दर्शनीय वह
लुटाती मुझ पर सृष्टि का छठा तत्‍व प्रेम

नौ दिन का करिश्‍मा नहीं वह
शाश्‍वत है हिमशिखरों पर बर्फ की मानिंद

सात महासागरों के जल से निखारा है
कुदरत ने उसका नव्‍यरूप

खत्‍म हो जाएं दुनिया के सातों आश्‍चर्य
वह लाजिमी है मेरे लिए
जिंदगी में सांस की तरह
पृथ्‍वी पर हवा-पानी-धूप की तरह।

Monday 7 November, 2011

कराची में बकरा मण्‍डी

2005 में अपनी पहली पाकिस्‍तान यात्रा के दौरान कराची देखने का अवसर मिला। शहर कराची को लेकर कुछ कविताएं लिखी थीं। उनमें से एक कविता यहां प्रस्‍तुत कर रहा हूं। सब दोस्‍तों को ईद की दिली मुबारकबाद के साथ सबकी सलामती की कामनाओं के साथ।

न जाने कितनी दूर तक चली गई है
यह बल्लियों की बैरीकैडिंग
जैसे किसी वीवीआईपी के आने पर
सड़कें बांध दी जाती हैं हद में

आधी रात के बाद
जब पहली बार इधर से गुज़रे तो लगा
बकरे मिमिया रहे हैं
यहां इस विशाल अंधेरे मैदान में
और बकरीद आने ही वाली है

इस मण्‍डी से कुछ फर्लांग के फासले पर
हाईवे से गुज़रते हुए
कभी नहीं दिखा कोई बकरा
न सुनाई दी उसकी हलाल होती चीख़
एक ख़ामोशी ही बजती थी हवा में
कसाई के छुरे की तरह

एक सुबह मण्‍डी के पास से गुजरते हुए मालूम हुआ
बकरा मण्‍डी सिर्फ बकरों की नहीं
यहां भेड़, गाय, भैंस, ऊंट सब बिकते हैं

बुज़ुर्ग मेज़बान ने
बड़े दुख के साथ कहा,
'चारा नहीं है
मवेशी जिबह किये जा रहे हैं और
चाय के लिए पाउडर दूध इस्‍तेमाल होता है.
मसला यह नहीं कि मवेशी कम हो रहे हैं
मसला यह कि शहर कराची
इंसान और जानवर दोनों की मण्‍डी है।'

Monday 24 October, 2011

रोशनी और अंधेरे की कविताएं

ठीक से याद नहीं आता, लेकिन इन कविताओं को लिखे हुए 15 साल से अधिक हो चुके हैं। उस समय वैचारिक परिपक्‍वता नहीं थी, लेकिन जीवन-जगत को एक कवि की दृष्टि से देखने की कोशिश तो चलती ही रहती थी। उन दिनों ठोस गद्य की कविताएं लिखने का भी एक चलन चला था। अमूर्त विषयों पर भी खूब लिखा जाता था। उसी दौर में अंधरे और रोशनी के बारे में ये दो कविताएं लिखी गई थीं। दीपावली के अवसर पर आप सब मित्रों के लिए ये दो कविताएं प्रस्‍तुत हैं।

रोशनी के बारे में

वह जितनी पलकों के बाहर दिखती है उससे कहीं ज्‍यादा भीतर होती है। भीतर देखने की कोशिश प्रारंभ में एक अंधकार में उतरने की कोशिश होती है और शनै:-शनै: एक इंद्रधनुषी आभा में लिपटी दिखायी देती है रोशनी। प्राय: हम अंधकार से डरकर रोशनी से दूर चले जाते हैं। वस्‍तुत: यह डर अंधकार से अधिक भीतर की रोशनी का होता है।

रोशनी के विषय में बात करने पर अंधकार की चर्चा आ ही जाती है। दरअसल रोशनी नाम ही अंधकार की अनुपस्थिति का है। हालांकि अंधकार प्राय: सब जगह और मौकों पर उपस्थित रहता है यहां तक कि रोशनी की उपस्थिति में भी। यह हमारी ही सीमा है कि हम दोनों की उपस्थिति साथ-साथ देख पाते हैं या नहीं।

रोशनी के रंग भी होते हैं और इन रंगों में अक्‍सर काला रंग भी होता है। काली रोशनी में देखना ध्‍यान की शुरुआत है और उसमें विलीन होना मोक्ष की। मोक्ष भी एक प्रकार की रोशनी ही है।

रोशनी के बारे में इतना ही पता है कि वह अंधकार की बेटी है और पृथ्‍वी ही क्‍या ब्रह्मांड से भी पहले जन्‍म चुकी थी। वह गर्भ में पल रहे शिशु की आंख से लेकर दिग-दिगंत तक व्‍याप्‍त रहती है।

शाम जब हम दिया जलाते हैं और रोशनी को नमन करते हैं तो दरअसल हमारा नमन रोशनी से ज्‍यादा अंधकार के प्रति होता है जो हमें रोशनी की ओर ले जाता है।

अंधेरे के बारे में

रोशनी की अनुपस्थिति में काले रंग का पर्याय वह अपने भीतर समो लेता है कायनात के तमाम रंग। एक मां की तरह वह अपने गर्भ में रखता है अपना शिशु 'प्रकाश'। पूरे ब्रह्मांड में पैदल चलता है वह। जब वह दुलराता है हमें अपने कोमल हाथों से हमारी रगों में दौड़ने लगता है उसका शिशु।

काल के तीनों खंडों में व्‍याप्‍त रहता वह हमें मां के गर्भ से लेकर कब्र तक साथ देता है। उसके प्रति हमारी कृतज्ञता सूरज को शीश नवाने से प्रकट होती है।

व्‍यर्थ ही उससे भयभीत रहते हैं हम। दरअसल वह पैदा नहीं करता भय हमारे भीतर पहले से मौजूद रहता है भय।

अमावस और पूर्णिमा दोनों उसी के पर्व हैं। एक दिन वह चांद को धरती से पीठ लगाकर बच्‍चे को दूध पिलाती मां की तरह गोदी में खिलाता है तो दूसरे दिन मेले में कंधों पर बच्‍चे को बिठाए पिता की तरह चांद को लिए धरती के बीचों-बीच खड़ा हो जाता है।

तारों को सुलाने और सूरज को जगाने की ड्यूटी निभाता हुआ वह पृथ्‍वी के दोनों गोलार्द्धों में अपनी हाजिरी देता है।

Thursday 13 October, 2011

कुछ लोकतंत्र की भी सोचिए


श्रेष्‍ठ विचार और आदर्शों को लेकर चलने वाला एक आंदोलन कैसे दिशाहीनता और दिग्‍भ्रम का शिकार होकर हास्‍यास्‍पद हो जाता है, जनलोकपाल आंदोलन इसका ज्‍वलंत उदाहरण है। एक गैर राजनीतिक आंदोलन अंततोगत्‍वा राजनीति की शरण में जा रहा है या कहें कि अन्‍ना हजारे की साफ सुथरी छवि समय के साथ राजनीति और स्‍वार्थ के यज्ञ में हवन हो रही है और खुद अन्‍ना इसे ठीक करने में असमर्थ महसूस कर रहे हैं। भ्रष्‍टाचार के मसले पर शुरु हुआ अन्‍ना आंदोलन अब जिस दिशा में जा रहा है वह किसी भी रूप में गैर-राजनैतिक या कि जनपक्षधर नहीं है, बल्कि एक खास दिशा में भटकता हुआ यह कथित आंदोलन कुछ वर्चस्‍ववादी समूहों के हाथ में जाकर एक किस्‍म की फासिस्‍ट और अराजक परिणति को प्राप्‍त करने वाला है। जिस तरह अन्‍ना ने बिल पास ना करने की हालत में कांग्रेस को समर्थन देने से लोगों को मना किया है, वह ना तो गांधीवादी है और ना ही लोकतांत्रिक। गांधी जी ने कभी ऐसी शर्तें नहीं रखीं, जैसी अन्‍ना रख रहे हैं।
अन्‍ना हजारे के आंदोलन की हजार कमियां हैं और उनमें सबसे बड़ी कमी यह कि वे जिस देश में आंदोलन चला रहे हैं उसी की सरकार से यह मांग करते हैं कि वह अपने से ऊपर किसी ऐसी व्‍यवस्‍था का निर्माण करे, जिसकी चाबी कुछ लोगों के पास हो। इस देश के लोगों ने आजाद होने के बाद तय किया कि वे एक लोकतांत्रिक व्‍यवस्‍था अमल में लाएंगे। अब अगर कुछ लोग उसके बरक्‍स कोई नई सत्‍ता खड़ी करना चाहते हैं तो बावजूद उनकी तमाम घोषित ईमानदारियों के यह देखना होगा कि वे असल में इस लोकतंत्र को मजबूत करने के नाम पर कैसी व्‍यवस्‍था ईजाद करना चाहते हैं। इसके जो भी संकेत मिल रहे हैं वे बहुत खतरनाक हैं और बहुत दुर्भाग्‍यपूर्ण है कि अधिकांश लोग उन संकेतों को नहीं समझ रहे हैं।
कहने के लिए यह लोकतंत्र को मजबूत करने के लिए चलाया जा रहा आंदोलन है, लेकिन किसी एक सवाल या मुद्दे पर किसी राजनैतिक दल को वोट नहीं देने की अपील ही अलोकतांत्रिक है और इससे साफ संकेत मिलते हैं कि मामला देश में भ्रष्‍टाचार समाप्‍त करने का नहीं, बल्कि सीधे तौर पर एक नए सांकेतिक ढंग से हमारी राजनीति को संचालित करने का है। अब धीरे-धीरे स्‍पष्‍ट होता जा रहा है कि अन्‍ना हजारे के नाम पर भ्रष्‍टाचार समाप्‍त करने की आड़ में कितने किस्‍म के भ्रष्‍ट, अलोकतांत्रिक, अराजक, फासिस्‍ट और इस देश की एकता और अखण्‍डता को तोड़ देने वाले कुकृत्‍य सरअंजाम दिए जा रहे हैं। खुद अन्‍ना ही स्‍वीकार कर रहे हैं कि केजरीवाल और शांतिभूषण का रवैया ठीक नहीं रहा, जिसकी वजह से आंदोलन लंबा चला। और अब तो वैकल्पिक मीडिया में जो तथ्‍य सामने आए हैं उनसे पता चलता है कि पूरे आंदोलन का चरित्र ही अलोकतांत्रिक है और कुछ कार्पोरेट घरानों, राजनैतिक स्‍वार्थों और व्‍यक्तिगत हितों को साधने के लिए पूरे देश की जनता को गुमराह करने वाला रहा है।
इस देश को चलाने वाली शक्ति इस देश की जनता के पास है और वह अपनी शक्ति हर बार चुनाव में अपने प्रतिनिधियों को सौंप देती है। ये चुने हुए जनप्रतिनिधि ही इस तय कर सकते हैं कि जनता की किस समस्‍या का समाधान कैसे करना है। अब अगर जनप्रतिनिधि ही भ्रष्‍ट हों तो ऐसे भ्रष्‍टाचार के खिलाफ कानून बनाना भी जनप्रतिनिधियों का ही काम है और इसमें कोई राजनीति नहीं होनी चाहिए। इसलिए जब अन्‍ना कांग्रेस को वोट नहीं देने की अपील करते हैं तो इसे सीधे-सीधे राजनैतिक प्रतिशोध की भावना कहना चाहिए, क्‍योंकि कांग्रेस सत्‍ता में है और उसने अन्‍ना टीम का लोकपाल बिल पास नहीं किया, इसलिए उसे वोट नहीं दें। लेकिन गुजरात में मोदी सरकार ने लोकायुक्‍त नियुक्‍त नहीं किया तो अन्‍ना टीम ने भाजपा के बारे में कुछ नहीं कहा, मतलब साफ है कि टीम अन्‍ना एक खास किस्‍म की राजनीति कर रही है।
अन्‍ना और उनके साथी जिस तरह के लोकपाल की व्‍यवस्‍था चाहते हैं वह लोकतांत्रिक व्‍यवस्‍था में संभव नहीं, इसीलिए संसद ने सर्वसम्‍मति से लोकपाल गठन के मामले को स्‍थायी समिति के पास भेज दिया है। अब कानून बनाने की प्रक्रिया रेल का टिकट बनाने जितनी सरल और त्‍वरित तो है नहीं कि झट से तैयार। इसलिए इसमें जो समय लग रहा है, उसे लेकर इतनी व्‍यग्रता जो दिखाई जा रही है वह खास राजनीति से प्रेरित है और उसकी दिशा फासीवादी है, लोकतांत्रिक नहीं। इस देश की जनता लोकतंत्र में आस्‍था रखती है, फासीवाद में नहीं।

(यह आलेख डेली न्‍यूज, जयपुर में शनिवार 8 अक्‍टूबर, 2011 को प्रकाशित हुआ।)

Sunday 25 September, 2011

एक कविता बेटी के लिए

आज बेटियों का दिन है। मेरी बड़ी बेटी दृष्टि के जन्‍म पर यह कविता अपने आप फूटी थी, आत्‍मा की गहराइयों से। आज आप सब दोस्‍तों के लिए यह कविता दुनिया की तमाम बेटियों के नाम करता हूं।

दृष्टि तुम्‍हारे स्‍वागत में

दृष्टि
तुम्‍हारे स्‍वागत में
मरुधरा की तपती रेत पर बरस गयी
सावन की पहली बरखा
पेड़-पौधे लताएं लगीं झूमने
हर्ष और उल्‍लास में


बाघनखी* की चौखट छूती
लता भी नहा गयी
प्रेम की इस बरखा में
गुलाब के पौधे पर भी आज खिला
बड़ा लाल सुर्ख़ फूल
उसने भी कर लिया
सावन की पहली बूंदों का आचमन
अनार ने भी पी लिया
मीठा-मीठा पानी
अनार के दानों में
अब रच जाएगी मिठास
और सुर्ख़ होंगे
पीले-गुलाबी दाने

तुम्‍हारे स्‍वागत में बरखा ने
नहला दिया शहर को सावन के पहले छंद से
महका दिया धरती को सौंधी-सौंधी गंध से
मोगरे पी कर मेहामृत
बिखेर दी चारों दिशाओं में
ताज़ा फूलों की मादक गंध

यह महकता मोगरा
यह सौंधती मरुधरा
यह नहाया हुआ शहर
ये दहकने को आतुर अनार
मुस्‍कुराता गुलाब
बढ़ती-फैलती बाघनखी की लता
सब कर रहे हैं तुम्‍हारा स्‍वागत।

*बाघनखी एक खूबसूरत कांटेदार बेल।

Tuesday 20 September, 2011

दादा जी की स्‍मृति में

हम चाहे नास्तिक हों या आस्तिक, पारिवारिक संबंध आपको कभी भी अनास्‍थावान नहीं होने देते, यह कारण है कि नास्तिक लोग शायद आस्तिकों की तुलना में मानवीय और पारिवारिक संबंधों को कहीं ज्‍यादा सम्‍मान देते हैं। मेरे पिता जब आठवीं कक्षा में पढ़ते थे, तभी दादाजी की अकाल मृत्‍यु हो गई थी। मां तीन बरस की उमर में पहले ही छोड़कर जा चुकी थी। घर में और कोई नहीं था, माता-पिता की इकलौती संतान थे पिताजी। कड़ा संघर्ष कर उन्‍होंने अपनी राह बनाई। उनके मुंह से मैंने दादाजी के बारे में सिर्फ किस्‍से सुने हैं कि वे अपने पिता की तरह जीवट वाले थे, अकेले ही जंगली रास्‍तों से पैदल चले जाते थे। दादाजी मेहनत मजदूरी के लिए लाहौर जाते थे, वहीं रहते थे। लेकिन आजादी और बंटवारे के एक साल पहले ही दिल्‍ली आ गए थे। मैं बचपन से दादाजी के किस्‍से सुनते आया हूं। उन पर मैंने दो कविताएं लिखी हैं। एक कविता अपनी बड़ी बेटी को अपने दादाजी के साथ खेलते देखकर लिखी थी और दूसरी अपनी पहली पाकिस्‍तान यात्रा के समय। मैं घोर नास्तिक आदमी हूं लेकिन पितृपक्ष में अपने दादा-दादी को बहुत याद करता हूं।

वाघा सीमा पार करते हुए


पता नहीं पुराणों के देवता ने
तीन डग में समूची धरती
सच में नापी थी या नहीं
लेकिन यहां तो सचमुच
तीन कदम में दुनिया नपती है

पता नहीं दादाजी
किस साधन से आते-जाते थे
यह सरहद बनने से पहले
जिसे मैंने पैदल पार किया है
उनकी मौत के आधी सदी बाद

अगर दादाजी गए होंगे पैदल
तो मेरे कदमों को ठीक वहीं पड़ने दो सरज़मीने हिंद
जहां पुरखों के कदम पड़े थे
दादा के पांव पर पोते का पांव
एक ख्‍वाबीदा हक़ीक़त में ही पड़ने दो
ऐ मेरे वतन की माटी

हक़ीक़त में ना सही
इसी तरह मिलने दो
पोते को दादा से

ऐ आर-पार जाती हवाओ
दुआ करो
आने वाली पीढि़यां
यह सरहद वैसे ही पार करती रहें
जैसे पुरखे करते थे
बिना पासपोर्ट और वीजा के।

दादाजी

न तो घर में उनकी तस्‍वीर है
ना मैंने उन्‍हें देखा
बहुत छोटे थे पिता
जब दादाजी चले गए थे देह छोड़कर

मैं कल्‍पना में बनाता हूं उनकी तस्‍वीर
जो कभी पूरी नहीं होती
उनकी उम्र के किसी बजुर्ग से नहीं मिलती उनकी शक्‍ल
वह शक्‍ल जो मैं देखना चाहता हूं

उनके हाथों खरीदी गयी चीजों को छूकर चाहा मैंने
उन्‍हें अपने भीतर अनुभव करना
लेकिन असंभव था
चीजों से उनकी जीवंत उपस्थिति को अनुभव करना

नक्‍शे में मैंने लाहौर-कराची शहर भी देख डाले
जहां रहे थे दादाजी
दिल्‍ली तो सैंकड़ों बार गया
और गांव भी कई बार
मगर नहीं महसूस कर पाया मैं कि कैसे थे दादाजी

एक बुजुर्ग ने बताया कि
शक्‍ल-सूरत में वे मेरे जैसे थे
और डील-डौल में पिता जैसे
स्‍वभाव भी मेरे जैसा ही बताया
मैं फिर भी नहीं बना सका
अपनी कल्‍पना में दादाजी का चित्र

अपनी बेटी को देखता हूं मैं
पिता के साथ खेलते हुए
और बेटी की जगह खुद को पाता हूं
दादाजी की पीठ पर
घुड़सवार की मुद्रा में।


Monday 12 September, 2011

कुछ नई कविताएं

इधर मेरी कुछ कविताएं लखनऊ से प्रकाशित होने वाले जनसंदेश टाइम्‍स में प्रकाशित हुईं और फिर भाई प्रभात रंजन ने इन्‍हें जानकी पुल पर प्रकाशित किया। ये कविताएं अब आप सबके लिए यहां भी प्रस्‍तुत कर रहा हूं।

देह विमर्श

एक
परिचय सिर्फ इतना कि नाम-पता मालूम
मिलना शायद ही कभी हुआ
बात करना तो दूर का सपना
फिर भी बंध जाते दो प्राणी
एक पवित्र बंधन में

आनंद-उत्‍साह और ठिठोली भरे
कुछ रस्‍मी खेल-तमाशे
थोड़ी-थोड़ी खोलते
अपरिचय की गांठ
अंगुलियों के पोर
दूध भरे बर्तन में
जल्‍दी-जल्‍दी खोजते
कोई सिक्‍का या अंगूठी

हल्‍के-फुल्‍के स्‍पर्श
और मस्‍ती भरी चुहल से बनता एक पुल
जिस पर टहलने निकल पड़ते दो प्राणी
भय और आशंकाओं के साथ
एक लंबी यात्रा पर

गेह बसाने के लिए
मिली थी एक देह
ऐसा बंधा उससे नेह कि
देहयात्रा ही बन गई गेहयात्रा।

दो

कैसे तो कांपते थे हमारे अंग-प्रत्‍यंग
शुरु-शुरु में
एक दूसरे से छू जाने पर
एक बिजली-सी दौड़ जाती थी
जैसे आकाश से धरती के ओर-छोर तक

उन स्‍पर्शों का आदी हुआ
पहले यह शरीर
फिर इस देह की समूची चेतना

हम बेफिक्र हुए
एक दूसरे के आवागमन से
किंचित पराई देह भी
धीरे-धीरे लगने लगी
बिल्‍कुल अपनी जैसी

आंख फड़कना
खुजली चलना
और ऐसे ही ना जाने कितने संकेत
समझने लगी एक देह
पराई देह को लेकर।

तीन

नहीं उस देह में बसे प्राण से
कभी नहीं रहा कोई संबंध कोई नाता
फिर भी हमने गुजार दी
तमाम उम्र उसी के साथ

गोया दो दरख्‍त हों जंगल में
जिन्‍हें कुदरत ने उगा दिया हो साथ-साथ
और इतने पास कि
दूर होना सोचा भी ना जा सके।


फर्क

फर्क आंख का नहीं
फकत देखने का है

मछली की आंख से देखो
सारी दुनिया पानीदार है।

रंगों की कविता

इतना तो हरा कि
एक कैनवस भरा
नीली शस्‍य-श्‍यामला धरती जैसा

ठिठक जाती है नजर
रंगों के पारभासी संसार को देखते हुए
यह सफेद में से निकलता हुआ श्‍यामल है कि
श्‍याम से नमूदार होता उजला सफेद
जैसे जीवन में प्रेम

यह कच्‍चा हरा नई कोंपल-सा
फिर धीरे-धीरे पकता ठोस हरा-भरा
यह आदिम हरा है काई-सा
इस हरियल सतह के
कोमल खुरदुरेपन को छूकर देखो
वनस्‍पति की शिराओं-धमनियों में बहता
एक विरल-तरल संसार है यहां।

पक्षीगान

भोर में सुनता हूं
सांझ की गोधूलि बेला में सुनता हूं
परिंदों का संगीतमय गुंजनगान

सुबह उनकी आवाज में
नहीं होती प्रार्थना जैसी कोई लय
लगता है जैसे समवेत स्‍वर में गा रहे हों
चलो चलो काम पर चलो

संध्‍या समय उनके कलरव में
नहीं होता दिन भर का रोना-धोना
न आने वाले कल की चिंता

सूरज के डूबने से उगने तक
इतने मौन रहते हैं परिंदे
जैसे सूरज को जगाने और सुलाने का
जिम्‍मा उन्‍हीं के पास है।

सच और झूठ

सत की करणी
झूठ का हथौड़ा
चलते साथ थोड़ा-थोड़ा

झूठ की धमक से
हिलती सत की काया
डगमगाकर गिरती
कर्मों के मसाले में

झूठ का वेगवान अंधड़
तहस-नहस कर देता
सारे संतुलनों को
और कहीं सत्‍य पर प्रहार करते
झूठ का हथौड़ा जा गिरता
अनंत अंधकार की देग में

सत की करणी
फिर भी टिकी रहती
एक कारीगर के इंतजार में।

जामुन को देखकर

जामुन को देख खयाल आता है
जामुनी रंग से लबालब लोगों का

क्‍या उन्‍होंने कभी सोचा होगा
कितना जामुनी है उनका रंग
क्‍या जामुन को भी खयाल आता है
अपने जैसे रंग वाले शख्‍स को देखकर कि
अरे यह तो ठीक मेरे जैसा...

जामुन जैसा खास तिक्‍त स्‍वाद
और कहां है सृष्टि में
मेरे जेहन में कौंध जाते हैं
वो खूब गहरे गुलाबी होंठ
और याद आता है उनका जामुनी होना।

वोट

शुरुआती सालों में
मुझे लगता रहा कि
मेरे पास यही
सबसे शक्तिशाली चीज है
मैं चाहूं तो बदल सकता हूं
इस वोट से देश का भविष्‍य

धीरे-धीरे कागज के इस टुकड़े की
कीमत घटने लगी
जैसे घटती है करेंसी नोट की
और फिर मेरे लिए वोट रह गया
महज रद्दी कागज का पुरजा

बाद के बरसों में वह
हल्‍की लंबी बीप में बदलता चला गया
जैसे मैं इस महान गणतंत्र का
साधारण नागरिक
टेक्‍नोलोजी में चीख रहा हूं

ओह मैंने क्‍या किया
अपनी पूरी ताकत लगाकर चीखा भी तो
वह महज बीप निकली
आह जैसे
लोकतंत्र की चीख निकली।

पेंटिंग अर्पणा कौर की है।



Wednesday 31 August, 2011

इशरत के लिए

(एक असमाप्‍त लंबी कविता का पहला ड्राफ्ट )


इस जहां में हो कहां
इशरत जहां


तुम्‍हारा नाम सुन-सुन कर
पक ही गए हैं मेरे कान


आज फिर उस उजड़ी हुई
बगीची के पास से गुज़रा हूं तो
तुम्‍हारी याद के नश्‍तर गहरे चुभने लगे


तुम कैसे भूल सकती हो यह बगीची
यहीं मेरी पीठ पर चढ़कर
तुमने तोड़ी थीं कच्‍ची इमलियां
यहीं तुम्‍हारे साथ खाई थी
बचपन में जंगल जलेबी
माली काका की नज़रों से बचकर
हमने साथ-साथ चुराए थे
कच्‍चे अमरूद और करौंदों के साथ अनार


सुनो इशरत
इस बगिया में अब हमारे वक्‍त के
कुछ बूढ़े दरख्‍त ही बचे हैं
एक तो शायद वह नीम है
जिस पर चढ़ने की कोशिश में
तुम्‍हारे बांए पांव में मोच आ गई थी


लाख कोशिशों के बावजूद
नहीं नष्‍ट हुआ वह जटाजूट बरगद
जिसके विशाल चबूतरे पर जमी रहती थी
मोहल्‍ले भर के नौजवान-बुजुर्गों की महफिल


इसी बरगद की जटाओं पर झूलते हुए
हमने खेला था टार्जन-टार्जन
अब वह छोटा-सा शिवालय नहीं रहा
एक विशाल और भव्‍य मंदिर है यहां
नहीं रहे पुजारी काका
अब तो पीतांबर वर्दीधारी दर्जनों पुजारी हैं यहां
रात-दिन गाडि़यों की रेलपेल में
लगी रहती है भक्‍तों की भीड़
हमारे देखते-देखते वह छोटा-सा शिवालय
बदल गया प्राचीन चमत्‍कारी मंदिर में


बहुत कुछ बदल गया है इशरत
इसी बगीची के दूसरे छोर पर
करीब एक मील आगे चलकर
शिरीष, गुलमोहर, नीम, पीपल और बबूल के
घने दरख्‍तों से घिरी थी ना
सैय्यद बाबा की निर्जन-सी मजार
जहां शाम के वक्‍त आने से डरते थे लोग
कहते थे यहां पहाडि़यों से आते हैं
हिंसक वन्‍य जीव पास के तालाब में पानी पीने
वह छोटी-सी उपेक्षित मजार
तब्‍दील हो गई है दरगाह में
दरख्‍तों की हरियाली वहां अब
हरी ध्‍वजाओं में सिमट गई है

इस तेज़ी से बदलती दुनिया में
हमारे बचपन और स्‍मृतियों के साथ
ना जाने क्‍या-क्‍या छूटता चला गया
मन के एक हरियल कोने में
तुम्‍हारे नाम की चंचल चिडि़या
कूकती रही लगातार


गुज़रे वक्‍त के लिए मेरे पास
कोई ठीक शब्‍द नहीं
पाश की भाषा में कहूं तो यह सब क्‍या
हमारे ही वक्‍तों में होना था?
मज़हब और जाति के नाम पर
राजनीति का एक अंतहीन खूनी खेल
जिससे घायल होती रही
मेरे मन में बैठी
तुम्‍हारे नाम की नन्‍हीं चिडि़या
उसकी मीठी कूक
धीरे-धीरे बदल गई रूदन में


फिर जो गूंजा तुम्‍हारा नाम खबरों में
तो हैरत में पड़ गया था मैं...








Saturday 20 August, 2011

आंदोलन से उठे सवाल


भ्रष्‍टाचार भारत सहित तीसरी दुनिया में खास तौर एशियाई देशों में एक विकराल समस्‍या है, जिससे आबादी का एक बहुत बड़ा हिस्‍सा परेशान है। सभी देशों में इससे निपटने के कानून भी बने हुए हैं, बावजूद इसके भ्रष्‍टाचार रुकने का नाम नहीं ले रहा। भारत में ही देखा जाए तो बैंकिंग और बीमा सहित अनेक सेवा क्षेत्रों में तथा बहुत से राज्‍यों में लोकपाल और लोकायुक्‍त काम कर रहे हैं। इसके साथ ही विभिन्‍न विभागों में सतर्कता अधिकारी भी यही भूमिका निभा रहे हैं। बावजूद इसके आए दिन इन क्षेत्रों में भ्रष्‍टाचार की खबरें आती रहती हैं। इसका अर्थ यह नहीं कि लोकपाल, लोकायुक्‍त या सतर्कता अधिकारी कोई निष्क्रिय संस्‍था है। इन संस्‍थाओं के होने मात्र से आम जनता में यह विश्‍वास गहरा होता है कि इस व्‍यवस्‍था में कार्यपालिका और न्‍यायपालिका के बीच एक जगह है, जहां से न्‍याय मिलने की उम्‍मीद की जा सकती है। मोरारजी देसाई  की अध्‍यक्षता में 1966 में गठित प्रशासनिक सुधार आयोग ने केंद्रीय स्‍तर पर जनलोकपाल और राज्‍य स्‍तर पर लोकायुक्‍त की द्विस्‍तरीय व्‍यवस्‍था के लिए सिफारिश की थी। 1968 से लोकपाल और लोकायुक्‍त के लिए संसद और विधान सभाओं में कई विधेयक पारित हुए हैं। लेकिन केंद्रीय स्‍तर पर जनलोकपाल गठित करने की दिशा में कोई विशेष प्रगति नहीं हुई। वर्तमान में चल रहे अन्‍ना हजारे के आंदोलन में यही मांग है कि देश में केंद्रीय स्‍तर पर जनलोकपाल के रूप में एक ऐसी नियामक संस्‍था गठित कर दी जाए जो जनप्रतिनिधियों द्वारा किए जाने वाले भ्रष्‍टाचार पर भी अंकुश लगा सके। पिछले कुछ सालों से यह लगातार देखने में आया है कि जनता के चुने हुए प्रतिनिधि बड़े पैमाने पर भ्रष्‍टाचार कर बच निकलते हैं। इसी तरह न्‍यायपालिका में भी व्‍यापक भ्रष्‍टाचार फैला हुआ है, जिसे काबू करना वर्तमान परिस्थितियों में बहुत मुश्किल नजर आता है। अगर जनलोकपाल जैसी एक नियामक संस्‍था हो तो जनप्रतिनिधियों और न्‍यायपालिका को कुछ हद तक दुरुस्‍त किया जा सकता है।



लेकिन पहला सवाल यहीं से उठता है कि क्‍या संसद और न्‍यायपालिका के भ्रष्‍टाचार से आम आदमी का कोई लेना देना है जो इतनी बड़ी संख्‍या में लोग अन्‍ना के समर्थन में सड़कों पर आ रहे हैं। दरअसल आम आदमी जिस भ्रष्‍टाचार से परेशान है वह जनलोकपाल से नहीं खत्‍म होने वाला। साधारण नागरिक को शायद ही कभी किसी जनप्रतिनिधि या न्‍यायपालिका के उच्‍च स्‍तर पर बैठे लोगों के भ्रष्‍टाचार का सामना करना पड़ता हो। जनता के पास उस भ्रष्‍ट मशीनरी से लड़ने के लिए पहले से ही बहुत से विकल्‍प लोकतंत्र में मौजूद हैं। लेकिन हमारा समाज बहुधा भीड़ की मानसिकता से चलता है। उसे लगता है कि अन्‍ना के आंदोलन में भाग लेने से राशन वाला भी ठीक किया जा सकता है, इसलिए वह उसके साथ हो लेता है। इसमें कोई शक नहीं कि भ्रष्‍टाचार चाहे जिस स्‍तर पर हो, उसका परिणाम अंतत: आमजन को भोगना होता है। इसलिए उसकी भागीदारी को निरुद्देश्‍य भी नहीं कहा जा सकता। लेकिन जनता के इस व्‍यापक उभार को चलाने वाली शक्तियां और भी हैं, जिनकी तरफ इधर ध्‍यान नहीं दिया जा रहा। सोचिए कि जनलोकपाल के गठन से सर्वाधिक लाभ किसे होगा? देश की सर्वोच्‍च मशीनरी में व्‍याप्‍त भ्रष्‍टाचार से कौन सबसे ज्‍यादा परेशान है? और जब खुद अन्‍ना हजारे कह चुके हैं कि जनलोकपाल के गठन से भ्रष्‍टाचार शत प्रतिशत नहीं साठ प्रतिशत तक कम हो सकेगा। यानी चालीस प्रतिशत भ्रष्‍टाचार तो फिर भी मौजूद रहेगा। इसका सीधा अर्थ हुआ कि सर्वोच्‍च स्‍तर पर व्‍याप्‍त भ्रष्‍टाचार में लिप्‍त लोगों को चालीस फीसदी का फायदा या नुकसान होगा। अब शायद उन लोगों की पहचान आसान हो जाएगी जिन्‍हें इस विधेयक के पारित होने से लाभ होगा।



हाल ही हुए टूजी स्‍पेक्‍ट्रम घोटाले में हम देख चुके हैं कि ए. राजा और उनके साथियों ने सैंकड़ों करोड़ का घोटाला किया। जा‍हिर है जनलोकपाल के गठन के बाद इस घोटाले में साठ फीसद कमी आएगी। यानी जनप्रतिनिधियों को चालीस प्रतिशत कम मिलेगा और यही न्‍यायपालिका के उच्‍च पदों पर पदस्‍थ लोगों के साथ होगा। इस प्रकार देश का एक वर्ग जो अब तक उच्‍च पदों पर व्‍याप्‍त भ्रष्‍टाचार से दुखी है, उसे साठ प्रतिशत का मुनाफा होगा और यह ध्‍यान में रखिए कि ये आम आदमी नहीं हैं। ये लोग ही आम जनता को अपने लाभ के लिए अन्‍ना के आंदोलन के लिए तैयार कर रहे हैं, एसएमएस-ईमेल आदि किए जा रहे हैं।



लेकिन सरकार ने जनलोकपाल बिल का जो मसौदा तैयार किया है वह जनप्रतिनिधियों और न्‍यायपालिका को इसके दायरे से बाहर रखता है। इस तरह सरकार ने जनलोकपाल के नाम पर एक सामान्‍य सी संस्‍था बनाने का इरादा किया है जो महज फोन-इंटरनेट के जरिये होने वाली बातचीत और संदेशों की निगरानी करेगी। जाहिर है सरकार का इरादा ही नहीं है कि न्‍यूजीलैंड और अन्‍य देशों की तरह कोई सर्वोच्‍च लोकपाल का गठन हो। सरकार के नुमाइंदे कतई नहीं चाहते कि कोई उन पर निगरानी करने वाली संस्‍था बने। इसके लिए उनके पास अपने तर्क हैं कि संविधान में संसद और न्‍यायपालिका के पास सर्वोच्‍च अधिकार सुरक्षित हैं और संसद से ऊपर कुछ नहीं हो सकता। लेकिन हमारे संविधाननिर्माताओं ने कभी स्‍वप्‍न में भी कल्‍पना नहीं की होगी कि इस देश में एक दिन ऐसा भी आएगा, जब चुने हुए जनप्रतिनिधियों पर भी लगाम कसने की जरूरत आन पड़ेगी। इसलिए जनता में जो चेतना जाग्रत हुई है वह हमारे देश के लोकतंत्र के लिए बहुत शुभ संकेत है कि वक्‍त आने पर वह उठ खड़ी हो सकती है।



लेकिन इस आंदोलन को सरकारी मशीनरी ने जिस ढंग से निपटाने की कोशिश की है, वह निरंतर सरकार को हास्‍यास्‍पद बनाती गई है। एक बहुमतों के वाली सरकार के पास इससे बेहतर विकल्‍प थे, जिनसे वह आराम से आंदोलन से निपट सकती थी। मसलन सरकार चाहती तो टीम अन्‍ना के साथ मिलकर उनकी भावनाओं के अनुरूप जनलोकपाल बिल का मसौदा तैयार कर सकती थी। जब विधेयक संसद में रखा जाता तो वह बहस के जरिए उसे खारिज या पारित करवा सकती थी, क्‍योंकि उनके पास बहुमत है। अगर विधेयक सरकार की मंशाओं के अनुरूप नहीं भी होता तो राष्‍ट्रपति से भी वापस करवाने का मौका तो सरकार के पास था ही। लेकिन सरकार ने ऐसे विकल्‍पों पर विचार करने के बजाय दमनकारी तरीकों से आंदोलन से निपटने का रास्‍ता अख्तियार किया जो जन आक्रोश का बायस बना। हमारे खबरिया चैनलों को बैठे-बिठाए एक मुद्दा मिल गया और पंद्रह अगस्‍त के दिनों में मध्‍यवर्ग में जागने वाली देशभक्ति की भावना को व्‍यक्‍त करने का अवसर मिल गया।



अब जबकि सरकार और टीम अन्‍ना के बीच अनशन और आंदोलन को लेकर समझौता हो चुका है, यह साफ हो गया है कि जनलोकपाल के नाम पर सरकार अपनी पसंद का विधेयक ही लाएगी और भ्रष्‍टाचार मुक्ति के नाम पर महज लीपापोती की कार्यवाही होगी। जहां तक आंदोलन की बात है, वह भी अब अधिक चलने वाला नहीं है, क्‍योंकि मध्‍यवर्ग के दम पर आप कोई लंबा आंदोलन नहीं चला सकते। हालांकि मध्‍यवर्ग ही है जो इतिहास में क्रांतिकारी भूमिका निभाता आया है, लेकिन तभी जब वह अपने से नीचे के लोगों के आंदोलन में साथ दे। दुर्भाग्‍य से यह आंदोलन मध्‍यवर्ग के बीच ही सिमटा हुआ है, जिसमें वास्‍तविक जन कहीं नहीं है। इसलिए वह आधे दिन के अवकाश, बाजार बंद, रैली, प्रदर्शन, प्रभात फेरी, मोमबत्‍ती जलाना तो सुविधाजनक रूप से कर सकता है, लेकिन गरीब किसान और मजदूर की तरह बेमियादी आंदोलन नहीं कर सकता। बदली हुई परिस्थितियों में मध्‍यवर्ग सांकेतिक आंदोलन से अधिक कुछ भी करने में असमर्थ है, क्‍योंकि उसके पास ना तो समय है और न ही सब कुछ दांव पर लगाने की सामर्थ्‍य।



भ्रष्‍टाचार एक गंभीर चुनौती है लेकिन कानून बना कर इसे खत्‍म नहीं किया जा सकता। जब सड़क पर वाहन चलाने के नियमों का ही पालन नहीं होता तो जनलोकपाल या कोई भी नियामक संस्‍था कैसे भ्रष्‍टाचार खत्‍म करेगी? भ्रष्‍ट या अनैतिक होना अब इस देश में व्‍यक्तिगत तौर पर ही संभव रह गया है। हमारा राष्‍ट्रीय चरित्र ही ऐसा है कि हमारे लिए किसी भी सीमा तक नैतिक पतन एक सामान्‍य बात हो गई है। इतने बड़े घोटाले हो चुके हैं और हो रहे हैं कि सब कुछ सामान्‍य लगता है। राजनीति ने भ्रष्‍टाचार को नैतिक बना दिया है। जो भ्रष्‍ट नहीं है, वही आज अनैतिक या कि मिसफिट है। चुनाव आयोग की तमाम कवायद के बावजूद चुनावों में सिर्फ धनबल या बाहुबल से ही जीतना संभव रह गया है। ऐसे में कोई लोकपाल भी क्‍या कर लेगा? क्‍योंकि जब सरकार ने साफ कर दिया है कि वह अपने से ऊपर कोई नियंत्रक नहीं चाहती तो यह भी साफ है कि भ्रष्‍टाचार के बारे में पूरी गंभीरता से चिंता व्‍यक्‍त करती सरकार को ग़म तो बहुत है मगर अफसोस के साथ। और अफसोस कि इस देश में मध्‍यवर्ग की कथित दूसरी आजादी का स्‍वप्‍न अधूरा है। मध्‍यवर्ग के लिए अफसोस व्‍यक्‍त करने का मुख्‍य कारण यह कि उसे राजधानी में गरीब, मजदूर, आदिवासियों, कर्मचारियों और किसानों के बुनियादी सवालों पर होने वाले धरने या प्रदर्शन से सिर्फ ट्रेफिक जाम की चिंता सताती है और जिस आंदोलन में संघी-भाजपाई कूद पड़ें वह देशभक्ति साबित करने का बायस बन जाता है।

Sunday 24 July, 2011

सतरंगी है सावन


तेरा घर और मेरा जंगल भीगता है साथ साथ
ऐसी बरसातें कि बादल भीगता है साथ साथ
                           *परवीन शाकिर

क्‍या घर, क्‍या जंगल और क्‍या बादल, सावन में तो यूं लगता है जैसे पूरी कायनात भीग रही है। पत्‍ता-पत्‍ता, बूटा-बूटा, रेशा-रेशा, जर्रा-जर्रा जिस वक्‍त भीगता है और हवा में एक मदमस्‍त कर देने वाली खुश्‍बू बिखेर देता है तो धरती और आकाश के बीच अमृत सरीखी पानी की बूंदें नाचने लगती हैं। कुदरत की ताल पर नाचते इन नन्‍हे-नन्‍हे पानी के कतरों पर जब सूर्यदेव की किरणें अपना स्‍नेह लुटाने आती हैं तो इस कायनात के तमाम रंग एक साथ कतार बांधकर खड़े हो जाते हैं सावन के स्‍वागत में। कुदरती रंगों की यह कतार इंसानी आंखों में इंद्रधनुष बन जाती है और एक ऐसे पावन दृश्‍य की रचना करती है कि इंसानी जज्‍बातों का समंदर मचलने लगता है। ऐसे में एक बार फिर परवीन शाकिर का शेर याद आता है:

धनक उतरती नहीं मेरे खून में जब तक
मैं अपने जिस्‍म की नीली रगों से जंग में हूं

धनक माने इंद्रधनुष के सातों रंग जब तक इंसान की जज्‍बाती नसों में नहीं उतरते, वो अपनी नीली नसों से ही लड़ता रहता है। किसे नहीं भाती रंगों की यह अनुपम सौगात, जो हमें यूं तो बारह महीने देखने को मिलती है, लेकिन बारिश में और खासकर सावन में सबसे ज्‍यादा दिखाई देती है। इस कुदरती करिश्‍मे को हमारी सभ्‍यता और संस्‍कृति में इतना पवित्र माना गया है कि हमारे बचपन में इसकी ओर अंगुली उठाना भी पाप माना जाता था और बड़े बुजुर्ग कहते थे कि इंद्रधनुष की ओर अंगुली उठाने से तुम्‍हारी अंगुलियां गल जाएंगी। ऐसी पवित्रता और किन कुदरती चीजों को लेकर है जरा सोचिए।

यूं दुनिया भर में इंद्रधनुष को लेकर कई किस्‍म के धार्मिक विश्‍वास हैं, हम तो इसे वर्षा ऋतु के देवता इंद्र का धनुष मानते हैं, लेकिन बंगाल में इसे भगवान राम का धनुष माना जाता है और इसीलिए इसे रामधनु कहते हैं। अरबी और इस्‍लामिक संस्‍कृति में भी इसे बादल और बारिश के फरिश्‍ते कुज़ह का धनुष मानते हैं।  यूनानी मिथकों में इसे वो रास्‍ता माना जाता है जो देवदूत आइरिस ने धरती और स्‍वर्ग के बीच बनाया था। बारिश से बाढ़ जैसी त्रासदियां भी जुड़ी होती हैं, इसीलिए मेसोपोटामिया के गिलगमेश महाकाव्‍य में इंद्रधनुष को माता इश्‍तर के गले का वो हार कहा गया है जो माता ने इस वचन के साथ आकाश में उठा लिया कि वह उन दिनों को कभी माफ नहीं करेगी, जिन्‍होंने भयानक बाढ़ में उसके बच्‍चों को लील लिया। ईसाई मिथकों में भी इंद्रधनुष को ईश्‍वर का ऐसा ही वचन माना जाता है। एक बात तो स्‍पष्‍ट है कि किसी भी सभ्‍यता और संस्‍कृति में इंद्रधनुष को बुराई के प्रतीक के रूप में नहीं देखा गया और हो भी क्‍यों... कुदरत की इतनी नायाब और सुंदरतम कृति को कोई कैसे बुरा कह सकता है। सही बात तो यह है कि इंद्रधनुष सबसे ज्‍यादा युवा दिलों को सदियों से पसंद आता रहा है और नैसर्गिक प्रेम के प्रतीक के रूप में दुनिया भर की कविता में व्‍यक्‍त होता आया है। सर्वेश्‍वर दयाल सक्‍सेना ने एक प्रेम कविता में लिखा है-

मुझे चूमो / खुला आकाश बना दो
मुझे चूमो / जलभरा मेघ बना दो
मुझे चूमो / शीतल पवन बना दो
मुझे चूमो / दमकता सूर्य बना दो
फिर मेरे अनंत नील को इंद्रधनुष सा लपेट कर
मुझमें विलय हो जाओ।

विज्ञान में सबसे पहले अरस्‍तू ने इसकी व्‍याख्‍या की और उसके बाद पानी की बूंदों और सूरज की किरणों के इस अचरज भरे खेल को लेकर वैज्ञानिकों ने खूब दिमाग दौड़ाए और इसका पूरा खेल खेलकर रख दिया। लेकिन प्रकृति के इस चमत्‍कार को कवि, कलाकार और लेखकों ने रंगों और प्रकाश का खेल नहीं समझा, उनके लिए यह जादुई संसार विज्ञान की व्‍याख्‍याओं से टूटने वाला नहीं था। अंग्रेजी के महान कवि जॉन कीट्स ने महसूस किया कि न्‍यूटन ने इंद्रधनुष को लेकर रची गई तमाम कविताएं नष्‍ट कर डालीं, इसीलिए उन्‍होंने एक विता में लिखा, एक समय था जब स्‍वर्ग में एक दारुण इंद्रधनुष हुआ करता था। उन्‍होंने बड़े दुख के साथ आगे लिखा कि दर्शन और विज्ञान एक दिन तमाम मिथकों को जीत लेंगे और इंद्रधनुष को उधेड़ कर रख देंगे। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ और इंद्रधनुष का जादू साहित्‍य और कला में बरकरार रहा। इसीलिए इसकी शान में परवीन शाकिर ने लिखा,

धनक धनक मेरी पोरों के ख्‍वाब कर देगा
वो लम्‍स मेरे बदन को गुलाब कर देगा

कबा-ए-जिस्‍म के हर तार से गुजरता हुआ
किरन का प्‍यार मुझे आफताब कर देगा

रिचर्ड डॉकिंस ने कीट्स की मान्‍यता के उलट कहा था कि विज्ञान हमेशा ही अपनी प्रकृति से महान कविता को प्रेरित करता है। आप इस अवधारणा को परवीन के इन दो शेरों में बहुत गहराई से पहचान सकते हैं। कुदरत का एक बेमिसाल नजारा कैसे नायाब कविता को संभव बनाता है और कैसे विज्ञान के द्वारा खोले हुए रहस्‍य को एक कवयित्री अपनी कविता में बहुत प्‍यार से एक नई कल्‍पना का रूप देती है। कीट्स के बरक्‍स विलियम वर्ड्सवर्थ कहते हैं-

मेरा दिल उछलता है
जब मैं आकाश में एक इंद्रधनुष निहारता हूं
यही हुआ था जब मैं जन्‍मा था
अब जबकि मैं जवान हो गया हूं
तब भी यही होता है
जब मैं बूढा हो जाउंगा या मर जाउंगा
तब भी यही होगा
शिशु पिता है पुरुष का
और मैं कामना करता हूं कि
आने वाले मेरे तमाम दिन
नैसर्गि‍क पवित्रता से बंधे रहें।

दुनिया में जहां भी सामाजिक और सांस्‍कृतिक विविधता है, वहां उस वैविध्‍य को सुंदरतम रूप देने के लिए इंद्रधनुष की ही उपमा दी जाती है। हमारे देश में जो विराट सांस्‍कृतिक वैभव और विविधता है, उसे इंद्रधनुषी सांस्‍कृतिक छटा इसीलिए कहते हैं। दक्षिण अफ्रीका में हमारी तरह ही रंग-बिरंगा सांस्‍कृतिक संसार है, इसलिए वहां की पूरी संस्‍कृति को ही रेनबो कल्‍चर कहते हैं। इस तरह दुनिया में इंद्रधनुष एक ऐसे अकेले प्रतीक के रूप में सामने आता है जो विविधताओं के बावजूद एकता, सहअस्तित्‍व और सहजीवन को दर्शाता है। इस दुनिया में जितने धार्मिक विश्‍वास हैं, सांस्‍कृतिक मान्‍यताएं हैं और जितनी भी किस्‍म की विविधताएं हैं, वे सब हमें इंद्रधनुषी आभा में लिपटी इस प्रकृति की सबसे शानदार विरासत लगती हैं। यह विरासत हमें एक ऐसी दुनिया रचने-बसाने की प्रेरणा देती है जिसमें सारी असहमतियों और विभिन्‍नताओं के बावजूद हम एक साथ रह सकते हैं, क्‍योंकि इसी में वह कुदरती खूबसूरती है, जो धरती पर इंद्रधनुष रचती है। कितनी खूबसूरत कल्‍पना है कि इंद्रधनुष के सात रंगों में इस धरती के समस्‍त धर्म एक कतार में यूं झुककर धनुषबद्ध हो जाते हैं जैसे पृथ्‍वी को सिजदा कर रहे हों। इस जमीन पर ऐसे इंद्रधनुष रचने की जरूरत है, जो इंसान को इंसान से जोड़ें, जो भय से दुनिया को मुक्‍त करे। हमें वो इंद्रधनुष चाहिएं, जिनके रंगों में हम अपने आसपास की दुख और दारिद्र्य भरी दुनिया को खूबसूरत लिबासों में सजा सकें और उन्‍हें आसमानों की बुलंदियों पर इंद्रधनुष की तरह देख सकें। हमें विज्ञान की वह प्रकाशभरी दुनिया चाहिए जो कुदरत के इंद्रधनुषी रहस्‍यों को खोलती हुई इंसान को अज्ञान के सनातन अंधकार से बाहर निकाल कर इंद्रधनुष दिखाए। यूनानी मिथक में जो रास्‍ता देवदूत स्‍वर्ग से धरती के बीच बनाता है, वह रास्‍ता हमें जमीन पर स्‍वर्ग उतारने का बनाना है, जिसका प्रतीक है इंद्रधनुष। बादलों का जो फरिश्‍ता है, देवता है वह इस धरती पर हमारे खेत-खलिहानों को बारिश से इस कदर पूर दे कि कोई भूखा ना रहे और इंद्रधनुष को आधी रोटी का रंगीन टुकड़ा ना समझे। हमें इश्‍तर माता का वो हार जमीन पर लाना है जो देवी मां ने सैलाब में तबाह हुई संतानों के दुख में आकाश में उठा लिया। हमें बाढ़ में नहीं बारिश में इंद्रधनुष चाहिएं। मन को हर्षित करने वाली वह बारिश जो किसी का घर नहीं उजाड़े और देवताओं को किसी वचन की तरह अपनी संततियों को बचाने के लिए आसमान में इंद्रधनुष नहीं टांगना पड़े। हमें सिर्फ बारिश में नहीं हर मौसम में इंद्रधनुष चाहिएं। हम एक ऐसे बाग की कल्‍पना करते हैं जहां इस धरती के तमाम बाशिंदें बेखौफ तफरीह करने के लिए आएं और जब बारिश की फुहारें आसमानी अमृत बरसाने लगें तो हर कोई परवीन शाकिर की तरह गाता चले-

चिडि़या पूरी भीग चुकी है
और दरख्‍त भी पत्‍ता पत्‍ता टपक रहा है
घोसला कब का बिखर चुका है
चिडिया फिर भी चहक रही है
अंग अंग से बोल रही है
इस मौसम में भीगते रहना
कितना अच्‍छा लगता है।

और ऐसे मौसम में इंद्रधनुष को देखना भी कितना अच्‍छा लगता है।

(यह आलेख डेली न्‍यूज, जयपुर के रविवारीय परिशिष्‍ट हम लोग की टॉप स्‍टोरी के रूप में 24 जुलाई, 2011 को प्रकाशित हुआ।)
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