Thursday 27 September, 2012

नास्तिकों की भाषा : काव्‍य शृंखला

हिंदुस्‍तान के सबसे बड़े और महानतम नास्तिक अमर शहीद भगत सिंह को समर्पित हैं ये कविताएं। भगत सिंह जो हमें हर समय मनुष्‍य की अपराजेय कर्मशीलता की याद दिलाते रहते हैं। मुझे तो हर मुश्किल में भगत सिंह का रास्‍ता ही दिशा दिखाता है। उसी महान प्रेरक को लाल सलाम कहते हुए प्रस्‍तुत हैं ये कविताएं। 


एक
हमारी भाषा में बहुत कम हैं
सांत्वना के शब्द
किसी भी दिवंगत के परिजनों को
हम सिर्फ मौन से ही बंधाते हैं ढाढ़स
शोकसभा के मौनकाल में हम
नहीं बुदबुदाते किसी र्इश्वर का नाम।

दो

बहुधा कम पड़ जाते हैं हमारे तर्क
एक सामान्य आस्थावान व्यकित के सामने
यह हमारी भाषा की लाचारी है


तीन

दुनिया की तमाम
ताकतवर चीजों से
लड़ती आर्इ है हमारी भाषा
जैसे हिंसक पशुओं से जंगलों में
शताब्दियों से कुलांचे भर-भर कर
जिंदा बचते आए हैं
शक्तिशाली हिरणों के वंशज

खून से लथपथ होकर भी
हार नहीं मानी जिस भाषा ने
जिसने नहीं डाले हथियार
किसी अंतिम सत्ता के सामने
हम उसी भाषा में गाते हैं

हम उस जुबान के गायक हैं
जो इंसान और कायनात की जुगलबंदी में
हर वक्त
हवा-सी सरपट दौड़ी जाती है।

चार

प्रार्थना जैसा कोर्इ शब्द
हमारी भाषा में नहीं समा सका
मौन ही हमारा ध्येय वाक्य रहा

दुनिया की सबसे सरल सभ्यताओं की तरह
हमारे पास भी थे सबसे कम शब्द
मनुष्य को किसी का दास बनाने के लिए ही
र्इजाद की जाती है लंबी-चौड़ी शब्दावली
हमने दासता से मुक्ति की राह चुनी
जहां कुछ ही शब्दों की ज़रूरत थी
जैसे 'संघर्ष।

पांच

सबसे बुरे दिनों में भी
नहीं लड़खड़ार्इ हमारी जुबान

विशाल पर्वतमाला हो या
चौड़े पाट वाली नदियां
रेत का समंदर हो या
पानी का महासागर

किसी को पार करते हुए
हमने नहीं बुदबुदाया
किसी अलौकिक सत्ता का नाम

पीढि़यों से जानते हैं हम
जैसे पृथ्वी के दूसरे जीव
पार कर लेते हैं प्राकृतिक बाधाएं
बिना किसी र्इश्वर को याद किए
मनुष्य भी कर लेगा।

छह
नहीं हमने कभी नहीं कहा कि
मर गया है र्इश्वर

जो जन्मा ही नहीं
उसे मरा हुआ कैसे मान लें हम

हमारी भाषा में नहीं थीं
अंत, पराभव, मृत्यु और पतन की कामनाएं
हमने नहीं की ऐसी घोषणाएं

हमारे पास हमेशा ही रहा
मनुष्य का जयगान

सात
बहुत छोटा है हमारा शब्दकोश
उतनी ही कम है हमारी आबादी
बावजूद इसके हम निराश नहीं होते
आस्तिकों को ही सताती है निराशा
हमारी भाषा में सबसे बड़ा शब्द है उम्मीद
जैसे रेगिस्तान में बारिश।

आठ
हमेशा ही देखा गया हमें
शक की निगाहों से
यूं कहने को निर्भय लोगों को
कहा जाता है वीर और बहादुर
लेकिन हम नहीं नवाजे गए

हमारे लिए
दुनिया ने सिर्फ इतना कहा
जिन्हें न र्इश्वर का भय है
न धर्म की चिंता
उन पर कैसे किया जा सकता है विश्वास
इन पर ऐतबार करने का मतलब है
नरक कुण्ड में जाना
जबकि हमारे यहां नहीं था
नरक जैसा कोर्इ शब्द
हम स्वर्ग को कथा-किंवदंतियों से बाहर लाकर
यथार्थ में रचना चाहते थे
बिना चमत्कार और अंतिम सत्ता के।

नौ

झूठ जैसा शब्द
नहीं है हमारे पास
सहस्रों दिशाएं हैं
सत्य की राह में जाने वाली
सारी की सारी शुभ
अपशकुन जैसी कोर्इ धारणा
नहीं रही हमारे यहां
अशुभ और अपशकुन तो हमें माना गया।

दस

हमने नहीं किया अपना प्रचार
बस खामोश रहे
इसीलिए गैलीलियो और कॉपरनिकस की तरह
मारे जाते रहे हैं सदा ही

हमने नहीं दिए उपदेश
नहीं जमा की भक्तों की भीड़
क्योंकि हमारे पास नहीं है
धार्मिक नौटंकी वाली शब्दावली।

ग्यारह

क्या मिश्र क्या यूनान
क्या फारस क्या चीन
क्या भारत क्या माया
क्या अरब क्या अफ्रीका

सहस्रों बरसों में सब जगह
मर गए हजारों देवता सैंकड़ों धर्म
नहीं रहा कोर्इ नामलेवा

हमारे पास नहीं है
मजहब और देवता जैसे लफ्ज
इसीलिए बचे हुए हैं हम और हमारी जुबान।

बारह

याचना और प्रार्थना के गीत
नहीं संभव हमारे यहां
हम नहीं रच सकते
जीवन से विरक्ति के गीत

इसलिए हमारे कवियों ने रचे
उत्कट और उद्दाम आकांक्षाओं के गीत
जैसे सृष्टि ने रचा
समुद्र का अट्टहास
हवा का संगीत।

तेरह

भले ही नहीं हों हमारे पास
पूजा और प्रार्थना जैसे शब्द
इनकी जगह हमने रखे
प्रेम और सम्मान जैसे शब्द

इस सृष्टि में
पृथ्वी और मनुष्य को बचाने के लिए
बहुत जरूरी हैं ये दो शब्द।

चौदह

हमें कभी जरूरत नहीं हुर्इ
दूसरी जुबानों से शब्द उधार लेने की
औरों ने हमारे ही शब्दों से बना लिए
नए-नए शब्द और पद

दुनिया की सबसे छोटी और पुरानी
हमारी भाषा
और क्या दे सकती थी इस दुनिया को
सिवाय कुछ शब्दों के
जैसे सत्य, मानवता और परिवर्तन।

पंद्रह

दुनिया में सबसे सरल है हमारी भाषा
एक निरक्षर भी कर सकता है
इसके पूरे शब्दकोश का अनुवाद
जिंदगी से जुड़ी हो जो जुबान
उसे कहां जरूरत है अनुवाद की

सोलह

मछली को शार्क से
परिंदे को बाज से
हिरण को बाघ से
और इंसान को लालच से
बचाने वाली हमारी भाषा
सृष्टि के अंत तक बची रहेगी।



इस काव्‍य शृंखला के कुछ अंश सबसे पहले 'कथन' त्रैमासिक में प्रकाशित हुए थे। इसके बाद 'समालोचन' पर भी इसके कुछ अंश प्रकाशित हुए। अब यह पूरी शृंखला यहां प्रस्‍तुत है।