राजस्थान में साहित्यकार दंपतियों में रांगेय राघव और सुलोचना रांगेय राघव के बाद शरद देवड़ा और पुष्पा देवड़ा का नाम बहुत सम्मान के साथ लिया जाता है। आज हम पुष्पा देवड़ा की एक कहानी और उनके बारे में चर्चा करेंगे। स्व. शरद देवड़ा जैसे महान साहित्यकार की जीवनसंगिनी पुष्पा जी का जन्म पश्चिमी बंगाल के रानीगंज कस्बे में 13 जनवरी, 1945 को हुआ। कोलकाता में उन्होंने शिक्षा प्राप्त की और देवड़ा जी के साथ परिणय सूत्र में बंध जाने से बचपन का साहित्य प्रेम परवान चढ़ने लगा। बांग्ला और हिंदी दोनों भाषाओं पर उनका असाधारण अधिकार है। बहुत कम लोगों को जानकारी है कि विमल मित्र को हिंदी में लाने का श्रेय ही पुष्पा जी को है। आपने विमल मित्र, ताराशंकर वंद्योपाद्याय और अनेक महत्वपूर्ण बांग्ला लेखकों की रचनाओं का हिंदी में अनुवाद किया। लगभग बीस उपन्यास और सैंकड़ों कहानियों को बांग्ला से आप हिंदी में लेकर आईं। अनुवाद और परिवार की व्यस्तता के चलते मौलिक लेखन काफी देर से प्रारंभ हुआ, इसलिए हिंदी में उनकी कहानियों का पहला संग्रह सोनाली गाथा तथा अन्य कहानियां 2005 में प्रकाशित हुआ। इन दिनों वे दांपत्य संबंधों पर एक उपन्यास और शरद देवड़ा के जीवन पर एक किताब लिख रही हैं। उनके कथा संसार में आपको दांपत्य जीवन के विविध दृश्य देखने को मिलते हैं। नारी मन को पुष्पा जी बहुत गहराई से भेदते हुए अत्यंत मर्मस्पर्शी प्रसंग निकालकर लाती हैं और पाठकों के मन में दर्द का एक गहरा अहसास पैबस्त कर देती हैं। किस प्रकार पुरुष स्त्री को छलता है और किस प्रकार वे छली जाती हैं, क्यों दांपत्य में जरा-सी बात से भयानक तनाव पैदा हो जाता है, इसे पुष्पाजी से बेहतर और कौन बयान कर सकता है। इसी को प्रमाणित करती हुई कहानी ‘सजा-यात्रा का सार-संक्षेप प्रस्तुत है।
मैं अपने पात्रों के साथ दिमागी उधेड़बुन में लगी थी कि सड़क से बढे़ आते हुए उस अजीबोगरीब शख्स की शक्ल उभरने लगी। टोपी, कमीज, धोती और अकड़ी हुई गर्दन में सोने की चेन, हाथों में बैग और पांवों में रबड़ के जूते। कल ही इनके बारे में जब पता चला तो इनकी अजीब शख्सियत का अहसास हुआ। इनसे ध्यान हटा तो उपर से आने वाले हंसी-ठट्ठे में अटक गया, रोज की तरह, कल भी तो ऐसा ही हुआ था।
हमारे उपर वाले फलैट की मिसेज मित्तल ही खुद परिचय करने आईं। मेरा तो खुद आगे बढकर बात करने में संकोच होता है। उन्होंने सिलसिला हमारी बेटी से शुरु किया जो दूसरी कक्षा में पढती है। यहां आने के दूसरे दिन ठेले वाले से सब्जी खरीदने मैं भी पहुंची बेटी के साथ। वो अनुराग से बेटी के बहाने बतियाने लगीं। वापसी में मेरे कहने पर वे हमारे यहां आईं। पता चला वे जौहरी परिवार से हैं। मेरे बारे में खुद ही कहने लगीं कि आपके बारे में सुना कि आप तो पति-पत्नी लेखक हैं, तभी सोच लिया कि आपसे दोस्ती करूंगी। वो हर प्रकार के सहयोग का वादा कर चली गईं तो बड़ी देर तो मैं उनके हंसमुख स्वभाव के बारे में सोचने लगी। मेरा लेखक मन और जानने के लिए व्याकुल हो उठा।
दूसरे दिन शाम जब मैं लिखने में और बेटी होमवर्क में लगी थी तो उपर से उन्होंने आवाज लगा हमें बुला लिया। जाने पर पता चला कि उनके खुशमिजाज बेटे-बेटी भी घर पर हैं। दोनों कालेज में पढ रहें हैं। घर के भीतर का जायजा लेने पर लगा ही नहीं कि ये जौहरी परिवार से हैं। सब कुछ अत्यंत साधारण। शोख बेटी, चंचल बेटा और हंसमुख मां से बातों के बीच चाय-नाश्ते में पता ही नहीं चला कैसे वक्त गुजर गया। एक गरजदार आवाज में जब दरवाजे पर खोलो शब्द गूंजा तो घर से अचानक हंसी गायब हुई और गंभीरता छा गई। बेटे ने कहा, बाउजी आ गए। प्रतिक्रिया में मैं भी अपने घर चल पड़ी। तभी इन महाशय पर एक नजर गई जो अभी सड़क से आ रहे हैं। घर तक आते हुए कई प्रश्न मेरे दिलोदिमाग में उमड़ते रहे। दो दिन गुजर गए। लेकिन आज उसी वक्त देखा कि बेटी ने जैसे ही घण्टी की आवाज सुन दरवाजा खोला मिसेज मित्तल और उनके बेटा-बेटी खड़े थे। बेटे पुनीत ने कहा कि हम पान खाने आए हैं। और इस तरह हमारी निकटता बढती गई।
एक दिन शाम छह बजे उन्होंने फिर बला लिया। आज वो बेहद उदास लग रही थीं। मैं बालकनी में उनके पास बैठी थी। मैंने पूछा बच्चे कहां गए, पता चला दोस्तों के यहां पढने गए हैं। इसके बाद तो उनका दुखों का बांध टूट पड़ा। कहने लगीं कि बहन मैंने तो अपनी नियति से समझौता कर लिया है, लेकिन बच्चे बड़े हो गए हैं। इनकी उपेक्षा और डांटडपट बर्दाश्त नहीं होती। बेटा तो इनकी सुनता नहीं, पर बेटी क्या करे। सुबह बेटा कालेज जा रहा था कि इन्होंने अपने साथ आफिस चलने के लिए कहा। बेटे ने कहा दो पीरियड बाद आ जाउंगा तो बिफर गए, कहने लगे, कौनसी नौकरी करनी है। लड़का भी बिफर गया और बोला, अब तो सीधे घर आउंगा और कहीं नहीं। इस पर वे और बिगड़ गए और लड़के को घर से निकल जाने के लिए कह दिया। मैं दोनों के बीच आ गई और कह दिया कि अगर ये घर से जाएगा तो मैं भी इसके साथ जाउंगी। इस पर कहने लगे, तुम मेरे पीछे आई हो या इसके, और गुस्से में ये बिना कुछ खाए घर से निकल गए। उदासी उनके चेहरे पर मुर्दनी की तरह छा गई थी। कुछ देर चुप रहने के बाद उन्होंने अपने दर्द की परतें एक-एक कर खोल दीं।
मिसेज मित्तल ने कहा कि मैं अपने मां-बाप की इकलौती संतान हूं। विवाह के बाद अकेले पड़ गए हैं दोनों। वे चाहते हैं कि बेटा उनके साथ रहे और पढाई के साथ उनके हीरे-जवाहरात के कारोबार को भी संभाल ले। अगर मैं इसे वहां भेज दूं तो मेरा मन कैसे लगे, कभी सोचती हूं कि भेज ही दूं, जिंदगी तो संवर जाएगी। मैंने पूछा कि भाई साहब ऐसा क्यों करते हैं। कहने लगीं कि वे खुद को मालिक समझते हैं और यह भी कि हम सब उन पर आश्रित हैं। मुझे तो शुरु के कुछ सालों के अलावा इनका यही व्यवहार लगा है। और किसी पर तो इनकी हुकूमत चलती नहीं इसलिए सारा गुस्सा घर वालों पर निकालते हैं। आप ही बताइये कहां तक सहन करें, मैं पूरब चलूं तो ये पश्चिम चलेंगे। घर में डबल बैड की बात करो तो कहेंगे, जमीन पर सोना अच्छा लगता है। फ्रिज आने से बासी सब्जियां खाने को मिलेंगी, ट्यूबलाइट की रोशनी नहीं सुहाती। घर की सामान्य सुविधा की चीजें भी इन्हें इसलिए बुरी लगती हैं कि कहीं इन्कम टैक्स वालों को पता नहीं चल जाए। मुझसे रहा नहीं गया, डरते-डरते पूछ ही लिया, ऐसे में आपके निजी संबंध मेरा मतलब दैहिक संबंध। कहने लगीं कि इनके साथ तो मुझे अपनी हालत बाजारू औरत से भी गई गुजरी लगती है। उसकी कम से कम पैसे के लिए ही सही अपनी मरजी तो शामिल रहती है। समृद्ध परिवार की मिसेज मित्तल की जिंदगी के अंदरूनी कलह, दुख, क्रोध और घृणा के साथ उनकी बेबसी से मेरा मन अवसाद से भर गया। कैसे उनका दुख बटाउं, सामने सड़क पर मेरे पति आते दिखे तो मैं उनसे इजाजत ले घर आ गई।
मैं मिसेज मित्तल के बारे में गहराई से सोचने लगी। क्या सिर्फ कुसूर मित्तल साहब का ही है, क्या इसमें मिसेज मित्तल का कोई दोष नहीं, क्या वो किसी भी प्रकार से इन सब चीजों से निजात नहीं पा सकती थीं, उनकी त्रासदी मेरे मन को मथती रही और कोई समाधान नजर नहीं आया। इस बीच मेरे पति का दिल्ली तबादला हो गया और हम दिल्ली चले गए। फिर पांच साल तक जयुपर आना ही नहीं हुआ।
पांच साल बाद जब हम गाड़ी से जयपुर आ रह थे तो मुझे मिसेज मित्तल की याद सताने लगी। पता नहीं वो अब किस हाल में होंगी, उस बिल्डिंग के पास से गुजरते हुए मैंने देखा कि बालकनी में कोई चेहरा नहीं नजर आया। दूसरे दिन पतिदेव को किसी काम से जाना था, तो मैंने कहा कि मुझे मिसेज मित्तल से मिलना है आप मुझे वहां छोड़ दीजिएगा और वापसी में ले लेना।
दोपहर के तीन बजे मैं मिसेज मित्तल के बारे में सोचती हुई उनके दरवाजे पर पहुंची और कालबेल बजाई। दरवाजा खुलने पर उदास और निढाल मिसेज मित्तल दिखाई दीं। मेरे नमस्कार पर जबरन मुस्कुराने की कोशिश करती हुईं बोलीं, अरे इतने साल बाद अचानक कहां से प्रकट हो गईं, फिर हमारी बातों का सिलसिला चल पड़ा। उनमें कोई बदलाव नहीं आया था। घर की हालत अब भी वैसी ही थी। मैंने पूछा कि आपकी यह हालत कैसे हुई, घर में कोई नहीं है क्या, कहने लगीं कि बेटा तंग आकर आखिरकार मुंबई चला गया, बेटी की शादी हो गई। मित्तल साहब दो साल से सर्वाइकल स्पोंडेलाइटिस से पीड़ित होकर घर में ही रहते हैं। बिजनेस खत्म हो गया, अब हुंडियों का कारोबार करते हैं। पूरे दिन बही खातों में घुसे रहते हैं। ना कोई दवा लेते हैं और ना ही एक्सरसाइज करते हैं। पहले से ज्यादा तुनकमिजाज हो गए हैं। अब इनके कारण घर छोड़कर कहीं जा भी नहीं सकती। ये घर मेरी कैद बन गया है।
मैंने पूछा कि दिन कैसे कटता होगा। बोलीं, खाना बनाकर इन्हें खिलाने के बाद इस खिड़की पर आकर बैठ जाती हूं। राह चलते लोगों को देखना, किताब, पत्रिकाएं पढना या पुराने एलबमों में तस्वीरें देखना, बस यही रह गया है। वो चाय के लिए उठने लगी तो मैंने ही मना कर दिया। इतनी देर में भी मित्तल साहब की मौजूदगी का अहसास नहीं हुआ तो पूछा कि क्या वो सो रहे हैं। दिन में क्या हमे तो रात में भी सोने के लिए गोलियां लेनी पड़ती हैं। मैंने पूछा कि क्या आपस में एक दूसरे की तकलीफ को लेकर बात भी नहीं करते, कहने लगीं, जिस आदमी को मेरी मानसिक तकलीफ का कभी खयाल नहीं आता वो शारीरिक तकलीफ के बारे में क्या पूछेगा, उसी वक्त मुझे नीचे गाड़ी का हार्न सुनाई दिया, ये मुझे लेने आ गए थे।
जाते वक्त मेरी नजर मिसेज मित्तल की खिड़की पर ही टिकी रहीं। जाली के पीछे वह छाया सी दिख रही थीं। मेरा मन गहरी उदासी से भर गया। इस नारी की सजा यात्रा कहां खत्म होगी, पत्नीत्व, मातृत्व कोई सुख नहीं। एक ही छत के नीचे तलाकशुदा जैसा जीवन। आखिर इसका कसूर क्या है।
कहानी अंश
वे क्षुब्ध स्वर में बोलीं, जिस तरह की जिंदगी मैं जी रही हूं, उसमें किसी भी तरह के संबंध में मेरी भागीदारी की तो गुंजाइश ही कहां है, उस वक्त मुझे अपनी स्थिति बाजारू औरत से भी गई गुजरी लगती है। उसमें उसकी मरजी तो शामिल रहती है, चाहे पैसे के लिए ही हो। मगर मैं, मुझे तो हर वक्त इनके साथ दो ध्रुवों की सी मानसिकता में जीना पड़ता है, लेकिन रात में सोते समय जब मरजी हो पति नाम का यह जीव मुझे अपनी लपेट में ले लेता है।
...
पुरुष द्वारा क्रिएट दर्दनाक परिस्थितियों को झेलती इस नारी की सजा यात्रा आखिर कहां जाकर खत्म होगी। उनकी दयनीय हालत और दर्दनाक परिस्थितियां मेरे संवेदनशील मन को यह सोवने पर विवश कर रही थीं कि क्या नारी जीवन इतनी बड़ी यातना भी हो सकता है, न पत्नीत्व का सुख है, ना मातृत्व की तुष्टि। उम्र के इस पड़ाव पर घर की रानी होने का गौरव महसूस करने की बजाय पति के साथ एक ही छत के नीचे तलाकशुदा-सा जीवन बिताने पर मजबूर इस स्त्री का आखिर कसूर क्या है।
Tuesday 21 July, 2009
सजा-यात्रा - पुष्पा देवड़ा की कहानी
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साहित्य पर इतना स्तरीय लेखन और वह बी अद्भुत और सहजता से प्रभावित करने की शैली में मिला तो दिल वाह वाह कर उठा.आदरणीय शरद जी और आदरणीय पुष्पाजी के बारे में कौन नहीं जानता?पुष्पाजी के अनुवाद के बारे में तो जानकारी थी पर आज उनके लेखन से परिचित करा के हम पर उपकार किया है
ReplyDeleteआभार!
प्रकाश पाखी
hey you are good writer
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