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Tuesday, 3 March 2009

टूटती जंजीरें


यूं तो राजस्थान ही क्या पूरे भारत के ही पुरातनपंथी, जातिवादी और सामंती संस्कारों वाले समाजों में आज भी महिलाओं की और खासकर विधवाओं की स्थिति बेहद दयनीय है। अगर सामंती मूल्यों वाली जातियों की बात करें तो क्षत्रिय और ब्राह्मणों में औरतों की हालत आज भी भयावह है, जिसमें कम उम्र में विवाह, शिक्षा पर रोक, विधवा विवाह पर प्रतिबंध, जाति पंचायतों की निर्णायक भूमिका के साथ झूठी आन-बान और शान के नाम पर अपनी ही बेटियों को प्रताड़ित करना इतना आम है कि इसे लेकर आज भी तलवारें तन जाती हैं और स्त्रियों को नारकीय स्थितियों में जीना पड़ता है। राजस्थानी और हिंदी साहित्य में स्त्री के इन हालात को लेकर काफी कुछ लिखा गया है, लेकिन राजस्थान के उर्दू साहित्य में राजस्थानी स्त्री के इस विकट जीवन को, संभवतया पहली बार उर्दू की महत्वपूर्ण कथाकार सरवत खान ने ‘अंधेरा पग’ उपन्यास के रूप में चित्रित किया है। उर्दू साहित्य के इतिहास में साहसी स्त्री कथाकारों की जो परंपरा रशीद जहां से चली आई है, कहना न होगा कि सरवत खान ने उसे समृद्ध करने का अत्यंत सार्थक प्रयास किया है। वैसे उर्दू में गालिब के समकालीन हाली ने पहली बार ‘मुनाजाते बेवा’ अर्थात् ‘विधवा की प्रार्थना’ लिखी थी, क्योंकि क्या हिंदू क्या मुस्लिम, किसी भी भारतीय समाज में विधवा जीवन स्त्री के लिए एक अभिशाप ही रहा है।
सरवत खान ने अपने इस पहले उपन्यास में बीकानेर के ग्रामीण जनजीवन को केंद्र में रखकर राजपुरोहित समुदाय में एक विधवा युवती के अदम्य संघर्ष और उसकी विजय को चित्रित किया है। इस उपन्यास की खास बात यह है कि आज के समूचे स्त्री विमर्ष में से विधवा जीवन जिस प्रकार से गायब है, उसे भी यह केंद्र में रखता है और उन तमाम प्रश्नों पर सोचने के लिए विवश करता है, जिन पर सामंती संस्कारों वाले हमारे प्रदेश में आज भी बहुत गहराई से सोचने की जरूरत है।

एक लड़की है रूपकुंवर, जिसने कस्बे की पहली डाक्टर बनने का ख्वाब देखा था और स्कूली पढाई के बीच ही उसे विवाह के बंधन में बांध दिया गया। विवाह के तुरंत बाद ही वह विधवा हो गई और फिर शुरू हुआ उसकी अंतहीन तकलीफों का एक सिलसिला। अमावस की रात उसे ससुराल से पीहर के लिए ‘अंधेरा पग’ की रस्म के निभाने के लिए चुपचाप रवाना कर दिया जाता है। वह यह सोचकर पीहर आती है कि ससुराल के विधवा जीवन से मुक्ति मिलेगी, लेकिन पारंपरिक समाजों में स्त्री की मुक्ति कहीं नहीं है। इस बात का अहसास रूपकुंवर को पीहर आने पर होता है, जहां उसके लिए एक अंधेरी कोठरी इंतजार कर रही है। जिस कोठरी को वह बचपन से एक रहस्य की तरह देखती आई थी, वह कोठरी उसी की प्रतीक्षा में अपने भीतर सीलन और बदबू भरे बैठी थी। मां, बाप, दादी, चाचा, चाची, घर-परिवार और नौकरानियों के होते हुए भी वह अपने ही घर में पराई और अभिशप्त स्त्री का जीवन जीने के लिए मजबूर होती है।उसकी शहरवासी बुआ राजकुंवर, जिद करके उसे अपने साथ शहर ले जाती है और यह बात फैला दी जाती है कि रूपकुंवर बीमारी का इलाज कराने गई है। नगर में रूपकुंवर पढ़ाई में ऐसी जुट जाती है कि हर बार अव्वल आती है और सचमुच डॉक्टरी की पढ़ाई करने लग जाती है। सब ठीक चल रहा होता है, लेकिन एक दिन गांव का ही एक युवक रूपकुंवर का रहस्य खोल देता है और फिर जाति-समाज-गांव की पंचायत जुट जाती है, एक विधवा को उसका कथित ‘आदर्श जीवन’ जिलाने के लिए। रूपकुंवर अर्श से वापस फर्श पर आ जाती है, डॉक्टर बनने का सपना कहीं गुम हो जाता है। काली अंधियारी कोठरी में किताबों के साथ भी वह क्या करे? इस बीच उसके पिता उसकी हमउम्र नौकरानी के साथ रास रचा लेते हैं और जब वह गर्भवती हो जाती है तो उसे मरवा डालते हैं। रूपकुंवर को पता चलता है तो वह पुलिस में किसी तरह रपट दर्ज करवाती है और पुलिस के आने पर पता चलता है कि बच्चों को जिस सूखी बावड़ी की तरफ जाकर खेलने से हमेशा मना किया जाता था, वहां एक नहीं दो लाशें दफन थीं, एक ताजा और एक दो दशक पुरानी और दोनों ही औरतों की। उसकी मां पुलिस के सामने अपने सारे जेवरों की पोटली लाकर रख देती है और पुलिस वहां से चुपचाप चली जाती है। यहीं रूपकुंवर को अहसास होता है कि अब कोई चारा नहीं और वह अपनी किताबें उठाकर सहेली जैसी नौकरानी के साथ घर से बाहर ‘उजियारा पग’ बढ़ाती दूर निकल जाती है और घर वालों में से कोई उसे नहीं रोकता। एक था ससुराल जहां से उसे ‘अंधेरा पग’ लिए निकलना पड़ा और अब उसके सामने थी पूरी दुनिया, जिसमें उजाले उसकी राह देख रहे थे।

उर्दू साहित्य में सरवत खान के इस उपन्यास के महत्व को स्वीकारते हुए ही उर्दू के प्रसिद्ध आलोचक शकील सिद्दीकी ने खुद इसका हिंदी में अनुवाद भी किया और एक लंबी भूमिका भी लिखी है। उनके अनुसार सरवत खान की इस कृति ने ‘उर्दू उपन्यास के किसी हद तक निराशा से भरे परिदृश्य में एक हलचल पैदा की है, आस बंधाई है और उर्दू उपन्यास के सामाजिक आधार को नया विस्तार दिया है। उर्दू के वरिष्ठ साहित्यकार वारिस अलवी ने इस उपन्यास के बारे में लिखा है कि सरवत खान ने एक पुराने विषय को ऐसा रूप दिया है जिसमें विधवा का दुःख विद्रोह में बदल जाता है। राजस्थान के उर्दू साहित्य में इस उपन्यास को इसलिए याद किया जाएगा कि इसमें राजस्थानी भाषा और संस्कृति की गहरी मिठास भी पूरी तरह मौजूद है, जो उर्दू-हिंदी की गंगा-जमनी तहजीब की शानदार विरासत भी है।